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Operation Cactus की कहानी, जब मालदीव के राष्ट्रपति की जान भारत ने बचाई थी

हमने ऐसे मौके पर मालदीव की मदद की है, जब कई देशों से गुहार लगाने के बाद, उसके हाथ खाली थे. और देश में आतंकवादी तख्तापलट करने वाले थे. ये उस ऑपरेशन की कहानी है, जिसके लिए बतौर लोकतांत्रिक देश, मालदीव को भारत को थैंक्यू बोलना चाहिए.

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मालदीव में तख्तापलट की कोशिश को भारतीय सेना ने नाकाम किया था. (फोटो सोर्स- X @Leopard212)
10 जनवरी 2024 (Published: 13:51 IST)
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भारत के प्रधानमंत्री मोदी के लक्षद्वीप दौरे (pm modi lakshadweep visit) के बाद, मालदीव की सरकार (maldives government) के मंत्रियों की अपमानजनक टिप्पणियों के चलते दोनों देशों के बीच विवाद की स्थितियां बन गई हैं. हालांकि, मालदीव सरकार ने उन मंत्रियों को सस्पेंड कर दिया है. लेकिन भारत के अलावा अब मालदीव में भी, कई विपक्षी नेता, मालदीव सरकार के गैर ज़िम्मेदाराना बर्ताव की आलोचना कर रहे हैं. मालदीव की पूर्व रक्षा मंत्री मारिया अहमद दीदी कहा है,

"भारत के साथ विवाद, राष्ट्रपति मुइज्जू के प्रशासन की नाकामी है. हम एक छोटे देश हैं. हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि हमारी सीमाएं भारत के साथ लगती हैं. भारत हमारा दोस्त है. हमारे लिए भारत 911 की कॉल की तरह है. हम कॉल करते हैं और वो मदद के लिए आ जाते हैं."

मारिया की ये बात बिल्कुल सही है. हमने एक ऐसे मौके पर मालदीव की मदद की, जब कई देशों से गुहार लगाने के बाद, उसके हाथ खाली थे. और देश में आतंकवादी तख्तापलट करने वाले थे. ये भारतीय फौज के 'ऑपरेशन कैक्टस' की कहानी है. वो ऑपरेशन, जिसके लिए बतौर लोकतांत्रिक देश, मालदीव को भारत को थैंक्यू बोलना चाहिए.

 ये भी पढ़ें: मालदीव के राष्ट्रपति मुइज्जु के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव!

ऑपरेशन कैक्टस

कहानी शुरू होती है साल 1978 से. मौमून अब्दुल गय्यूम मालदीव के राष्ट्रपति बने. पिछले राष्ट्रपति के कार्यकाल में परिवहन मंत्री रहे गय्यूम शुरुआत से मुश्किलों में घिरे थे. साल 1980 में ही उनके साथ तख्तापलट की कोशिश हुई. फिर 1983 में भी. लेकिन दोनों बार गय्यूम अपनी सत्ता बचाने में सफल रहे. इसके बाद मौका आया 1988 का. किस्मत की बात है कि नवंबर के महीने में गय्यूम का भारत दौरा तय था. भारत से एक प्लेन भेजा गया. गय्यूम को लाने. लेकिन प्लेन बीच में ही था कि एक इमरजेंसी आ गई. प्रधानमंत्री राजीव गांधी को इलेक्शन के सिलसिले में दिल्ली से बाहर जाना पड़ा. लिहाजा गय्यूम का प्लेन वापिस लौटाना पड़ा. इत्तेफाक से ये अच्छी खबर थी, क्योंकि गय्यूम को पता नहीं था कि उनके पीठ पीछे एक बड़ा षड्यंत्र रचा जा रहा था.

 मौमून अब्दुल गय्यूम

मालदीव का एक बड़ा बिजनसमेन अब्दुल्ला लुतुफी, गय्यूम के प्रशासन से खुश नहीं था. उसने तख्तापलट की ठान ली. और इस काम के लिए मदद मांगी उमा महेश्वरन की. महेश्वरन श्रीलंका के उग्रवादी संगठन People’s Liberation Organisation of Tamil Eelam, PLOTE का सरगना था. इससे पहले उसने LTTE प्रमुख प्रभाकरण के साथ भी काम किया था. लेकिन फिर दोनों में मतभेद हुए और महेश्वरन ने अपना संगठन बना लिया. महेश्वरन को श्रीलंका की अदालत से सजा मिली थी. और वो फरार चल रहा था. इसी दौरान अब्दुल्ला लुतुफी ने उसे कॉन्टैक्ट किया. दोनों ने अहमद नासिर नाम के एक तीसरे व्यक्ति को अपने साथ मिलाया और तख्तापलट की प्लानिंग शुरू कर दी.

इन लोगों का प्लान था कि जब राष्ट्रपति यानी गय्यूम देश से बाहर होंगे, ये सरकारी बिल्डिंग्स पर कब्ज़ा कर तख्तापलट की घोषणा कर देंगे. प्लान को अंजाम देने के लिए नावें भर-भरकर PLOTE के 80 से ज्यादा उग्रवादी मालदीव की राजधानी माले तक लाए गए. 3 तारीख को काम शुरू होना था लेकिन उससे पहले ही खबर आ गई कि गय्यूम का भारत दौरा रद्द हो गया है. इसके बावजूद अब्दुल्ला लुतुफी ने तख्तापलट का प्लान जारी रखा. ऐन 3 नवम्बर, सुबह चार बजे, उग्रवादियों ने माले पर हमला कर तमाम सरकारी बिल्डिंग्स पर कब्ज़ा कर लिया.
ये लोग गय्यूमी को बंधक बनाना चाहते थे. लेकिन उनके राष्ट्रपति निवास पहुंचने से पहले ही गय्यूम को निकालकर एक सेफ हाउस पहुंचा दिया गया. उनके पीछे उग्रवादियों ने राष्ट्रपति आवास पर कब्ज़ा कर लिया और शिक्षा मंत्री को बंधक बना लिया. मालदीव पर उग्रवादियों का कब्ज़ा हो चुका था.

बस एक उम्मीद थी…

बस एक उम्मीद थी. एक फोन लाइन, जो गय्यूम को दूसरे देशों से कांटैक्ट करने में मदद दे रही थी. गय्यूम ने सबसे पहले सिंगापुर फोन मिलाया. जवाब मिला- "हम मदद नहीं कर सकते." इसके बाद श्रीलंका, पाकिस्तान. एक-एक कर सभी देश मुकरते गए. गय्यूम ने अमेरिका भी फोन मिलाया. लेकिन अमरीकी ट्रूप्स को माले पहुंचने में तीन दिन का वक्त लग जाता. जबकि गय्यूम के पास महज चंद घंटे का वक्त था. गय्यूम का अगला फोन ब्रिटेन गया. ब्रिटेन ने भी मदद नहीं की लेकिन इतना किया कि भारत से मदद लेने की सलाह दे दी. 
सुबह के साढ़े छह बजे थे. नई दिल्ली में अरुण बैनर्जी अपने घर में सो रहे थे. जब उनकी फोन की घंटी बजी. बैनर्जी मालदीव में भारत के हाई कमिश्नर थे. और गय्यूम  के प्रस्तावित दौरे के चलते भारत आए थे. 

बैनर्जी को माले के हालात का पता चला. खबर सीधे PM राजीव गांधी तक पहुंचाई गई. राजीव कलकत्ता में थे. 9 बजे जब राजीव वापिस पहुंचे, तुरंत एक हाई लेवल मीटिंग बैठी. मिलिट्री ऑपरेशन रूम में होने वाली इस बैठक में PM के अलावा गृह उपमंत्री पी चिदंबरम भी शामिल थे. चिदंबरम ने सुझाव दिया कि नेशनल सिक्योरिटी गार्ड्स भेजे जाने चाहिए. लेकिन आर्मी प्रमुख इससे सहमत नहीं थे. उनका मानना था कि इस काम में एयरफोर्स की मदद लेनी होगी.

इस बीच घटना का मंच शिफ्ट होता है आगरा की तरफ. आगरा का एयरफ़ोर्स स्टेशन.

स्क्वाड्रन लीडर अशोक चोर्डिया काफी उत्साहित हैं. उन्हें पुणे जाना है. जहां अगले रोज़ उन्हें एक स्काईडाइविंग का एक प्रदर्शन करना है. चोर्डिया तैयारी में लगे ही थे अचानक स्टेशन में हलचल तेज़ होती महसूस होती है. बाहर आकर उन्हें पता चलता है कि पुणे का प्रोग्राम कैंसिल हो चुका था. सबको स्टैंड बाय पर रहने का आदेश दिया गया था. भारत रक्षक.कॉम के एक आर्टिकल में चोर्डिया लिखते हैं,

"उस रोज़ अफवाहों का बाजार गर्म था. किसी को पता नहीं था, क्या हो रहा है. कयास लगाए जा रहे थे कि शायद श्रीलंका में पीस कीपिंग फ़ोर्स की मदद के लिए ट्रूप्स को भेजा जाएगा".

आखिर में ब्रिगेडियर फारुख बुलसारा ने आदेश सुनाए. पता चला कि 50th पैराशूट ब्रिगेड के जवानों को मालदीव जाना है. तुरंत दो Ilyushin Il-76 जहाज तैयार किए गए. टेक ऑफ का समय- दोपहर 12 बजकर तीस मिनट.

Ilyushin Il-76 जहाज

ब्रिगेडियर बलसारा खुद विमान में मौजूद थे. हालांकि इससे पहले उन्होंने मालदीव का नाम भी नहीं सुना था/ यहां तक कि मालदीव का कोई नक्शा भी उपलब्ध नहीं था. आनन-फानन में टूरिस्टों द्वारा इस्तेमाल होने वाले मैप इस्तेमाल में लाए गए. और उनकी मदद से प्लान तैयार हुआ. अरुण बैनर्जी इस दौरान बहुत काम आए. क्योंकि केवल वही थे जिन्हें मालदीव के बारे में पता था. कहां लैंड कर सकते हैं, कौन से रास्ते इस्तेमाल हो सकते हैं. ये सब जानकारी बैनर्जी ने मुहैया कराई. बाक़ायदा ये अपनी तरह का अनूठा मिशन था. जिसमें हाई-कमिश्नर सैनिकों के साथ जा रहे थे. बैनर्जी के साथ होने के बावजूद मुसीबतें बहुत थीं. माले पर हमला करने वाले उग्रवादी कितने थे, और कौन थे, ये पता नहीं था. माले एयरपोर्ट पर कब्ज़ा हो चुका था, इसलिए वहां लैंड नहीं कर सकते थे. तय हुआ कि माले के पास के एक आइलैंड हुलहुले पर जवान लैंड करेंगे. और वहां से माले की तरफ  बढ़ेंगे.

जब तक इंडियन आर्मी हुलहुले पहुंची, रात के साढ़े नौ बज चुके थे. आर्मी ने तुरंत हुलहुले को सिक्योर किया. इसके बाद एक टीम हुलहुले में ही रुकी. जबकि दूसरी माले की तरफ बढ़ गई. माले तक नाव से जाना था. जवानों ने देखा कि समंदर में एक छोटा जहाज खड़ा है. जो माले तक पहुंचने वाले एक संकरे रास्ते को रोके खड़ा था. इंडियन जवानों ने शिप पर रॉकेट दागे और शिप वहां से दूर चला गया. बाद में ब्रिगेडियर बुलसारा को पता चला कि ये वही जहाज था, जिसमें उग्रवादी माले तक आए थे. इस जहाज़ का नाम MV Progress Light था.  इसी जहाज़ से बाद में उग्रवादियों ने भागने की भी कोशिश की थी. और इंडियन नेवी ने उसका पीछा भी किया था. लेकिन वो आगे की कहानी है.

माले में क्या हुआ?

माले में राष्ट्रपति गय्यूम एक सिक्योर हाउस में छुपे हुए थे. माले पहुंचते ही गय्यूम और बुलसारा की फोन पर बात हुई. जिसमें गोलियों की आवाज साफ़ सुनाई दे रही थी. उग्रवादी गय्यूम के ठिकाने के काफी नजदीक पहुंच चुके थे. रात साढ़े 11 बजे इंडियन आर्मी गय्यूम तक पहुंचने में सफल रही.

मालदीव में दाखिल भारतीय सेना का एक जवान (फोटो सोर्स- इंडिया टुडे)


इस ऑपरेशन में अहम् भूमिका निभाने वाले ब्रिगेडियर सुभाष जोशी, तब कर्नल हुआ करते थे. इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में जोशी बताते हैं,

“माले में हमारी मुलाक़ात इल्यास इब्राहिम से हुई. इब्राहिम गय्यूम के ब्रदर इन लॉ और मालदीव के उप रक्षामंत्री हुआ करते थे.”

इल्यास, जोशी और बाकी टीम को गय्यूम के पास ले गए. बकौल ब्रिगेडियर जोशी, गय्यूम और उनका परिवार सहमा हुआ था. आर्मी ने उन्हें माले से बाहर निकालने की पेशकश रखी. लेकिन गय्यूम इसके लिए तैयार नहीं हुए. उन्होंने नेशनल सिक्योरिटी हेडक्वार्टर तक जाने की रिक्वेस्ट की. जवानों का एक जत्था गय्यूम को हेडक्वार्टर ले गया. रास्ते में जगह-जगह मालदीव की फौज के जवान और उग्रवादी गिरे पड़े थे. चारों तरफ गोलियों और खून के निशान थे. हेडक्वार्टर पहुंचने के बाद राष्ट्रपति गय्यूम ने राजीव गांधी से बात करने की मंशा जाहिर की.

BBC से बातचीत में अरुण बैनर्जी  बताते हैं,

“सुबह के साढ़े चार बजे राजीव गांधी को फोन मिलाया गया. राजीव उस समय उठे हुए थे. और गय्यूम से बात करने के बाद ही वो सोने गए.”

इंडियन आर्मी न सिर्फ गय्यूम को बचाने में सफल रही. बल्कि उन्होंने उग्रवादियों का पूरा प्लान भी फेल कर दिया. उग्रवादियों को माले से जान बचाकर भागना पड़ा. हालांकि, कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती है. इसके बाद शुरू हुआ एक चेज़ सीक्वेंस. दरअसल ऑपरेशन कैक्टस में आर्मी और एयर फ़ोर्स ही नहीं नेवी भी शामिल थी. INS बेतवा और INS गोदावरी. श्रीलंका और मालदीव के बीच तैनात किए जा चुके थे. ताकि अगर वहां से उग्रवादियों को मदद देने की कोशिश हो तो उसे रोका जा सके.

वो शिप जो भारतीय जवानों को माले में घुसने से रोक रही थी, उसी के जरिए उग्रवादियों ने वापिस भागने की कोशिश की. ये लोग 25 से ज्यादा लोगों को अपने साथ बंधक बनाकर ले जा रहे थे. जब नेवी ने उनका पीछा शुरू किया तो उग्रवादियों ने दो बंधकों को मारकर समंदर में फेंक दिया. ये चेतावनी थी- "हमारा पीछा छोड़ दो." लेकिन INS गोदावरी उनके पीछे लगा रहा.  और जल्द ही शिप को अपने कब्ज़े में ले लिया. बंधकों को छुड़ाकर उग्रवादियों को वापस माले ले जाया गया. ताकि उन पर मुक़दमा चल सके.

उधर 4 नवंबर की सुबह पौने आठ बजे राष्ट्रपति गय्यूम कैमरे के सामने पेश हुए. और मालदीव के नागरिकों को संबोधित किया. अब तक देश विदेश के पत्रकार भी मालदीव पहुंच चुके थे. अगले रोज राजीव गांधी ने संसद में बयान देते हुए इस ऑपरेशन के सफल होने पर सिक्योरिटी फोर्सेज को बधाई दी.

ऑपरेशन सफल हो गया था. लेकिन साल 1989 तक मालदीव के हालात सामान्य नहीं हुए. स्थिति नाज़ुक बनी हुई थी. इसलिए राजनीतिक स्थिरता बनाए रखने के लिए करीब 100 भारतीय सैनिक अगले एक साल तक माले में ही तैनात रहे. ऐन मौक़े पर भारत ने राष्ट्रपति गय्यूम की मदद की थी. इसलिए जब तक गय्यूम राष्ट्रपति रहे, भारत और मालदीव के रिश्तों में गर्मजोशी बनी रही. गय्यूम 2008 तक मालदीव के राष्ट्रपति रहे थे.

वीडियो: मालदीव और लक्षद्वीप के विवाद पर भारतीय पर्यटकों ने क्या कहा?

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