3 चंद्रयान लॉन्च करने का इनाम- 18 महीनों से तनख्वाह नहीं मिली
चंद्रयान-3 मिशन सफलता की उम्मीद है? HEC की कहानी जानकर निराश्व हो जाएंगे आप.
HEC की कहानी बताती है कि आत्मनिर्भर भारत का कैसे मखौल उड़ाया जा रहा है. जो सरकारी कंपनियां चंद्रयान जैसे महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट्स से जुड़ी हैं, वो तनख्वाह तक नहीं बांट पा रही हैं.
14 जुलाई 2023 को दोपहर ढाई बजे श्रीहरिकोटा स्थित सतीष धवन स्पेस सेंटर से भारत का महत्वाकांक्षी चंद्रयान-3 मिशन लॉन्च (Chandrayaan 3 Mission Launch) हुआ. सिर्फ 20 मिनट में LVM 3 रॉकेट ने चंद्रयान-3 को अपनी कक्षा में स्थापित कर दिया. इसके बाद क्रमशः चंद्रयान धरती से दूर होता जाएगा और चांद के करीब. सब ठीक रहा तो 23 अगस्त को ये चांद की सतह पर उतर जाएगा. भारत का चंद्रयान. जिसके लॉन्च पर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से लेकर हर भारतीय ने गर्व का अनुभव किया. ये सब हो पाया, क्योंकि चंद्रयान को Heavy Engineering Corporation Limited यानी HEC के बनाए लॉन्च पैड से प्रक्षेपित किया जा सका. ज़ाहिर है, HEC के इंजीनियर और कर्मचारी भी गर्व का अनुभव कर रहे थे. लेकिन उनकी खुशी कुछ फीकी थी. वो घर लौटते हुए अपने बच्चों के लिए कुछ अच्छा ले जाना चाहते थे. लेकिन क्या करते, 18 महीने से तनख्वाह ही नहीं मिली.
भारत सरकार के भारी उद्योग मंत्रालय के तहत आने वाली HEC ने तीन चंद्रयानों के लिए लॉन्च पैड बनाया है. स्पेस सेक्टर के साथ-साथ आर्थिक-सामरिक महत्व रखने वाले स्टील सेक्टर, एटॉमिक एनर्जी सेक्टर और भारतीय नौसेना के लिए HEC कई जरूरी उपकरण बनाता है. जो तकनीक और उपकरण कल तक भारत आयात करता है, वो देश में बनाकर दिए हैं. लेकिन यही काम करने वाले कर्मचारी, अपने रोजमर्रा के खर्चे, बच्चों की पढ़ाई और दवाई वगैरह के खर्चे के लिए कर्ज ले रहे हैं. सैलरी कब आएगी इसका कोई पता नहीं है. हड़ताल, धरना और सरकारों से कई दौर की बातचीत करके भी कोई समाधान नहीं निकला है. HEC की बदहाली दूर करने के लिए सरकारी सहायता की दरकार है. लेकिन कर्मचारियों का कहना है कि कंपनी को बंद करने की साजिश चल रही है. अब उनकी उम्मीद PM मोदी से है.
कारखाना बनाने वाला कारखाना - HEC1947 में भारत से जाने से पहले अंग्रेज़ जितना हो सका, उतना शोषण करके गए थे. उद्योगों के नाम पर हमारे पास कुछ मिलें और कारखाने ज़रूर थे, लेकिन ये नाकाफी थे. इसकी एक वजह ये भी थी, कि भारत में कैपिटल गुड्स इंडस्ट्री न के बराबर थी. ये क्या होता है, इसे आप एक उदाहरण से समझिए. कपड़े की सिलाई के लिए काम आती है सिलाई मशीन. लेकिन कारखाने में सिलाई मशीन को भी तो कोई मशीन बनाती है. और ये मशीन भी किसी कारखाने में बनती है. यही कारखाना कैपिटल गुड्स इंडस्ट्री के तहत आता है.
कैपिटल गुड्स इंडस्ट्री किसी भी देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण होती हैं. क्योंकि पावर प्लांट, स्टील मिल और दूसरे भारी उद्योगों में लगने वाली बड़ी-बड़ी मशीनें और टूल्स इसी सेक्टर की कंपनियां बनाती हैं. कैपिटल गुड्स नहीं बनेंगे, तो कंज़्यूमर गुड्स कभी नहीं बन पाएंगे. यही देखते हुए HEC का विचार पनपा. स्थापना हुई साल 1958 में. उद्देश्य था कैपिटल गुड्स का प्रॉडक्शन देश के रणनीतिक और आर्थिक महत्व के प्रॉजेक्ट्स में मदद करना.
HEC में मैटेरियल मैनेजमेंट डिपार्टमेंट के मैनेजर और ऑफिसर्स एसोसिएशन के जनरल सेक्रेटरी पूर्णेंदु दत्त मिश्र कहते हैं,
"आज़ादी के बाद भारत को माइनिंग और स्टील सेक्टर में पहलकदमी करनी थी. लेकिन इसके लिए ज़रूरी मशीनें हमारे पास नहीं थीं. इसीलिए प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने HEC की शक्ल में एक 'मदर इंडस्ट्री' की कल्पना की. इसके लिए तब भारत और चेक गणराज्य में समझौता हुआ था. शुरुआत में HEC ने स्टील सेक्टर के लिए काम करना शुरू किया था. बोकारो, विशाखापत्तनम, भिलाई और राउरकेला स्टील प्लांट, HEC ने ही खड़े किए हैं.''
HEC को रांची में क्यों स्थापित किया गया, इस पर पूर्णेंदु कहते हैं,
''सरकार एक साथ दो हित साध रही थी. कोयला, लौह अयस्क आदि खनिज का भंडार इसी इलाके (झारखंड-छत्तीसगढ़-ओडिशा) में है. फिर सरकार चाहती थी कि इतना बड़ा प्लांट किसी पिछड़े इलाके में लगे, ताकि आसपास के इलाकों का भी विकास हो. इस दृष्टि से दो-तीन जगहों पर विचार किया गया. और अंत में HEC का मुख्य प्लांट रांची में स्थापित किया गया. आज HEC केंद्रीय भारी उद्योग मंत्रालय के अंतर्गत आता है और शेड्यूल A कैटेगरी का CPSC (सेंट्रल पब्लिक सेक्टर इंटरप्राइज़) है. ''
ये सुनकर कोई HEC को एक ऐसे उद्योग की तरह ले सकता है, जिसकी ज़रूरत एक ज़माने में थी, अब नहीं है. लेकिन HEC के अधिकारी इस बात से बिलकुल इत्तेफाक नहीं रखते. पूर्णेंदु कहते हैं,
''हम सिर्फ स्टील सेक्टर को टूलिंग नहीं देते. देश का कोल सेक्टर लगभग पूरी तरह HEC पर निर्भर रहा है. ओपन कास्ट खदानों में बहुत बिजली से चलने वाले रोप शॉवल की ज़रूरत पड़ती है, ताकि कम समय में भारी मात्रा में मटेरियल निकाला जा सके. हमने 500 से ज़्यादा शॉवल कोल सेक्टर को दिए हैं, जिन्होंने बढ़िया प्रदर्शन किया है. एक और भीमकाय माइनिंग मशीन होती है 'ड्रैगलाइन.' हमने 90 मीटर लंबे बूम वाली 15 ड्रैगलाइन बनाकर दी हैं. ये काम हमारे अलावा एशिया में कोई नहीं करता. चीन भी नहीं.''
इन दावों की पुष्टि फ्रंटलाइन (द हिंदू) पर छपी टीके राजलक्ष्मी की रिपोर्ट से भी होती है. इसके मुताबिक HEC अब तक स्टील सेक्टर, भारतीय नौसेना और एटॉमिक एनर्जी सेक्टर को 5 लाख 50 हजार टन से ज्यादा वजन के उपकरण दे चुका है. एक दूसरी मीडिया रिपोर्ट बताती है कि 1971 की लड़ाई में पाकिस्तान के पैटन टैंक्स को हमारी सेना की इंडियन माउंटेन गन (मार्क 2) ने भारी नुकसान पहुंचाया था. लड़ाई के दौरान इन तोपों का तेज़ी से निर्माण ज़रूरी था. इन तोपों का बैरल (नाल) HEC ने बनाकर दिया था. और इस काम के लिए HEC को बिलकुल वक्त नहीं दिया गया था. लेकिन कंपनी मुश्किल वक्त की कसौटी पर खरी उतरी. इसके बाद HEC ने सेना और नौसेना के लिए खूब काम किया. टी 72 टैंक के लिए टरेट (वो हिस्सा जिसमें नाल होती है, टैंक क्रू बैठता है) बनाए. नौसेनिक पोतों के लिए गियर सिस्टम बनाए. इससे आयात पर भारत की निर्भरता कम हुई.
पूर्णेंदु आगे बताते हैं,
''HEC कोई सामान्य संस्थान नहीं है. हमारे लिए स्पेस, एटॉमिक एनर्जी जैसे सेक्टर बड़ी प्रतिष्ठा वाले हैं, जिन्हें हम अपने बने इंस्ट्रूमेंट देते हैं. हमने पहली बार देश में स्वदेशी तरीके से लॉन्च पैड बनाए और इसरो को सौंपे. इस प्रोजेक्ट के सूत्रधार पूर्व राष्ट्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम थे. इसरो के चंद्रयान-3, चंद्रयान-2 और चंद्रयान-1, तीनों मिशन के लिए लॉन्च पैड HEC ने ही बनाकर दिया. चंद्रयान-1 मिशन के पहले तक इसरो, लॉन्च पैड्स के लिए दूसरे देशों पर निर्भर था.''
18 महीने से सैलरी नहीं मिलीहमने कोविड के दौरान भी ख़ास तौर पर इसरो के लिए यहां काम किया. उनके लिए कई उपकरण बनाए. हमारे इंजीनियर ऐसे प्रॉजेक्ट पर काम करते हैं, जिनके बारे में उन्हें बोलने की आज़ादी नहीं, क्योंकि वो सेंसिटिव होते हैं. फिर भी हमारी स्थिति इतनी ख़राब है. कई बार के आश्वासन के बाद भी HEC में न ठीक से काम हो पा रहा है और न ही कर्मचारियों को सैलरी मिल रही है."
पूर्णेंदु के मुताबिक,
"कंपनी में करीब 1400 नियमित कर्मचारी हैं, इनमें से करीब 450 ऑफिसर्स हैं. करीब 1400 कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स भी हैं. कुल मिलाकर HEC में करीब 3 हजार कर्मचारी हैं काम करते हैं. हम सभी लोगों की 17 महीने से सैलरी रुकी गई है. अब 18 वां महीना शुरू हो चुका है. 4 महीने पहले ऑफिसर्स को साल 2022 के जनवरी महीने की आधी सैलरी और कर्मचारियों को पूरे महीने की सैलरी दी गई. हमने कई बार मैनेजमेंट और सरकार के नुमाइंदों से बात की है. हमें आश्वासन मिले लेकिन सैलरी नहीं मिली."
वहीं HEC में कार्यरत भारतीय मजदूर संघ के सेक्रेटरी रमाशंकर प्रसाद का कहना है,
प्रबंधन क्या कर रहा है?"अधिकारियों की 18 महीने और श्रमिकों की 14 महीने की सैलरी नहीं दी गई है. 60 से ज्यादा इंजीनियर्स ने इस्तीफा दे दिया है. कर्मचारी भी कंपनी छोड़ने को मजबूर हैं. PF का पैसा निकालकर काम चल रहा है. कर्ज भी लेना पड़ रहा है. पैसा तो आया है लेकिन उसका सही इस्तेमाल नहीं हुआ. पुराने वेंडर्स का पैसा बकाया था, उन्हें बुला-बुलाकर पैसा दिया गया है. जबकि कर्मचारियों को वेतन देना प्राथमिकता पर होना चाहिए था. काफी अनियमिताएं बरती गईं हैं. ये जांच का विषय है, जांच की जाए तो सब कुछ साफ़ हो जाएगा."
इससे बड़ा सवाल ये होना चाहिए कि प्रबंधन है भी या नहीं. HEC की बदहाली को यूं समझिए कि साल 2018 से इसका कोई स्थायी चेयरमैन नहीं है. एक दूसरी पब्लिक सेक्टर कंपनी - भारत हेवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (BHEL) के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर नलिन सिंघल को HEC चलाने की अतिरिक्त जिम्मेदारी दी गई है. रमा शंकर के मुताबिक,"हमने एक CMD की मांग की थी. जो नहीं पूरी हुई. नलिन सहगल को ही लगातार प्रभारी बनाया गया है. वो अभी तक सिर्फ 5 या 6 बार कंपनी में आए हैं. कंपनी रिमोट से नहीं चलती है. एक फाइल मूव होने में भी महीनों लग जाते हैं. ये व्यावहारिक नहीं है."
पूर्णेंदु का कहना है,
"सैलरी के बाबत हमने पहले अपने मैनेजमेंट से बात की. 2 नवंबर, 2022 से हमने आंदोलन शुरू किया. कमर्चारियों ने हड़ताल भी की. लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. HEC की जमीन केंद्र सरकार के स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के लिए दी गई थी. HEC के पास कुछ पैसा भी आया. लेकिन सही तरीके से उस पैसे का इस्तेमाल नहीं किया गया. HEC में जब भी पैसा आया, कंपनी की मशीनों को अपग्रेड करने के बारे में नहीं सोचा गया. जो पैसा आया भी वो पानी, बिजली का बिल माफ़ करने के लिए आया. कैपिटल एक्सपेंडीचर (काम करने, नई मशीनों के लिए जरूरी पूंजी) के कभी पैसा नहीं आया."
पूर्णेंदु आगे बताते हैं कि उनके ऑफिसर्स एसोसिएशन ने 121 ऑफिसर्स का साइन किया हुआ एक लेटर माननीया राष्ट्रपति, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, प्रधानमंत्री कार्यालय, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और झारखंड हाईकोर्ट को भी भेजा था. जिसमें बताया गया था कि कर्मचारी अपने रोजमर्रा के खर्च, बच्चों की स्कूल-कॉलेज की फीस, दवाई और अस्पताल के खर्चे के लिए उधारी पर निर्भर हैं. एसोसिएशन ने बीजेपी के स्थानीय नेताओं से बात की. भारी उद्योग मामलों के केंद्रीय मंत्री महेंद्र नाथ पांडेय से भी फरवरी 2023 में मुलाक़ात की. उन्हें एक ज्ञापन दिया और HEC की हालत सुधारने के लिए योजनाएं भी सुझाईं. पूर्णेंदु कहते हैं,
HEC की ये हालत कैसे हुई?"मंत्री जी (महेंद्र नाथ पांडेय) ने आश्वासन दिया कि कंपनी के लिए कुछ करेंगे. लेकिन कंपनी आज ख़राब स्थिति में है. एक मरीज वेंटीलेटर पर है, आप कहेंगे कि कुछ दिन रुक जाइए, तब तक तो मरीज मर जाएगा. यही सच्चाई है."
HEC की बदहाली की कहानी करीब 3 दशक पहले से शुरू होती है. HEC की स्थापना साल 1958 में हुई. प्रधानमंत्री नेहरु का ड्रीम प्रोजेक्ट था ये. पूर्व राष्ट्रपति और देश के आला दर्जे के वैज्ञानिक रहे एपीजे अब्दुल कलाम इस संस्था की तकनीक और काम करने के तरीके से प्रभावित थे. लेकिन साल 1992 के बाद से HEC की कमाई गिरने लगी. क्योंकि इसे सरकार से मिलने वाली वित्तीय मदद बंद हो गई.
HEC के पास रूस और चेकोस्लोवाकिया से खरीदी हुईं मशीनें हैं. इन्हीं से HEC इंस्ट्रूमेंट्स बनाता है. ये मशीनें 60 साल से ज्यादा पुरानी हो चुकी हैं. इन्हें तत्काल हटाकर इनकी जगह नई मशीनें लाने की जरूरत है. सितंबर, 2021 में हेवी इंडस्ट्रीज डिपार्टमेंट के सेक्रेटरी को लेटर लिखकर कहा गया कि श्रमिकों को इन्हें चलाने में दिक्कत पेश आती है.
पूर्णेंदु कहते हैं कि हमने पुरानी मशीनों से ही इसरो के लिए उपकरण बना दिए. ऐसा नहीं है कि सारी मशीनें ख़राब हैं. उन्हें बेहतर किया जा सकता है. जो मशीनें ख़राब हैं उन्हें ठीक किया जा सकता है. लेकिन प्रोडक्शन तब हो पाएगा, जब वर्किंग कैपिटल हो. और कम से कम कमर्चारियों के पास खाने का पैसा हो. तभी काम किया जा सकता है. हमारे पास अभी भी अच्छे ऑर्डर्स हैं. इसरो, कोल इंडिया वगैरह के ऑर्डर्स हैं लेकिन काम करने के लिए कंपनी को पैसा चाहिए.
ऑडर पूरे न कर पाने से कस्टमर मायूस होता है और वो दोबारा आपके पास आने से कतराएगा. ये HEC के साथ भी हुआ. फरवरी 2010 में इकोनॉमिक टाइम्स अखबार में एक रिपोर्ट छपी. इसमें तत्कालीन भारी उद्योग मंत्री विलास राव देशमुख का बयान था. उन दिनों HEC को स्टॉक मार्केट में लिस्ट करने की तैयारी थी. देशमुख इसे लेकर उत्साहित थे.
उन्होंने कहा,
''HEC में एक 'नवरत्न' बनने का पूरा पोटेंशियल है.''
लेकिन इसी बयान में देशमुख ने ये भी जोड़ा कि बीते कुछ समय से सेनाओं और भारतीय रेल से HEC को नए ऑर्डर नहीं मिले. हम नए ऑर्डर्स के लिए प्रयास करेंगे. ये बताता है कि HEC क्रमशः अपने ग्राहक खोती रही.
कंपनी की साल 2021-22 की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक, दिसंबर 2022 तक कंपनी को 1 हजार 451 करोड़ रुपए का सामान बनाने के ऑर्डर मिले. लेकिन कोविड, पुरानी मशीनरी और काम बंद होने के चलते कंपनी ऑर्डर पूरा नहीं कर पाई. माने सामान डिलीवर नहीं कर पाई. और कंपनी का टर्नओवर एक साल पहले के 202.76 करोड़ रुपये से घटकर 184.69 करोड़ रुपये रह गया.
HEC - सौदा फायदे का या घाटे का?ऐसा बिलकुल नहीं है कि विनिवेश का सिद्धांत अपने आप में गलत है. सरकारी घाटे की एक वजह वो कंपनियां भी रही हैं, जिनका प्रदर्शन खराब रहा और उन्हें वित्तीय मदद के लिए वो संसाधन देने पड़ रहे थे, जिन्हें विकास के दूसरे कामों में लगाया जा सकता था. घाटे वाली सरकारी कंपनियों की वित्तीय मदद रोकने और उन्हें बंद करने के पक्ष में मज़बूत वाजिब तर्क हैं. तो क्या इन्हें HEC पर लागू नहीं किया जाना चाहिए?
इसके जवाब में पूर्णेंदु कहते हैं,
''HEC की कल्पना कभी मुनाफा कमाने वाली कंपनी के रूप में की ही नहीं गई थी. इसीलिए सरकारी सपोर्ट की ज़रूरत तो हमेशा रही. फिर रणनीतिक क्षेत्रों के लिए कैपिटल गुड्स बनाने वाली इंडस्ट्री है. इसे नफा-नुकसान के लेंस से नहीं देखा जा सकता. हम बैठे-बैठे तनख्वाह नहीं चाहते. अगर HEC ठीक से चले तो एक साल के अंदर 5 से 10 हजार स्थानीय लोगों को रोजगार दिया जा सकता है.''
इस रिपोर्ट के अगले हिस्से में हम आपको बताएंगे कि देश के वैज्ञानिकों और संसद के बार-बार कहने पर भी HEC की हालत की तरफ सरकार का ध्यान क्यों नहीं गया, और HEC को उबारा नहीं जा सका.
वीडियो: चंद्रयान-3 चंद्रमा तक पहुंचने तक ये सब करने वाला है.