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G7 Summit की कहानी क्या है, जिसमें हिस्सा लेने PM मोदी इटली जा रहे हैं?

G7 है क्या और ये दुनिया के लिए अहम कैसे है?

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G7 Summit history
G7 में शामिल देशों के राष्ट्रीय ध्वज. (फोटो: इंडिया टुडे)
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अभिषेक
12 जून 2024 (Updated: 12 जून 2024, 21:04 IST)
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एशिया से जापान.
यूरोप से फ़्रांस, इटली, जर्मनी और यूके.
नॉर्थ अमेरिका से अमेरिका और कनाडा.

टोटल सात देश.

कुल आबादी - दुनिया का 10 प्रतिशत.
कुल जीडीपी - दुनिया का 40 प्रतिशत.

यूएन सिक्योरिटी काउंसिल में परमानेंट मेंबर्स- तीन. अमेरिका, फ़्रांस और यूके.

अगर इन आंकड़ों और फ़ैक्ट्स को एक सूत्र में पिरोया जाए तो एक अंतरराष्ट्रीय संगठन का नाम निकलता है. G7. ये दुनिया के सात सबसे ताक़तवर और औद्योगिक नज़रिए से सबसे समृद्ध देशों का गुट है. ये देश प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीके से समूची दुनिया का चाल-चरित्र तय करते हैं. G7 नेटो, EU या UN की तरह कोई आधिकारिक संगठन नहीं है. इसका अपना हेडक़्वार्टर या कोई तय नियमावली भी नहीं है. इसके बावजूद G7 ने दुनिया की कई बड़ी समस्याओं को सुलझाने में मदद की है.

आज हम G7 की चर्चा क्यों कर रहे हैं? दरअसल, 13 जून से इटली के Apulia में G7 की सालाना बैठक शुरू हो रही है. 13 जून को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी 50वीं G7 बैठक में हिस्सा लेने इटली रवाना हो रहे हैं. भारत G7 का सदस्य नहीं है. इसके बावजूद पीएम मोदी को शामिल होने का न्यौता मिला. दरअसल, भारत को Outreach Country के तौर पर इस बैठक में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया गया है. ऐसे में जानते हैं कि G7 है क्या और ये दुनिया के लिए कितना अहम है? G7 में इस बार किन देशों को Outreach Country के तौर पर न्योता मिला है?

G7 है क्या?

पहले बैकग्राउंड जान लेते हैं. साल 1973. अमेरिका की राजनीति में भूचाल की आहट थी. वॉटरगेट स्कैंडल का भूत राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को परेशान कर रहा था. वियतनाम वॉर के ख़िलाफ़ प्रोटेस्ट निर्णायक मोड़ पर पहुंच चुका था. मिडिल-ईस्ट के देशों में भी सत्ता का रुख बदल रहा था. इसका असर तेल के आयात पर पड़ने वाला था. चूंकि अमेरिका, सोवियत संघ के ख़िलाफ़ कोल्ड वॉर को लीड कर रहा था. इसलिए, इस हलचल का असर अमेरिका के सहयोगियों पर भी पड़ रहा था.

साझा समस्या के लिए साझा समाधान की ज़रूरत होती है. इसी लाइन पर बात करने के लिए 25 मार्च 1973 को अमेरिका, यूके, फ़्रांस और वेस्ट जर्मनी के वित्तमंत्री वॉशिंगटन में इकट्ठा हुए. वेस्ट जर्मनी क्यों, पूरा जर्मनी क्यों नहीं? क्योंकि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद विजेता देशों ने जर्मनी को चार हिस्सों में बांटा. जो हिस्सा अमेरिका, यूके और फ़्रांस को मिला, उसे जोड़कर वेस्ट जर्मनी बनाया गया. सोवियत संघ वाला हिस्सा ईस्ट जर्मनी कहलाया. ईस्ट जर्मनी में कम्युनिस्ट सरकार चलती थी. उनका अमेरिका से झगड़ा चल रहा था. इसी वजह से वॉशिंगटन वाली मीटिंग में सिर्फ़ वेस्ट जर्मनी को बुलावा भेजा गया था.

मार्च 1973 में अमेरिका के वित्तमंत्री थे, जॉर्ज शुल्ज़. उन्होंने बाकी वित्तमंत्रियों के साथ एक इन्फ़ॉर्मल मीटिंग की पेशकश की. इरादा ये था कि औपचारिकता की बजाय मुद्दों पर खुलकर बात की जाए. मीटिंग के लिए एक शांत और सुरक्षित जगह की ज़रूरत थी. तब राष्ट्रपति निक्सन सामने आए. उन्होंने कहा कि वाइट हाउस से बेहतर क्या हो सकता है. निक्सन की पहल पर चारों वित्तमंत्री वाइट हाउस की लाइब्रेरी में साथ बैठे. इस गुट को G4 या लाइब्रेरी ग्रुप का नाम दिया गया.

इस बैठक के कुछ महीने बाद जापान को भी हिस्सेदार बना दिया गया. इस तरह G4 का नाम बदलकर G5 हो गया.

G7 की बैठक. फाइल फोटो

फिर आया अक्टूबर 1973. महीने की छठी तारीख़ को सीरिया और ईजिप्ट ने मिलकर इज़रायल पर हमला कर दिया. लड़ाई के बीच में अमेरिका ने इज़रायल को लगभग 20 हज़ार करोड़ रुपये की सैन्य सहायता देने की घोषणा कर दी. इससे अरब देश नाराज़ हो गए. उन्होंने इज़रायल से दोस्ताना संबंध रखने वाले देशों पर एम्बार्गो लगा दिया. अरब देशों ने तेल की सप्लाई रोक दी. इसक चलते अमेरिका, यूरोप और जापान जैसे देशों में हाहाकार मच गया. वहां ईंधन की किल्लत होने लगी थी. अमेरिका में गैसोलिन के दाम डेढ़ गुणा तक हो गए थे. इसका प्रभाव बाकी सेवाओं पर भी पड़ रहा था.

अरब देशों का एम्बार्गो मार्च 1974 तक चला. अमेरिका के तत्कालीन विदेशमंत्री हेनरी किसिंजर ने अरब-इज़रायल का विवाद सुलझाने में मदद की. मई 1974 में युद्धविराम को लेकर समझौता हो गया. ये विवाद तो कुछ समय के लिए सुलझ गया था, लेकिन पश्चिमी देशों की उलझन खत्म नहीं हो रही थी. उन्हें डर था कि अरब देश फिर से कोई बहाना बनाकर तेल और गैस की सप्लाई रोक सकते हैं. उन्हें इसका रास्ता तलाशना था.

जिस समय G5 देश बाहरी आशंकाओं से जूझ रहे थे, उसी समय उनकी अंदरुनी राजनीति में अलग ही झमेला चल रहा था. 1974 में अमेरिका में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन, वेस्ट जर्मनी में चांसलर विली ब्रैंट और जापान में प्रधानमंत्री काकुई टनाका, तीनों को स्कैंडल के चलते इस्तीफ़ा देना पड़ा था. यूके में हुए चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था. जबकि फ़्रांस में राष्ट्रपति जॉर्ज पोपिडू की अचानक मौत हो गई थी. यानी, पांचों देशों में कुर्सी पर नया निज़ाम बैठा था. भले ही निज़ाम नया था, लेकिन पुरानी समस्याएं बरकरार थीं.

नवंबर 1975 में जर्मनी और फ़्रांस ने मिलकर G5 की बैठक बुलाई. फ़्रांस का पड़ोसी होने के नाते इसमें इटली को भी आमंत्रित किया गया. इस तरह ग्रुप में छह देश हो गए. फिर इसे G6 कहा जाने लगा. G6 की पहली बैठक में सदस्य देशों की सरकार के मुखिया ने हिस्सा लिया था. इसलिए, G6 इन देशों का सबसे अहम गुट बन गया. 1976 में कनाडा को शामिल करने के बाद ये गुट G7 बन गया. कालांतर में G7 की बैठकों में यूरोपियन कमीशन और यूरोपियन काउंसिल को भी बुलाया जाने लगा. हालांकि, उन्हें कभी आधिकारिक तौर पर सदस्य का दर्ज़ा नहीं मिला.

1990 के दशक में G7 का स्वरूप बदलकर G8 हो गया. दरअसल, 1998 के साल में रूस को आधिकारिक तौर पर इस गुट का हिस्सा बनाया गया था. G7 के कई सदस्य देश अपने साथ रूस को बिठाने के पक्ष में नहीं थे. उनका मानना था कि रूस की अर्थव्यवस्था उनके आस-पास भी मौजूद नहीं थी. रूस में उदार लोकतंत्र नहीं था. इसके अलावा, रूस सोवियत दौर के प्रभाव से बाहर निकलने की कोशिश में जुटा था. इन कमियों के बावजूद रूस को गुट में शामिल किया गया. दरअसल, अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को लगा कि इस फ़ैसले से रूस पश्चिमी देशों के करीबा आ जाएगा. नेटो रूस की सीमा से लगे देशों पर भी डोरे डाल रहा था. अगर रूस उनके पाले में आता तो नेटो को अपना दायरा बढ़ाने में कोई विरोध नहीं झेलना पड़ता. रूस के पहले राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन पश्चिम के करीब आ भी रहे थे. लेकिन कुछ ही समय बाद उनकी सत्ता चली गई.

येल्तसिन के बाद व्लादिमीर पुतिन सत्ता में आए. उनके आते ही रूस की सत्ता का चरित्र बदलने लगा. पुतिन विदेश-नीति को लेकर आक्रामक थे. उनका लोकतंत्र में कतई भरोसा नहीं था. वो बाहरी लड़ाईयों में हिंसक दखल देने के लिए तैयार थे. वो रूस का गौरव लौटाने की बात कर रहे थे. इसी क्रम में मार्च 2014 में उन्होंने क्रीमिया पर हमले का आदेश दिया. रूस ने बड़ी आसानी से क्रीमिया पर क़ब्ज़ा कर लिया. G8 में शामिल बाकी देशों ने इस क़ब्ज़े की निंदा की. उन्होंने रूस से बाहर निकलने के लिए कहा. लेकिन पुतिन इसके लिए तैयार नहीं हुए. अंतत:, सदस्य देशों ने मिलकर रूस को G8 से बाहर का रास्ता दिखा दिया. रूस के निकलते ही G8 घटकर फिर से G7 बन गया. 2017 में रू

G7 समिट 2023 में सदस्य देशों के नेता. फाइल फोटो

स ने स्थायी तौर पर इस गुट की सदस्यता छोड़ दी. ये तो हुआ G7 का इतिहास. अब इसकी अहमियत समझ लेते हैं.

G7 इतना अहम क्यों?

- G7 एक ग्लोबल पॉलिसी फ़ोरम है. इसमें शामिल सातों देश मिलकर पूरी दुनिया को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर चर्चा करते हैं.
- अर्थव्यवस्था की नज़र से दुनिया के 9 सबसे बड़े देशों में से सात G7 में हैं.
- प्रति व्यक्ति आय के मामले में दुनिया के 15 टॉप के देशों में से सात G7 के सदस्य हैं.
- G7 देश दुनिया के 10 सबसे बड़े निर्यातकों में शामिल हैं.
- इसके अलावा, G7 के सदस्य देश यूनाइटेड नेशंस को डोनेशन देने वाले टॉप-10 देशों की लिस्ट में भी हैं.

जैसा कि हमने शुरुआत में बताया, G7 कोई औपचारिक संगठन नहीं है. इसमें जिन मुद्दों पर सहमति बनती है, सदस्य देश उन्हें मानने के लिए बाध्य नहीं होते. ये उनके देश के कानून और उनकी निजी पसंद पर निर्भर करता है. G7 की अध्यक्षता हर साल रोटेट होती रहती है. जिस देश के पास अध्यक्ष की कुर्सी होती है, उसके पास एजेंडा तय करने का अधिकार होता है. सदस्य देश अंत में बैठक का पूरा सार पेश करते हैं. इसे लिखने की ज़िम्मेदारी भी मेजबान देश के पास होती है.

G7 ने अतीत में चेर्नोबिल न्यूक्लियर डिजास्टर, एचआईवी एड्स और मलेरिया के लिए फ़ंड जुटाने, क्लाइमेट चेंज़ से निपटने और लैंगिक समानता हासिल करने में मदद की पहल की है. 

इस बार किन मुद्दों पर चर्चा?

इस बार के सम्मेलन में भारत के अलावा यूक्रेन, ब्राजील, अर्जेंटीना, तुर्किए, संयुक्त अरब अमीरात, कीनिया, अल्जीरिया, ट्यूनीजिया और मॉरीतानिया के राष्ट्राध्यक्षों को भी न्यौता दिया गया है. Outreach देशों के साथ 14 जून को बैठक होनी है. न्यूज एजेंसी PTI की रिपोर्ट के मुताबिक, प्रधानमंत्री 13 जून को इटली रवाना होंगे और 14 जून की देर शाम तक वापस आ जाएंगे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ एक उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल भी होगा, जिसमें विदेश मंत्री एस जयशंकर, विदेश सचिव विनय क्वात्रा और NSA अजीत डोभाल शामिल हो सकते हैं. इस सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री कई द्विपक्षीय बैठकें भी करेंगे.

G7 की 50 वीं समिट में 13 जून को जलवायु परिवर्तन, मध्य-पूर्व और इज़रायल-गाज़ा के बीच हो रहे संघर्ष पर चर्चा होगी. उसी दिन यूक्रेन के राष्ट्रपति भी यूक्रेन-रूस युद्ध से संबंधित दो सेशंस में भाग लेंगे. वहीं, 14 जून को AI (Artificial Intelligence), माइग्रेशन और ऊर्जा पर बात होगी. इसके बाद 15 जून को इटली एक प्रेस-वार्ता करेगा.

वीडियो: G7 के पहले आउटरीच सेशन में PM मोदी ने दूसरे देश के सदस्यों से कोरोना पर क्या कहा?

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