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ST आरक्षण के मुद्दे पर मणिपुर जला, अब जम्मू-कश्मीर में क्या होगा? सरकार संसद में बिल ला रही

गुज्जर-बकरवालों ने कहा है, 'पहाड़ियों को आरक्षण नहीं लेने देंगे."

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गुज्जर-बकरवाल समुदाय के लोगों का पहाड़ी आरक्षण के खिलाफ प्रदर्शन, अमित शाह ने दोनों पक्षों के नेताओं से भेंट की थी. (फोटो सोर्स- Twitter Murtaja Kamaal, आजतक)
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शिवेंद्र गौरव
26 जुलाई 2023 (Updated: 26 जुलाई 2023, 23:05 IST)
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मणिपुर को हिंसा की आग में जलते हुए तीन महीने का वक़्त होने को आया है. एक समुदाय को आरक्षण देने की बात चली थी, दूसरे समुदाय ने विरोध में मार्च निकाला. और उसके बाद, दोनों के बीच शुरू हुई हिंसा अब तक नहीं थमी है. इस बीच जम्मू-कश्मीर में भी पहाड़ी समुदाय को आरक्षण देने पर विवाद जारी है. गुज्जर-बकरवाल समुदाय के लोग इसके खिलाफ हैं. वे केंद्र सरकार पर आरोप लगा रहे हैं कि वो दो समुदायों के लोगों को लड़ाना चाहती है. बीते साल अक्टूबर में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह पहाड़ी समुदाय को अनुसूचित जनजाति (ST) कोटे के तहत आरक्षण दिए जाने की बात कह चुके हैं. अब कहा जा रहा है कि संसद के इस मॉनसून सत्र में इससे जुड़े बिल संसद में पेश किए जाएंगे.

चुनावी मौसम में जातीय आरक्षण का वादा और उस पर सियासत नई बात नहीं है. जम्मू-कश्मीर में होते-करते अब कहा जा रहा है कि विधानसभा चुनाव नजदीक हैं. ऐसे में समझने की कोशिश करते हैं कि ये पूरा विवाद क्या है, ST कोटे के तहत आरक्षण मिलने की घोषणा के बाद पहाड़ी समुदाय का विरोध क्यों है, और इससे जुड़े बिल संसद में पेश किए जाने की कितनी संभावना है.

कब-क्या हुआ?

जम्मू-कश्मीर के ST आरक्षण के इतिहास को समझना होगा. साल 1991 में कई समितियों की समीक्षाओं के बाद केंद्र सरकार द्वारा गुज्जर और बकरवाल जनजातियों को अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा मिला. अनुसूचित जनजातियों के लिए जम्मू-कश्मीर में सरकारी नौकरियों और शिक्षा में 10 फीसद का आरक्षण तय किया गया.

जम्मू-कश्मीर में गुज्जर और बकरवाल के अलावा भी कई जनजातीय समूह हैं. लेकिन सबसे ज्यादा फायदा गुज्जर और बकरवाल जनजतियों को है. इसकी वजह है उनकी आबादी. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, जम्मू-कश्मीर की जनजातियों में सबसे ज्यादा आबादी गुज्जर और बकरवालों की है. जनगणना के मुताबिक, जम्मू-कश्मीर में कुल जनजातीय आबादी करीब 15 लाख है. इनमें करीब 13 लाख की आबादी सिर्फ गुज्जर और बकरवाल समुदाय के लोगों की है.

द स्ट्रेटलाइन से जुड़े जम्मू-कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार जुनैद हाशमी कहते हैं,

"गुज्जर-बकरवाल की आबादी सबसे ज्यादा है, इसलिए ऐसा लगता है कि उन्हीं को आरक्षण दिया गया था. लेकिन उनके अलावा भी कई जनजातियों को आरक्षण दिया गया था. मसलन बालती, गारा, बेड़ा, बोड, गद्दी, सिप्पी, द्वाप्पा, चंगपा, पुरिग्पा, मोन आदि जनजातियों को भी आरक्षण मिला हुआ था."

जब गुज्जर-बकरवालों को आरक्षण मिला, तब से ही पहाड़ी समुदाय सहित कुछ और भी समुदाय ST कोटे के तहत आरक्षण की मांग कर रहे थे. सामाजिक और आर्थिक स्थितियों की समीक्षा के बाद इन्हें आरक्षण से दूर रखा गया. साल 2014 में फिर मांग उठी. लेकिन तब उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार ने समीक्षा करने से इनकार कर दिया. इसके बाद जस्टिस जीडी शर्मा (रिटायर्ड) के नेतृत्व में एक आयोग बना. इस आयोग का गठन जम्मू-कश्मीर के उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा ने किया था. आयोग को तय करना था कि किन मापदंडों के आधार पर जम्मू-कश्मीर में किसी समुदाय को सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा हुआ माना जाएगा. उसने केंद्र सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी. इसमें पहाड़ी समुदाय को आरक्षण देने की सिफारिश की गई.

अमित शाह की घोषणा

4 अक्टूबर, 2022. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह जम्मू-कश्मीर के दौरे पर थे. राजौरी में एक जनसभा के दौरान उन्होंने पहाड़ी समुदाय के लिए आरक्षण की घोषणा की. शाह ने कहा कि इससे गुज्जर और बकरवाल समुदाय को दिया जा रहा आरक्षण जरा भी प्रभावित नहीं होगा. गृह मंत्री ने कहा,

"(आर्टिकल) 370 हटने के बाद आरक्षण की प्रक्रिया को मंजूरी दी गई. जस्टिस शर्मा (जीडी शर्मा) आयोग ने रिपोर्ट भेजी थी और गुज्जर, बकरवाल और पहाड़ी समुदायों के लिए आरक्षण की सिफारिश की थी. इन सिफारिशों को मान लिया गया है और कानूनी प्रक्रिया पूरी होने के बाद बहुत जल्द इसका लाभ दिया जाएगा."

जम्मू और शोपियां में गुज्जर और बकरवाल समुदाय के लोगों ने पहाड़ी समुदाय को एसटी का दर्जा देने के खिलाफ प्रदर्शन किया था. हालांकि शाह ने अपनी घोषणा में ये भी कह दिया कि पहाड़ियों को आरक्षण मिलने से गुज्जर और बकरवाल समुदाय के एसटी कोटे में एक फीसदी की भी कटौती नहीं होगी.

आउटलुक की खबर के मुताबिक, शाह की इस घोषणा के बाद जम्मू-कश्मीर सरकार ने अपने आरक्षण के नियमों में बदलाव किए. और पहाड़ी समुदाय को आर्थिक आधार पर (8 लाख रुपए सालाना से कम आय वालों के लिए) 4 फीसद आरक्षण दे दिया. 

गौरतलब है कि आरक्षण का लाभ 'पहाड़ी जातीय समुदाय' (Pahari Ethnic Group) को दिया गया. इससे पहले इस समुदाय को 'पहाड़ी भाषी लोग' (Pahari Speaking People) कहा जाता था. जुनैद हाशमी कहते हैं कि समुदाय एक ही है, लेकिन इस आरक्षण की घोषणा के साथ इसका नाम बदल दिया गया है. आरक्षण की घोषणा के बाद नेशनल कमीशन फॉर शेड्यूल्ड ट्राइब्स (NCST) ने पहाड़ी समुदाय को जम्मू-कश्मीर की अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल कर लिया.

विरोध क्यों है?

गुज्जर और बकरवालों का आरोप है कि पहाड़ियों को आरक्षण देने में आरक्षण के संवैधानिक मापदंडों का पालन नहीं किया गया.

देश में किसी समुदाय को ST सूची में शामिल किए जाने के लिए कुछ मानकों पर खरा उतरना चाहिए. जैसे-

- समुदाय में प्रिमिटिव ट्रेट्स होनी चाहिए. वो आधुनिक रीति-रिवाज और रहन-सहन को मानने वाला न हो.
-उसकी अपनी विशेष सभ्यता हो.
-वो भौगोलिक रूप से अलग-थलग रहता हो.
-आर्थिक रूप से पिछड़ा हो.
-बाकी समाज से संपर्क रखने में संकोच करता हो.

गुज्जर-बकरवालों की और भी कई चिंताएं हैं. मसलन, उनको लगता है कि पहाड़ी समुदाय के शामिल हो जाने से उन्हें मिल रहा आरक्षण का फायदा बेमानी हो जाएगा. इसके पीछे उनका तर्क है कि पहाड़ी समुदाय, उनसे कहीं अधिक शिक्षित और आर्थिक रूप से मजबूत है.

गुज्जर-बकरवाल, जीडी शर्मा आयोग की रिपोर्ट से भी सहमत नहीं हैं. उनका कहना है कि ये रिपोर्ट 'पहाड़ी समुदाय की जमीनी सच्चाई पर आधारित नहीं है. रिपोर्ट मनगढ़ंत है'. दोनों समुदायों के नेताओं का कहना है कि उनकी आबादी, जनगणना में बताई गई आबादी से कहीं ज्यादा है. और आरक्षण में पहाड़ियों के शामिल हो जाने से एक ही कोटे में आपसी संघर्ष बढ़ेगा.

अमित शाह की घोषणा के बाद गुज्जर-बकरवाल समुदाय ने रैली निकालकर विरोध किया था. उनके नेता नवंबर 2022 में दिल्ली जाकर शाह से मिले भी थे. उन्हें फिर वही आश्वासन दिया गया कि गुज्जर और बकरवाल की जनजातीय पहचान और उनकी नौकरियों को सुरक्षित रखा जाएगा. और पहाड़ियों को आरक्षण दिए जाने से उनके कोटा पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा.

लेकिन गुज्जर नेताओं का कहना है कि अमित शाह से हुई बातचीत का कोई फायदा नहीं है. क्योंकि कोटा के अंदर कोटा का कोई कॉन्सेप्ट नहीं है. उनके आरक्षण को सुरक्षित रखने का कानून बना भी दिया गया तो उसे आसानी से सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है.

संसद में क्या होगा?

अब 2023 में आते हैं. संसद का मॉनसून सेशन शुरू हुआ. कहा गया कि इसी सेशन में केंद्र सरकार संसद में तीन बिल लाने जा रही है. ये तीनों बिल हैं- ‘संविधान अनुसूचित जनजाति (संशोधन) अधिनियम 2023’, ‘संविधान अनुसूचित जाति (संशोधन) अधिनियम 2023’ और ‘जम्मू-कश्मीर आरक्षण (संशोधन) अधिनियम 2023’.

उधर बीती 23 जुलाई को जम्मू में मशाल रैली निकाली गई. इसमें गुज्जर-बकरवाल के अलावा भी कई समुदायों के लोग शामिल हुए. उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा कि अगर संसद में पहाड़ियों को आरक्षण देने वाला बिल लाया जाता है तो वो अपने जानवरों के साथ जम्मू-कश्मीर की सड़कों पर उतरेंगे.

द हिंदू से जुड़े पीरजादा आशिक की खबर के मुताबिक, गुज्जर नेता गुफ्तार अहमद चौधरी ने कहा,

“हमारा संघर्ष संविधान को बचाने का है. ये सिर्फ जम्मू-कश्मीर नहीं बल्कि पूरे देश की जनजातियों के हक़ की सियासी लड़ाई है. ऊंची जाति के पहाड़ी लोगों को शामिल करने का BJP का कदम भड़काने वाला है. BJP आदिवासी विरोधी है. उसका इरादा एक समुदाय को दूसरे समुदाय के खिलाफ खड़ा करने का है. आप देखिए मणिपुर में क्या हो रहा है.”

एक और गुज्जर नेता तालिब हुसैन आरोप लगाते हैं,

"संविधान और इसकी संरचना को ख़त्म करने के लिए गैर-लोकतांत्रिक तरीके से क़ानून बनाए जा रहे हैं. जीडी शर्मा, जिन्होंने (पहाड़ियों को आरक्षण देने संबंधी) सिफारिश की थी, वो खुद गडा ब्राह्मण कम्युनिटी से आते हैं. मनुस्मृति कहती है कि 'यज्ञ' ब्राह्मण ही कर सकता है, तो एक ब्राह्मण जम्मू-कश्मीर में जनजातीय कैसे हो सकता है?"

तालिब ये भी आरोप लगाते हैं कि ST आरक्षण के मुद्दे का इस्तेमाल करके BJP अपनी असफलताओं से ध्यान हटाना चाहती है. कहते हैं कि BJP ने ट्राइबल्स के लिए फ़ॉरेस्ट राइट्स लागू करने का वादा किया था जो अभी तक लागू नहीं हुआ है. ये एक कम्युनिटीज के बीच एक संघर्ष शुरू करने की रणनीति है.

वहीं जुनैद हाशमी कहते हैं कि बिल का संसद में पेश होना तो तय है, वो भी इसी सेशन में. बिल में गडा ब्राह्मण, पहाड़ी, पाडरी, कोली को सरकार आरक्षण देने जा रही है.

राष्ट्रपति से गुहार

इस पूरे मामले को लेकर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु को भी एक पत्र लिखा गया. इसमें गुज्जर-बकरवालों की तरफ से कहा गया,

"पहाड़ी बोलने वाले लोगों में कई समुदायों के लोग आते हैं. इन लोगों को संविधान के आर्टिकल 15 और 16 के तहत पहले से ही विशेष फायदे मिल रहे हैं. मुसलमानों में सैयद, मुग़ल, मलिक सबसे ज्यादा विशेषाधिकार प्राप्त जातियां हैं. हिंदुओं में भी उच्च जातियों के लोग अब जनजातीय स्टेटस दिए जाने की मांग कर रहे हैं."

गुफ्तार चौधरी पहाड़ियों की परिभाषा पर भी सवाल उठाते हैं. उनका कहना है,

"कोई भी जाति, अनुसूचित जनजाति में तभी शामिल की जा सकती है जब ये साल 1965 की लोकुर कमेटी के मापदंडों को पूरा करती हो. पहाड़ी कौन है? जम्मू शहर में रहने वाले राजपूत और श्रीनगर के जवाहरपुर में रहने वाले लोग भी पहाड़ी हैं. पहाड़ी की कोई सटीक परिभाषा नहीं है."

जम्मू-कश्मीर में लगभग 10 लाख पहाड़ी आबादी है. राजौरी के कुछ हिस्सों के अलावा पुंछ और कश्मीर के हंदवाड़ा, कुपवाड़ा और बारामुला जिलों में पहाड़ी लोग रहते हैं. ये भाषाई आधार पर पहाड़ी हैं. लेकिन इनमें कई समुदायों के लोग आते हैं- मसलन हिन्दुओं में ब्राह्मण, राजपूत. मुस्लिमों में सैयद, पठान, खान आदि.

जुनैद हाशमी का कहना है कि गुज्जर-बकरवाल को अपने आरक्षण में सेंध लगने की चिंता है. वो कहते हैं,

"उच्च जातियां जैसे ब्राह्मण, राजपूत, सैयद, पठान, खान, राजौरी-पुंछ के इलाके में रहते हैं. भारत के इतिहास में पहली बार इनको आरक्षण मिलने जा रहा है. गुज्जर-बकरवालों का कहना है कि ये लोग किसी भी तरह पिछड़े नहीं हैं. ताकतवर लोग रहे हैं. इन्हें आरक्षण देने का कोई तुक नहीं है. इसीलिए वे विरोध कर रहे हैं. गुज्जर-बकरवाल समुदाय के लोग ये भी कहते हैं कि उन्हें पहाड़ियों को अलग से 4 फीसद आरक्षण दिए जाने से समस्या नहीं है. वो चाहते हैं कि हमारे 10 फ़ीसद में छेड़छाड़ न करें. 

 

सरकार ऐसा भी न करे कि 14 फीसद आरक्षण गुज्जर-बकरवाल और पहाड़ियों को एकसाथ दे दे. क्योंकि ऐसे में गुज्जर-बकरवाल समुदाय का नुकसान होगा. अभी तक जो बिल मैंने देखा है, उसमें ऐसी कोई रूपरेखा नहीं है कि 10 फीसद और 4 फीसद को अलग रखा गया है. हालांकि इसमें आगे कोई संशोधन हो तो अलग बात है."

पहाड़ी समुदाय का भी अपना पक्ष है. उनका कहना है कि साल 1991 में जब दूसरी जातियों को ST का स्टेटस मिला तो उन्हें नजरअंदाज किया गया. पहाड़ियों का कहना है कि उन्हें भी बिजली, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी दूसरी सुविधाएं सुचारू रूप से नहीं मिलती हैं. वे भी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से उतना ही कमजोर हैं जितना आरक्षण प्राप्त दूसरी ST जनजातियां. इसलिए इन्हें भी आरक्षण की उतनी ही जरूरत है.

बीजेपी का राजनीतिक फायदा?

जम्मू-कश्मीर में नए परिसीमन के बाद 9 विधानसभा सीटें ST कोटे के तहत आरक्षित हैं. इस पर जुनैद हाशमी बताते हैं,

“पहाड़ी कम्युनिटी के लिए कहा जा रहा है कि इनकी आबादी ज्यादा नहीं है. राजौरी और पुंछ इलाके में गुज्जर-बकरवाल को छोड़ दें तो लगभग सारी आबादी पहाड़ी ही कहलाएगी. ST के लिए 9 विधानसभा सीटें रिजर्व्ड हैं. इस आरक्षण के कारण, इन 9 सीटों पर पहाड़ी और गुज्जर-बकरवाल भी चुनाव लड़ सकते हैं. हालांकि अभी तक केंद्र सरकार ने सिर्फ नौकरी और शिक्षा में आरक्षण की बात कही है. लेकिन पहाड़ी लोगों की मांग है कि उन्हें राजनीतिक आरक्षण भी दिया जाए. ताकि जो 9 रिजर्व्ड सीटें हैं उन पर भी पहाड़ी लोग चुनाव लड़ सकें. 

 

बीजेपी ने पहाड़ी कम्युनिटी को करीब लाने की बहुत कोशिश की है. उन्होंने करना, उरी, कुपवाड़ा के इलाकों में खूब रैलियां की हैं. यहां पहाड़ी कम्युनिटी के लोग रहते हैं. बीजेपी को लगता है कि अगर वे पहाड़ी लोगों को रिजर्वेशन दे देते हैं तो इन सीटों पर बढ़त बना सकते हैं. अमित शाह की पहाड़ी कबीले के लोगों को आरक्षण देने की घोषणा के पीछे सोची-समझी कैलकुलेशन थी. हवा में घोषणा नहीं की गई है. उन्हें पता है कि इस घोषणा से राजौरी पुंछ इलाके में क्या राजनीतिक समीकरण बनेंगे.”

एक आख़िरी सवाल और मणिपुर के मद्देनजर इस पूरे मसले का सबसे चिंताजनक पहलू. क्या जम्मू-कश्मीर में मणिपुर जैसे हालात बनने की आशंका है या हो सकती है?

इस पर जुनैद कहते हैं,

"इससे पहले भी आरक्षण को लेकर गुज्जर-बकरवाल और पहाड़ी समुदाय के बीच राजनीतिक तनातनी रही है. लेकिन ऐसे हालात कभी नहीं बने हैं जैसे आज मणिपुर में हैं. मुझे नहीं लगता कि आगे भी ऐसे कोई हालात बन सकते हैं. लोग हंगामा कर सकते हैं. सड़क पर उतर कर धरना दे सकते हैं. सबकुछ संभव है. लेकिन मणिपुर जैसे हालात नहीं बनेंगे. राजौरी और पुंछ, LOC से सटा हुआ इलाका है. यहां आर्मी और पुलिस का बहुत ताकतवर नेटवर्क है."

जुनैद ये भी कहते हैं कि तनातनी बढ़ने पर दोनों समुदायों में ऐसे नेता हैं जो दोनों समुदायों को समझाने-बुझाने का काम कर सकते हैं.

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