1952 में लखनऊ से पहला चुनाव हार चुके अटल बिहारी वाजपेयी को जनसंघ ने 1957 में फिरसे उम्मीदवार बनाया. लेकिन इस बार जनसंघ सेफ गेम खेल रहा था. लिहाजा अटल बिहारीवाजपेयी को एक नहीं, बल्कि तीन-तीन सीटों से चुनाव लड़वाया गया था. ये सीटें थींलखनऊ, मथुरा और बलरामपुर. लखनऊ में अटल बिहारी वाजपेयी को 57034 वोट मिले थे और वोदूसरे नंबर पर रहे थे. कांग्रेस के पुलिन बिहारी बनर्जी ने लखनऊ में वाजपेयी को मातदी थी. मथुरा में वाजपेयी को और भी बुरी हार का सामना करना पड़ा था. वहां उनकीज़मानत तक जब्त हो गई थी. मथुरा में निर्दलीय उम्मीदवार रहे राजा महेंद्र प्रताप नेवाजपेयी को चौथे नंबर पर धकेल दिया था. उस चुनाव में वाजपेयी को मात्र 23620 वोटमिले थे. लेकिन बलरामपुर लोकसभा सीट ने वाजपेयी को लोकसभा में पहुंचा दिया.बलरामपुर में वाजपेयी ने कांग्रेस के हैदर हुसैन को मात दी थी. उस चुनाव मेंवाजपेयी को 1,18,380 वोट मिले थे, जबकि हैदर हुसैन को 1,08,568 वोट मिले थे.मथुरा में राजा महेंद्र प्रताप की वजह से वाजपेयी की जमानत तक जब्त हो गई थी.जिस 1957 के चुनाव में वाजपेयी को 9812 वोटों से जीत मिली थी, वो चुनाव वाजपेयी केलिए कभी आसान नहीं था. पार्टी के संस्थापक रहे श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मौत के बादजनसंघ के पास कोई अच्छा वक्ता और नेतृत्व कर्ता नहीं था, जो संसद में पार्टी की बातरख सके. वाजपेयी 1952 का चुनाव हार चुके थे, लेकिन इसके बाद भी पंडित दीन दयालउपाध्याय चाहते थे कि वाजपेयी संसद पहुंचे. वाजपेयी को संसद भेजने के लिए मौका 1957का लोकसभा चुनाव था. वाजपेयी का संसद पहुंचना सुनिश्चित करने के लिए पंडित दीन दयालउपाध्याय ने वाजपेयी को लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से चुनाव लड़ने के लिए भेज दिया.लखनऊ और मथुरा में हारने वाले वाजपेयी के लिए बलरामपुर का चुनाव इतना आसान नहीं था.बलरामपुर में करपात्री महाराज (बाएं) के समर्थन के बाद वाजपेयी चुनाव जीत गए थे.बलरामपुर 1957 में पहली बार लोकसभा के तौर पर अस्तित्व में आया था. ये उत्तर प्रदेशके गोंडा जिले के तेरारी इलाके की लोकसभा थी, जो अवध स्टेट के तालुकदारी के तहत आतीथी. पिछले लोकसभा चुनाव में तीन सीटें जीतने वाली ऑल इंडिया राम राज्य परिषद कीस्थापना भी इसी बलरामपुर में ही हुई थी. दशनामी साधु रहे करपात्री महाराज नेबलरामपुर के राजा के साथ मिलकर 1948 में इस पार्टी का गठन किया था. बलरामपुर मेंहिंदुओं की अच्छी खासी आबादी थी और उस आबादी पर करपात्री महाराज का खासा प्रभाव था.1957 में जब अटल बिहारी वाजपेयी चुनावी मैदान में उतरे, तो करपात्री महाराज ने अटलबिहारी वाजपेयी का समर्थन कर दिया. अटल बिहारी वाजपेयी बलरामपुर के लोगों के लिएनए थे, बाहरी भी थे. लेकिन उनके सामने चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार थे हैदरहुसैन. जनसंघ और करपात्री महाराज ने इस पूरे चुनाव को हिंदू बनाम मुस्लिम मेंतब्दील कर दिया और फिर वाजपेयी करीब 9 हजार वोटों से चुनाव जीत गए.किंशुक नाग की लिखी किताब Atal Bihari Vajpayee, A Man for All Seasons के मुताबिकबाद के दिनों में अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि वो ऐसा वक्त था, जब लोग जनसंघ केटिकट पर चुनाव लड़ना नहीं चाहते थे. उस वक्त अधिकांश उम्मीदवारों की जमानत तक जब्तहो गई थी. 1957 में जब अटल बिहारी वाजपेयी चुनाव जीते थे, तो उनकी उम्र महज 33 सालकी थी और पार्टी को कुल चार सीटें मिली थीं. इसके बाद वाजपेयी को पार्टी का नेताचुना गया था. वहीं आडवाणी ने इस चुनाव के बारे में कहा था कि पंडित दीनदयालउपाध्याय हर हाल में चाहते थे कि वाजपेयी लोकसभा पहुंचें और इसी वजह से उन्होंनेवाजपेयी को तीन सीटों से चुनाव लड़वाया था.जब दूसरी बार चुनाव हार गए वाजपेयीसुभद्रा जोशी ने 1962 के चुनाव में वाजपेयी को मात दी थी.1962 में जब लोकसभा के चुनाव हुए तो वाजपेयी एक बार फिर से बलरामपुर लोकसभा केजनसंघ के टिकट पर चुनावी मैदान में उतरे. पिछला चुनाव वाजपेयी हिंदू बनाम मुस्लिमहोने के बाद मुश्किल से जीते थे. इस चुनाव में कांग्रेस ने भी अपने पिछले मुस्लिमउम्मीदवार की जगह पर एक ब्राह्मण, महिला और हिंदू उम्मीदवार सुभद्रा जोशी को चुनावीमैदान में उतार दिया. सुभद्रा जोशी अविभाजित पंजाब की रहने वाली थीं और बंटवारे केबाद वो हिंदुस्तान चली आई थीं. अंबाला और करनाल से लगातार दो बार सांसद रहींसुभद्रा जोशी दिल्ली रहने चली आई थीं. लेकिन पंडित जवाहर लाल नेहरू ने सुभद्रा जोशीको वाजपेयी के खिलाफ बलरामपुर से चुनाव लड़ने के लिए कहा. सुभद्रा चुनाव लड़ने केलिए राजी हो गईं.बलराज साहनी ने वाजपेयी के खिलाफ चुनाव प्रचार किया और फिर वाजपेयी चुनाव हार गए.इसी चुनाव के लिए जवाहर लाल नेहरू ने खुद उस वक्त दो बीघा जमीन सिनेमा से देश मेंअपनी पहचान बना चुके अभिनेता बलराज साहनी से कांग्रेस के लिए चुनाव प्रचार करने कोकहा. उस वक्त को याद करते हुए कवि और राज्यसभा सांसद रहे बेकल उत्साही ने एक अखबारको दिए इंटरव्यू में कहा था कि उस वक्त बलराज साहनी दो दिन के लिए बलरामपुर में आएथे. वो दो दिनों तक बेकल उत्साही के घर में रुके थे. चुनाव प्रचार के दौरान बलराजसाहनी ने भारी भीड़ इकट्ठा की और फिर नतीजा आया तो राजनीति में नई आईं सुभद्रा जोशीने स्थापित राजनेता और सांसद वाजपेयी को चुनाव में हरा दिया था. इस चुनाव मेंसुभद्रा जोशी ने वाजपेयी को 2052 वोटों से मात दी थी.बेकल उत्साही ने एक अखबार को दिए इंटरव्यू में कहा था कि सुभद्रा जोशी के लिए चुनावप्रचार के दौरान बलराज साहनी दो दिनों तक बलरामपुर में थे और उनके घर में रुके थे.बेकल उत्साही ने अखबार को दिए इंटरव्यू में दावा किया था कि वो पहला मौका था, जबउत्तरी भारत में सिनेमा का कोई स्टार चुनाव प्रचार के लिए आया था और उसका करिश्माकाम कर गया था. हालांकि वाजपेयी के प्रति नेहरू का सॉफ्ट कॉर्नर कितना था, इसे इसबात से भी समझा जा सकता है कि सुभद्रा जोशी को चुनाव लड़ने के लिए नेहरू ने भेजाथा, लेकिन खुद नेहरू सुभद्रा जोशी के लिए चुनाव प्रचार करने नहीं आए थे. खुदसुभद्रा जोशी भी चाहती थीं कि नेहरू उनके लिए चुनाव प्रचार करें, लेकिन नेहरू नेप्रचार करने से साफ इन्कार कर दिया था. बाद के दिनों में पत्रकार विश्वेश्वर भट्टने अपने एक आर्टिकल में लिखा था कि जब नेहरू को अटल के खिलाफ चुनाव प्रचार करने केलिए कहा गया तो नेहरू ने प्रचार करने से साफ मना करते हुए कहा-नेहरू ने वाजपेयी के खिलाफ चुनाव प्रचार करने से मना कर दिया था.'मैं ये नहीं कर सकता.मुझ पर प्रचार के लिए दबाव न डाला जाए. उसे विदेशी मामलों कीअच्छी समझ है.' हालांकि पंडित दीनदयाल उपाध्याय अटल बिहारी वाजपेयी को किसी भी कीमतपर संसद में बनाए रखना चाहते थे. इसी वजह से अटल बिहारी को राज्यसभा के जरिए भेजागया. 3 अप्रैल 1962 को वाजपेयी राज्यसभा में पहुंचे. यहां उनका कार्यकाल 2 अप्रैल1968 तक था. लेकिन 1967 में जब आम चुनाव हुए तो वाजपेयी एक बार फिर बलरामपुर सीट सेचुनावी मैदान में उतरे. इस बार भी उनके सामने कांग्रेस से सुभद्रा जोशी ही थीं,लेकिन इस बार कांग्रेस के पास नेहरू नहीं थे. 1962 में चीन के हाथों हारने के बाद1964 में नेहरू की मौत हो गई थी. और बिना नेहरू के 1967 में सुभद्रा जोशी कोवाजपेयी ने बड़े अंतर से हराया था. वाजपेयी को 50 फीसदी से भी ज्यादा वोट मिले थेऔर उन्होंने सुभद्रा जोशी को 32 हजार से भी ज्यादा वोटों से हरा दिया था.1971 में वाजपेयी और जोशी दोनों ने खींचे बलरामपुर से हाथ1971 में वाजपेयी ने बलरामपुर से चुनाव नहीं लड़ा.1971 में जब आम चुनाव हुए तो अटल बिहारी वाजपेयी और सुभद्रा जोशी दोनों ही इस सीटसे चुनाव नहीं लड़े. और इसी चुनाव के बाद से वाजपेयी कभी इस सीट से चुनाव नहींलड़े. वाजपेयी की जगह पर इस सीट से उतरे प्रताप नारायण तिवारी और सुभद्रा जोशी कीजगह चुनावी मैदान में आए चंद्रभाल मणि तिवारी. इस चुनाव में जनसंघ के उम्मीदवारकरीब पांच हजार वोटों से हार गए. इसके बाद तो आपातकाल खत्म होने के बाद 1977 मेंचुनाव हुए तो बलरामपुर सीट से जनसंघ के नानाजी देशमुख ने जीत दर्ज की. फिर जनसंघखत्म हो गया और अस्तित्व में आई बीजेपी. 1980 के लोकसभा चुनाव और 1984 के लोकसभाचुनाव में इस सीट से कांग्रेस ने जीत दर्ज की. इसके बाद तो इस सीट से 1989 मेंनिर्दल उम्मीदवार मुन्ना खान ने जीत दर्ज की. 1991 में बीजेपी ने वापसी की औरसत्यदेव सिंह ने इस सीट से जीत दर्ज की. 1996 में भी सीट सत्यदेव सिंह के पास रही,लेकिन 1998 में सीट सपा के खाते में चली गई और रिजवान ज़हीर खान ने जीत दर्ज की.1999 में भी सीट सपा के रिजवान के खाते में ही रही. 2004 में बीजेपी ने फिर सेवापसी की और बृजभूषण शरण सिंह सांसद बने. 2008 में परिसीमन के बाद ये सीट खत्म होगई और फिर अस्तित्व में एक नई सीट आई, जिसे श्रावस्ती कहा जाता है.--------------------------------------------------------------------------------ये भी पढ़ें:जब केमिकल बम लिए हाईजैकर से 48 लोगों को बचाने प्लेन में घुस गए थे वाजपेयीक्या इंदिरा गांधी को ‘दुर्गा’ कहकर पलट गए थे अटल बिहारी?उमा भारती-गोविंदाचार्य प्रसंग और वाजपेयी की नाराजगी की पूरी कहानीकुंभकरण के जागते ही वाजपेयी के गले लग गए आडवाणीअटल बिहारी ने सुनाया मौलवी साब का अजीब किस्सानरसिम्हा राव और अटल के बीच ये बात न हुई होती, तो भारत परमाणु राष्ट्र न बन पाताजब पोखरण में परमाणु बम फट रहे थे, तब अटल बिहारी वाजपेयी क्या कर रहे थेक्यों एम्स में भर्ती किए गए अटल बिहारी वाजपेयी?वीडियो में देखिए वो कहानी, जब अटल ने आडवाणी को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया