नई दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित नौ दिवसीय विश्व पुस्तक मेले का आज समापन होगया. मेले के आठवें रोज शेखर ने कृष्ण से प्रार्थना की थी कि वह अपने पुराने स्वरूपमें लौटें ताकि शेखर मेले के आखिरी दिन उनके निर्देशन में ठीक से प्रगतिशील हो सके.धृतराष्ट्र उवाच : हे संजय! मन बहुत आकुल है, मेले के आखिरी दिन का हाल कहो?संजय उवाच : हे धृतराष्ट्र! मेले के आखिरी दिन मेलार्थियों के पास केवल शाम पांचबजे तक का ही वक्त था. इस अवधि में एक बार फिर पुस्तक-प्रेमियों की भीड़ उमड़ी. सारीअच्छी और सस्ती किताबें इस वक्त से बहुत पहले ही उठ चुकी थीं. वे किताबें जिनकी हरपुस्तक मेले में बहुत मांग रहती है... जैसे उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ सेप्रकाशित मुहम्मद मुस्तफा खां ‘मद्दाह’ का उर्दू-हिंदी शब्दकोश और नज़ीर ग्रंथावली.अंबेडकर संस्थान से 21 खंडों में प्रकाशित अंबेडकर का समग्र वांग्मय और गीता प्रेससे प्रकाशित वाल्मीकि रामायण.धृतराष्ट्र उवाच : हे संजय! इस मेले में कविता की चर्चा बहुत कम रही. यह भलाक्योंकर हुआ?संजय उवाच : हे राजन! मेले के मध्य में कथाकार भगवानदास मोरवाल ने इस पर कुछ फिक्रजाहिर की थी. उनके मुताबिक सबसे ज्यादा आश्चर्यजनक यह रहा कि मेले से हिंदी कवितालगभग पूरी तरह अनुपस्थित रही. लेखक मंच से लेकर प्रकाशकों के स्टॉल्स पर एक के बादएक कहानी-संग्रह और उपन्यासों के लोकार्पण और उन पर चर्चा कराई गई या हुई, लेकिनकविता वहां एक तरह से उपेक्षित-सी रही.धृतराष्ट्र उवाच : हे संजय! इस कविता-दुर्दशा पर कृष्ण ने शेखर से क्या कहा?संजय उवाच : हे धृतराष्ट्र! इस मेला-क्षेत्र में सब तरफ कविता ही मारी गई है.गांधारी भी इससे बहुत व्यथित हैं. वह इसके लिए कृष्ण को ही जिम्मेदार मानती हैं.गांधारी उवाच :‘मेला घुमनि’ नहीं थी मैंकवयित्री नहीं थी मैंलेकिन मेला अच्छी तरह जाना मैंनेप्रचार, लोकार्पण, सेल्फी...ये सब हैं केवल आडंबर मात्रतुम चाहते तो ये सब रुक सकता था कृष्ण!लेकिन तुमने इसे नहीं रोकाइसलिए अगर मेरे तप में बल हैतो सुनो कृष्ण!आचार्य हो या आलोचक होहो कुछ भी होअपमानित होओगे तुम एक कवि की तरहसारा वंश तुम्हारा एक कवि की तरह ही अपमानित होगा.संजय उवाच : हे धृतराष्ट्र! गांधारी के इस शाप के बाद अब कृष्ण शेखर से नहींगांधारी से मुखातिब हैं.कृष्ण उवाच :हे माता!आचार्य हूं या आलोचकपर पुत्र हूं तुम्हारा, तुम माता हो!मैंने शेखर से कहासारे तुम्हारे कर्मों का पाप-पुण्य, योग-क्षेममैं वहन करूंगा अपने कंधों परनौ दिनों के इस भीषण पुस्तक-संग्राम मेंकविता नहीं केवल मैं ही मरा हूं करोड़ों बारजितनी बार जो भी कवि भूमिशायी हुआकोई नहीं थावह मैं ही थागिरता था घायल होकर जो मेला-भूमि मेंकुकवियों के अंगों सेप्रचार, लोकार्पण, सेल्फी बनकर बहूंगामैं ही युग-युगांतर तककवि हूं मैंतो अपमानित भी तो मैं ही हूं मां!शाप यह तुम्हारा स्वीकार है...धृतराष्ट्र उवाच : हे संजय! इस डूबते हुए मेले में इस प्रसंग से मेरा हृदय भी डूबरहा है. आगे का हाल कहो!संजय उवाच : हे राजन! कृष्ण की जेब खाली हो चुकी है और शेखर का खाता. शेखर लगातारकुछ कविता-संग्रहों को बहुत चाहना के साथ देख रहा है. ये सब ‘पेंग्विन’ से आया हुआसंसार के बड़े कवियों का सेलेक्टेड और कलेक्टेड वर्क्स है. यह बहुत महंगा है, लेकिनकृष्ण इसे शेखर के लिए लेना चाहते हैं.कृष्ण बचपन से ही बहुत कुछ चुराते आए हैं. उनकी चोरियां बेशुमार दिलों को बेचैनकरती आई हैं.लेकिन कृष्ण को इसका बिल्कुल भी अंदाज नहीं है कि इस बार का विश्व पुस्तक मेलापुस्तक-चोरों के लिए उतना निरापद नहीं है. बड़े प्रकाशकों ने ऐसे चोरों पर निगरानीरखने के लिए अपने वालंटियर्स की संख्या बढ़ाई है और ‘पेंग्विन’ ने तो केवल इस प्रकारके चोरों से बचाव के लिए ही पांच से दस लाख रुपए खर्च कर दिए हैं. सूत्रों के हवालेसे ज्ञात हुआ कि पेंग्विन ने अपनी किताबों में कुछ इस प्रकार की एक चिप लगाई किजिसने भी बगैर बिल के किताब लेकर उसके स्टॉल से निकलने की कोशिश की, वह एग्जिट केदौरान ही चिप बीप करने की वजह से धर लिया गया. 50 से ज्यादा चोरों को पेंग्विन नेपकड़ने का दावा किया. 51वें चोर कृष्ण थे जो पेंग्विन की मॉडर्न क्लासिक सीरीज मेंलोर्का की सेलेक्टेड पोयम्स बगैर बिल चुकाए लेकर निकलने की कोशिश कर रहे थे. उन्हेंनिगरानी कर रहे गार्ड ने बुरी तरह अपमानित किया.इसके बाद कृष्ण मुंह पर मफलर लपेट कर लुटे-पिटे मेले से बाहर हो गए. उन्हें फिरकिसी ने भी कहीं नहीं देखा.धृतराष्ट्र उवाच : हे संजय! ...और शेखर का क्या हुआ?संजय उवाच : हे धृतराष्ट्र! कृष्ण पेंग्विन में घुसते वक्त शेखर को ‘रूपा’ के पासछोड़ गए थे. जब बहुत देर तक कृष्ण नहीं आए और मेला उजड़ने लगा, तब शेखर ने कृष्ण कोबहुत खोजा और कहीं नहीं पाया."attachment_52725" align="aligncenter" width="600"