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चुनावों के दौरान नेता आचार संहिता से क्यों डरते हैं?

एक अच्छे और स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि चुनाव निष्पक्ष हों. इसी उद्देश्य के लिए बनाई गई है आदर्श आचार संहिता. इसमें चुनाव से जुड़े कुछ नियम तय किये जाते हैं.

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election model code of conduct
आदर्श आचार संहिता (फोटो-आजतक)
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मानस राज
19 मार्च 2024 (Updated: 19 मार्च 2024, 23:04 IST)
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साल 2003 की बात है. मध्य प्रदेश में विधानसभा के चुनाव चल रहे थे. पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह भी चुनाव प्रचार के लिए पहुंचे. लेकिन कुछ ही दिनों बाद उन्हें चुनाव आयोग का एक नोटिस आ गया. अमरिंदर सिंह चुनाव प्रचार के लिए सरकारी हवाई जहाज लेकर गए थे. लिहाजा चुनाव आयोग ने उन्हें आदेश दिया कि वो एयरक्राफ्ट यात्रा के पूरे खर्चे की भरपाई सरकार को करेंगे. 
चुनाव आयोग ने ऐसा क्यों किया?
क्या एक मुख्यमंत्री सरकारी प्लेन का इस्तेमाल नहीं कर सकता?       
इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमें चुनाव, जो हमारे लोकतंत्र के आधार हैं, उनके एक बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू को समझना होगा. जिसे कहते हैं मोरल कोड ऑफ कंडक्ट या एमसीसी या आदर्श आचार संहिता.

देश में चुनाव होने वाले हैं. कुछ महीनों में साफ हो जाएगा कि देश को यहां से आगे कौन ले जाएगा? किसके हाथों में होगी देश की कमान? क्या नरेंद्र मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बनेंगे या जनता ने बदलाव की ठानी है? 
खैर आज इस बहस में नहीं पड़ते हैं. आज हम बात करेंगे आदर्श आचार संहिता की. देश के मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि 19 अप्रैल से लेकर 1 जून तक सात चरणों में चुनाव कराए जाएंगे. आयोग के अनुसार ये प्रक्रिया 6 जून से पहले पूरी कर ली जाएगी. साथ ही इस बार लोकसभा के साथ अलग-अलग राज्यों की विधानसभा सीट पर भी चुनाव होंगे. 
 

क्या है आदर्श आचार संहिता?

एक अच्छे और स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि चुनाव निष्पक्ष हों. इसी उद्देश्य के लिए बनाई गई है आदर्श आचार संहिता. इसमें चुनाव से जुड़े कुछ नियम तय किये जाते हैं. इन नियमों का उद्देश्य चुनावों में निष्पक्षता और धन-बल के प्रभाव को रोकना होता है. इससे ये सुनिश्चित किया जाता है कि चुनाव में  अपराध, भ्रष्ट आचरण , रिश्वतखोरी और मतदाताओं को लालच, मतदाताओं को डराने-धमकाने जैसी गतिविधियों को हर प्रकार से रोका जा सके. 
इसमें चुनाव से जुड़े कई नियम हैं, मसलन 
-चुनावी सभा, रोड शो, रैली या जुलूस से जुड़े नियम 
-मतदान के दिन पार्टियों और कैंडिडेट्स का आचरण 
-पोलिंग बूथ का अनुशासन 
-चुनाव में रूलिंग पार्टी की भूमिका 
-चुनाव में ऑब्जर्वर की भूमिका 
-चुनावों में किया जाने वाला खर्च


आचार संहिता की शुरुआत? 

आदर्श आचार संहिता की शुरुआत हुई थी केरल से. साल 1960 में केरल में विधानसभा के चुनाव होने थे. राजनीतिक दलों से बातचीत की गई और सभी दलों की सहमति के बाद मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट का खाका खींचा गया. गौर करने वाली बात ये है कि आदर्श आचार संहिता अपने आप में किसी कानून का हिस्सा नहीं है.  आदर्श आचार संहिता के कुछ प्रावधान आईपीसी की धाराओं के आधार पर ही लागू किये जाते हैं. पर ऐसा देखने को मिलता है कि राजनीतिक दल और प्रत्याशी इसके नियमों को अक्सर तोड़ते हैं.

 आम चुनावों में आचार संहिता

चुनाव आयोग ने 1979 में राजनीतिक दलों की एक बैठक बुलाई. इसमें सभी दलों से आचार संहिता के प्रावधानों को लेकर चर्चा की गई. अक्टूबर 1979 में हुए आम चुनावों में पहली बार आचार संहिता को लागू किया गया. फिर आया साल 1991. इलेक्शन कमीशन ने आचार संहिता के नियमों का विस्तार करने का सोचा. 1991 से ही ये तय हुआ कि आचार संहिता उसी दिन से लागू हो जिस दिन तारीखों की घोषणा हो. लेकिन केंद्र सरकार इसे उस दिन से लागू करना चाहती थी जिस दिन अधिसूचना जारी हो.
अंत में मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा पर तब भी इसपर कोई फैसला नहीं आया. फिर पंजाब एंड हरियाणा हाई कोर्ट ने 1997 में इस मामले से जुड़ा एक फैसला सुनाया. हाई कोर्ट ने चुनाव की तारीखों की घोषणा से ही आचार संहिता लागू करने के चुनाव आयोग के कदम को सही ठहराया. आखिरकार केंद्र और चुनाव आयोग के बीच इस पर सहमति बनी और 16 अप्रैल 2001 को ये तय हुआ कि जिस दिन चुनाव की तारीखें घोषित होंगी, उसी दिन से आचार संहिता अपने आप लागू हो जाएगी. इसमें एक शर्त भी जोड़ी गई कि इलेक्शन डेट्स की घोषणा, अधिसूचना जारी होने के तीन हफ्ते से पहले नहीं की जाएगी. अधिसूचना को ऐसे समझिए कि जिस दिन से ये जारी होती है, उस दिन से सरकार भंग हो जाती है. साथ ही सरकारी खजाने पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं रह जाता.

 आचार संहिता के नियम

चुनावों को स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से कराने के लिए चुनाव आयोग ने कुछ नियम और शर्तें तय किये हैं. आदर्श आचार संहिता कानून के द्वारा लाया गया कोई प्रावधान नहीं है बल्कि सभी राजनीतिक दलों की सर्वसम्मति से लागू  एक व्यवस्था है. सभी दलों और नेताओं को इसका पालन करना होता है.

 

क्या नियम हैं? 

-सरकारी खजाने या धन का इस्तेमाल किसी विशेष राजनीतिक दल या नेता को फायदा पहुंचाने के लिए नहीं किया जाएगा. 
-सरकारी गाड़ी, विमान या बंगले का इस्तेमाल चुनाव प्रचार में नहीं किया जाएगा. 
-किसी भी सरकारी योजना की घोषणा, लोकार्पण या शिलान्यास नहीं किया जा सकेगा. 
-हर पॉलिटिकल पार्टी, कैंडिडेट या उनके समर्थकों को रैली या जुलूस के लिए पुलिस से अनुमति लेनी होगी. 
-किसी भी चुनावी रैली में जाति या धर्म के नाम पर वोट नहीं मांगे जाएंगे. 
-सरकार के मंत्री अपनी आधिकारिक विजिट्स में चुनाव प्रचार नहीं कर सकते. 
-रूलिंग पार्टी सरकारी मशीनरी और गाड़ियों का इस्तेमाल चुनाव प्रचार के लिए न कर पाए. 
-ये भी सुनिश्चित हो कि प्रचार के संसाधन जैसे रैली के लिए मैदान या हेलीपैड का इस्तेमाल सभी पार्टियों को समान रूप से करने का मौका मिले.
-कोई भी केंद्रीय या राज्‍य सरकार का मंत्री निर्वाचन संबंधी अधिकारी को अपने पास नहीं बुला सकता.
-वोटरों को रिझाने के लिए सत्ताधारी पार्टी किसी भी पब्लिक सेक्टर में किसी तरह की नियुक्ति नहीं करती. 
-समाचार पत्रों और अन्य मीडिया में सरकारी खर्च पर विज्ञापन जारी करना भी अपराध माना जाता है. 
-चुनाव प्रचार के लिए धार्मिक स्थलों और प्रतीकों के इस्तेमाल की इजाजत नहीं होती.  
-संहिता लागू होते ही दीवारों पर लिखे हुए नारे और प्रचार सामग्री हटा दी जाती है.

 

सभी नियमों को जानने-समझने के बाद रह जाता है एक सवाल कि क्या आदर्श आचार संहिता का पालन ठीक से होता है?
वैसे तो आचार संहिता को लेकर कोई पुख्ता नियम नहीं हैं. इसका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ पारदर्शी और निष्पक्ष ढंग से चुनाव करवाना है. इसे लागू करने के लिए चुनाव आयोग नैतिक मंजूरी या निंदा का उपयोग करता है. चुनाव आयोग को इसके तहत कुछ शक्तियां मिली हुई हैं जैसे लोकसभा चुनाव 2024 की घोषणा होने के बाद आयोग ने बड़े पैमाने पर अधिकारियों के तबादले किये हैं. इसमें उत्तर प्रदेश के गृह सचिव भी शामिल हैं. 
बीते कुछ सालों में देश में जितने भी चुनाव हुए हैं, चाहे वो लोकसभा के हों या विधानसभा के, सब में आचार संहिता उल्लंघन के मामले सामने आते रहे हैं. राजनीतिक पार्टियां आमतौर इसे बहुत गंभीरता से नहीं लेतीं. उल्लंघन करने पर कार्रवाई तो होती है, पर वो ऐसी नहीं होती की कोई नज़ीर पेश कर सके.

 

उल्लंघन के मामले

1. पहला मामला मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों का है. नवंबर 2023 में प्रियंका गांधी कांग्रेस पार्टी के लिए प्रचार कर रही थीं. इस दौरान उन्होंने एक बयान दिया 
“मैं मोदीजी से पूछना चाहती हूं कि उन्होंने BHEL को अपने बड़े उद्योगपति मित्रों को क्यों दे दिया?”
इस बयान की वजह से इलेक्शन कमीशन ने उसे जवाब देने को कहा. क्योंकि आचार संहिता के विरुद्ध प्रियंका गांधी ने बिना पुष्टि के आरोप लगाए.

2. दूसरा मामला है 2017 के गुजरात विधानसभा चुनावों का. भाजपा और कांग्रेस, दोनों ने एक दूसरे पर आचार संहिता का उल्लंघन करने का आरोप लगाया. भाजपा ने जहां राहुल गांधी पर वोटिंग से 48 घंटे पहले टीवी चैनलों को इंटरव्यू देने का आरोप लगाया वहीं, कांग्रेस ने पीएम मोदी पर वोट डालने के बाद रोड शो करने का आरोप लगाया.

चुनाव आयोग द्वारा लगाई जाने वाली बंदिशों या पाबंदियों को पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा एक उदाहरण से समझाते हैं. फुटबॉल के खेल का उदाहरण देते हुए अशोक लवासा कहते हैं कि जैसे खेल में गलत आचरण करने पर रेफरी द्वारा येलो कार्ड दिया जाता है; उसी तरह चुनाव आयोग भी इलेक्शंस में रेफरी की भूमिका अदा करता है. अगर प्रत्याशी या पार्टी का आचरण बिल्कुल अस्वीकार्य है तो रेफरी माने चुनाव आयोग प्रत्याशी या पार्टी को रेड कार्ड दे देता है.

 कार्रवाई के मामले

हालांकि ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है जब आदर्श आचार संहिता लागू करने के लिए चुनाव आयोग ने कोई दंडात्मक कार्रवाई की हो. पर 2014 के लोकसभा चुनाव में चुनाव आयोग ने भाजपा के नेता अमित शाह और समाजवादी पार्टी के आजम खान पर कार्रवाई की थी. दोनों नेताओं पर अपने भाषणों से चुनावी माहौल खराब करने का आरोप लगा. आयोग ने इस आरोपों को सही पाया और माहौल खराब करने के लिए अमित शाह और आजम खान को चुनाव प्रचार करने से रोक दिया. इस प्रतिबंध को तब हटाया गया जब दोनों  नेताओं ने माफी मांगी और आगे से आचार संहिता का पालन करने का वादा किया.

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