क्या फिंगरप्रिंट की शुरुआत भारत में हुई? कहानी जाबड़ है!
जानिए क्यों जुड़वा लोगों के भी फिंगरप्रिंट एक जैसे नहीं होते. और ये कब पता चला कि सब के फिंगरप्रिंट अलग होते हैं?
13 मार्च, 1781 की बात है. रात में अंग्रेजी एस्ट्रोनॉमर, विलियम हर्शेल (William Herschel) अपना टेलीस्कोप लिए तारे ताड़ रहे थे. तभी उन्हें कुछ ऐसा दिखा, जो उनकी जिंदगी बदलने वाला था. विलियम बाबू ने एक हल्की सी चमकती चीज देखी. उनको लगा सुदूर कोई तारा होगा. कुछ दिन बाद, उन्होंने फिर से ये चीज देखी. इस बार पता चला, उसकी जगह पहले से थोड़ी बदल गई थी.
विलियम ने गुणा-भाग किया, तो पता चला यह धरती के काफी पास था. इतनी पास कोई तारा नहीं हो सकता था. सोचा कोई उल्का पिंड होगा. लेकिन फिर तमाम गणनाओं के बात पता चला कि ये कोई उल्का पिंड भी नहीं था. मालूम चला, ये तो एक नया ग्रह ही था. टेलिस्कोप से कोई ग्रह खोजने वाले विलियम पहले इंसान बने.
बात तब इंग्लैंड के राजा जॉर्ज-तृतीय तक पहुंची. राजा ने विलियम को इनाम दिए. पेंशन के तौर पर भी रुपये-पैसे दिए. काहे कि विलियम भाई इस नए ग्रह का नाम, राजा जॉर्ज के नाम पर जॉर्जियम सिडस (Georgium Sidus) रख रहे थे.
काफी दिन इंग्लैंड में ग्रह का यह नाम चला भी. लेकिन फिर साल 1850 के आस-पास यहां के एस्ट्रोनॉर्मर्स ने भी दुनिया के बाकी लोगों की तरह, इस सातवें ग्रह का नाम यूरेनस (Uranus) यानी अरुण मान लिया. गनीमत है मान लिया, नहीं तो पता चले आज हम ग्रहों के नाम, मार्श, अर्थ, सैटर्न और जॉर्ज याद कर रहे होते.
बहरहाल, नाम तो विलियम के पोते का भी था. नाम रखने में ज्यादा मेहनत न करते हुए, पोते का नाम भी बाबा के नाम पर, विलियम हर्शेल रख दिया गया. पूरा नाम विलियम जेम्स हर्शेल. लेकिन अपने बाबा जी से इतर, ये दूसरी वजहों से जाने गए. ये कहानी है 1858 के बंगाल की.
जब नौकरशाह विलियम ठगी से परेशान थेये वाले विलियम अंग्रेज हुकूमत के समय, भारत में सिविल सर्वेंट थे. जो तब के बंगाल के जांगीपुर में तैनात थे. तैनात तो थे ही, परेशान भी थे. काहे कि इनको चूना लगाया जा रहा था. ग्राएम डॉनल्ड (Graeme Donald) ‘द एक्सीडेंटल साइंटिस्ट’ (The Accidental Scientist) में लिखते हैं,
“स्थानीय ठेकेदारों की ठगी से हर्शेल परेशान थे. लोग काम से पहले पैसे लेते थे, फिर मुकर जाते थे. कांट्रैक्ट देखकर कह देते थे कि यह मेरे दस्तखत ही नहीं हैं. मैंने ये कागज पहले देखा ही नहीं. कुछ तो परिवार से कोई अपने जैसा दिखने वाला आदमी भेज देते थे. जो अंधी कसमें खाकर बोल देता था, कि यह तो मैं था ही नहीं.”
इन सब से परेशान हर्शेल ने एक दिन राज्यधर कोनाई नाम के ठेकेदार के हाथों के निशान दस्तावेजों में लिए. हालांकि, तब हर्शेल को भविष्य में फिंगरप्रिंट के इतने इस्तेमाल का अंदाजा न था. वे बस धोखाधड़ी से बचना चाहते थे.
खैर, 1877 में हर्शेल को हुगली का मजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया. वहां पेंशन के दस्तावेजों में भी यह प्रैक्टिस जारी रही. ताकि कोई आकर किसी और के पैसे न ले जाए. जेल में भी फिंगरप्रिंट का इस्तेमाल किया जाने लगा. ताकि कोई किराए का आदमी रखकर, अपने बदले की सजा उससे न कटवा ले.
फिर साल आया 1916. अपनी मौत से एक साल पहले हर्शेल ने अपने काम को छापा. नाम दिया - ‘द ऑरिजिन ऑफ द फिंगरप्रिंटिंग (The Origin of the Finger printing)’.
ये कब पता चला कि सब के फिंगरप्रिंट अलग होते हैं?
हालांकि, ऐसा नहीं है कि पहले फिंगरप्रिंट से पहचान के बारे में लोगों को पता नहीं था. चीन में इसके सुराग करीब 2300 साल पहले भी मिलते हैं. अमेरिकी जस्टिस डिपार्टमेंट (US Justice Department) की माने, तो हर्शेल से पहले 1788 में यूरोप में उंगलियों के निशानों के अनोखे होने के बारे में बताया गया.
एक जर्मन डॉक्टर हुए - जे सी ए मेयर. वे अपनी किताब ‘एनाटॉमिकल कॉपर प्लेट्स’ (Anatomical Copper-plates) में फिंगरप्रिंट के बारे में विस्तार से बताते हैं. टेक्निकल भाषा में वो इन निशानों को ‘फ्रिक्शन रिज स्किन पैटर्न’ (Friction ridge skin pattern) कहते हैं. माने, उंगलियों के निशान के उतार-चढ़ाव का पैटर्न. इनकी डीटेल ड्रॉइंग भी इसमें हैं. मेयर लिखते हैं,
“दो लोगों में उंगलियों के निशान एक जैसे नहीं होते. फिर भी, कुछ लोगों में ये एक-दूसरे के काफी करीब हो सकते हैं. वहीं कुछ में अंतर साफ देखा जा सकता है.”
हर इंसान में उंगलियों के निशान अनोखे होते हैं. यह लिखने वाले मेयर पहले शख्स थे.
इस डॉक्टर को चिट्ठी लिखने के लिए पता नहीं लिखना पड़ता थाबहरहाल, मेयर के बाद आते हैं ‘दिलो-दिमाग पर छाने’ वाले डॉक्टर. ये थे यान एवेंजेलिस्टा पुरकिन्ये (Jan Evangelista Purkinje). ये चेक देश के एनॉटॉमिस्ट और फिजियोलॉजिस्ट थे. अपनी भाषा में कहें तो डॉक्टर साहब. लेकिन ये कोई आम डॉक्टर नहीं थे. अपने समय के अव्वल साइंटिस्ट थे. इतने कि यूरोप के बाहर से लोग जब इन्हें चिट्ठियां लिखा करते थे, तो पते में फलां गली, फलां दुकान के बगल में नहीं लिखते थे. सीधा लिखते थे, ‘पुरकिन्ये, यूरोप’. ऐसा तो इनका फेम था.
हो भी क्यों न, इन्होंने तमाम बड़ी खोज कीं. एक तो दिमाग के एक बड़े न्यूरॉन या तंत्रिका कोशिका की. जिसे इन्हीं के नाम पर ‘पुरकिन्ये सेल’ नाम दिया गया. उन्होंने दिल का एक तरह का टिश्यू भी खोजा, जिसे ‘पुरकिन्ये फाइबर’ नाम दिया गया. सही बोलें तो, दिलो-दिमाग पर छाने वाले डॉक्टर थे!
साथ ही भाई साहब ने एक और काम किया. उंगलियों के निशानों को 9 तरह का बताया. लेकिन इस मामले में इनका बस इतना ही योगदान था.
बाकी फिर फिंगरप्रिंट के ऑफिशियल इस्तेमाल का क्रेडिट हमारे विलियम हर्शेल बाबू को ही दिया जाता है. इन सब के बाद, दुनिया में लोग फिंगरप्रिंट की खासियत के बारे में जान गए थे. ये भी समझ गए थे कि इनके जरिए किसी की पहचान की जा सकती है.
जुड़वा भाइयों की शक्ल एक-सी दिखती है, तो क्या फिंगरप्रिंट भी?जुड़वा भाई, जिनकी शक्ल एक जैसी ही होती है उनका DNA सीक्वेंस भी एक होता है. उनके भी फिंगरप्रिंट अलग-अलग होते हैं. बताया जाता है कि दो लोगों के एक जैसे फिंगरप्रिंट होने के चांस इतने कम हैं कि हो सकता है 10 लाख साल बाद कभी दो लोगों के प्रिंट मेल खाए.
जुड़वों में इनके अलग-अलग होने की वजह भी बताई जाती है. दरअसल, गर्भ में फिंगरप्रिंट बनना जेनेटिक्स (Genetics) और वातावरण दोनों पर निर्भर करते हैं. माने भले DNA एक हो, पर गर्भ में हर माहौल सब के लिए अलग होता है. हो सकता है जुड़वा लोगों के फिंगरप्रिंट पहली नजर में एक से लगे, लेकिन आज टेक्नोलॉजी और सॉफ्टवेयर की मदद से उसे भी अलग-अलग पहचाना जा सकता है. तभी फिंगरप्रिंट को पहचान का सटीक जरिया माना जाता है.
दरअसल, एक निशान में महीन लाइनें होती हैं. जिनको बारीकी से देखकर, दो प्रिंट्स में अंतर साफ पता चल सकता है. पहले तो इन्हें एक आदमी बैठ के माइक्रोस्कोप की मदद से पहचानता था. लेकिन आज कंप्यूटर और स्कैनर की मदद से इन्हें पहचाना जा सकता है.
कंप्यूटर ये कैसे कर लेता है?पहले तो हमें एक बात समझनी होगी, कंप्यूटर न तो आवाज समझता है, न तस्वीर. इसकी भाषा है नंबर्स की. ये अंकों का खिलाड़ी है. वो भी महज 0 और 1 के नंबर. मामला थोड़ा जटिल लग सकता है. लेकिन यही कंप्यूटर बाबू की भाषा है, इसे बाइनरी कोड (Binary Code) कहते हैं. हम इसे जो भी जानकारी देते हैं, यह उसे ऐसे ही कोड में बदलकर प्रोसेस और स्टोर करता है.
तो ये फिंगरप्रिंट कैसे पढ़ते हैं?
दरअसल, पहला काम तो है फिंगरप्रिंट को स्कैन करने का, जिसके कई तरीके हैं -
ऑप्टिकल स्कैनर: ये डिजिटल कैमरे की मदद से फिंगरप्रिंट की तस्वीर उतारते हैं.
कैपेसिटिव स्कैनर: इसमें इलेक्ट्रिक सिग्नल की मदद से स्कैन किया जाता है.
अल्ट्रासॉनिक स्कैनर: इसमें हाई-फ्रीक्वेंसी साउंड की मदद से स्कैन किया जाता है.
थर्मल स्कैनर: यह उंगलियों के निशान में उभार और गहराई के बीच ताप के अंतर के आधार पर स्कैन करता है.
लेकिन हमको इतना टेक्निकल नहीं होना. हम कुल मिलाकर इतना समझते हैं कि स्कैन इनकी मदद से हो गया. कंप्यूटर तक पहुंच गया. अब कंप्यूटर इसको अपनी भाषा में कोड या कुछ यूनिक नंबरों में बदल देता है.
अब ये सब तामझाम करके, इन्हें एक डेटा बेस में स्टोर कर लिया जाता है. डेटाबेस माने कंप्यूटर वगैरह का सामान घर. अब जब कोई फिंगरप्रिंट मैच करना हो, तो उसके स्कैन को कंप्यूटर तक भेजा गया.
कंप्यूटर ने उसे अपने नंबर में बदला, फिर अपने डेटा के भंडार में इसका मिलान कराया. अगर कोई मिलान हुआ तो आपकी तिजोरी, फोन और दरवाजा खुल जाएगा. नहीं मैच हुआ तो नाक रगड़नी पड़ेगी. क्योंकि डुप्लीकेट चाबी तो बन जाती है. उंगली का जुगाड़ थोड़ा मुश्किल है.
वीडियो: रवि किशन के DNA Test पर कोर्ट ने क्या फैसला सुना दिया?