आशीष मिश्र लखनऊ से हैं. कहते हैं, कंप्यूटर सॉफ्टवेर में कुछ किया है और लंदन मेंरह रहे हैं लेकिन लखनऊ का कीड़ा भीतर बिलबिलाता रहता है. आशीष लखनऊ से इतना प्यारकरते हैं कि जन्नत और लखनऊ के चुनाव में लखनऊ लेना पसंद करेंगे.--------------------------------------------------------------------------------26 दिसम्बर 1991 को हंसिया-हथौड़े के साथ सुर्ख़ लाल झंडा मास्को में ऐतिहासिकक्रेमलिन से उतारा जा रहा था. वो भीषण सर्दियों के दिन थे जब दुनिया की पहलीसमाजवादी सरकार सर्वहारा आंदोलन की ज़मीन पर प्रतिक्रांति के सामने अपने घुटने टेकरही थी. वहीं दूसरी तरफ दुनिया के किसान और मज़दूर जमातों की धड़कने कुछ देर के लिएथम सी गई थीं और वो इस विघटन से हुए नुकसान की भयावहता को मापने में लग गई थीं. इसघटना से ठीक चार दिन पहले यानी 22 दिसम्बर 1991 को सोवियत संघ के तीन सबसे बड़ेसूबों ने सोवियत संघ के विघटन का फैसला कर लिया था, जबकि सोवियत संघ की कम्युनिस्टपार्टी को उसी वर्ष की गर्मियों में भंग कर दिया गया था. सोवियत संघ का विघटन उसप्रतिक्रांति का नतीजा था, जिसकी शुरुआत 1985 में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टीकी पुनर्गठन की प्रक्रिया के साथ शुरू हो गयी थी और साल 1989 आते-आते अपने चरम परपहुंच गई. नतीजा यह हुआ कि सोवियत संघ से समाजवाद का खात्मा हो गया. हालांकि ऐसा एकदिन में नहीं हुआ था. प्रतिक्रांति की जड़ें तभी से मज़बूत होने लगीं थीं, जब 1956 सेसंशोधनवादी और अवसरवादी फैसले लिए जाने लगे थे जिसके पीछे सिर्फ और सिर्फ पूंजीवादीशक्तियां लगी हुई थीं. साल 1991 के बाद बोल्शेविक आंदोलन से बनी सोवियत संघ कीसमाजवादी ज़मीन पूंजीवादियों के हाथों लूट के उपलब्ध हो गई जो अभिजात्य वर्ग कीनुमांइदगी कर रहे थे. उसी साल मार्च में सोवियत संघ में एक जनमत भी कराया गया थाजिसमे लगभग 76 परसेंट लोगों ने सोवियत संघ की समाज़वादी सरकार और संघ के बने रहने केपक्ष में वोट दिया था हालांकि प्रतिक्रांति आंदोलन ने जान बूझकर इसे नज़र अंदाज़ करदिया जो उनकी पूंजीवादी मानसिकता और मंसूबों को साफ़-साफ़ दर्शाता था. सोवियत संघटूटने के दर्द को उस वक़्त एक ग्रीस कम्युनिस्ट अखबार ने कुछ इस तरह लिखा था - TheSoviet red flag is no longer waving in the domes of the Kremlin. Its loweringsealed with a dramatic and symbolical way the end of the 74 year old course ofthe first socialist state in the world. For a moment the clocks indicatorsremained motionless, marking the critical moment. The hearts of many millionworkers in all over there world stopped beating, weighting the magnitude of thelosses. सोवियत संघ की विशाल सामाजिक उपलब्धियों को नई पूंजीवादी सरकार ने अपनेभ्रामक वादों के दम पर धराशायी कर दिया था. नई सरकार ने लोगो को भरोसा दिलाया था किरूसी लोगों को और अधिक लोकतंत्र, अधिक सामाजिक स्वतंत्रता और एक मुक्त बाजारअर्थव्यवस्था मिलेगी जो लोगों की ज़िन्दगी में क्रांतिकारी बदलाव लेकर आएगी जबकि इसबात का उस समय तक और आज के समय में भी कोई सबूत नहीं मिलता है बल्कि उल्टा दुनियामें मुक्त बाज़ार व्यवस्थाएं ध्वस्त होती दिखाई दे रहीं हैं. विघटन के बाद नयीपूंजीवादी सरकार ने इस बदलाव को “शॉक थेरेपी” का नाम दिया था और आर्थिक उदारीकरण कीकई नीतियों को रातों-रात लागू कर दिया, जिससे रूसी लोगों की सामाजिक और आर्थिकस्थिति पर कई नकारात्मक प्रभाव हुए. मसलन सामाजिक और आर्थिक असमानताओं में तेजी सेवृद्धि होने लगी, समाजवादी कल्याणकारी राज्य का विनाश हो गया, श्रमिक वर्गों केसामाजिक अधिकार कम हो गए और गरीबी चरम पर पहुंच गई. सोवियत संघ में हुएप्रतिक्रांति से आज 25 साल बाद भी अधिकतर रुसी लोग ख़ास तौर पर बूढ़े लोग सोचते हैंकि सोवियत संघ की सामाजवादी सरकार के समय सामजिक और आर्थिक स्थिति बहुत बेहतर थी.लोग ये भी मानतें है कि पूंजीवादी रुसी सरकार सार्वजनिक जीवन के लगभग हर क्षेत्रमें विफल रही है और समाज के कुछ ख़ास वर्गों तक ही लाभ पहुँचा है.मार्च 2016 में एक सर्वे कराया गया जिसमें ये निकलकर आया कि अगर आज सोवियत संघ केपक्ष में वोट कराया जाए तो 64 परसेंट लोग इसके पक्ष में वोट करेंगे और उन लोगों नेउस समय के सोवियत संघ विघटन पर खेद भी व्यक्त किया.मार्च 2013 में एक और पब्लिक सर्वे कराया गया जिसमें 60 परसेंट लोगों ने माना किसोवियत संघ में ज़िन्दगी नकारात्मक पहलुओं की तुलना में अधिक सकारात्मक थी. कुछ इसीतरह कि सोच सोवियत संघ से अलग हुए दूसरें देशों में भी सामने आयी, जहां देश कीनीतियां समाज के कुछ ख़ास लोगों को फायदा पहुंचाने के उद्देश्य से बनाई गईं और बनाईजा रहीं हैं. मज़दूर-किसान की बात कहीं पीछे छूटती जा रही है. आज बड़ा सवाल ये है किआर्थिक उदारीकरण और राष्ट्रवाद के नाम पर समाज और देश को आगे ले जाने का दावा करनेवाला अभिजात्य और पूंजीवादी वर्ग हर जगह नाकाम रहा ? और अगर नाकाम रहा तो क्यासमाजवाद ही समाज की बेहतरी का जवाब है ? और क्या वैसा जैसा सोवियत संघ के समय मेंथा या इसे कुछ बदलावों के साथ आना चाहिए? हाल ही में आशीष की एक किताब भी आयी हैअगर दिल करे तो नीचे दिए गए लिंक से खरीद सकते हैं. हरफनमौला #_अमेज़न लिंक #http://amzn.to/2iEXuR1