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कालयो कूद पड़यो मेले में, साइकिल पंचर कर लायो

जयपुर लिट फेस्ट के आखिरी दिन का आंखों देखा हाल उर्फ जागो सोने वालों.

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फोटो : सुमेर सिंह राठौर
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अविनाश
24 जनवरी 2017 (Updated: 23 जनवरी 2017, 04:51 IST)
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जयपुर लिट फेस्ट के दसवें संस्करण के आखिरी दिन का जायजा लेने से पहले जमीन से ऊपर उठ चुके एक लड़के के दर्शन हुए. वह साहित्य का कंज्यूमर नहीं था. लेकिन उसके आगे साहित्य के नए कंज्यूमर बौने नजर आ रहे थे. वह ‘लंबू बांस’ बना हुआ ‘वैलेंटाइन हैलीराइड’ का प्रचार कर रहा था.
उसका नाम ध्रुव सिंह है. यह पूछने पर कि इतनी ऊंचाई से सू-सू कैसे करते हो? उसने एक दीवार दिखाई जिसके सहारे बैठ कर और फिर खोल कर वह मूतता है. दिन में कितने घंटे इस तरह बांस पर खड़े रहना पड़ता है? इस सवाल का जवाब है : सात घंटे और इन सात घंटों की कीमत है : दो हजार रुपए.
ध्रुव भरतपुर का रहने वाला है. शादियों, पार्टियों और राजनीतिक रैलियों में उसे ‘लंबू बांस’ बनने का काम मिलता रहता है. वह इस काम को आसान नहीं मानता है और कहता है कि खतरा बहुत है. बैलेंस बनाना पड़ता है. लोग बहुत जल्दी में और भागते हुए भी आस-पास से गुजरते हैं. इससे टक्कर का डर बना रहता है. कभी-कभी मजाक में लोग बांस को हिलाने लगते हैं, तब प्रैक्टिस काम आती है.
यह पूछने पर कि कभी इस काम में चोट लगी है? वह आगे के दो दांत दिखाता है जो टूटे हुए हैं. कहता है कि एक शादी में कुछ लड़कों ने बांस पकड़ कर मुझे उठा दिया, लेकिन वे संभाल नहीं पाए और मैं मुंह के बल गिर गया. मैं जमीन पर होता तो बैलेंस बना लेता, लेकिन हवा में उठा दिया सालों ने...
बहरहाल, जेएलएफ के आखिरी दिन जावेद अख्तर दिखाई नहीं दिए. लिहाजा शुभ्रा गुप्त को सुधीर मिश्र, रेचल डॉयर और इम्तियाज अली से ही बातचीत करनी पड़ी. सेशन - मदर इंडिया : इंडियन फिल्म्स एंड द नेशनल नैरेटिव.
फ्रंट लॉन में हुई इस बातचीत के बाद खा-पीकर इम्तियाज चारबाग आ गए. सेशन – ख्वाजा गरीब नवाज : ए मैसेज ऑफ लव. पैनल : कराची से आई रीमा अब्बासी, अजमेर से आए सलमान चिश्ती और मुंबई से आए इम्तियाज अली. मॉडरेशन : सादिया देहलवी.
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नमिता गोखले भी संयोग से इस बातचीत की शुरुआत के वक्त मौजूद रहीं. सादिया ने नमिता का शुक्रिया अदा किया कि उन्होंने उन्हें यहां बुलाया. नमिता और सादिया कॉलेज फ्रेंड्स रही हैं.
रीमा अब्बासी की किताब ‘अजमेर शरीफ : अवेकनिंग ऑफ सूफिज्म इन साउथ एशिया’ के लोकार्पण के बाद नमिता यह कह कर चली गईं कि ख्वाजा अजमेर शरीफ की छाया हमेशा हमारे फेस्टिवल पर बनी रही है. इसके बाद इस छाया पर सॉरी ख्वाजा गरीब नवाज पर बातचीत शुरू हुई.
सलमान : अजमेर शरीफ आने वालों के ख्यालों का भी ख्याल रखा जाता है. यहां आठ सौ सालों से ख्वाजा की देग में गोश्त नहीं पका है ताकि हर मजहब का आदमी ख्वाजा की मोहब्बत का जायका चख सके.
इम्तियाज की बातों में परहैप्स बहुत था, डेफिनेट बहुत कम. रीमा बहुत उलझी हुई लग रही थीं. मानो उनकी किताब जेएलएफ में लोकार्पित हो गई, यही उनके लिए बहुत हो.
इम्तियाज : ओल्ड हिंदू फिलॉसफी और न्यू सूफिज्म में आपस में काफी समानताएं हैं.
सलमान : साधु और योगी अजमेर शरीफ की दरगाह में सूफियों और मुस्लिम रहस्यवादियों के साथ मिलकर ध्यानादि का अभ्यास करते हैं.
इम्तियाज : हेट इज द अनसस्टेनेबल. बिल्ड द ट्रू लव.
एक पार्टीसिपेंट : अगर अजमेर शरीफ की दरगाह इतने ही प्रेम, पवित्रता और ध्यान से भरी हुई है तो वहां घुसते ही हर आदमी पैसा-पैसा क्यों करने लगता है? जूते उतारो तो पैसे, चादर चढ़ाओ तो पैसे?
सलमान : तीस से चालीस हजार लोग रोज अजमेर शरीफ आते हैं. हम कोशिश कर रहे हैं कि उन्हें सूफी सुविधाएं दे सकें. गरीब लोग बहुत हैं, वे उदात्तता और ध्यान नहीं समझते. लेकिन हेट को हेट से मत देखिए, उसे लव से देखिए... क्योंकि लव से हेट को खत्म किया जा सकता है.
रीमा यहां रूमी को कोट करती हैं और एक पार्टीसिपेंट इम्तियाज से पूछता है कि ‘द रिंग’ में उन्होंने ए आर रहमान को क्यों नहीं लिया? इम्तियाज ऐसे सवालों से घिर जाएं, इससे पहले बहुत सलीके और समझदारी से ऐसे सारे सवालों को सेशन के बाद मिलने को कहते हैं.
‘सिकंदर खुश नहीं था लूट के दौलत जमाने की / कलंदर दोनों हाथों से लुटाकर रक्स करते हैं.’
इस सार के साथ यह सेशन समाप्त होता है और दरबार हॉल में राजस्थानी को भाषा की मान्यता दिलाने के लिए एक सेशन शुरू होता है.
दरबार हॉल की सिटिंग कैपेसिटी बहुत कम है. इसका मतलब यह नहीं है कि राजस्थानी को भाषा की मान्यता दे दी जाए, यह मानने वाले भी बहुत कम हैं. नंद भारद्वाज इस सेशन में सी पी देवल, गीता सामौर और के सी मालू से बातचीत कर रहे हैं.
इससे थोड़ी दूर पर वाशरूम में मूतने के लिए भी लाइन लगी हुई है. मुझे ध्रुव सिंह याद आ रहा है, वह भी बाहर किसी दीवार से लगा बहुत ऊंचाई से मूत रहा होगा.
इससे भी थोड़ी दूर पर सेल्फी प्वाइंट पर ‘ड्रामा क्वीन’ की तख्तियां लिए लड़कियां एक दूसरे से क्लिक करने के लिए इसरार कर रही हैं.
इससे भी थोड़ी दूर पर बीकानेर से आया एक लड़का है. वह साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित दक्षिण अफ्रीकी लेखक जे एम कोट्जी को पूरा पढ़ चुका है. हिंदी के किसी नए लेखक को वह नहीं जानता है. उसके हाथ में बुक स्टोर से खरीदी हुई कोट्जी की नई किताब ‘द स्कूल डेज ऑफ जीसस’ है. वह कहता है कि वह यहां चार दिन से केवल प्लेन मैगी खा रहा है और पानी पी रहा है. मैगी की कीमत साठ रुपए है और पानी मुफ्त है. यहां क्यों आए हो? यह पूछने पर वह कहता है कि संसार के कुछ अच्छे दिमागों को एक जगह देखने-सुनने को मिल जाता है. पढ़ने-लिखने की आदत है तो यहां आकर कुछ काम हो जाते हैं. खाने-पीने से पैसे बचा कर किताबों पर खर्च करता हूं.
इससे भी थोड़ी दूर पर एक औरत एक आदमी से कह रही है कि तेरे को कुछ पढ़ने-वढ़ने का शौक है तो बता कुछ लिंक व्हाट्सअप कर देती हूं.
इससे भी थोड़ी दूर पर सौर ऊर्जा से चलने वाले टॉर्च, चूल्हे और ट्यूबलाइट बिक रहे हैं.
इससे भी थोड़ी दूर पर हर तरह के कपड़े, पर्स, बैग, जूते-चप्पल इत्यादि बिक रहे हैं.
इससे भी थोड़ी दूर पर बीयर और शराब बिक रही है.
इससे भी थोड़ी दूर पर...
इससे भी थोड़ी दूर पर राजस्थान स्कूल ऑफ आर्ट के छात्र आगंतुकों के मुफ्त स्केच बना कर अपना हाथ रवां कर रहे हैं.
इससे भी थोड़ी दूर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक पत्रकार अपने कैमरामैन के आगे मुंह किए हुए बोल रहा है कि विवादों और हस्तियों के लिए मशहूर जयपुर साहित्य उत्सव में इस बार युवाओं में साहित्य को लेकर बहुत जोश दिख रहा है. यह कह सकते हैं कि साहित्य में अब नया जोश आ गया है.
इससे भी थोड़ी दूर पर फ्रंट लॉन में Kate Tempest की रैप और कविता सरीखी भाषा में बहुत ऊर्जावान एकल प्रस्तुति Let them Eat Chaos चल रही है.
अब और दूर जाने का मन नहीं करता है. पैर यहीं रुक गए हैं. थोड़ी ही देर में यहीं फ्रंट लॉन में इस जेएलएफ का आखिरी सेशन शुरू होगा. इस सेशन को दोपहर में ‘बैठक’ में होना था, लेकिन तकनीकी वजहों से इसे यहां शिफ्ट करना पड़ा. सेशन - आधुनिकता एक खोज : द सर्च फॉर मॉडर्निटी. पैनल : मृणाल पांडे, सौरभ द्विवेदी, अनु सिंह चौधरी. मॉडरेशन : अदिति महेश्वरी गोयल.
फोटो : सुमेर सिंह राठौर
फोटो : सुमेर सिंह राठौर

‘भाड़ में जाए आधुनिकता, कोई शेड्यूल फॉलो नहीं करते हैं ये लोग...’ यह कह कर एक नौजवान बगल से उठ कर चला जाता है. इस सेशन में भीड़ बहुत भारी है. मृणाल पांडे पद्म पुरस्कार से सम्मानित वरिष्ठ पत्रकार हैं. अनु सिंह चौधरी रामनाथ गोयनका पुरस्कार से सम्मानित युवा पत्रकार और कथाकार हैं. सौरभ रंगीले हैं और ‘द लल्लनटॉप’ के मुखिया हैं. इस परिचय के बाद अदिति आधुनिकता की गेंद को मृणाल पांडे की तरफ पास कर देती हैं.
मृणाल : जब मार पड़ती है, तब आदमी अपनी ही भाषा की शरण में जाता है. हिंदी के सामने दो चुनौतियां हैं. एक तो उसे राजनीतिक विमर्श के लिए जगह बनानी होगी और दूसरे सर्वधर्म समभाव को लेकर चलना होगा.
सौरभ : मेरे वक्त की पत्रकारिता को किस्सों और नैरेटिव में लौटना होगा. क्योंकि आखिर में किस्सा ही बचेगा और किस्सा ही जिंदा रखेगा.
अनु : आधुनिकता संदर्भ से तय होती है जबकि खोज स्थायी है. पत्रकारिता के अनुभवों से गुजरने के बाद मुझे लगा कि ट्रुथ तो फिक्शन में ही है. फिक्शन मुझे बहुत लिबरेटिंग लगता है. मुझे लगता है कि स्त्रियों की कहानियों को अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए. स्त्रियों की लिखी कहानियां, पुरुषों के लिए भी हैं.
मृणाल फिक्र जताती हैं कि आज कोई भी ऐसा राजनेता नहीं है जो अच्छे पत्रकारों-कवियों-लेखकों से घिरा हुआ हो. वह राममनोहर लोहिया का उदाहरण देती हैं.
अदिति सौरभ से : यह 2.0 वाली हिंदी क्या है?
सौरभ : अब जमाना एक नंबरी नहीं रहा. वह दस नंबरी हो गया है. 2.0 वाली हिंदी में 2 दो नंबरी वाला है. हिंदी पत्रकारिता में कंकाल बहुत इकट्ठा हो गए हैं. कालीन उठा कर इसकी सफाई करने की जरूरत है. लेकिन नई हिंदी पुरानेपन को बिल्कुल छोड़ दे, यह नहीं हो सकता. वह परंपरा से संवाद कर रही है. मैं अपनी पुश्तैनी जमीन छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगा. आधुनिकता समय, संदर्भ और संस्कार से तय होगी.
अदिति : हिंदी का जुझारू व्यक्तित्व अब खुल कर और खिल कर सामने आ रहा है.
सौरभ : हिंदी वालों को यह समझना होगा कि बाजार अब हमारी सच्चाई है. अब इससे डर कर काम नहीं चलेगा.
भारत में आए उदारीकरण को पी. वी. नरसिम्हा राव से जुड़े एक पॉलिटिकल किस्से से समझा कर सौरभ ने महफिल लूटने की कोशिश की और फ्रंट लॉन को ‘द लल्लनटॉप’ के न्यूज रूम में बदल दिया. अकुंठ और सहज रहने की वकालत करते हुए उन्होंने हिंदी की तुलना गोमुख से निकलने वाली गंगा से की और जम कर तालियां बटोरीं.
‘हम गिरा दे अगर बीच की दीवार तो / देखना हमारा आंगन बड़ा हो जाएगा.’
इस सार के साथ यह सेशन खत्म हुआ और न जाने फिर क्या-क्या कहां-कहां शुरू हुआ...
अगले दृश्य की प्रतीक्षा में ध्रुव सिंह अपनी टांगों में बंधे बांस खोल रहा है.
एक समाज में ‘मनी ओरिएंटेड मांइडसेट’ के हाथ में आई हुई चीजें संस्कृति और सभ्यता को कैसे तरह-तरह के नाम देकर भ्रष्ट कर सकती हैं, इसे समझने के लिए ‘जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल’ जैसे आयोजन एक कारगर डिवाइस साबित हो सकते हैं. यहां साहित्य से इतर एक प्रचंड प्रपंच है. इस प्रपंच में इतना बाजार है कि सब बगैर दाम पूछे ही उसे मुंह में लेने को मजबूर हैं.
यहां सामंतवाद के नए किले हैं. यहां वार्तालाप नहीं वार्तालाभ के मकसद से आए हुए डेलीगेट्स, पार्टीसिपेंट और कपल्स हैं. यहां हजारों फटी जींसें और लॉन्ग कोट हैं. साहित्य के सेंस को नहीं साहित्यकारों के ड्रेसिंग सेंस को समझ चुके खोखले व्यक्तित्व हैं. कला की मुख्यधारा में बेपहचान रहे आए कैरेक्टर आर्टिस्ट, स्ट्रगलर्स और लूजर्स हैं. ऐसे फिल्म मेकर्स हैं जो अब तक एक भी फिल्म नहीं बना पाए हैं. ऐसे एड मेकर्स हैं जिन्हें अब तक सूर्या सीएफएल का एड तक बनाने का मौका नहीं मिला है.
सब तरफ चमक, सब तरफ व्यापार, सब तरफ समझौते हैं. सब तरफ करार, सब तरफ झूठ, सब तरफ चालें, सब तरफ जुगाड़, सब तरफ घातें हैं... अब यही भारतीय उत्सवधर्मिता का स्थायी भाव है. क्या अब यही भारतीय उत्सवधर्मिता का स्थायी भाव है? अगर अब यही भारतीय उत्सवधर्मिता का स्थायी भाव है तो जहां ऐसे उत्सव होते हैं वहां ध्वंस करके एक पार्क बनाया जाना चाहिए. इस प्रकार का एक पार्क जहां कभी-कभी झूठे संतों के सच्चे प्रवचन हों, सच्चे राजनेताओं के झूठे भाषण हों, बढ़ी दाढ़ीवाले कृपण साहित्यकारों के एकल रचना-पाठ हों... और जहां सुबह-शाम बच्चे आकर खेलें और खेल-खेल में वे न संत बनें, न राजनेता, न कलाकार, न साहित्यकार... वे वह बनें जो वे बनना चाहते हैं.
*रपट का शीर्षक इस राजस्थानी लोकगीत से साभार है :
https://www.youtube.com/watch?v=oC7z9HUQJRc
***इस बार के जेएलएफ के बाकी दिनों का हाल यहां पढ़ें :
जमीन से ऊपर उठ चुके लोगों का है जेएलएफ

जेएलएफ में जा पाता है स्कैन किया हुआ ‘आदमी’

मैं प्रोफेशनल मुस्लिम नहीं हूं : सईद नकवी

जेएलएफ पहला दिन: संक्षेप ही तो समस्या है

 

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