आपको, एक पत्र लिखना चाहता हूं मैं. आपके नाम के संबोधन और मेरे दस्तखत के बगैर भीयह जो लिख रहा हूं, पत्र सरीखा ही है, लेकिन पत्र नहीं है. यह पत्र लिखने की तैयारीहै. जैसे आपसे एक रोज जो बातचीत हुई थी, वह बातचीत नहीं थी, आपसे बातचीत करने कीतैयारी थी. मैं बहुत कुछ कर गुजरना चाहता हूं, लेकिन मैं बहुत कुछ कर गुजरने कीतैयारी ही कर पाता हूं. हत्या और आत्महत्या भी मेरी कार्यसूची में हैं, लेकिन जैसाकि मैं अस्सी शब्दों में तीन बार बता चुका हूं कि मैं मात्र तैयारी ही कर पाता हूं.प्रेम के साथ भी यही हुआ और दाम्पत्य के साथ भी. बहरहाल, आपसे बातचीत करने कीतैयारी में मैंने आपसे जो बातचीत की थी, उसे बगैर आपको बताए रिकॉर्ड कर लिया था. इसकृत्य को आप आपराधिक न भी सही, अनैतिक मानने के लिए तो स्वतंत्र हैं ही. आपका नाताहिंदी के उस विभाग से है, जहां सब कुछ मजे के लिए है. प्रेम और सेक्स अगर सहमति से हों, तब इससे कौन इनकार करेगा कि वे मजे के लिए हैं.‘उदात्तता’ को आप बस औपचारिक स्तर पर प्रकट भाषिक भंगिमाओं भर में महिमान्वित करतेहैं, व्यावहारिकता में आप कतई उदात्त नहीं हैं और यही आपकी असलियत है. आपके मजावादसे वाकिफ होने की वजह से ही मैंने बातचीत की तैयारी में प्रेम और सेक्स को केंद्रमें रखा. मुझे लगा कि इससे आपकी असल स्त्री-दृष्टि का भी पता चलेगा और यों हुआ भी,लेकिन अफसोस आपकी जानकारी के बगैर. आपकी जानकारी में आते ही संभवत: मेरे प्रयत्नबहुत उथले और आपके बयान बहुत जाली हो जाते. मैं आपको आत्म-स्मरण तक ले गया और आपकीउस आत्मकथा तक भी, जिसे आप कभी लिखेंगे नहीं. आपको अगर मेरी तैयारी की सच्चाई पताहोती, तब वह वाक्य जो आपने इस बातचीत में नामालूम कितनी बार बोला, एक बार भी न बोलाहोता : ‘‘इस बात को बस अपने तक रखना...’’ आपने बताया कि आपके प्रेम में उन्मत्तता बहुत थी और आपका वक्त ऐसी वर्जनाओं का थाकि उसमें एक भी दरार दिखाई नहीं पड़ती थी. ‘आपने पहली बार सेक्स कब किया?’ मेरे इसप्रश्न पर आप चित्रवत हो गए और कुछ ठहरकर फिर चलचित्र भी. मैंने पाया कि सच्चाइयांचाहे कितनी ही करुण क्यों न हों, मनोरंजन आपका मूल धर्म है. अपने साहित्यिक परिचयमें आप मूलतः खुद को जो चाहे बताते हों, लेकिन वास्तव में आप मूलतः एक मजेदार आदमीहैं. जब आपने कहा : ‘‘वह एक बहुत गोरी और भरी हुई देह वाली स्त्री थी’’ — मुझे आप बहुत गूदेदार आदमी भीलगे. ‘‘प्रेम के बगैर, मैंने भोगा उसे’’ — ये आपके शब्द हैं और ये भी — ‘‘यौवन मेंजहां तक संभव हो, अपनी लालसाएं पूरी कर लेनी चाहिए. लालसाओं का अधूरा विस्तार अगरवृद्धावस्था तक आ जाए, तब वह अपयश का घटक बनता है. यौवन में लालसाओं की पूर्ति केलिए किए गए जुर्म भी, सजा भले ही लाते हों, अपयश नहीं लाते. बूढ़े होते चले जाने केसाथ ही यह सुविधा छूटती जाती है.’’ मैंने आपसे जानना चाहा कि आपने अपने इस प्रथमयौनानुभव को ‘प्रभूत मात्रा में’ व्यक्त अपने वाचिक और मुद्रित साहित्य में कहींदर्ज किया? इस पर आप मुझे बेहद बेबाक नजर आए. ‘‘वह एक अपराध था, अगर मैं उसेअभिव्यक्त करता तो उसके साथ — और खुद के साथ भी — इंसाफ नहीं कर पाता’’ — आपने कहा— ‘‘वैसे मैं मानता हूं कि यौन-लालसाओं से जुड़े सारे अपराधों को क्षम्य होना चाहिए—कुछ अपवाद स्थितियों को छोड़कर.’’ मैं : यौन-लालसाएं क्या आपको इस उम्र में भी सताती हैं? आप : हां, बहुत. लेकिनतुम्हें ताज्जुब होगा कि इसके लिए मैं अपनी पत्नी पर निर्भर नहीं हूं. मैं : फिरकैसे? आप : देखता हूं... मैं : क्या? पोर्न? आप : नहीं, सौंदर्य. बल्कि यों कहूं किदेखता नहीं, मैं उसे आंखों से चूसता हूं. यह ध्यान सदृश है. स्त्री की आंखें, होंठ,गला, स्तन, पीठ और नितंब... ये सब बड़े आकर्षक, उत्तेजक और सम्मोहक होते हैं. इन्हेंबगैर छुए भी उद्यीपित, संबंधित और स्खलित हुआ जा सकता है— जागरण में भी और नींद मेंभी. मैं : यौन-लालसाओं की पूर्ति के लिए क्या आपने बच्चे इस्तेमाल किए कभी? आप :मैं इतना पतित नहीं हूं और न ही इतना हृदयहीन. लेकिन यह सवाल मेरी उम्र के हर शख्ससे पूछा जरूर जाना चाहिए, क्योंकि बूढ़ों की एक बड़ी तादाद हमेशा से ही समाज में बहुतहरामी रही आई है— खुद को बहुत आदर से देखे जाने के आग्रह के साथ. मैं उनकी हरामियतको अपने अनुभवों से भी जानता हूं. मुझे आप बहुत सच्चे लगते आए, एक लेखक की हैसियतसे नहीं— बतौर एक इंसान. शैलेश मटियानी ने अपने कथेतर गद्य में एक बहुत प्रीतिकरबात कही है : ‘‘मनुष्य को — लेखक को भी — अविद्या ही कुंद नहीं करती, विद्या काविभ्रम भी जड़ीभूत करता है.’’ आपके विद्त्व ने आपको कुंद और जड़ीभूत नहीं किया है,मैं यह मानने वालों में रहा हूं, लेकिन समलैंगिकता पर आपके विचारों ने मुझे अपनी इससमझ पर पुनर्विचार करने के लिए विवश किया : ‘‘समलैंगिकता इतनी बढ़ गई है कि उसे ही आधुनिकता का पर्याय मान लिया गया है’’ — आपबहुत क्षुब्ध प्रतीत हुए यह कहते हुए — ‘‘और बाकी जो सहज संबंध हैं, उन्हें पिछड़ापनमान लिया गया है. कुछ बातें केवल अपोजिट सेक्स में ही संभव हैं. मैं समझ नहीं पाताहूं कि आखिर एक पुरुष दूसरे पुरुष को बतौर प्रेमी कैसे चाह सकता है. असल में प्रेमएक बहुत समयसाध्य चीज है, वह बहुत तैयारी मांगती है और समय ही तो अब नहीं है.समलैंगिक संबंधों में समय नहीं लगता है और समलैंगिक व्यक्ति जिम्मेदारी से भी मुक्तहोता है. लेकिन यह भी समझना चाहिए कि संतान का सुख एक बहुत बड़ा सुख होता है. शादीबहुत सुंदर शै है, और दाम्पत्य का अमृत बुढ़ापे में मिलता है. इसलिए शादी का बंधनकभी तोड़ना नहीं चाहिए. शादी तोड़कर एक औसत मनुष्य कभी सुखी नहीं रह सकता. अपराधी,क्रूर और नपुंसक व्यक्ति ही शादी तोड़कर सुखी रह सकता है.’’ मैं : शादी के लिए पहले प्रेम होना जरूरी मानते हैं आप? आप : प्रेम से शादी हो तोबढ़िया और शादी के बाद प्रेम हो जाए तो भी बढ़िया. मैं : शादी से पहले शारीरिक संबंध?आप : बन जाए तो ठीक और न बने तो भी ठीक, इस बारे में ज्यादा सोचना ही नहीं चाहिए.यौन-सुख एक भूख है. यह भूख सदा प्रेमास्पद से ही और घर में ही संपन्न नहीं होती.लेकिन यह भी एक तथ्य है कि प्रेमास्पद से संभोग प्रेम को संपूर्ण करता है और यहजितना जल्दी हो, उतना अच्छा है. दरअसल, प्रेम से महान कुछ नहीं है संसार में. प्रेममें दुःख भी सुख का ही एक रूप होता है. मैं : आपके कितने प्रेम-संबंध रहे? आप :काफी रहे. सबसे प्रदीर्घ और प्रगाढ़ तो पत्नी से ही रहा. इसके बाद आप अपनेप्रेम-संबंधों के बारे में बताते रहे. आप आत्म-स्वीकृतियां बरसाने लगे और मैंभीगने-बहने लगा. ‘‘जितना सुख आप स्त्री को देंगे, उतना ही सुख आप पाएंगे भी’’ —आपने कहा — ‘‘मैं इस संदर्भ में सारे प्रसंगों में सुखी आदमी नहीं हूं. मैंने उसे चाहा, उसेभोगा, लेकिन उसे अपना न सका. बहुत जटिलताएं हैं मुझमें. मैं अच्छा आदमी नहीं हूं,लेकिन मैं अपनी पत्नी को छोड़ नहीं सकता था. उसे छोड़ना गाय हलाल करने सरीखा होता.दोतरफा बदनामी की वजह से मैं उससे ज्यादा मिल नहीं पाया, लेकिन मैं सब जगह उसे हीढूंढ़ता हूं. मेरी प्यास नहीं बुझी.’’ आपके लिए मैं अनुपस्थित हो चला जब आप इनवाक्यों तक आए : ‘‘प्रेम ही वह मनोविकार है जो उत्पन्न होते ही आपको त्याग सिखादेता है. आपको बहुत ऊंचा उठा देता है. यह सृजन है, अध्यात्म है और अमरता भी. इसमेंअतृप्ति भी अगले संसर्ग की योजना है.’’ यहां आकर आप मुझे एक अतृप्त गिद्ध की तरह लगे— सब तरफ से सब कुछ झपट चुके एकसामाजिक गिद्ध की तरह. निराला आपको बहुत प्रिय हैं न, जानते हैं न कि वहमृत्यु-पूर्व अपनी विक्षिप्तता की स्थिति में बार-बार क्या दोहराते थे: ‘‘I am notsubject to the limitations of my audience… I am making an example of playing thesame card in life and literature.’’ निराला को याद करते हुए राजकमल चौधरी का एककथ्य है : ‘‘...जीवन और साहित्य में ताश के एक ही पत्ते खेलने से पागलपन न मिले,पीड़ाएं न मिलें, अकालमृत्यु न मिले, तो और क्या मिलेगा?’’ मैं जानता हूं कि आप अपनी मृत्यु से पूर्व विक्षिप्त होकर कुछ बड़बड़ाने की स्थितिमें कभी नहीं आएंगे, क्योंकि आपके पास जीवन और साहित्य में खेलने के लिए अलग-अलगपत्ते हैं. इसलिए ही आप मजे में हैं. इस उम्र में आपके जीवन से मजे को झाड़ना पापहोगा और इसलिए ही आपसे हुई बातचीत फिलहाल मेरी निजी संपदा है. यों आपके लिए मैंअपनी एक इच्छा को धूल की मानिंद झाड़ रहा हूं, यह सोचकर कि कुछ लोग मजे लेने के लिएही बने हैं और कुछ नहीं...