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पुस्तकों का कोई अंत नहीं, लेकिन पुस्तक मेला उजड़ जाएगा

विश्व पुस्तक मेले के आठवें दिन का आंखों देखा हाल.

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अविनाश
15 जनवरी 2017 (Updated: 15 जनवरी 2017, 10:03 IST)
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‘‘नई दिल्ली के प्रगति मैदान में नई वाली हिंदी पर मोहित शेखर का मोह कुछ कम करने के लिए विश्व पुस्तक मेले के आठवें रोज कृष्ण ने क्या प्रयत्न किए?’’धृतराष्ट्र के इस प्रश्न के बाद संजय बोले : हे धृतराष्ट्र! चोट खाए बगैर मोह कम नहीं होता. इसलिए नई वाली हिंदी की चमक से मोहित शेखर को कृष्ण ने कुछ चोट देने वाली किताबें उन स्टॉल्स से खरीदवाईं जो नई वाली हिंदी के प्रचार से ग्रस्त हैं. कृष्ण ने पुस्तकें चुन दीं और शेखर को Paytm से पेमेंट करने को कहा. कृष्ण उवाच : हे शेखर! ये किताबें बहुत तय है कि तुझे घायल करेंगी और तेरा मोह नष्ट होगा. इस प्रक्रिया से तू पुन: स्मृति को प्राप्त होगा क्योंकि क्लासिक्स कभी धोखा नहीं देते. मेले के आठवें रोज वाणी प्रकाशन के स्टॉल के सामने इंद्रप्रस्थ कॉलेज की छात्राओं ने एक पांच मिनट का नुक्कड़ नाटक वाणी फाउंडेशन के सहयोग से किया. यह नाटक हिंदी को लेकर गहरी चिंताओं से भरा हुआ था. हे बंधु! संसार में शिक्षा और ज्ञान के ऐसे महकमे भी हैं जहां हिंदी बोलने पर सजा मिलती है, जुर्माना चुकाना पड़ता है. हिंदी पढ़ना ओल्ड फैशन है, यह हाल में ही एक 'खामखाह' नाम की शार्ट फिल्म में भी दिखाया गया. आठवें रोज ही सुबह-सुबह वाणी के ही स्टॉल पर एक न्यूज चैनल की परिचर्चा भी पुस्तक-संस्कृति और पुस्तक-मेलों की प्रासंगिकता के लिहाज से बहुत स्वस्थ रही. शेखर उवाच : हे कृष्ण! यह मेला कल उजड़ जाएगा. इन गए आठ दिवसों के दरमियान आपने मेरे प्रति जो कुछ भी कहा, मैंने उसे सत्य माना. हे सदा कालजयी साहित्य पढ़ने वाले! हे पाठकों के पाठक! हे लेखकों के लेखक! आप स्वयं ही अपने से अपने को जानते हैं. इसलिए आप ही उन अपनी दिव्य विभूतियों को समग्रता से कहने में समर्थ हैं, जिन विभूतियों के माध्यम से आप इस मेले में निरंतर उपस्थित रहे. हे योगेश्वर! मैं किस प्रकार आपको और जानूं? आप अपने को और विस्तारपूर्वक कहिए? कृष्ण उवाच : हे शेखर! मेरे विस्तार का अंत वैसे ही नहीं है, जैसे संसार में महान किताबों और महान लेखकों का अंत नहीं है. मैं सारी महान किताबों की आत्मा हूं. उनका आदि, मध्य और अंत मैं ही हूं. मैं अरण्यों में ‘अंतिम अरण्य’ हूं. मैं आलोकधन्वा का एकमात्र कविता-संग्रह हूं. मैं वेदों में ‘वार एंड पीस’ हूं. देवों में दोस्तोएवस्की हूं. इंद्रियों में ‘लव इन दि टाइम ऑफ कॉलरा’ हूं और भूतपूर्व महानताओं में डिकेंस और लॉरेंस हूं. मैं एकादश रुद्रों में शंकर की ‘चौरंगी’ हूं. राक्षसों में ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ हूं. पुरोहितों में मुखिया शेक्सपीयर तू मुझको ही जान. हे शेखर! मैं सेनापतियों में  गुंटर ग्रास और जलाशयों में ‘लाइफ ऑफ पाई’ हूं. मैं महात्माओं में ‘गांधी’ और शब्दों में सत्य के साथ प्रयोग हूं. मैं कविता और कहानी का ‘क’ और उपन्यास का ‘उ’ हूं. सब प्रकार के यज्ञों में ‘कुरु कुरु स्वाहा’ हूं और स्थिर रहने वाले पहाड़ों को कुहनियों से ठेलता हुआ शमशेर भी मैं ही हूं. मैं सब वृक्षों में ‘नीम का पेड़’ हूं. सब गांवों में ‘आधा गांव’ हूं. देवियों में महादेवी और अख्मातोवा हूं. मुनियों में चेखव और बोर्हेस भी मैं ही हूं. मैं शस्त्रों में ‘फेयरवेल टू आर्म्स’ हूं. शासन करने वालों में ‘किंग लियर’ हूं. देवताओं में मैं ‘गुनाहों का देवता’, घोड़ों में मैं ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ हूं और युगों में मैं ‘अंधा युग’ हूं. मैं पवित्र करने वालों में ‘वोल्गा से गंगा’ हूं. मछलियों में मैं ‘मरी हुई मछली’ हूं. पत्रिकाओं में मैं ‘पहल’, ऋतुओं में ‘निराला’ समासों में ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’, मैं छंदों में ‘छंद छंद पर कुमकुम’ हूं. मैं छल करने वालों में ‘गैम्बलर’, प्रभावशाली पुरुषों में ‘डोरियन ग्रे’ हूं. मैं जीतने वालों में ‘मैक्सिकन’, दमन करने वालों में ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ हूं. मैं शिखर वाले पर्वतों में ‘शेखर’ हूं. हे शेखर! जो सुंदर और सार्थक एक साथ लिखा गया है, वह मैं ही हूं. जो रचनात्मक लिखा जा रहा है वह भी मैं ही हूं और जो महान लिखा जाएगा वह भी मैं ही हूं. दिव्य साहित्य का कोई अंत नहीं है. यहां यह सब तो मैंने बहुत-बहुत संक्षेप में कहा है. लेकिन इस बहुत जानने से तेरा क्या प्रयोजन तू तो इससे भी बहुत-बहुत संक्षेप में बस इतना जान कि एक रचनात्मक किताब खत्म करते-करते तुझे ये बता कर खत्म होगी कि अगली रचनात्मक तुझे कौन-सी पढ़नी है. इसलिए हे प्रिय! रचनात्मकता में स्वयं को स्थित कर. शेखर उवाच : हे कृष्ण! आपके इन वचनों से मेरा अज्ञान नष्ट हो गया है. मैं आपके विराट अध्ययन को देख पा रहा हूं. कृष्ण उवाच : हे शेखर! मैं खराब साहित्य के लिए महाकाल हूं. जब-जब महान किताबें संकट में होती हैं और सुंदर साहित्य की हानि होती है, मैं मीडियाकर-मंडल के नाश के लिए विश्व पुस्तक मेलों में उत्पन्न होता रहता हूं. संजय उवाच : हे धृतराष्ट्र! कृष्ण के इस कथ्य को सुन कर शेखर भयभीत-सा हाथ जोड़कर कृष्ण के सम्मुख नतमस्तक हुआ. शेखर उवाच : हे कृष्ण! आप अपने पुराने स्वरूप में लौटिए ताकि मेले के आखिरी दिन मैं आपके निर्देशन में ठीक से स्वयं को प्रगतिशील कर सकूं.

[ टू बी कंटीन्यूड… ]

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