भारत की अध्यक्षता वाले G20 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग क्यों शामिल नहीं हो रहे?
बाइडन की विज़िट जी20 देशों के साथ-साथ भारत के लिए कितनी जरूरी है?
दिल्ली का एक बड़ा हिस्सा जनता के लिए बंद है. क्योंकि यहां पर बहुत बड़े-बड़े नेता आ रहे हैं. दुनिया भर के. ऐसे नेता जिनका हमने आज तक फोटो वीडियो देखा है, ऐसे देशों से आ रहे हैं, जो हममें से कई पिक्चर-मूवी से ही जानते हैं. देश की राजधानी में G20 समिट शुरु हो चुका है. अमरीका के राष्ट्रपति जो बाइडन भी इंडिया आ चुके हैं. और इन बहानों के साथ हम आपसे जी20 पर बात करेंगे. अमरीकी राष्ट्रपति का भारत आना कितना जरूरी है? और आर्थिक नजरिए से जी20 को देखें तो भविष्य का दरवाजा कहां लेकर जाता है? आज इसी पर बात करेंगे.
सबसे पहले G20 के बारे में सामान्य ज्ञान. ये 19 देशों और यूरोपीय संघ का एक समूह है. देश कौन कौन से?
भारत
ऑस्ट्रेलिया
कनाडा
सऊदी अरब
अमरीका
रूस
साउथ अफ्रीका
तुर्की
अर्जेन्टीना
ब्राजील
मेक्सिको
फ़्रांस
जर्मनी
इटली
यूनाइटेड किंगडम
चीन
इंडोनेशिया
जापान
साउथ कोरिया
और इनके अलावा यूरोपीय संघ. इस संघ में हैं कुल 27 देश. और इन 27 देशों में से कुछ देश यूरोप से अलग भी g20 का हिस्सा हैं.
हर साल इस ग्रुप की मीटिंग होती है. मीटिंग के लिए किसी एक देश को चुना जाता है. उसी देश में मीटिंग होती है, जहां मीटिंग होती है, वही देश मीटिंग का एजेंडा तय करता है और पूरा कार्यक्रम सेट करता है. लेकिन दो लोगों के साथ मिलकर, जिसने पिछले साल मेजबानी की और जो अगले साल मेज़बानी करेगा. लीडरों को बुलाता है. एक और बात समझ लीजिए कि जिस देश में मीटिंग होती है, वो देश अपने कुछ मित्र राष्ट्रों को भी बुला सकता है. चूंकि इस बार मेजबानी भारत के पास है, तो भारत ने भी अपने दोस्तों को बुलावा भेजा है -
बांग्लादेश, ईजिप्ट, मॉरिशस, नीदरलैंड्स, नाइजीरिया, ओमान, सिंगापुर, स्पेन और यूएई.
तो इसी वजह से आपको बांग्लादेश की पीएम शेख हसीना और नाइजीरिया के प्रेसीडेंट बोला टीनुबु के भी आने की खबरें सुनाई दीं. ये देश G20 का हिस्सा नहीं हैं, फिर भी इन्हें बुलाया गया. कारण हमने बता दिया.
अब G20 के सभी देशों के प्रतिनिधि आज और कल में इंडिया आ रहे हैं. लेकिन चीन और रूस ऐसे देश हैं, जिसके राष्ट्राध्यक्ष नहीं आए. पुतिन ने भारतीय पीएम नरेंद्र मोदी से बातचीत की और अपने आने में असमर्थता ज़ाहिर की. हालांकि पुतिन ने ये भी कहा कि वो नहीं सही लेकिन रूस का प्रतिनिधि इस समिट में हिस्सा जरूर लेगा. ये प्रतिनिधि हैं रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव. फिर बात चली कि पुतिन वीडियो कॉल से संबोधित करेंगे, लेकिन इस बात पर भी रूस ने मना कर दिया. बात हुई कि क्या रूस यूक्रेन युद्ध की वजह से पुतिन वैश्विक आलोचना नहीं झेलना चाह रहे? इसलिए खुद न आकर अपने मंत्री को भेज दिया है? और न ही खुद संबोधित कर रहे हैं?
इसके बाद हम चीन की बात करते हैं. फिर हमारा फोकस अमरीका और तमाम आर्थिक कारणों पर होगा. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को भी अनिवार्यतः इस समिट में हिस्सा लेना था. लेकिन शी के शामिल होने को लेकर दोटूक जवाब आया कि वो भारत नहीं आ पाएंगे. क्या शी जी20 देशों में शामिल होते हुए भी हिस्सा नहीं लेते हैं? ऐसा नहीं है. शी साल 2013 में राष्ट्रपति की गद्दी पर बैठे. तब से लेकर अब तक उन्होंने हरेक जी20 सम्मेलन में हिस्सा लिया, बस एक जी20 को छोड़कर जिसे रोम में होस्ट किया गया था. लेकिन उस समय कारण भी साफ हुए थे. कारण ये कि चीन में कोरोना महामारी फिर से उफान पर थी, लिहाजा उन्होंने मना कर दिया था. लेकिन इस बार कारण क्या था? घटनाक्रम देखिए :
1 - 24 जुलाई को ब्रिक्स के तमाम सुरक्षा सलाहकारों की जोहानसबर्ग में एक मीटिंग हुई थी. इस मीटिंग में भारत के एनएसए अजीत डोभाल भी शामिल थे. वहां पर चीन के प्रतिनिधि यांग ली से मुलाकात हुई.
2 - 7 अगस्त. विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी ये बात कही कि दोनों देशों के बीच सीमा विवाद पर बात चल रही थी, जो कुछ हद तक सफल रही है. 6 तनावग्रस्त इलाकों में से 4 पर प्रोग्रेस है. लदाख के डेपसांग और डेमचोक पर भी प्रोग्रेस के आसार जताए
3 - 13-14 अगस्त. लदाख में भारत और चीन की कमांडर स्तर की बैठक हुई. मामले को तेजी से सुलझाने पर सहमति बनी. सैन्य और कूटनीतिक दोनों माध्यमों से बातचीत पर भी सहमति बनी.
4 - 23 अगस्त. ब्रिक्स सम्मेलन में पीएम मोदी और शी जिनपिंग की मीटिंग हुई. उम्मीद और पुख्ता हुई.
लेकिन फिर हुआ विवाद. विवाद इस बात पर कि मीटिंग की पहल किसने की थी? इंडिया टुडे ग्रुप के एडिटोरीअल डायरेक्टर राज चेंगप्पा अपने आलेख में लिखते हैं कि भारत ने कहा चीन ने मीटिंग की पहल की. चीन ने मना कर दिया.
फिर चीन ने अगस्त के आखिरी हफ्ते में एक नक्शा जारी कर दिया. नक्शे में अरुणाचल प्रदेश का हिस्सा कब्ज़ाया गया था, भारत ने इसे बेतुका करार दिया.
इसके बाद चीन की जी20 में मनाही भी साफ सामने आ गई. इस मामले पर जानकार कहते हैं कि चीन का जी20 में शामिल होने से मना करना ये साफ करता है कि वो भारत की होस्टिंग में शामिल नहीं होना चाहता, और साफ ये भी कि उसे इस खाई के बने रहने में ही फायदा दिखाई देगा. जबकि ये बात साफ है कि दोनों देशों की समझदारी और साझेदारी के बाद ही बात सुलझेगी. और सवाल ये भी है कि दो देशों के मुखियाओं की अनुपस्थिति से जी20 के आयोजन का मज़ा फीका पड़ जाएगा?
अब चलते हैं अमरीका पर लेकर. बाइडन आ रहे हैं. जी20 में जिस तरह के पॉवर शो की उम्मीद थी, वो नहीं होगा क्योंकि शी जिनपिंग नहीं होंगे, पुतिन नहीं होंगे, बस होंगे तो बाइडन. बाइडन की विज़िट जी20 देशों के साथ-साथ भारत के लिए कितनी जरूरी है? इसको समझते हैं.
अमरीका के साथ इंडिया के कई सारे डिफेंस समझौते इस समय पाइपलाइन में हैं. ताजा उदाहरण ड्रोन का है. हाल ही में जब पीएम मोदी अमरीका गए थे, तो वहां पर हंटर किलर ड्रोन अक्वाइअर करने की बात हुई थी. 7 सितंबर को इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर के मुताबिक भारत सरकार इस ड्रोन को प्राप्त करने के लिए लेटर ऑफ रीक्वेस्ट भी भेजने वाली है, जिसके बाद इस डील की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी.
चीन ने हिन्द महासागर में भी अपनी गतिविधि में विस्तार किया है, साथ ही पूरे साउथ चाइना सी पर भी दावा ठोंका है. ऐसे में QUAD देशों का समूह - जिसमें भारत, जापान, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया हैं - इस प्रभुत्व को एक साझा प्रयास से कम करने की कोशिश करेगा, ऐसे भी कयास लगाए जा रहे हैं.
राज चेंगप्पा ये भी बताते हैं कि चीन ने बीते कुछ सालों में अपना प्रभाव एशिया के साथ-साथ अफ्रीका और लैटिन अमरीका के देशों में बढ़ा लिया है. अपने रोड एंड बेल्ट प्रोग्राम के तहत पड़ोसी और मित्र देशों में एक लंबा निवेश किया है. दूसरी ओर पैसे का काम भी किया है. ब्रिक्स के तत्वावधान में न्यू डेवलपमेंट बैंक (NDB) और एशिया इंफ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट बैंक (AIIB) बना दिया है. इन संस्थाओं की मदद से चीन International Monetory Fund (IMF) और वर्ल्ड बैंक जैसी संस्थाओं के महत्त्व को कम करने की कोशिश कर रहा है, ये भी आरोप लगाए जा रहे हैं.
आप कहेंगे कि अमरीका की बात करते-करते फिर से चीन की बात करने लगे, लेकिन आपको समझना होगा कि चीन और अमरीका के झगड़े में भारत को कैसे फायदा हो रहा है. अमरीका दरअसल चीन की ये कारस्तानियाँ देख रहा है, और निवेश के लिए अपने पांव पसार रहा है. जैसे चीन से सीधे संबंध तोड़कर बड़ा नुकसान झेलने के बजाय अमरीका विदेशी कंपनियों को अपने तटों पर प्रोजेक्ट और उत्पादन ईकाई लगाने के लिए बहुत सारा पैसा प्रोत्साहन के रूप में दे रहा है. साथ ही अमरीका की कंपनियां "फ्रेंडशोरिंग" और "चाइना प्लस वन" की रणनीति पर काम कर रही हैं. इनके तहत वो अपनी उत्पादन इकाइयों को चीन से निकालकर अपने मित्र देशों में ले जा रही हैं, जिसमें भारत और वियतनाम भी शामिल हैं.
हमने आपको ब्रिक्स वाले नए बैंक के बारे में बताया, तो इसको काउंटर करने के लिए मल्टीलैटरल डेवलपमेंट बैंकों के नियमों को और सरल करने पर विचार किया जा रहा है. इनमें वर्ल्ड बैंक और IMF भी शामिल हैं. नियमों के आसान होने से विकासशील देशों को कम फजीहत के साथ ज्यादा कर्ज विकास कार्यों के लिए मिल सकेगा.
अब चलते चलते बात अर्थव्यवस्था की. कल परसों दो दिन होने वाली मीटिंग में नेता लोग अर्थव्यवस्था को लेकर कुछ बिंदुओं पर बात करेंगे. उनमें से प्रमुख बिंदुओं का आपके लिए उल्लेख कर देते हैं -
क्रिप्टोकरेंसी - बैन लगाने के बजाय भारत का पुश होगा कि क्रिप्टोकरेंसी को रेगुलेट किया जाए
मल्टीलैटरल डेवलपमेंट बैंकों के नियमों को और ईज़ी बनाया जाए
कर्ज को लेकर दुनिया भर में एक ओपन व्यवस्था लागू करना -
बता दें कि मल्टीलैटरल डेवलपमेंट बैंकों और कर्ज वाली बात को लेकर चीन ने अपनी नाराजगी पहले ही ज़ाहिर की है. क्योंकि उससे चीन ने जो लोन बांटकर अपना प्रभुत्व स्थापित किया है, वो नए बदलावों के बाद कम होगा, ऐसी संभावना जताई जा रही है.
मतलब पूरी लड़ाई पॉवर गेम की है. कोई कितना पॉवरफुल है, कितना मजबूत है, और दूसरे के महत्त्व को कैसे कम किया जाए, कितने कूटनीतिक तरीकों से बात इसकी भी है. विकासशील देशों की भी अपनी जरूरतें हैं, जिन पर इस समिट में विशेष ध्यान दिया जाएगा. ऐसी आशाएं लगाई जा रही है, लेकिन वैश्विक कूटनीति की सचाई ये भी है कि विश्वशक्तियां दूसरे देशों के आधार पर अपना पॉवरगेम खेलती हैं.