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उत्तर प्रदेश में कैसा रहा था आपातकाल का दौर?

एक दफा जब संजय गांधी आगरा आए थे तो नारायण दत्त तिवारी भी उनके साथ थे. जब वो हवाई जहाज की सीढ़ियां चढ़ रहे थे तो उनकी चप्पल गिर गई. मुख्यमंत्री ने जमीन पर पड़ी चप्पल उठाई और संजय के पांव में पहना दी. ये बात माखनलाल फोतेदार को एक पुलिस वाले ने सुनाई थी.

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emergency 1975 history
आपातकाल के वक्त, यूपी ने भी दो मुख्यमंत्री देखे. जब इमरजेंसी लगी, तब हेमवती नंदन बहुगुणा सीएम थे. और जब हटी, तब नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठे थे.
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दीपक तैनगुरिया
25 जून 2024 (Updated: 29 जून 2024, 15:11 IST)
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हिंदुस्तान के लोकतंत्र का तीसरा दशक भी आधा नहीं बीता था. कि, 1975 में आधा साल बीतते-बीतते, आधी रात को लोकतंत्र खत्म कर दिया गया. 25 जून 1975 को देश में इमरजेंसी लगा दी गई. 21 महीनों तक लागू रहे आपातकाल का मुल्क के 21 सूबों पर अलग-अलग तरीके से असर पड़ा. लेकिन, आज बात उत्तर प्रदेश की, जिसने देश को नौ प्रधानमंत्री दिए. आपातकाल के वक्त, यूपी ने दो मुख्यमंत्री देखे. जब इमरजेंसी लगी, तब हेमवती नंदन बहुगुणा सीएम थे. और जब हटी, तब नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठे थे. इन दोनों मुख्यमंत्रियों के कारण यूपी जिस संक्रमण काल से गुजरा. आज उसी की कहानी.

इमरजेंसी लगने से डेढ़ साल पहले ही कांग्रेस ने मुख्यमंत्री बदलकर बहुगुणा को लखनऊ सौंप दिया. उनके सीएम बनने की कहानी बड़ी रोचक है. पीएसी विद्रोह के विफल मैनेजमेंट के चलते कमलापति त्रिपाठी से दिल्ली ने इस्तीफा मांग लिया था. PAC यानी उत्तर प्रदेश प्रांतीय पुलिस बल. मगर, PAC ने विद्रोह क्यों किया था? दरअसल, जवानों का कहना था कि उनसे नौकरों वाले काम कराए जाते हैं. सीनियर अफसर उनसे अपने कपड़े और बर्तन धुलवाते हैं. उन्हें यूनियन बनाने की आजादी भी नहीं थी. इसके अलावा नाकाफी सुविधाओं और कम तनख्वाह को लेकर भी जवान शिकायत कर रहे थे. इन सब कारणों से असंतोष इतना बढ़ा कि PAC में अराजकता दिखने लगी थी. हद तो तब हो गई जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी लखनऊ के दौरे पर थीं, उनकी सुरक्षा का जिम्मा पीएसी को दिया गया, और उसने तैनाती का आदेश मानने से ही इनकार कर दिया. कमलापति के इस्तीफे के बाद कुछ महीने राज्यपाल अकबर अली खान सूबे के सर्वे-सर्वा रहे क्योंकि राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था. अंतत: हेमवती नंदन बहुगुणा को मुख्यमंत्री का पद मिला. उस वक्त वे केंद्र में सूचना मंत्रालय में राज्यमंत्री थे. 8 नवम्बर 1973 को बहुगुणा ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. फरवरी 1974 में विधानसभा चुनाव हुए और कांग्रेस को मिलीं 425 में से 215 सीटें. बहुमत से सिर्फ दो सीटें ज्यादा. लेकिन, लखनऊ और दिल्ली के रिश्ते इस बीच बिगड़ते गए. और 29 नवम्बर 1975 को 2 साल तक मुख्यमंत्री रहने के बाद बहुगुणा ने इस्तीफा सौंप दिया. इस इस्तीफे का कारण था, मार्च 1974 में हुए चुनावों में कृष्ण कुमार बिड़ला का राज्य सभा न पहुंच पाना. किस्सा है कि जब बहुगुणा लखनऊ से बाहर थे, तो इंदिरा के खास सलाहकार यशपाल कपूर लखनऊ में बिड़ला के लिए समर्थन जुटा रहे थे. इस दौरान वे सीएम आवास में ठहरे थे. 

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जैसे ही बहुगुणा लौटे और उन्हें ये सब मालूम हुआ, उन्होंने यशपाल कपूर का सामान बाहर फिंकवा दिया था. ये बात तो दिल्ली पहुंच गयी, लेकिन बिड़ला दिल्ली नहीं पहुंच पाए. पहुचेंगे, एक दशक बाद, 1984 में और इसके बाद हैट्रिक लगाते हुए, वे 2002 तक लगातार तीन बार राज्य सभा सांसद भी रहे. बहरहाल, बिड़ला वाली घटना के बाद, इंदिरा और संजय तमतमा गए, साल भर धीरज रखा, और उसके बाद बहुगुणा को गद्दी छोड़नी पड़ी. यशपाल से जुड़ा एक किस्सा है कि 1971 में सरकारी अफसर रहते उन्होंने इंदिरा का प्रचार किया था. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा की सदस्यता रद्द करते हुए, अपने फैसले का इसे भी एक आधार माना था. इंदिरा से चुनाव हारने वाले राजनारायण भी 17 फरवरी 1975 को बहुगुणा सरकार में गिरफ्तार कर लिए गए थे. इसके बाद गद्दी आई नारायण दत्त तिवारी के हिस्से, जो बहुगुणा को ‘बड़े भाई’ कहते थे. दोनों ही पुराने यूपी के पहाड़ी इलाके (अब उत्तराखंड) से आते थे. किस्सा है कि 1942 में हुए भारत छोड़ो आन्दोलन के वक्त सुल्तानपुर जेल में बंद बहुगुणा, जब छूटकर इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पहुंचे, तो एनडी तिवारी ने माला डालकर उनका स्वागत किया था. 

हेमवती नंदन बहुगुणा और इंदिरा गांधी की मुलाकात की एक तस्वीर (फोटो क्रेडिट: इंडिया टुडे) 

साल 1976. जनवरी के जाड़ों में एन डी तिवारी को सूबे की कमान मिली. जो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के आखिरी सीएम साबित हुए. तिवारी के दौर में यूपी ने इमरजेंसी का भयंकर आतंक देखा. वरिष्ठ पत्रकार श्यामलाल यादव अपनी किताब, At the Heart of Power: The Chief Ministers of Uttar Pradesh' में बताते हैं, उस दौरान इंदिरा गांधी के बीस सूत्रीय कार्यक्रमों के अलावा, संजय का पांच सूत्रीय कार्यक्रम चला करता था. तिवारी ने अपने ‘बड़े भाई’ बहुगुणा वाली गलती नहीं दोहराई. लखनऊ से आलाकमान के आदेशों की कभी अवहेलना नहीं हुई. संजय के पांच सूत्रीय कार्यक्रमों में सबसे प्रमुख थे, नसबंदी और परिवार नियोजन. श्यामलाल यादव लिखते हैं कि इस दौरान लोगों को जबरदस्ती लोकल बाजारों, बसों, और ट्रेनों से पकड़ा जाता और उनकी नसबंदी कर दी जाती. सर्जरी के बाद टिटनेस की वजह से कई लोगों की जान भी चली गई. इस नसबंदी कार्यक्रम से जुड़े जो भी सरकारी मुलाजिम थे, टार्गेट पूरा न करने पर उनकी सैलरी रोक दी जाती थी. कुछेक जगहों पर सत्याग्रह जरूर हुए, लेकिन इससे इतर सूबे में खौफ की एक मोटी परत बिछी रही. मुजफ्फरनगर, सुल्तानपुर और बस्ती में पुलिस फायरिंग की कई घटनाएं हुईं.

एनडी तिवारी, यूपी में कांग्रेस के आखिरी मुख्यमंत्री थे. (फोटो क्रेडिट: इंडिया टुडे) 

श्यामलाल लिखते हैं कि इमरजेंसी के दौरान यूपी में अधिकारी ही सारा राज-काज चला रहे थे. मीसा (आंतरिक सुरक्षा अधिनियम), और डीआईआर (डिफेन्स ऑफ़ इंडिया रूल्स) के गलत इस्तेमाल के सैकड़ों मामले सामने आए थे. मीसा से जुड़ी एक दिलचस्प कहानी यूपी के पड़ोसी राज्य बिहार से जुड़ी है, जब इमरजेंसी के वक्त लालू यादव मीसा के चलते जेल में बंद थे. और इसी दौरान उनकी बेटी का जन्म हुआ, जिसका नाम रखा गया, मीसा यादव. आज मीसा, पाटलिपुत्र सीट से सांसद हैं. यूपी पर लौटें तो इस दौरान अखबार सेंसर कर दिए गए थे. विपक्षी पार्टियों के कार्यक्रमों को लेकर एक पंक्ति तक प्रकाशित नहीं होती थी.

आपातकाल के दौरान कांग्रेस के नेताओं में एक किस्म की प्रतियोगिता पैदा हो गई थी. कि दिल्ली में बैठे आलाकमान को कौन सबसे ज्यादा खुश रख पाता है. 50,000 से ज्यादा लोगों को यूपी की जेलों में ठूंस दिया गया था. इसमें विपक्षी पार्टियों के भी 77 विधायक थे. इस बात की किसी को खोज-खबर नहीं रहती थी कि किस विधायक को कब हिरासत में लिया जा रहा है, कब जेल में बंद किया जा रहा है, और कब रिहा किया जा रहा है. जब सदन में विधायकों ने इस पर सवाल उठाए तो सीएम एनडी तिवारी इन विषयों पर कभी भी इन सवालों को तवज्जो नहीं दी. इसके अलावा जब ये पूछा जाता कि विधायकों पर जेल में किस तरह के अत्याचार हो रहे हैं, या राजनैतिक बंदियों को कितनी सुविधाएं दी जा रही हैं, तब अव्वल तो सीएम ये कह देते कि ये सवाल जनहित का नहीं है. या फिर ये कहकर पल्ला झाड़ देते कि इस संबंध में कोई शिकायत प्राप्त नहीं हुई है.

उस समय लखनऊ से एक अखबार निकलता था, नेशनल हेराल्ड. उसमें पहले पन्ने पर जवाहरलाल नेहरु की एक लाइन छपा करती थी, “आजादी खतरे में है, इसे अपनी पूरी ताकत से बचाइए.” इमरजेंसी के दिनों में ये लाइन अखबार से हटा दी गई थी. अप्रैल 1976 में तिवारी सरकार एक बिल लेकर आई थी, जिसके मुताबिक प्रेस, विधान सभा की कार्यवाही में से कुछ चीजें नहीं छाप सकती. ये बिल जिस दिन लाया गया, उसी दिन पास भी हो गया.      

इमरजेंसी के दौरान हुई एक घटना में एनडी तिवारी की बड़ी भद्द पिटी थी. इसका जिक्र हमें वरिष्ठ कांग्रेसी नेता, माखनलाल फोतेदार की किताब, “The Chinar Leaves” में मिलता है. फोतेदार की कांग्रेस में कितनी पूछ थी, इसे ऐसे जानिए कि 1999 में 1 वोट से वाजपेयी की सरकार गिरने के बाद सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति को खत लिखकर गठबंधन सरकार बनाने का दावा पेश किया. सोनिया ने खत में लिखा था कि अगर गठबंधन सरकार बनती है तो मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री होंगे. फोतेदार की सलाह पर सोनिया ने लैटर में से मनमोहन का नाम काट दिया था. क्यों? फोतेदार का मानना था कि अगर कैंडिडेट का नाम बता दिया तो कई दावेदार खड़े हो जाएंगे. माधव राव सिंधिया तो इस खबर पर तिलमिला गए थे कि खत में मनमोहन का नाम है.
 

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श्यामलाल यादव की किताब जिसमें 21 मुख्यमंत्रियों की कहानियां हैं. (फोटो क्रेडिट: विशेष प्रयोजन)

 बहरहाल, तिवारी से जुड़ी घटना ये थी कि एक दफा जब संजय गांधी आगरा आए थे तो एनडी तिवारी भी उनके साथ थे. जब वो हवाई जहाज की सीढ़ियां चढ़ रहे थे तो उनकी चप्पल गिर गई. मुख्यमंत्री ने जमीन पर पड़ी चप्पल उठाई और संजय के पांव में पहना दी. ये बात फोतेदार को एक पुलिस वाले ने सुनाई थी. जिसने ये भी कहा था कि इस घटना से यूपी के लोग बहुत अपमानित महसूस कर रहे हैं. एनडी तिवारी की दिल्ली यात्राओं को लेकर सूबे में उन्हें विपक्षी नेता, “न्यू दिल्ली तिवारी” और “नथिंग डूइंग तिवारी” कहकर बुलाते थे.

वापस इमरजेंसी के दौर में लौटिए. 18 जनवरी 1977 को इंदिरा ने इमरजेंसी हटा दी. 1971 के लोक सभा चुनावों में जिस कांग्रेस के पास 71 सीटें थीं. मार्च 1977 में हुए लोकसभा चुनावों में वही कांग्रेस सूबे की सभी 85 सीटों पर हार गई. इंदिरा खुद रायबरेली सीट गंवा चुकी थीं. मोरारजी देसाई ने पीएम पद की गद्दी संभालने के सैंतीसवें दिन एनडी तिवारी की सरकार बर्खास्त कर दी. हां, विधान सभा की कार्यवाही में ये भी दर्ज है कि 26 मार्च 1977 को तिवारी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव भी लाया गया. लेकिन, तिवारी ने कहा कि वोटिंग ही करनी है तो राज्यपाल के धन्यवाद भाषण के बाद की जाए. विपक्ष ने बात मानी और अविश्वास प्रस्ताव वापिस ले लिया गया. लेकिन, 31 मार्च को वोटिंग हुई. और तिवारी सरकार कुछ दिनों के लिए बच गई. हालांकि श्यामलाल यादव का दावा है कि लोक सभा चुनावों के बाद ही तिवारी इस्तीफा देने का मन बना चुके थे. लेकिन, कांग्रेस आलाकमान की तरफ से हरी झंडी नहीं मिली थी.

30 अप्रैल 1977 को यूपी की कांग्रेस सरकार बर्खास्त हुई. और जून 1977 में नए चुनाव हुए. इन चुनावों में जनता पार्टी को मिली 352 सीटें, वहीं कांग्रेस सिर्फ 47 सीटों पर सिमट गई. सूबे में आजादी के बाद ये कांग्रेस का सबसे बुरा प्रदर्शन था. यूपी ने आपातकाल के खिलाफ अपना फैसला सुना दिया था.

 

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