पश्चिम बंगाल में राजनैतिक हिंसा का पूरा सच ये है
कांग्रेस, वाम, तृणमूल और अब भाजपा. पार्टियां आती रहीं, हिंसा का चक्र नहीं थमा.
पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव से पहले फिर हिंसा की खबरें आने लगी हैं. चुनाव में अभी करीब 25 दिन बाकी हैं. नामाकंन प्रकिया शुरू होते ही हिंसा होने लगी. पूर्वी मेदिनीपुर, आसनसोल समेत कई जगहों पर राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर हमले हुए. मौत भी हुई. हालत ये हो गई है कि चुनाव आयोग ने सभी नामांकन केंद्रों के एक किलोमीटर के दायरे में धारा-144 लगाने का फैसला किया है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) को चिट्ठी लिखनी पड़ी है कि राज्य सरकार हिंसा रोकने के लिए जरूरी कदम उठाए. राज्य में पंचायत चुनाव के लिए 8 जुलाई को वोटिंग होगी. 11 जुलाई को नतीजे आएंगे.
चुनाव के समय हिंसा दूसरे राज्यों में भी होती है, लेकिन अनिवार्य रूप से नहीं. लेकिन पश्चिम बंगाल अलग है. पंचायत चुनाव हो या विधानसभा से लेकर लोकसभा, सूबे में चुनाव के आसपास हिंसा की घटनाएं खूब होती हैं. जैसे ये चुनावी प्रक्रिया का कोई जरूरी हिस्सा हो. पिछले कुछ चुनावों में भी वोटिंग से पहले और नतीजों के बाद खून-खराबे के साथ-साथ रेप तक की घटनाएं सामने आ चुकी हैं.
लोकतंत्र के 'गन-तंत्र' में बदलने का एक बड़ा उदाहरण 2018 का पंचायत चुनाव है. बमबारी, बूथ कैप्चरिंग, गोलीबारी, सब हुई. यहां तक कि पत्रकारों पर हमले किए गए. ऐन चुनाव वाले दिन 13 लोगों की मौत हुई थी. पूरे चुनाव के दौरान कम से कम 20 लोगों ने जान गंवाई थी. चुनाव में ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी 34 परसेंट सीटों पर निर्विरोध जीत गई थी. लेकिन राज्य में बैलेट और बुलेट का इतिहास काफी पुराना और डरावना है. चाहे वो कांग्रेस का समय हो या फिर 34 साल चला वाम शासन. हिंसा कभी नहीं रुकी.
हिंसा का इतिहासबंगाल के किसी भी राजनीतिक एक्सपर्ट से जब आप बात करेंगे तो वो एक लाइन जरूर बताएंगे. यही कि बंगाल में राजनीतिक हिंसा यहां के इतिहास और संस्कृति का हिस्सा रहा है. ये वही बंगाल है जिसे शाहजहां के बेटे और 17वीं शताब्दी में बंगाल के गवर्नर रहे मिर्जा शाह शुजा ने 'शांतिप्रिय' बताया था. शांतिप्रिय बताने के एक सदी के भीतर 1770 में बंगाल में अकाल पड़ा, मौतें हुईं और खूब हिंसा भी हुई. एक सदी बाद 1870 और 1880 के बीच कुछ ऐसा ही हुआ- अकाल, मौतें और हिंसा. बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने भी अपने उपन्यास आनंदमठ में इसका जिक्र किया कि किस तरह अकाल के कारण बंगाल में हिंसा भड़की.
आजादी से पहले भी 1943 में ऐसा ही हुआ. अकाल में लाखों लोगों की मौत हुई. फिर तीन साल बाद 1946 में भीषण दंगे हुए. मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की मांग को लेकर 'डायरेक्ट एक्शन' का आह्वान किया था. कलकत्ता की सड़कों पर हजारों लोग मारे गए. आज भी लोग इसे किताबों में 'द ग्रेट कैलकटा किलिंग' के नाम से पढ़ते हैं.
बंगाल के वरिष्ठ पत्रकार जयंता घोषाल बताते हैं कि आजादी की लड़ाई के दौरान भी हार्ड लाइन लेने वाले कई नेता बंगाल से निकले थे. घोषाल के मुताबिक,
रूस और चीन वाली क्रांति का जोर"सुभाष चंद्र बोस हों या खुदी राम बोस हों. जो एक्स्ट्रीमिस्ट विंग था उसमें ज्यादातर बंगाली थे. साल 1911 में जब अंग्रेजों ने राजधानी कलकत्ता से दिल्ली शिफ्ट की, उसके पीछे ये भी एक कारण है. क्योंकि अंग्रेजों के हिसाब से बंगाल में 'टेररिस्ट मूवमेंट' बढ़ रहा था."
आजादी के बाद कम्युनिस्टों ने 'सर्वहारा क्रांति' करने की कोशिश की. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (CPI) संसदीय लोकतंत्र का विरोध कर रही थी. पार्टी का मत था कि भारत में भी रूस और चीन की तरह हथियारबंद संघर्ष हो और ‘सर्वहारा की सत्ता’ स्थापित हो. सीपीआई पर बैन लगा दिया गया. हालांकि कुछ ही समय बाद पार्टी इस लाइन से अलग हुई. मेनस्ट्रीम राजनीति में आई.
साल 1951 में सीपीआई ने अपना 'स्टेटमेंट ऑफ पॉलिसी' जारी किया. इसमें पार्टी ने कहा कि हिंसा, साम्यवाद का कोई मूलतत्व नहीं है. पार्टी का कहना था कि एक प्रतिक्रियावादी शासक वर्ग है, जो आम लोगों के खिलाफ बल और हिंसा का सहारा लेता है. पार्टी हिंसा को रणनीति का हिस्सा बनाकर नहीं चलती है, लेकिन जब लोगों के पास कोई विकल्प नहीं बचता, तो पार्टी इससे इनकार नहीं करती. ये भी कहा कि लोगों की हितों की रक्षा के लिए चुनाव में हिस्सा लेना जरूरी है.
इस तरह पार्टी ने भारत में सशस्त्र क्रांति का विचार छोड़ दिया और देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा बनी. उन दिनों कांग्रेस के सामने विपक्ष के रूप में सबसे बड़ी पार्टी सीपीआई ही थी. लेकिन कम्यूनिस्ट आंदोलन के एक हिस्से ने हिंसा का विचार नहीं त्यागा.
1957 में केरल में पहली कम्युनिस्ट सरकार बन चुकी थी. केरल के बाद पार्टी का आधार बंगाल में सबसे ज्यादा था. इसलिए पार्टी कांग्रेस सरकार के खिलाफ लगातार आंदोलन करती रही. 31 अगस्त 1959 को पार्टी ने कलकत्ता में अनाज और भूमि वितरण को लेकर बड़ा आंदोलन किया. करीब 3 लाख लोग शामिल हुए थे. प्रदर्शन को रोकने के लिए पुलिस ने फायरिंग कर दी थी, इसमें करीब 80 लोग मारे गए थे. इसके बाद बंगाल में राजनैतिक हिंसा का जैसे चक्र चल पड़ा.
जब कम्युनिस्ट सत्ता में आए1967 में सीपीएम गठबंधन के जरिये बंगाल में पहली बार सत्ता में आई. बंगाल कांग्रेस (कांग्रेस से अलग हुआ धड़ा) के नेता अजय मुखर्जी मुख्यमंत्री थे. ज्योति बसु उप-मुख्यमंत्री बने थे. 1967 में ही दार्जिलिंग के नक्सलबाड़ी गांव से जमींदारों के खिलाफ नक्सलबाड़ी आंदोलन शुरू हुआ, जो धीरे-धीरे राज्य भर में फैल गया. एक्स्ट्रीम लेफ्ट का धड़ा चीन के चेयरमैन माओ की राह पर चलने को तैयार था - बंदूक की नाल से क्रांति. नतीजा - हिंसक विद्रोह. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी तक ने इस आंदोलन के प्रति समर्थन दिखा दिया. सीपीएम पर आरोप लगता है कि अगर वो सत्ता में नहीं होती तो इस तरह का विरोध नहीं हो पाता.
एक साल में ही गठबंधन सरकार गिर गई. राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया. दोबारा चुनाव हुए तो एक बार फिर बंगाल कांग्रेस और सीपीएम ने मिलकर सरकार बनाई. लेकिन दोनों दल ऐसे थे जो एक साथ काम नहीं कर सकते थे. क्योंकि सीपीएम धरना-प्रदर्शन को भी सपोर्ट करती थी. पत्रकार अजय घोषाल कहते हैं कि उस दौरान रोज हत्याएं होती थी. इस हिंसा के खिलाफ अजय मुखर्जी एक बार धरने पर बैठ गए थे. सीधा आरोप लगाया कि सीपीएम हिंसा करवा रही है.
इधर, सीपीएम से अलग होकर लेफ्ट के अतिवादी गुट बन गए थे. उनका मानना था कि सीपीएम सत्ता में बैठकर लोगों के हितों के साथ समझौता कर रही है. इसलिए सीपीएम के काडर पर भी हमले होने लगे. कई रिपोर्ट कहती हैं कि गठबंधन सरकार के इस छोटे से कार्यकाल में हिंसा की सैकड़ों घटनाएं हुई. 1970 में दोबारा राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया. कहते हैं कि उथल-पुथल के बीच कांग्रेस राज्य में दोबारा सत्ता में आना चाहती थी.
वाम की रवानगी, लेकिन हिंसा नहीं थमी1972 में चुनाव हुए तो कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई. ये चुनाव भी हिंसक ही था. रबिन्द्र भारती यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट के प्रोफेसर बिश्वनाथ चक्रबर्ती कहते हैं कि राज्य में हमेशा से हिंसा का उपयोग विपक्ष की राजनीति पर नियंत्रण के लिए किया गया. चक्रबर्ती बताते हैं,
"1972 के चुनाव में कांग्रेस की सरकार बनने पर सिद्धार्थ शंकर रे मुख्यमंत्री बने. वो धांधली करके सत्ता में पहुंचे थे. सत्ता में आने के बाद विपक्ष को खत्म करने की पूरी कोशिश हुई. हर गली में गुंडाराज कायम हो गया था. फिर इमरजेंसी के दौरान राजनीतिक हिंसा और बढ़ी. विपक्षियों को बड़े पैमाने पर गिरफ्तार किया गया. ये पूरे देश में हो रहा था. लेकिन यहां ज्यादा हुआ."
इसे लेकर लगातार विरोध हुआ. सीपीएम ने अपने मुखपत्र गणशक्ति में पश्चिम बंगाल में सिद्धार्थ शंकर रे के दौर को 'आतंक का राज' तक कह दिया था.
पांच साल सरकार चलाने के बाद कांग्रेस राज्य से बाहर हो गई. 1977 में लेफ्ट की पहली बार बहुमत वाली सरकार बनी. अगले साल लेफ्ट सरकार ने पंचायत चुनावों की घोषणा की. प्रोफेसर चक्रबर्ती के मुताबिक, लेफ्ट ने वही किया जो कांग्रेस कर रही थी. जहां-जहां विपक्ष मजबूत था, वहां रणनीति बनाकर उसे खत्म करने का प्रयास किया गया. इसके लिए लेफ्ट ने एक अलग एक्शन ग्रुप बना रखा था. लेफ्ट के शासन के दौरान 344 ब्लॉक में करीब 100 ब्लॉक ऐसे थे, जहां विपक्ष का नामोनिशान नहीं था.
वहीं, जयंतो घोषाल कहते हैं कि हिंसा कुछ इस तरीके से चली कि पहले कांग्रेस ने हिंसा को स्पॉन्सर किया, फिर सीपीएम सत्ता में आई तो उसने कांग्रेस की परंपरा को आगे बढ़ाया. और जब लेफ्ट को पटखनी देकर तृणमूल कांग्रेस को सत्ता मिली, तो उसने लेफ्ट की हिंसक परंपरा को विस्तार दिया. किसी ने रोकने की कोशिश नहीं की. आज हर चुनाव में टीएमसी विपक्षियों को डराने के लिए हिंसा का सहारा ले रही है.
ममता बनर्जी पर खुद हमला हुआआज हिंसा के लिए ज़िम्मेदार ठहराई जा रहीं ममता बनर्जी खुद राजनैतिक हिंसा की शिकार रह चुकी हैं. तब ममता कांग्रेस में थीं. 1989 का लोकसभा चुनाव सीपीएम की मालिनी भट्टाचार्य से हार चुकी थीं. लेकिन राज्य में सीपीएम सरकार के विरोध में आवाज उठाती रहीं. 16 अगस्त 1990 को कांग्रेस ने सरकारी बसों के बढ़े किराए के खिलाफ हड़ताल बुलायी थी. ममता जब पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ कलकत्ता के हजारा इलाके में पहुंचीं तो सीपीएम के लोगों ने उन्हें घेर लिया और हमला शुरू कर दिया.
ममता बनर्जी अपनी आत्मकथा 'My Unforgettable Memories' में लिखती हैं,
"मैंने देखा कि लालू आलम और उसके चार-पांच साथी मेरी तरफ बढ़ रहे हैं. उन्होंने हाथ में लोहे की रॉड और पिस्तौलें थामी हुई हैं. मुझे पता था कि यही होने वाला है. मैं शांति से उनके मुझ तक पहुंचने का इंतजार करने लगी. लालू आलम ने आते ही मेरे सिर पर लोहे की रॉड से वार किया. मैं खून से भीग गई."
ममता कई दिनों तक अस्पताल में भर्ती रही थीं. कई साल बाद, 2011 में लालू आलम ने ममता बनर्जी से माफी मांगी. उसने कहा था कि सीपीएम ने जबरदस्ती उससे हमला करवाया था. 2019 में उसे इस केस से बरी भी कर दिया गया.
इसी तरह, 21 जुलाई 1993 को ममता बनर्जी की अगुवाई में यूथ कांग्रेस का एक और प्रदर्शन हुआ. कांग्रेस राज्य में फोटो वोटर आईडी की मांग कर रही थी. सीपीएम ने 1991 का चुनाव भारी बहुमत से जीता था. कांग्रेस ने इस जीत को फ्रॉड बताया और वोटर आईडी में फोटो की मांग करने लगी. कोलकाता की मशहूर राइटर्स बिल्डिंग के सामने प्रदर्शन हुआ. पुलिस ने भीड़ पर फायरिंग कर दी. 13 कांग्रेस कार्यकर्ता मारे गए.
इस घटना के बाद ममता बनर्जी को खूब सहानुभूति मिली. कांग्रेस के भीतर रहते हुए ही एक अलग पहचान मिलने लगी. साल 1998 में ममता ने कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी बना ली.
पोरिबोर्तन, जो हो न सकापार्टी बनाने के बाद भी ममता बनर्जी 13 सालों तक राज्य में सत्ता से दूर रहीं. लेफ्ट की सरकार के खिलाफ ममता बनर्जी ने खूब प्रदर्शन किए. साल 2007 में नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण के दौरान हुई हिंसा की घटनाओं ने राजनीतिक विरोध की जमीन तैयार की. ममता बनर्जी ने इसे लपक लिया. लेफ्ट की तर्ज पर ही नारा दे दिया- 'आमार नाम तोमार नाम, सबार नाम नंदीग्राम'. 2011 के चुनाव में ममता बनर्जी सत्ता में आ गईं. नारा दिया, 'पोरिबोर्तोन' (बदलाव) का.
लेकिन राजनीतिक हिंसा की संस्कृति में कोई पोरिबोर्तन नहीं आया. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो NCRB के आंकड़े बताते हैं कि साल 2010 से 2019 के बीच सबसे ज्यादा राजनीतिक हत्याएं बंगाल में हुई. कुल 161. इसके बाद बिहार 156 हत्याओं के साथ दूसरे नंबर पर था.
प्रोफेसर विश्वनाथ चक्रबर्ती बताते हैं कि इसके साथ आर्थिक पहलू भी जुड़ा हुआ है. क्योंकि बंगाल में उद्योग पूरी तरह खत्म हो चुका है. बहुत लोग पलायन कर चुके हैं. जो लोग हैं, वे स्थानीय स्तर पर संसाधनों पर कब्जा जमाने की कोशिश में रहते हैं. चक्रबर्ती के मुताबिक,
"ये उपक्रम चलता है पार्टी के गिरोह के जरिये. बंगाल में सिंडिकेट राज और पंचायती राज एक साथ चल रहा है. इसलिए लोग पंचायत स्तर पर भी सत्ता हथियाने के लिए पूरा जोर लगाते हैं. अगर वो पंचायत नहीं जीतेंगे तो लोकसभा और विधानसभा भी जीतना मुश्किल होगा. क्योंकि पोलिंग पर नियंत्रण उन्हीं का होता है. इसलिए विपक्ष भी जान-प्राण देकर पंचायत चुनाव जीतना चाहता है."
जयंतो घोषाल भी आर्थिक पहलू को नजरअंदाज नहीं करते हैं. उनके मुताबिक, अगर बंगाल में भारी उद्योग होते, बड़ी फैक्ट्रियां होती तो आज कानून-व्यवस्था की ये स्थिति नहीं होती. आज हालत ये हो गई कि बंगाल में बम बनाना एक बिजनेस हो गया है.
हिंसा की संस्कृति और भारतीय जनता पार्टी का उदयकुछ साल पहले तक राजनीतिक हिंसा दो खेमों की लड़ाई तक सीमित थी - लेफ्ट और कांग्रेस. अब एक नए खिलाड़ी की आमद हुई है - भारतीय जनता पार्टी. साल 2003 के पंचायत चुनाव में पूरी चुनावी प्रकिया के दौरान 76 लोग मारे गए थे. इससे सबसे ज्यादा सीपीएम के ही 31 कार्यकर्ता थे. कांग्रेस के 19 और टीएमसी और बीजेपी के आठ-आठ कार्यकर्ता मारे गए.
एक वक्त सूबे में हिंसा पार्टी पॉलिटिक्स को लेकर होती थी. बीजेपी के उदय ने इसे अपने हिसाब से बदला. प्रोफेसर चक्रबर्ती के मुताबिक, ममता बनर्जी ने पहले मतुआ समुदाय को लेकर आइडेंडिटी पॉलिटिक्स शुरू की. फिर गोरखा समुदाय और बाद में मुसलमानों को लेकर इसी तरह की राजनीति हुई. इसके काउंटर में बीजेपी ने हिंदुत्व की राजनीति को अपना आधार बनाया. अब जो हिंसा होती है, उसमें इस आइडेंडिटी पॉलिटिक्स का अहम रोल रहता है. हिंदू-मुस्लिम की राजनीति, जातिगत हिंसा भी आपको नजर आ जाएगी.
पश्चिम बंगाल के पूर्व IPS अधिकारी नजरूल इस्लाम के मुताबिक, शांति से चुनाव के लिए जरूरी है कि पर्याप्त संख्या में पुलिस बल तैनात हों. सत्ताधारी पार्टी यही नहीं चाहती है. पहले की पार्टियां भी यही करती थीं. जरूरी है कि लॉ एंड ऑर्डर को मजबूत किया जाए. जितनी कम पुलिस फोर्स होगी, ममता बनर्जी की पार्टी को उतना फायदा होगा.
बहरहाल, कलकत्ता हाई कोर्ट ने पंचायत चुनाव के लिए केंद्रीय बलों को तैनात करने का आदेश दे दिया है. राज्य चुनाव आयोग ने जिन सात जिलों को संवेदनशील बताया था, वहां सेंट्रल फोर्सेस की तैनाती होंगी. क्या ये हिंसा को रोक पाएंगी? इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है.
वीडियो: पश्चिम बंगाल में हिंसा पर BJP सांसद अर्जुन सिंह ने ममता बनर्जी की यह 'कुंडली' खोल दी!