राजनीतिक दलों को इलेक्टोरल बॉन्ड से मिले चंदे की जानकारी पता होना कितना जरूरी?
सरकार इलेक्टोरल बॉन्ड्स को पॉलिटिकल फंडिंग की दिशा में सुधार बताती है. लेकिन इसके उलट आरटीआई कार्यकर्ता और कई वकील इसे RTI के दायरे में लाने की वकालत करते हैं.
इलेक्टोरल बॉन्ड की संवैधानिक वैधता के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू हो चुकी है. इसलिए एक बार फिर राजनीतिक दलों को मिलने वाली फंडिंग को लेकर बहस शुरू हो गई है. सुनवाई से पहले ही केंद्र सरकार ने इस पर अपना रुख साफ कर दिया. हलफनामे में सरकार ने कहा कि राजनीतिक दलों को मिलने वाले फंड के सोर्स का जानने का अधिकार जनता को नहीं है. हलफनामे में अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि बिना तर्कसंगत सीमाओं के किसी भी चीज को जानने का अधिकार नहीं हो सकता.
सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संवैधानिक बेंच मामले की सुनवाई कर रही है. इसमें अटॉर्नी जनरल ने बताया कि इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम किसी कानून या अधिकार का उल्लंघन नहीं करती है. उन्होंने तर्क दिया कि ये स्कीम सुनिश्चित करती है कि राजनीति में काला धन ना आए. साथ ही डोनर्स की गोपनीयता बनाए रखती है.
कैसे आया इलेक्टोरल बॉन्ड?साल 2017 के बजट सत्र में मोदी सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड लाने की घोषणा की थी. करीब एक साल बाद, जनवरी 2018 में इसे अधिसूचित कर दिया गया. इलेक्टोरल बॉन्ड किसी गिफ्ट वाउचर जैसे होते हैं. सरकार हर साल चार बार - जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर में 10-10 दिन के लिए बॉन्ड जारी करती है. मूल्य होता है- एक हजार, दस हजार, दस लाख या एक करोड़ रुपये. राजनीतिक पार्टियों को 2 हजार रुपये से अधिक चंदा देने का इच्छुक कोई भी व्यक्ति या कॉरपोरेट हाउस भारतीय स्टेट बैंक की तय शाखाओं से ये बॉन्ड खरीद सकते हैं.
इलेक्टोरल बॉन्ड मिलने के 15 दिनों के भीतर राजनीतिक पार्टी को इन्हें अपने खाते में जमा कराना होता है. बॉन्ड भुना रही पार्टी को ये नहीं बताना होता कि उनके पास ये बॉन्ड आया कहां से. दूसरी तरफ भारतीय स्टेट बैंक को भी ये बताने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता, कि उसके यहां से किसने, कितने बॉन्ड खरीदे.
सरकार इलेक्टोरल बॉन्ड्स को पॉलिटिकल फंडिंग की दिशा में सुधार बताती है और दावा करती है कि इससे भ्रष्टाचार से लड़ाई में मदद मिलेगी. लेकिन कई RTI कार्यकर्ता और वकील इसके उलट तर्क देते हैं. वे इलेक्टोरल बॉन्ड को RTI के दायरे में लाने की वकालत करते हैं. इसे समझने के लिए हमने इस मुद्दे पर लगातार लिख और बोल रहे लोगों से बात की.
क्या लोगों को जानने का हक है?RTI कार्यकर्ता अंजलि भारद्वाज के मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई फैसलों में कहा है कि जानने या सूचना का अधिकार अनुच्छेद-19(1)(a) से निकलकर आता है. इसलिए लोगों का ये मौलिक अधिकार है कि उनके पास राजनीतिक दलों के पैसे के बारे में जानकारी हो.
अंजलि तर्क देते हुए कहती हैं,
"इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम वही अधिकार छीन लेती है. इस तरह की कोई स्कीम नहीं होनी चाहिए कि किसी पार्टी को अज्ञात स्रोत से असीमित पैसा लेने की अनुमति दे. हम सभी जानते हैं कि चुनावों में मनी पावर का चलन है. पैसे के दम पर चुनाव जीते जाते हैं. बहुत जरूरी है कि अज्ञात स्रोत को बढ़ावा न दिया जाए."
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) के अध्यक्ष त्रिलोचन शास्त्री भी राजनीतिक दलों को RTI के तहत लाने के पक्षधर हैं. वो कहते हैं कि ADR मुख्य सूचना आयुक्त (CIC) के पास इस मुद्दे को लेकर गई थी. तब CIC ने साफ कहा था कि राजनीतिक दलों को RTI के दायरे में होना चाहिए. लेकिन CIC के आदेश को राजनीतिक दल नहीं मान रहे हैं, वे पारदर्शिता चाहते ही नहीं हैं.
ADR यानी एसोसिएशन फॉर डेमोक्रैटिक रिफॉर्म्स एक गैर-सरकारी संगठन है जो चुनाव के समय राजनीतिक दलों और नेताओं के आपराधिक, वित्तीय और शैक्षिक बैकग्राउंड की जानकारी उजागर करता है. ये संगठन में देश में चुनावी सुधार और पारदर्शिता के लिए काम करता है. ADR ने साल 2017 में ही इलेक्टोरल बॉन्ड को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी. इस पर सुनवाई करते हुए 2019 में कोर्ट ने एक अंतरिम आदेश दिया था. इसमें राजनीतिक दलों से बॉन्ड्स की जानकारी चुनाव आयोग को देने को कहा गया था.
इसके बाद ADR दूसरी बार अदालत गया, ये कहते हुए कि बॉन्ड खरीदने वालों की जानकारी मालूम करने का कोई तरीका नहीं है. मार्च 2021 में ADR ने एक और याचिका लगाकर कहा कि जब तक मामला कोर्ट में है, तब तक इलेक्टोरल बॉन्ड बेचने पर रोक लगाई जाए. लेकिन ये याचिका कोर्ट ने रद्द कर दी थी.
अंजलि भारद्वाज के मुताबिक, RTI ऐक्ट में लिखा है कि सारे पब्लिक अथॉरिटीज 'सूचना के अधिकार' के तहत आएंगे. पब्लिक अथॉरिटीज को आम भाषा में सार्वजनिक उपक्रम समझ सकते हैं. अंजलि के मुताबिक CIC ने कहा था कि देश की जो भी राजनीतिक पार्टियां हैं वे पब्लिक अथॉरिटीज की परिभाषा में फिट बैठती हैं. इसलिए उन पर ये RTI ऐक्ट लागू होने चाहिए.
अंजलि बताती हैं,
चुनाव आयोग ने क्या कहा था?"RBI ने अपनी चिट्ठी में लिखा था कि ये बॉन्ड बहुत खतरनाक हैं. इसके तहत शेल कंपनियां बना दी जाएंगी. और उसके जरिये विदेशों से भी पैसा आएगा. चुनाव आयोग ने भी कहा था कि इससे काला धन बनेगा और मनी लॉन्ड्रिंग होगी. "
पूर्व RBI गवर्नर उर्जित पटेल ने वित्त मंत्रालय को लिखे पत्र में ये आशंकाएं जताई थीं. वहीं, 27 मार्च 2019 को चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दाखिल किया था और इलेक्टोरल बॉन्ड को भारत के चुनावों के लिए खतरनाक माना था. आयोग ने हलफनामे में कहा था,
''इलेक्टोरेल बॉन्ड स्कीम से राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे की पारदर्शिता पर ‘गंभीर असर’ पड़ेगा. राजनीतिक दल बगैर किसी जांच के विदेशी चंदा भी लेंगे. और चंदा देने वाली विदेशी कंपनियां भारत की नीतियों को प्रभावित कर सकती हैं. इसके अलावा कौन इलेक्टोरल बॉन्ड खरीद रहा है, ये पता नहीं चल रहा है.''
शास्त्री मानते हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड का सिस्टम आने के बाद चुनावी फंडिंग की पारदर्शिता खत्म हो गई है. वो कहते हैं कि इसका खतरा ये है कि बड़ी-बड़ी कंपनियां राजनीतिक दलों को पैसे दे रही हैं और जनता के बीच एक शक पैदा होता है कि सरकार उनके हित में नीतियां बना रही हैं या कॉरपोरेट के लिए.
शास्त्री का साफ मानना है कि बड़े लोकतांत्रिक देशों में जनता को फंडिंग के बारे में जानने का अधिकार है. वो कहते हैं कि सरकार के पास जो भी पैसा है, वो जनता का पैसा है. उनके मुताबिक,
"हम ये नहीं कह रहे हैं कि आप यहां से या वहां से पैसे मत लीजिए. लेकिन हमें बताइए कि वो पैसा कौन दे रहा है. ये इसलिए कि सरकार के पास जो जनता का पैसा है वो जनता के हित में इस्तेमाल हो रहा है या किसी डोनर के हित में हो रहा है."
अप्रैल 2022 में तत्कालीन CJI एनवी रमणा ने याचिकाकर्ताओं को भरोसा दिलाया था कि सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे पर सुनवाई करेगा. अब इस साल 16 अक्टूबर को मौजूदा CJI डीवाई चंद्रचूड़ ने इसे संवैधानिक बेंच के पास भेज दिया. फिलहाल ADR, CPI(M), कांग्रेस नेता जया ठाकुर और स्पंदन बिस्वाल की चार याचिकाओं पर सुनवाई चल रही है.