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सांसों के साथ दिलो-दिमाग तक महका देने वाली बारिश की पहली खुशबू क्या है, कैसे बनती है?

शक्तिमान देखने वाले जानते हैं, छोटी-छोटी मगर मोटी बातों का क्या मजा है. ऐसी ही एक चीज छोटी लगती है, नई-नई बारिश में मिट्टी से आने वाली खुशबू. लेकिन ये कभी सोचा है कि ये खुशबू आती किस वजह से है? पानी में तो कोई गंध होती नहीं.

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हमारी नाक 1 लाख करोड़ में 5 हिस्सा जियोस्मिन भी पकड़ लेती है. (Image credit: PTI)
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राजविक्रम
5 जुलाई 2024 (Published: 15:28 IST)
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दोस्तों! बारिश का मौसम है. अगर दिन अच्छा हो और बस वाले सज्जन या फिर ‘सलून’ की प्लेलिस्ट मिल जाए. आहा! फिर क्या ही कहने. मानना पड़ेगा, बॉलीवुड ने बारिश में दो इंद्रियों यानी आंख और कान के लिए क्या काम किया है! आंखों के लिए गाना दिया, ‘टिप-टिप बरसा पानी’ और कानों के लिए, 'बरसात के मौसम में, तन्हाई के आलम में'. एक और गाना है ‘मिट्टी दी खुशबू’ वाला गाना. जो तीसरी इंद्री की बात करता है, सुगंध की. वो खास सौंधी सुगंध जो नई बारिश में आती है. भला ये किस चीज की होती है?(why does first rain smell)? जवाब मिलेगा, बराबर मिलेगा… 

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क्या खुशबू है!

पहले थोड़ा सा जानते हैं कि किसी चीज की खुशबू हमें कैसे पता चलती है? तो होता ये है कि जब आप किसी चीज को सूंघते हैं, तो हवा के साथ उस चीज के छोटे-छोटे मॉलीक्यूल नाक के भीतर चले जाते हैं. दरअसल ये कुछ खास केमिकल होते हैं, जो खास तरह की नर्व या तंत्रिकाओं को भन्ना देते हैं. माने उत्तेजित कर देते हैं. गुलाब की गंध लें, तो गुलाब की गंध वाले अणु इन तंत्रिकाओं को उत्तेजित करेंगे. और ये तंत्रिकाएं हमारे दिमाग को बताएंगी कि भाई, गुलाब की महक है. 

हमारी नाक में ऐसी लाखों तंत्रिकाएं होती हैं. जो मिलकर 500 तरह के ओडर रिसेप्टर बनाती हैं. माने गंध पहचानने वाला हिस्सा. इन्हीं की मदद से हम अलग-अलग सुगंधों का मजा ले पाते हैं. पुराने मोजे हों, तो सजा भी बराबर ले पाते हैं. खैर हम समझ गए कि गंध हमको खास तरह के केमिकल अणुओं से आती है. फिर भला जब पानी में तो कोई गंध होती ही नहीं. तो नई-नई बारिश में गंध आती कहां से है? 

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निश्चित तौर पर ये पंक्तियां जौन एलिया की नहीं हैं. 
इस गंध का खास नाम भी है, ‘पेट्रीकोर’

ऐसा नहीं है कि पहले किसी को इस खास गंध के बारे में पता नहीं था. लेकिन शायद लोग पकौड़े खाने में लगे रहे होंगे. तभी जाकर साल 1964 में इस गंध के बारे में कुछ विधिवत बताया गया. दरअसल 7 मार्च, 1964 को ऑस्ट्रेलिया के दो साइंटिस्ट्स ने इस गंध के बारे में एक पेपर छापा. ये दोनों थे, इजाबेल जॉय बियर और रिचर्ड थॉमस. इन्होंने ही पहली बारिश की इस खुशबू का नाम रखा, ‘पेट्रीकोर’ (Petricor). जो एक प्राचीन शब्द है जिसका अर्थ है ‘पत्थरों का खून’(Blood of stones).

कमाल है पत्थर का दिल होता था. पत्थर के सनम भी हुए. लेकिन ‘पत्थरों का खून’. काफी कविता मिजाज वैज्ञानिक लगते हैं. तभी ये नाम चुना. बहरहाल अब आते हैं कि ये ‘पत्थर का खून’ आता कहां से है?

अगर अमेरिकन केमिकल सोसायटी की मानें, तो मिट्टी की ये खास खुशबू मोटा-माटी कुछ इन वजहों से हो सकती है. 

पहला है, ओजोन. ओजोन (O3) माने ऑक्सीजन का तिड़वा. या तीन आक्सीजन परमाणुओं से मिलकर बना अणु. बताया जाता है कि जब बिजली कड़कती है, तो हवा में मौजूद ऑक्सीजन (O2) और नाइट्रोजन अणु टूट जाते हैं. टूटकर फिर आपस में मिलकर बनाते हैं दो नई चीजें, नाइट्रिक ऑक्साइड (NO) और ओजोन (O3). अब ये ओजोन के कुछ अणु बारिश के साथ नीचे चले आते हैं, इनकी भी एक गंध होती है. जब बारिश के साथ नीचे आते हैं तो गंद की जगह गंध फैलाते हैं. 

दूसरा है, जियोस्मिन (Geosmin). ये एक तरह का केमिकल होता है, जो मिट्टी में एक खास किस्म के बैक्टीरिया निकालते हैं. ये बैक्टीरिया कहे जाते हैं ‘एक्टिनोमाइसिटीज’. इनके जटिल नाम से हमको क्या? हम काम समझते हैं. ये बैक्टीरिया जब मरते हैं, तो जियोस्मिन नाम का केमिकल मिट्टी में छोड़ जाते हैं. माने रेशम का कीड़ा ही मरकर अकेला भला थोड़े ही करता है. कुछ और भी हैं लाइन में. यह एक तरह का एल्कोहल अणु होता है, जिसकी बड़ी तेज गंध होती है. बताया जाता है कि हमारी नाक 1 लाख करोड़ में 5 हिस्सा जियोस्मिन भी पकड़ लेती है. और ये बैक्टीरिया दुनिया में लगभग हर जगह पाए जाते हैं (असली ग्लोबल विलेज कॉन्सेप्ट इन्हीं का है). और बारिश की खास सौंधी खुशबू में हिस्सा बनते हैं.

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लेकिन ये गंध बारिश में ही क्यों?

तो इसका जवाब 2015 में अमेरिका की मैश्च्यूसेट इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी (MIT) की एक रिसर्च में मिलता है. जिसमें देखा गया कि कैसे बारिश की बूंद पड़ने पर मिट्टी से खुशबू वाले केमिकल निकलते हैं. जैसे किसी कोला की बोतल को खोलने से बुलबुले. 

अब आते हैं तीसरे पे, ये हैं हमारे पौधे. दरअसल गर्मी के मौसम में हमारे पौधे भी कुछ खास केमिकल निकालते हैं. जो मिट्टी और पत्थरों में जमा होते रहते हैं. इनमें से दो हैं ‘स्टेरिक एसिड’ और ‘पॉल्मिट्रिक एसिड’. जो कार्बन की लंबी चेन वाले फैटी एसिड होते हैं, इनकी भी अपनी गंध होती है. मिट्टी और पत्थरों में कुलजमा ये केमिकल भी बारिश में निकलते हैं. 

इस सब के अलावा बारिश की एसिडिटी की वजह से भी मिट्टी में कुछ केमिकल रिएक्शन हो सकती है. जिनकी गंध भी आ सकती है. लेकिन ये वाली हमारे बैक्टीरिया से पैदा हुई गंध जैसी मीठी नहीं होती. ये प्रदूषण वाले शहरी इलाकों में हो सकती है (और रहो शहरों में. गंध से ज्यादा चाय-पकौड़े पर फोकस बनाए रखो). माने इतने कारण तो मुख्य माने जाते हैं. लेकिन अलग-अलग जगहों में पेड़-पौधों की खास गंध भी अपन को मिलती है. वो गाना है ना?

मन क्यूँ बहका री बहका आधी रात को?

बेला महका, हो

बेला महका री महका आधी रात को 

तो बेला-चमेली के साथ अब पेट्रीकोर का नाम भी महकने में जोड़ लीजिए.

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