‘‘नई दिल्ली के प्रगति मैदान में नई वाली हिंदी पर मोहित शेखर का मोह कुछ कम करनेके लिए विश्व पुस्तक मेले के आठवें रोज कृष्ण ने क्या प्रयत्न किए?’’ धृतराष्ट्र केइस प्रश्न के बाद संजय बोले : हे धृतराष्ट्र! चोट खाए बगैर मोह कम नहीं होता. इसलिएनई वाली हिंदी की चमक से मोहित शेखर को कृष्ण ने कुछ चोट देने वाली किताबें उनस्टॉल्स से खरीदवाईं जो नई वाली हिंदी के प्रचार से ग्रस्त हैं. कृष्ण ने पुस्तकेंचुन दीं और शेखर को Paytm से पेमेंट करने को कहा. कृष्ण उवाच : हे शेखर! ये किताबेंबहुत तय है कि तुझे घायल करेंगी और तेरा मोह नष्ट होगा. इस प्रक्रिया से तू पुन:स्मृति को प्राप्त होगा क्योंकि क्लासिक्स कभी धोखा नहीं देते. मेले के आठवें रोजवाणी प्रकाशन के स्टॉल के सामने इंद्रप्रस्थ कॉलेज की छात्राओं ने एक पांच मिनट कानुक्कड़ नाटक वाणी फाउंडेशन के सहयोग से किया. यह नाटक हिंदी को लेकर गहरी चिंताओंसे भरा हुआ था. हे बंधु! संसार में शिक्षा और ज्ञान के ऐसे महकमे भी हैं जहां हिंदीबोलने पर सजा मिलती है, जुर्माना चुकाना पड़ता है. हिंदी पढ़ना ओल्ड फैशन है, यह हालमें ही एक 'खामखाह' नाम की शार्ट फिल्म में भी दिखाया गया. आठवें रोज ही सुबह-सुबहवाणी के ही स्टॉल पर एक न्यूज चैनल की परिचर्चा भी पुस्तक-संस्कृति और पुस्तक-मेलोंकी प्रासंगिकता के लिहाज से बहुत स्वस्थ रही. शेखर उवाच : हे कृष्ण! यह मेला कल उजड़जाएगा. इन गए आठ दिवसों के दरमियान आपने मेरे प्रति जो कुछ भी कहा, मैंने उसे सत्यमाना. हे सदा कालजयी साहित्य पढ़ने वाले! हे पाठकों के पाठक! हे लेखकों के लेखक! आपस्वयं ही अपने से अपने को जानते हैं. इसलिए आप ही उन अपनी दिव्य विभूतियों कोसमग्रता से कहने में समर्थ हैं, जिन विभूतियों के माध्यम से आप इस मेले में निरंतरउपस्थित रहे. हे योगेश्वर! मैं किस प्रकार आपको और जानूं? आप अपने को औरविस्तारपूर्वक कहिए? कृष्ण उवाच : हे शेखर! मेरे विस्तार का अंत वैसे ही नहीं है,जैसे संसार में महान किताबों और महान लेखकों का अंत नहीं है. मैं सारी महान किताबोंकी आत्मा हूं. उनका आदि, मध्य और अंत मैं ही हूं. मैं अरण्यों में ‘अंतिम अरण्य’हूं. मैं आलोकधन्वा का एकमात्र कविता-संग्रह हूं. मैं वेदों में ‘वार एंड पीस’ हूं.देवों में दोस्तोएवस्की हूं. इंद्रियों में ‘लव इन दि टाइम ऑफ कॉलरा’ हूं औरभूतपूर्व महानताओं में डिकेंस और लॉरेंस हूं. मैं एकादश रुद्रों में शंकर की‘चौरंगी’ हूं. राक्षसों में ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ हूं. पुरोहितों में मुखियाशेक्सपीयर तू मुझको ही जान. हे शेखर! मैं सेनापतियों में गुंटर ग्रास और जलाशयोंमें ‘लाइफ ऑफ पाई’ हूं. मैं महात्माओं में ‘गांधी’ और शब्दों में सत्य के साथप्रयोग हूं. मैं कविता और कहानी का ‘क’ और उपन्यास का ‘उ’ हूं. सब प्रकार के यज्ञोंमें ‘कुरु कुरु स्वाहा’ हूं और स्थिर रहने वाले पहाड़ों को कुहनियों से ठेलता हुआशमशेर भी मैं ही हूं. मैं सब वृक्षों में ‘नीम का पेड़’ हूं. सब गांवों में ‘आधागांव’ हूं. देवियों में महादेवी और अख्मातोवा हूं. मुनियों में चेखव और बोर्हेस भीमैं ही हूं. मैं शस्त्रों में ‘फेयरवेल टू आर्म्स’ हूं. शासन करने वालों में ‘किंगलियर’ हूं. देवताओं में मैं ‘गुनाहों का देवता’, घोड़ों में मैं ‘सूरज का सातवांघोड़ा’ हूं और युगों में मैं ‘अंधा युग’ हूं. मैं पवित्र करने वालों में ‘वोल्गा सेगंगा’ हूं. मछलियों में मैं ‘मरी हुई मछली’ हूं. पत्रिकाओं में मैं ‘पहल’, ऋतुओंमें ‘निराला’ समासों में ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’, मैं छंदों में ‘छंद छंद परकुमकुम’ हूं. मैं छल करने वालों में ‘गैम्बलर’, प्रभावशाली पुरुषों में ‘डोरियनग्रे’ हूं. मैं जीतने वालों में ‘मैक्सिकन’, दमन करने वालों में ‘क्राइम एंडपनिशमेंट’ हूं. मैं शिखर वाले पर्वतों में ‘शेखर’ हूं. हे शेखर! जो सुंदर और सार्थकएक साथ लिखा गया है, वह मैं ही हूं. जो रचनात्मक लिखा जा रहा है वह भी मैं ही हूंऔर जो महान लिखा जाएगा वह भी मैं ही हूं. दिव्य साहित्य का कोई अंत नहीं है. यहांयह सब तो मैंने बहुत-बहुत संक्षेप में कहा है. लेकिन इस बहुत जानने से तेरा क्याप्रयोजन तू तो इससे भी बहुत-बहुत संक्षेप में बस इतना जान कि एक रचनात्मक किताबखत्म करते-करते तुझे ये बता कर खत्म होगी कि अगली रचनात्मक तुझे कौन-सी पढ़नी है.इसलिए हे प्रिय! रचनात्मकता में स्वयं को स्थित कर. शेखर उवाच : हे कृष्ण! आपके इनवचनों से मेरा अज्ञान नष्ट हो गया है. मैं आपके विराट अध्ययन को देख पा रहा हूं.कृष्ण उवाच : हे शेखर! मैं खराब साहित्य के लिए महाकाल हूं. जब-जब महान किताबेंसंकट में होती हैं और सुंदर साहित्य की हानि होती है, मैं मीडियाकर-मंडल के नाश केलिए विश्व पुस्तक मेलों में उत्पन्न होता रहता हूं. संजय उवाच : हे धृतराष्ट्र!कृष्ण के इस कथ्य को सुन कर शेखर भयभीत-सा हाथ जोड़कर कृष्ण के सम्मुख नतमस्तक हुआ.शेखर उवाच : हे कृष्ण! आप अपने पुराने स्वरूप में लौटिए ताकि मेले के आखिरी दिन मैंआपके निर्देशन में ठीक से स्वयं को प्रगतिशील कर सकूं.[ टू बी कंटीन्यूड… ]इससे पहले की कड़ियां यहां पढ़ें : पानी अब जल नहीं रहा... तुझे मेले में सब देखेंगे,मेला कौन देखेगा दिख रहा है हिंदी साहित्य का सदाबहार रोग नहीं योग पुस्तक मेले मेंजारी है अंबेडकर का जलवा मंदिर ही नहीं, पुस्तक मेले में भी भीड़ खींच रहा है धर्मपुस्तक मेला कहीं लेखक मेला न हो जाए, संभालिए विश्व पुस्तक मेले के पहले दिन का‘आंखों देखा हाल’