इज़रायल का वो दुश्मन जिसे मोसाद भी नहीं मार सका!
हिज़बुल्लाह बनाने वाले अली अकबर मोहतशामीपोर की पूरी कहानी.
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चिट्ठी माने उत्सुकता. और, जब लिफ़ाफ़े पर किसी क़रीबी का पता दर्ज़ हो तो तलब में विस्तार हो जाता है. जिगर मुरादाबादी ने लिखा भी है,
दिल को सुकून रूह को आराम आ गयामौत आ गई कि दोस्त का पैग़ाम आ गया
ऐसा ही एक पैग़ाम साल 1984 में भी पहुंचा था. वेलेंटाइन डे के दिन. सीरिया की राजधानी दमास्कस में ईरान के दूतावास पर डाकिए ने एक पार्सल छोड़ा था. पार्सल के ऊपर लिखा था - माननीय राजदूत अली अकबर मोहतशामीपोर के नाम. एक चाहनेवाले की तरफ़ से. जिधर के लिए संदेशा आया था, बिना छेड़छाड़ के सीधे वहां तक पहुंचा दिया गया. राजदूत महोदय बहुत खुश हुए. अचंभित भी. उन्होंने बड़े चाव से पार्सल खोला. अंदर एक चिट्ठी और किताब पड़ी थी. ख़त का मज़मून ये कि दोस्ती को मज़बूत बनाने के लिए एक ख़ास किताब की भेंट स्वीकार करें. कैसी किताब? ईरान और इराक के शिया धर्मस्थलों के इतिहास का कोलाज़.मोतहशमीपोर की उत्सुकता बढ़ चुकी थी. उन्होंने चिट्ठी को किनारे रखा और अपने दाईं तरफ रखी किताब पर नज़र डाली. जैसे ही उन्होंने पहला पन्ना पलटा, जोरदार धमाका हुआ. पूरे कमरे में बारूद की गंध फैल गई. राजदूत महोदय का दाहिना हाथ शरीर से अलग होकर ज़मीन पर तड़प रहा था. अस्पताल में उनकी जान तो बच गई, लेकिन किताब के अंदर रखे बम ने एक हाथ और दूसरे हाथ की दो ऊंगलियों के लिए हमेशा के लिए जुदा कर दिया.
ईरान के दूतावास में बम भेजने का मतलब था, ईरान पर हमला. इस घटना पर ख़ूब बवाल मचा. ईरान ने कहा, इस हमले के पीछे इज़रायल की खुफिया एजेंसी मोसाद का हाथ है. जैसा कि होता आया है, इज़रायल ने इस बात को मानने से साफ़ मना कर दिया.
घटना के 34 बरस बाद. साल 2018 में एक किताब आई, राइज़ एंड किल फ़र्स्ट: द सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ़ इज़रायल्स टार्गेटेड असासिनेशंस. इसे लिखा है, इज़रायली पत्रकार रॉनेन बर्गमैन ने. बर्गमैन ने दावा किया कि 1984 में अली अकबर के लिए ‘किताब बम’ मोसाद ने भेजा था. मोसाद का प्लान राजदूत को जान से मारने का था. लेकिन किस्मत का तकाज़ा ये रहा कि राजदूत ने किताब को चेहरे के सामने नहीं खोला. वर्ना नतीजा कुछ और ही होता. बर्गमैन ने ये भी लिखा कि इस प्लान पर ख़ुद इज़रायल के प्रधानमंत्री यित्हाक शामिर ने दस्तख़त किए थे.
इज़रायल के पूर्व प्रधानमंत्री यित्हाक शामिर. (तस्वीर: एएफपी)
ये कहानी सुनने के बाद सवाल तो बनता है. इज़रायल अली अकबर मोहतशामीपोर को मारना क्यों चाहता था? इस दुश्मनी में लेबनान के आतंकी संगठन हिज़बुल्लाह की क्या भूमिका थी? बताएंगे, हिज़बुल्लाह की कहानी क्या है? और, आज ये चर्चा करने की वजह क्या है? सब विस्तार से जानते हैं.
पहले इतिहास की खोज-ख़बर
साल 1953 की बात है. ईरान में अमेरिका और ब्रिटेन की खुफिया एजेंसियां दांव चल रहीं थी. उन्हें प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसादेक के तख़्तापलट का टास्क मिला था. ईरान में विदेशी कंपनियां मनमाने ढंग से कच्चा तेल निकाल रहीं थी. ईरान के हिस्से में बहुत छोटा-सा हिस्सा आता था. जब मोसादेक प्रधानमंत्री बने, उन्होंने इन कंपनियों पर जांच बिठा दी. वो ईरान के तेल रिजर्व पर से विदेशी नियंत्रण को खत्म करना चाहते थे. उन्होंने ईरान की राजशाही की लगाम भी कस दी थी. ईरान में ब्रिटेन और अमेरिका का सीधा हित जुड़ा था. मोसादेक उनके लाभ के लिए ख़तरनाक हो चुके थे.
ईरान के पूर्व प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसादेक. (तस्वीर: एएफपी)
फिर ब्रिटेन और अमेरिका ने क्या किया?
उन्होंने पहले तो ईरान का आर्थिक बहिष्कार किया. फिर पैसे देकर मोसादेक के ख़िलाफ़ प्रोटेस्ट करवाए. मोहम्मद रेज़ा पहलवी शाह के नेतृत्व में सेना के एक गुट ने अगस्त 1953 में मोसादेक को कुर्सी से उतार दिया. अब शाह को चुनौती देने वाला कोई नहीं बचा. इसके साथ ही अमेरिका और ब्रिटेन के लिए लूट का रास्ता साफ़ हो चुका था.
1960 के दशक में शाह ने ‘व्हाइट रिवॉल्यूशन’ की शुरुआत की. इसके तहत पश्चिमी देशों की संस्कृति को ईरान में लाने की कोशिश की. धार्मिक शिक्षा पर रोक लगाई गई. महिलाओं को ज़्यादा अधिकार दिए गए. शहरीकरण तेज़ किया गया. ये सब रुढ़िवादी शिया मुल्लाओं को नागवार गुजरा. उन्होंने इसका विरोध शुरू कर दिया.
मोहम्मद रेज़ा पहलवी शाह. (तस्वीर: एएफपी)
इनमें से जो नाम सबसे ज़्यादा पॉपुलर हुआ, वो थे धार्मिक नेता अयातुल्लाह रुहुल्लाह खोमैनी. उनके इशारे पर सरकार-विरोधी दंगे शुरू हो गए. नाराज़ शाह ने खोमैनी को अरेस्ट करवा दिया. एक साल तक जेल में रखने के बाद उन्हें ज़बरदस्ती निर्वासन में भेज दिया गया. इसी निर्वासन के दौरान खोमैनी की मुलाक़ात अली अकबर मोहतशामीपोर से हुई. अली अकबर नौजवान थे. ईरान सरकार ने उन्हें भी ज़बरदस्ती देशनिकाला दिया था. कुछ समय बाद ही वो खोमैनी के खास बन गए.
1978 में शाह के ख़िलाफ़ फ़ाइनल प्रोटेस्ट हुआ. वो इलाज का बहाना बनाकर ईरान से बाहर चले गए. शाह के जाते ही अयातुल्लाह रुहुल्लाह खोमैनी की एंट्री हुई. वापस लौटने पर उनका अभूतपूर्व स्वागत हुआ. पूरे देश में उनको समर्थन मिल रहा था. उन्होंने ‘सुप्रीम लीडर’ की पदवी धारण की. ईरान में राजशाही को खत्म कर ‘इस्लामिक सरकार’ की स्थापना की गई.
1979 की ईरानी इस्लामिक क्रान्ति ने ईरान को बदलकर रख दिया. (तस्वीर: एएफपी)
इस्लामिक क्रांति तो हो गई, इसकी रक्षा कौन करेगा?
खोमैनी को संशय था कि सेना अभी भी शाह की वफ़ादार है. ऐसे में इस्लामिक सरकार के लिए एक अलग यूनिट की स्थापना की गई. नाम रखा गया ‘इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कोर’. इसका मकसद था, इस्लामिक पॉलिटिकल सिस्टम की सुरक्षा और सरकार को तख़्तापलट के खतरे से दूर रखना. इसे डेवलप करने की ज़िम्मेदारी मोहतशामीपोर को सौंपी गई थी.
1982 में उन्हें सीरिया भेजा गया. राजदूत बनाकर. ये डिप्लोमैटिक रोल से कहीं ज़्यादा एक नेक्सस की शुरुआत थी. ईरान टू लेबनान वाया सीरिया. कैसे? ये जानने के लिए पहले लेबनान की कहानी जान लेते हैं. लेबनान एक समय ग्रेटर सीरिया का हिस्सा हुआ करता था. पहले विश्व युद्ध के बाद ये इलाका ऑटोमन साम्राज्य से निकलकर फ़्रांस के हाथ में आ गया. फ़्रांस ने लेबनान को सीरिया से अलग कर दिया. लेबनान को आज़ादी मिली, एक जनवरी 1944 को.
1967 के साल में अरब-इज़रायल के बीच सिक्स-डे वॉर हुआ. इस लड़ाई में इज़रायल की जीत ने मिडिल-ईस्ट का मैप बदलकर रख दिया. कई सारे फ़िलिस्तीनी इलाके इज़रायल के कब्ज़े में चले गए. इज़रायल की एक सीमा लेबनान से भी लगती है. फ़िलिस्तीन के विद्रोही गुटों ने लेबनान को अपना ठिकाना बना लिया. इज़रायल उन्हें खत्म करने के लिए बार-बार लेबनान पर हमला करता था.
लेबनन में कई धर्मों के लोग थे. ईसाई भी. मुस्लिम भी. मुस्लिमों के बीच शिया भी और सुन्नी भी. इन सबमें 1943 में एक करार हुआ. तय हुआ कि राष्ट्रपति होगा ईसाई. प्रधानमंत्री होगा सुन्नी. संसद का स्पीकर होगा शिया मुसलमान. मगर इस सिस्टम में ईसाइयों के पास बढ़त थी. मुसलमान इससे नाखुश थे. सबसे ज़्यादा नाख़ुश थे शिया. उन्हें लगता था कि उनके हिस्से में जूठन आ रही है.
जब फ़िलिस्तीनी लड़ाकों की आमद बढ़ी तो लेबनान में सुन्नी मुसलमानों का वर्चस्व बढ़ने लगा. हर समुदाय अपने अस्तित्व पर खतरा महसूस करने लगा. इसी माहौल में अप्रैल 1975 में सिविल वॉर शुरू हो गया. ये अगले 15 सालों तक चला. लेकिन इस बीच में एक बड़ा खेल होना बाकी था.
लेबनान में 1975-1990 तक गृह युद्ध चला. (तस्वीर: एएफपी)
अली अकबर मोहतशामीपोर ने हिज़बुल्लाह को तैयार किया?
1978 में फ़िलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन (PLO) पर इज़रायल ने हमला किया. उसने PLO को खदेड़ने के लिए अपनी सेना लेबनान में उतार दी. इज़रायल ने साउथ लेबनान पर कब्ज़ा भी कर लिया. अपनी ज़मीन पर विदेशी सैनिकों को देखकर शिया गुट ने विद्रोह कर दिया. उधर ईरान अपने यहां की इस्लामिक क्रांति को बाकी के अरब देशों में फैलाना चाहता था. उसे लेबनान में उपजाऊ ज़मीन दिखाई दी.
अली अकबर मोहतशामीपोर बाद में दौर में सत्ता विरोधी रहे लेकिन फिर भी उनपर हाथ डालने की हिम्मत किसी में नहीं रही. (तस्वीर: एएफपी)
इस काम के लिए एक बार फिर अली अकबर मोहतशामीपोर को चुना गया. उन्होंने लेबनान में शिया विद्रोहियों का गुट तैयार किया. इस गुट का नाम रखा गया, हिज़बुल्लाह. मतलब होता है, अल्लाह का दल. ईरान ने हिज़बुल्लाह के लिए अपने खजाने खोल दिए. ईरान की हिज़बुल्लाह के लड़ाकों को ट्रेनिंग दी. उनका लक्ष्य था, विदेशी सेनाओं को लेबनान से बाहर निकालना. भले ही कोई रास्ता क्यों न अपनाना पड़े.
1983 में अमेरिकी दूतावास पर हुए हमले में 304 लोग मारे गए. (तस्वीर: एएफपी)
1983 में लेबनान की राजधानी बेरूत में अमेरिकी दूतावास पर हमला हुआ. इसके कुछ दिनों बाद यूएस मरीन के अड्डे पर बम धमाका किया गया. इन दोनों घटनाओं में कुल 304 लोग मारे गए. अमेरिका ने इसके लिए हिज़बुल्लाह को ज़िम्मेदार ठहराया. कहते हैं कि इन हमलों की प्लानिंग में मोहतशामीपोर भी शामिल थे.
हिज़बुल्लाह की एक बड़ी कोशिश थी कि इज़रायल अपनी सेना लेबनान से हटा ले. इस मामले में बड़ा पॉइंट आया 1999 में. क्या हुआ इस बरस? इस साल इज़रायल के प्रधानमंत्री एहुद बराक ने किया ऐलान. कहा, एक साल के भीतर हम अपनी आर्मी को लेबनान से निकाल लाएंगे. ऐलान के मुताबिक ही मई 2000 तक लेबनान से इज़रायल की रुखसती भी हो गई. ये हिज़बुल्लाह और उसके पीछे खड़े ईरान की बड़ी जीत थी.
इज़रायल के पूर्व प्रधानमंत्री एहुद बराक. (तस्वीर: एएफपी)
हिज़बुल्लाह, इज़रायल के लिए बड़ी चुनौती?
हिज़बुल्लाह की पहचान दर्ज़ हो चुकी थी. इसके बाद भी इस संगठन ने इज़रायल के नागरिकों पर कई हमले किए हैं. कई देशों में इजरायल के दूतावास को भी निशाना बनाया गया. 2006 में जब इजरायल ने लेबनान पर हमला किया, उस वक़्त भी हिज़बुल्लाह ने सीधा लोहा लिया था. 34 दिनों तक चली लड़ाई यूनाइटेड नेशंस के हस्तक्षेप के बाद शांत हुई थी. इसमें दोनों पक्ष अपनी-अपनी जीत का दावा करते हैं.
ईरान हिज़बुल्लाह के लड़ाकों का पुरजोर समर्थन करता है. (तस्वीर: एपी)
कौन जीता, कौन हारा से अलग जाएं तो हिज़बुल्लाह, इज़रायल के लिए बड़ी चुनौती बनकर खड़ा हुआ है. हाल में इजरायल और हमास की लड़ाई के दौरान भी उसने इज़रायल पर रॉकेटों से हमला किया था. हिज़बुल्लाह के पास एक लाख चालीस हज़ार से अधिक रॉकेट्स का भंडार है. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, ईरान आज भी हिज़बुल्लाह को हर साल लगभग 50 अरब रुपये की मदद देता है. जैसा कि हिज़बुल्लाह के एक अधिकारी ने कहा,
‘हम जो कुछ खाते और पहनते हैं, वो सब ईरान का दिया हुआ है’1990 के दशक में हिज़बुल्लाह लेबनान की राजनीति में शामिल हो चुका था. देश के कई शिया इलाकों पर इसका एकाधिकार है. लेबनान की पॉलिटिक्स में ये एक डिसाइडिंग फ़ैक्टर बन चुका है. वर्तमान में लेबनान के कार्यवाहक प्रधानमंत्री हैं, हसन दिएब. उन्होंने भी हिज़बुल्लाह के समर्थन से सरकार बनाई है.
लेबनान के कार्यवाहक प्रधानमंत्री हैं हसन दिएब. (तस्वीर: एएफपी)
अली अकबर मोहतशामीपोर का क्या हुआ? उन्हें 1989 में लेबनान डेस्क से हटा लिया गया. बाद में वो ईरान के आंतरिक मामलों के मंत्री भी बने. जब उन्होंने सुधारवादी गुट जॉइन किया, उन्हें अलग-थलग कर दिया गया. सत्ता का विरोधी होने के बावजूद उनपर हाथ डालने की हिम्मत किसी में नहीं रही.
ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्लाह अली ख़मैनी. (तस्वीर: एपी)
आज हम ये चर्चा क्यों कर रहे हैं?
हिज़बु्ल्लाह के संस्थापकों में से एक अली अकबर मोहतशामीपोर की 07 जून को मौत हो गई. वो 74 वर्ष के थे. जिसे दुनिया की सबसे ख़तरनाक खुफिया एजेंसी नहीं मार पाई, उसका काम कोरोना वायरस ने तमाम कर दिया. अली अकबर अभी तक नजफ में रह रहे थे. कोरोना संक्रमण होने के बाद उन्हें राजधानी तेहरान के एक अस्पताल में दाखिल कराया गया था. सात जून को उन्होंने आख़िरी सांस ले ली. ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्लाह अली ख़मैनी और राष्ट्रपति हसन रूहानी ने उनकी मौत पर शोक व्यक्त किया है. हिज़बुल्लाह ने भी अपने संस्थापक को श्रद्धांजलि व्यक्त की है.
मोहतशामीपोर की मौत से इज़रायल और मोसाद के हिस्से की असफ़लता का चैप्टर तो बंद हो गया. लेकिन, हिज़बुल्लाह वाला चैप्टर अभी भी इज़रायल की नींद उड़ाता रहेगा.