इज़रायल की नाक में दम करने वाले हमास की पूरी कहानी
इज़रायल पर रॉकेट बरसाने वाले हमास को किसका सपोर्ट हासिल है?
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दुनिया के कई हिस्सों में आज ईद मनाई जा रही है. ईद को रमज़ान के सब्र का तोहफ़ा माना जाता है. ख़ूब उमंग रहती है. मगर फ़िलिस्तीन, ख़ासकर गाज़ा पट्टी में आज का दिन भी हवाई बमबारियों के बीच बीता. लोग मरे. जख़्मी हुए. घर टूटे. जान बचाने की अफ़रा-तफ़री मची रही.
इस बमबारी का बैकग्राउंड जुड़ा है जेरुसलम से. वहां पूर्वी जेरुसलम के एक छोटे से इलाके में भड़के प्रॉपर्टी विवाद ने चिंगाड़ी भड़काई. हफ़्तों से बना आ रहा तनाव 10 मई को क़ाबू से बाहर चला गया. जेरुसलम का सबसे पवित्र स्थान टेम्पल माउंट भी इसकी ज़द में आया. 10 मई की सुबह यहां भी हिंसा हुई. इज़रायली फोर्सेज़ ने पत्थर फेंक रहे फ़िलिस्तीनियों पर रबड़ बुलेट्स दागीं. मस्ज़िद को खाली करवा दिया. जवाब में हमास ने इज़रायल पर रॉकेट हमले शुरू कर दिए. इसकी प्रतिक्रिया में इज़रायल ने गाज़ा पर बमबारी शुरू कर दी. इज़रायली बमबारी में अब तक 83 फ़िलिस्तीनी मारे जा चुके हैं. इनमें 17 बच्चे भी शामिल हैं. वहीं हमास के रॉकेट हमलों के चलते इज़रायल में एक बच्चे समेत सात लोगों की जान गई.
जेरुसलम के सबसे पवित्र स्थान टेम्पल माउंट में भी हिंसा हुई. (तस्वीर: एपी)
इस पूरे संदर्भ में आप लगातार एक नाम सुन रहे होंगे- हमास. क्या है हमास? इसकी हिस्ट्री क्या है? वो क्या चाहता है? हम इन्हीं मुद्दों पर बात करेंगे.
एशिया के पश्चिमी छोर पर बसा एक छोटा सा देश है- फ़िलिस्तीन. जानकारों के मुताबिक, फ़िलिस्तीन को अपना नाम मिला है, फिलिस्तिया से. फिलिस्तिया पांच शहरों का एक साझा ग्रुप था. इन पांच शहरों के नाम थे- गाज़ा, ऐस्केलॉन, ऐशडोड, गाथ और एक्रॉन.
फिलिस्तिया पर कंट्रोल था फिलिस्ताइन्स नाम के लोगों का. ये तकरीबन तीन हज़ार साल पहले की बात है. माना जाता है कि 12वीं सदी ईसापूर्व में ये लोग लेवांत आकर रहने लगे. लेवांत माने वो इलाका, जहां मौजूदा इज़रायल, लेबनन और सीरिया का क्षेत्र है. फिलिस्ताइन्स शायद शरणार्थी थे, जो नए घर की तलाश में यहां आए थे. प्राचीन सोर्सेज़ में कुछ जगहों पर फिलिस्ताइन्स के साथ हुए युद्धों का ज़िक्र है. इनमें से एक युद्ध इज़िप्ट के राजा से हुआ. इसके अलावा कुछ और संघर्षों का भी उल्लेख मिलता है.
आपने एक मुहावरा सुना है- डेविड वर्सेज़ गोलायथ. उस मुहावरे का मूल भी ऐसे ही एक संघर्ष से है. ये कहानी है ओल्ड टेस्टामेंट में. इसके मुताबिक, एक दफ़ा फिलिस्ताइन्स और इज़रायलियों के बीच एक युद्ध हुआ. इसमें फिलिस्ताइन्स की सेना का नेतृत्व कर रहा था गोलायथ. ख़ूब लंबा-चौड़ा और बलशाली. उधर इज़रायलियों की सेना का लीडर था, डेविड नाम का एक आदमी. डेविड ने एक गुलेल की मदद से बलशाली गोलायथ को मार दिया. मान्यता है कि आगे चलकर यही डेविड बने किंग ऑफ़ इज़रायल.
अब थोड़ा हाल के इतिहास पर आते हैं
आधुनिक इज़रायल के गठन से पहले जहां फ़िलिस्तीन देश था, उस भूभाग पर कई समूहों का शासन रहा. इनमें असीरियन्स, बेबिलोनियन्स, पर्शियन्स, ग्रीक, रोमन्स, अरब, इज़िप्टियन्स शामिल थे. 16वीं सदी की शुरुआत में ये इलाका ऑटोमन साम्राज्य के कंट्रोल में आया. 1517 से 1917 तक, यानी पूरे 300 साल तक ये ऑटोमन एंपायर का ही अंग रहा.
पहले विश्व युद्ध में ऑटोमन्स की हार के बाद अंग्रेज़ों को फ़िलिस्तीन पर शासन का अधिकार दे दिया गया. पहले विश्व युद्ध के ही दौरान 1917 में ब्रिटेन ने जारी किया एक स्टेटमेंट. इसे कहते हैं- बेलफोल डेक्लरेशन. इसमें अंग्रेज़ों ने वादा किया कि वो फ़िलिस्तीन में 'ज्यूइश नैशनल होम' के गठन को सपोर्ट करेगा. फर्स्ट वर्ल्ड वॉर ख़त्म होने के बाद 1922 में मित्र देशों ने भी फ़िलिस्तीनी भूभाग पर यहूदी देश की स्थापना के ब्रिटिश वायदे को अपनी मंज़ूरी दे दी. इसके बाद बड़ी संख्या में यहूदी इमिग्रेंट्स फ़िलिस्तीन आने लगे.
ऐसा नहीं कि यहूदियों के फ़िलिस्तीन आने, यहां अरबों से ज़मीन ख़रीदने की शुरुआत 20वीं सदी में हुई हो. ऐसा पहले भी हो रहा था, मगर छोटे पैमाने पर. इसकी वजह ये थी कि फ़िलिस्तीन की ज़मीन पर यहूदी राष्ट्र बनाने की हलचल. 1799 में नेपोलियन ने फ़िलिस्तीन को बतौर होमलैंड यहूदियों को देने का प्रस्ताव दिया था. इसके बाद 1882 में फ़िलिस्तीन के भीतर एक बड़ा यहूदी इलाका बसा. इसका नाम था- रिशोन ले ज़ियोन. इसके बाद से ही यहूदी फ़िलिस्तीनी भूभाग पर अपना देश बनाने के लिए समर्थन जुटाने लगे. फ़िलिस्तीनी इसका विरोध करने लगे.
फ़िलिस्तीन की ओर से यहूदियों के खिलाफ़ पहला बड़ा विरोध हुआ 1929 में
इस वक़्त तक बड़ी संख्या में यहूदी पलायन करके फ़िलिस्तीन आने लगे थे. इसी के चलते फ़िलिस्तीनी विरोध ने भी ज़ोर पकड़ा. बड़े स्तर पर प्रोटेस्ट हुए. हिंसा भी हुई. जेरुसलम से करीब 30 किलोमीटर दूर हेब्रॉन नाम का एक शहर है. अफ़वाह फैली कि यहूदी जेरुसलम स्थित टेम्पल माउंट पर कब्ज़ा करने की तैयारी कर रहे हैं. इस अफ़वाह के चलते एक अगस्त 1929 में हेब्रॉन शहर के भीतर 60 से ज़्यादा यहूदी क़त्ल कर दिए गए.
इधर हिंसा और तनाव बढ़ रहा था. उधर 1935 में ब्रिटेन द्वारा गठित पील कमीशन ने फ़िलिस्तीन के बंटवारे की अनुशंसा कर दी. इसके विरोध में फ़िलिस्तीन के भीतर छह महीने लंबी हड़ताल हुई. फ़िलिस्तीनी विरोध के बावजूद 1947 में संयुक्त राष्ट्र ने एक प्रस्ताव पारित किया. इस रेजॉल्यूशन नंबर 181 में फ़िलिस्तीन के बंटवारे का प्रस्ताव था. फ़िलिस्तीन ने इसे ठुकरा दिया.
फ़िलिस्तीनी का प्रतिरोध दबाने के लिए यहूदी संगठनों की तरफ़ से हिंसा भी की गई. इनमें से एक संगठन था- इरगुन. वो फिलिस्तीनियों पर हमले करता था. ब्रिटिश फोर्सेज़ को भी निशाना बनाता था. 1946 में. इसी इरगुन ने जेरुसलम स्थित किंग डेविड होटल में बम फोड़ा था. इस घटना में 91 लोग मारे गए थे. इज़रायल के आधिकारिक गठन के एक महीने पहले अप्रैल 1948 में इरगुन ने डिर यासीन नाम के शहर में हमला किया. इसमें 254 फ़िलिस्तीनी मारे गए.
किंग डेविड होटल ब्लास्ट में 91 लोगों की मौत हो गई थी. (तस्वीर: एपी)
इज़रायल और फ़िलिस्तीन का साझा इतिहास ऐसी ही हिंसाओं से भरा है. ये हिंसा इज़रायल के गठन के पहले से जारी है. इज़रायल के बनने के बाद इस हिंसा में कमी नहीं आई, बल्कि ये और उग्र होता गया. और इसी उग्रता का एक चैप्टर है- हमास.
शेख अहमद यासीन नाम के एक फ़िलिस्तीनी मौलाना ने हमास का गठन किया था. (तस्वीर: एएफपी)
क्या है हमास?
इसका पूरा नाम है, हरकत अल-मुक़ावमा अल-इस्लामिया. मतलब, इस्लामिक रिज़िस्टन्स मूवमेंट. रिज़िस्टन्स मतलब होता है, प्रतिरोध. माने, फ़ाइट बैक करना. इसका गठन किया था शेख अहमद यासीन नाम के एक फ़िलिस्तीनी मौलाना ने. वो इज़िप्ट के मुस्लिम ब्रदरहुड की फ़िलिस्तीनी ब्रांच का हिस्सा थे. हमास के गठन की टाइमिंग बहुत अहम है. इसका गठन हुआ था दिसंबर 1987 में. इसी साल फ़िलिस्तीन में शुरू हुआ था इंतिफ़ादा.
ये क्या चीज है? इंतिफादा अरबी भाषा का एक शब्द है. इसका अर्थ होता है, झकझोड़ना. हिला देना. फ़िलिस्तीन में शुरू हुए इंतिफादा मूवमेंट का मकसद था, इज़रायल से आज़ादी हासिल करना. इंतिफादा का लक्ष्य था वेस्ट बैंक, गाज़ा और पूर्वी जेरुसलम को इज़रायली कब्ज़े से मुक्त करवाना.
1987 में इज़रायल से आज़ादी हासिल करने को लेकर फ़िलिस्तीन ने जो लड़ाई लड़ी, उसे पहला इंतिफादा कहा गया. (तस्वीर: एएफपी)
1987 का ये मूवमेंट कहलाता है, फर्स्ट इंतिफादा. इसके भड़कने की तात्कालिक वजह बनी गाज़ा चेकपोस्ट पर हुई एक घटना. यहां फ़िलिस्तीनियों का एक ग्रुप प्रदर्शन कर रहा था. इज़रायली सैनिकों ने उनपर गोली चलाई. इसमें चार फ़िलिस्तीनी मारे गए. इसके बाद पूरे फ़िलिस्तीन में प्रदर्शन शुरू हो गया. इस वक़्त तक फ़िलिस्तीनी ज़्यादातर बिना हथियारों के ही लड़ते थे. विरोध का उनका मुख्य तरीका था, इज़रायली फोर्सेज़ पर पत्थरबाज़ी करना.
इसी बैकग्राउंड में गठन हुआ हमास का. 1988 में उसने अपना चार्टर जारी किया. इसमें उसने अपना मक़सद बताया. उसके दो सबसे प्रमुख लक्ष्य थे- इज़रायल का विनाश और फ़िलिस्तीन के ऐतिहासिक भूभाग में इस्लामिक सोसायटी की स्थापना करना.
अंतरराष्ट्रीय पक्षों ने इज़रायल और फ़िलिस्तीन के बीच विवाद सुलझाने की काफी कोशिश की. बहुत बातचीत के बाद 1993 के साल हुआ ओस्लो अग्रीमेंट. इसमें दो बड़ी चीजें थीं-
पहला, फ़िलिस्तीनी नेतृत्व की ओर से इज़रायल को मान्यता दे दी गई. दूसरा, गाज़ा और वेस्ट बैंक में स्व-शासन के लिए फिलिस्तीनियों की अंतरिम सरकार पर समझौता.
इस समझौते पर इज़रायल की ओर से दस्तख़त किया प्रधानमंत्री यितज़ाक राबिन ने. और फ़िलिस्तीनी पक्ष की तरफ से साइन किया यासिर अराफ़ात ने. अराफ़ात PLO, यानी फ़िलिस्तीनी लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन, के लीडर थे. PLO फ़िलिस्तीन की आज़ादी से जुड़ा सबसे प्रमुख संगठन था.
यासिर अराफ़ात फ़िलिस्तीनी लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन के लीडर थे. (तस्वीर: एएफपी)
एक समय था, जब PLO फ़िलिस्तीन के समूचे ऐतिहासिक भूभाग को आज़ाद करवाने की मांग करता था. बंटवारे को खारिज़ करता था. मगर 1988 में, यानी इज़रायल के गठन के ठीक चार दशक बाद, PLO को समझ आया कि इज़रायल को समूचा निकाल पाना मुमकिन नहीं. इसीलिए बेहतर होगा कि फ़िलिस्तीनी अधिकारों के लिए थोड़ा कन्सेशन दिया जाए. बंटवारे को लेकर डील की जाए. इसी कन्सेशन का रिज़ल्ट था ओस्लो अकॉर्ड्स.
क्या PLO द्वारा किए गए समझौतों से पूरे फ़िलिस्तीनी सहमत थे?
नहीं. कई लोग अपने अधिकार छोड़े जाने का विरोध कर रहे थे. उन्हें बंटवारा मंज़ूर नहीं था. इन्हीं में से एक था हमास. वो तो ओस्लो अकॉर्ड्स के लिए हो रही वार्ता का भी विरोधी था. और इसी बैकग्राउंड में, ओस्लो समझौते पर हस्ताक्षर होने के पांच महीने पहले अप्रैल 1993 में हमास ने वो किया, जो आगे चलकर उसकी पहचान बनने वाली थी. उसने किया इज़रायल के खिलाफ़ अपना पहला सुसाइड अटैक. हमास के फिदायीन अटैक की ये प्रेरणा हेज़बोल्लाह से मिली थी. 1983 में हेज़बोल्लाह ने लेबनन में फिदायीन अटैक्स शुरू किए थे. वो इस मैथड को अपनी उपलब्धि बताता था.
हेज़बोल्लाह ने हमास की लगातार मदद की है. (तस्वीर: एपी)
1993 के अपने पहले सुसाइड अटैक के बाद से हमास फ़िलिस्तीनी रेज़िस्टेंस का सबसे बड़ा चेहरा बन गया. 1994 में ओस्लो अकॉर्ड्स के मुताबिक, गाज़ा और वेस्ट बैंक के अडमिनिस्ट्रेशन के लिए PA, यानी 'फिलिस्तीनियन अथॉरिटी' का गठन हुआ.
इसके बाद भी हमास ने आत्मघाती हमले जारी रखे. हमले करने की उसकी दो प्रमुख मंशा थी. पहला, फ़िलिस्तीनी आबादी का सपोर्ट जुटाना. दूसरा, शांति प्रक्रिया को पटरी से उतारना. कभी बस में, कभी कार में, कभी बाज़ारों में, हमास ने कई सुसाइड अटैक्स किए. 1997 में अमेरिका ने हमास को आतंकवादी संगठन का दर्जा दिया. इज़रायल ने भी हमास को एलिमिनेट करने की बहुत कोशिश की. लेकिन इसके बावजूद हमास का प्रभाव, उसकी ताकत बढ़ती गई. उसे ईरान जैसे इज़रायल विरोधी देशों से फंडिंग मिलने लगी.
हमास का वज़ूद और मज़बूत हुआ नई सदी में. इसे ट्रिगर करने वाली घटना जुड़ी है साल 2000 से. ओस्लो अकॉर्ड्स को सात साल हो चुके थे. इसकी वजह से शांति की जो उम्मीदें बंधी थीं, वो पूरी नहीं हुईं. इसी बैकग्राउंड में जुलाई 2000 में अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के नेतृत्व में कैंप डेविड सम्मेलन हुआ. कहते हैं कि इस वार्ता के दौरान इज़रायल ने समूचा गाज़ा और वेस्ट बैंक का करीब 90 पर्सेंट हिस्सा फ़िलिस्तीन को लौटाकर सेटलमेंट की पेशकश की थी. साथ ही, जेरुसलम पर भी कुछ कन्सेशन देने के लिए राज़ी हुए थे. मगर अराफ़ात ने ये ऑफर ठुकरा दिया. इसके चलते वार्ता नाकाम रही. इज़रायल और अमेरिका ने इसका दोष दिया फ़िलिस्तीनी राष्ट्रपति यासिर अराफ़ात को.
कैंप डेविड सम्मेलन भी नाकामयाब रहा. (तस्वीर: एएफपी)
कई जानकार कहते हैं कि ये मामला इतना सिंपल नहीं है. वेस्ट बैंक और गाज़ा, ये दोनों फ़िलिस्तीनी इलाके हैं. वेस्ट बैंक को समूचा न लौटाकर इज़रायल कोई उदारता नहीं दिखा रहा था. ना ही जेरुसलम पर फ़िलिस्तीन को कन्सेशन देना ही उदारता थी. 1967 के युद्ध में इज़रायल ने ईस्ट जेरुसलम पर कब्ज़ा कर लिया. वेस्ट जेरुसलम पहले ही उसके कंट्रोल में था. मतलब पूरा जेरुसलम ही इज़रायल के पास आ गया.
उसने वेस्ट बैंक और गोलन हाइट्स पर भी कब्ज़ा कर लिया. जबकि अंतरराष्ट्रीय क़ानून के मुताबिक ईस्ट जेरुसलम, वेस्ट बैंक और गाज़ा फ़िलिस्तीनी इलाके हैं. इनपर इज़रायल का कब्ज़ा अवैध माना जाता है. ऊपर से इज़रायल ने जेरुसलम के जिन तीन गांवों को लौटाने का वादा किया था, उससे भी वो मुकर गया. ऐसे में कैंप डेविड वार्ता की नाकामी का समूचा ठीकरा अराफ़ात पर नहीं फोड़ा जा सकता.
कैंप डेविड की नाकामी से यूं ही माहौल ख़राब था. ऐसे में सितंबर 2000 में एक और बड़ी घटना हुई. इज़रायल के पूर्व प्रधानमंत्री एरियल शेरॉन जेरुसलम स्थित टेम्पल माउंट पहुंचे. उनका मक़सद था, इस विवादित परिसर पर इज़रायल के दावे का प्रदर्शन. इस घटना से फिर आग भड़क गई. फ़िलिस्तीनियों ने कहा कि इज़रायल इस परिसर पर कब्ज़ा करने की प्लानिंग कर रहा है.
साल 2000 में जब इज़रायल के पूर्व प्रधानमंत्री एरियल शेरॉन जेरुसलम स्थित टेम्पल माउंट पहुंचे तो फिर से हिंसा भड़क गई. (तस्वीर: एएफपी)
और इसी घटना के बाद शुरू हुआ सेकेंड इंतिफादा
और इस बार ये मूवमेंट पहले से कहीं ज़्यादा हिंसक था. इस सेकेंड इंतिफादा का लीडर था हमास. उसने जमकर सुसाइड धमाके, और बम ब्लास्ट किए. इज़रायल ने भी हिंसा में कमी नहीं रखी. दोनों ही पक्षों ने एक-दूसरे की नागरिक आबादी को जमकर निशाना बनाया. और इसी सेकेंड इंतिफादा शुरू होने के कुछ महीनों बाद अप्रैल 2001 में हमास ने इज़रायल पर पहला रॉकेट अटैक किया.
साल 2004 में यासिर अराफ़ात का निधन हो गया. उनकी जगह PA का चेहरा बने महमूद अब्बास. उनके पास ना तो अराफ़ात जैसा सपोर्ट था, ना उनकी ज़्यादा स्वीकार्यता थी. इसके चलते हमास का कद और बढ़ा. इसकी मिसाल दिखी 2006 में. इस बरस PA की सीटों के लिए चुनाव हुए. इसमें हमास को बहुमत मिल गया. इस जीत का मतलब था कि वेस्ट बैंक और गाज़ा, दोनों के अडमिनिस्ट्रेशन में अब हमास का दबदबा होता.
यासिर अराफ़ात के निधन के बाद आए महमूद अब्बास. (तस्वीर: एएफपी)
इस जीत ने हमास और PA के बीच की दरार को और गहरा कर दिया. PA में दबदबा है फ़ताह का. वो हमास का कट्टर प्रतिद्वंद्वी है. PA के पास इंटरनैशनल सपोर्ट है. इसलिए कि वो इज़रायल से डील का पक्षधर है. उसे इंटरनैशनल बिरादरी से मोटा फंड भी मिलता है. कहते हैं कि इस फंडिंग ने PA को बेहद भ्रष्ट बना दिया है.
PA, ख़ासतौर पर फ़ताह किसी कीमत पर वेस्ट बैंक का कंट्रोल नहीं खोना चाहता था. उसने हमास को साइड लगाने की कोशिश की. इसका नतीज़ा हुआ बंटवारा. वेस्ट बैंक पर PA का कंट्रोल हो गया और गाज़ा का डी-फैक्टो रूलर हो गया हमास. यानी अब पूरी फ़िलिस्तीनी आबादी का नेतृत्व करने के लिए, उनकी बात रखने के लिए कोई संगठित अथॉरिटी नहीं थी. PLO इस फूट के चलते 2006 के बाद फ़िलिस्तीन में कोई चुनाव ही नहीं हुआ. हमास और फ़ताह, एक-दूसरे से लड़ते रहते हैं.
इस फूट का इज़रायल ने ख़ूब फ़ायदा उठाया है. उसने शांति वार्ता करने से इनकार कर दिया. कहा, जब तक हमास से गाज़ा की कमान नहीं छीनी जाती, तब तक बातचीत संभव नहीं. इज़रायल जानता है कि ऐसा कर पाना फिलहाल तो मुमकिन नहीं. सो ना राधा के न मन तेल होगा, न राधा नाचेगी.
अब आते हैं मौजूदा प्रकरण पर
एकबार फिर हमास और इज़रायल में जंग छिड़ गई है. दोनों एक-दूसरे पर हमला कर रहे हैं. इस जंग में गाज़ा को हो रहा जान-माल का नुकसान इज़रायल के मुकाबले कहीं ज़्यादा है. ऐसा नहीं कि हमला शुरू करने के पहले हमास को इसका आभास न रहा हो. फिर भी उसने हमला किया. क्यों?
इसकी एक बड़ी वजह है, मिडिलईस्ट का हालिया घटनाक्रम. इज़रायल और UAE के बीच समझौता हो चुका है. बहरीन, मोरक्को और सूडान से भी उसकी डील हो चुकी है. सऊदी के साथ इज़रायल का ज़ाहिर तौर पर भले अग्रीमेंट न हुआ हो, लेकिन पर्दे के पीछे उनमें भी दोस्ती हो चुकी है. यानी अब फ़िलिस्तीन की साइड लेने के लिए बस ईरान और तुर्की बचे हैं. ईरान पहले से ही अलग-थलग है. और एर्दोगान के नेतृत्व में तुर्की की मुस्लिम लीडर बनने की कोशिश को इस्लामिक देश सपोर्ट नहीं करते. यानी फ़िलिस्तीन की समस्या भले अनसुलझी हो. लेकिन उसके ज़्यादातर मददगार उसे छोड़कर आगे बढ़ चुके हैं.
हाल में इज़रायल और UAE के बीच समझौता हुई है. (तस्वीर: एपी)
एक तरफ ये बाहरी चुनौतियां हैं. दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय तौर पर अलग-थलग किए जाने के चलते हमास के कंट्रोल वाला गाज़ा भी बदतर स्थिति में है. वहां काफी गरीबी है. हमास इस फ्रंट पर कुछ बेहतर नहीं कर सका है. 2007 से गाज़ा का कंट्रोल है उसके पास. मगर उसकी पावर वहीं तक महदूद है.
पूरी फ़िलिस्तीनी आबादी का प्रतिनिधि कहलाने के लिए उसे वेस्ट बैंक का भी कंट्रोल चाहिए. लेकिन उसे ये कंट्रोल मिल नहीं पा रहा है. यहां PA और इज़रायल, दोनों साथ मिलकर उसे कुचलने में लगे रहते हैं. इस बरस अप्रैल में यहां चुनाव होने थे. हमास को उम्मीद थी कि शायद चुनाव में जीतकर उसके लिए कोई राह बने. इसकी वजह ये है कि PA इतना बेअसर और भ्रष्ट है कि आम फ़िलिस्तीनियों में उसके लिए सपोर्ट बहुत कम है. मगर PA ने वो चुनाव होने नहीं दिया.
ऐसे में जेरुसलम में भड़का ताज़ा विवाद हमास के लिए भी मौका लेकर आया. इज़रायली फोर्सेज़ के अल-अक्सा परिसर में घुसने, वहां हिंसा करने को हमास ने इस्लाम का अपमान कहा. इसी मुद्दे पर उसने रॉकेट हमले शुरू किए. इसमें भले गाज़ा के लोग मारे जा रहे हों, मगर हमास के पास अब मौका है. वो दावा कर सकता है कि वो अकेला फ़िलिस्तीनियों के लिए लड़ रहा है. उनके अधिकारों की रक्षा कर रहा है.
हमास के पास 2007 से गाज़ा का कंट्रोल है. (तस्वीर: एपी)
पहले हुए संघर्षों की तरह इस बार इज़रायल और हमास एक-दूसरे को ज़्यादा-से-ज़्यादा चोट देने में लगे हैं. अंतरराष्ट्रीय बिरादरी शांति की अपील कर रही है. पहले की घटनाओं से अंदाज़ा लगाएं, तो होगा ये कि इंटरनैशनल कम्युनिटी सीज़फायर करवाने की कोशिश करेगी. सीज़फायर शायद हो भी जाएगा. इज़रायल कहेगा कि उसने हमास को मुंहतोड़ सबक सिखाया. हमास कहेगा कि उसने भी इज़रायल के दांत खट्टे किए. दोनों पक्ष ख़ुद को विजेता बताएंगे. लड़ाई रुक जाएगी. छिटपुट हिंसा जारी रहेगी. और फिर एक रोज़ फिर किसी-न-किसी वजह से ये हिंसा दोबारा शुरू हो जाएगी.
हमास के विरोधी और समर्थक, दोनों हैं. विरोधी कहते हैं कि वो आतंकवादी है. वो इज़रायल के आम नागरिकों को निशाना बनाता है. स्कूलों तक को नहीं बख़्शता. उसने इज़रायली सिविलियन्स को किडनैप करके उनकी हत्याएं भी की हैं. उसकी हिंसा से फ़िलिस्तीनियों का भी कोई भला नहीं होता. गाज़ा की आबादी भीषण गरीबी में रहती है. उनका जीवनस्तर सुधारने के लिए हमास के पास फंड नहीं. मगर हथियार खरीदने, रॉकेट और मिसाइल जमा करने के लिए उसके पास ख़ूब पैसा है. हमास द्वारा स्कूलों और मस्ज़िदों में हथियार छुपाने और स्टोर करने की भी ख़ूब मजम्मत होती है.
विरोधी कहते हैं कि हमास की हिंसा फ़िलिस्तीन का केस कमज़ोर करती है. ताज़ा हिंसा पर अमेरिका की ओर से भी ऐसा ही बयान आया. वहां सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट हैं एंटनी ब्लिंकेन. उनसे सवाल पूछा गया कि हिंसा में ज़्यादा तो फ़िलिस्तीनी ही मर रहे हैं. इसपर ब्लिंकेन ने कहा कि हमास टेररिस्ट संगठन है. उसकी और इज़रायल की हिंसा में अंतर है. हमास हमला कर रहा है और इज़रायल उस हमले से अपनी रक्षा कर रहा है.
अमेरिकी सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट एंटनी ब्लिंकेन (तस्वीर: एपी)
लेकिन हमास के समर्थक इन तर्कों को ग़लत बताते हैं. उनका कहना है कि इज़रायल ने फ़िलिस्तीनी इलाकों पर कब्ज़ा किया. इतने दशकों बाद भी अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं वो कब्ज़ा खाली नहीं करवा सकीं. वो फ़िलिस्तीन को उसका अधिकार नहीं दिलवा सकीं. बल्कि इज़रायल ख़ुलेआम कब्ज़े वाले इलाकों में अपने सेटलमेंट्स बढ़ाता रहा. उसने समय-समय पर फ़िलिस्तीनी आबादी के साथ हिंसा भी की.
समर्थकों के मुताबिक, हमास की तरह इज़रायल ने भी फ़िलिस्तीन के आम लोगों को निशाना बनाया है. शांति प्रक्रिया को टरकाने की हर मुमकिन कोशिश की. फ़िलिस्तीनी शरणार्थियों को न्याय तक नहीं दिया जा सका. ऐसे में इज़रायल कैसे निर्दोष हुआ?
इज़रायली बमबारी में अब तक 83 फ़िलिस्तीनी मारे जा चुके हैं. (तस्वीर: एपी)
2008-2009 में इज़रायल-फ़िलिस्तीन के बीच हुई हिंसा पर UN मानवाधिकार काउंसिल ने एक जांच गठित की थी. उसने दोनों पक्षों पर लगे युद्ध अपराधों को इन्वेस्टिगेट किया. पाया गया कि दोनों ही पक्षों ने ज़्यादतियां कीं. अभी फरवरी 2021 में इंटरनैशनल क्रिमिनल कोर्ट ने कहा कि फ़िलिस्तीनी इलाकों में हुए कथित युद्ध अपराधों की जांच का अधिकार है उसे. इसे इज़रायल ने 'यहूदी विरोधी' ठहराया. उसने ICC के फ़ैसले को मानने से इनकार कर दिया. इज़रायल के आलोचक कहते हैं कि वो अपनी ताकत के दम पर मनमानी करता है. अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का उल्लंघन करता है. ऐसे में इज़रायल को निर्दोष कहना जायज़ नहीं.
इज़रायल और फ़िलिस्तीन का इतिहास ब्लैक-ऐंड-वाइट नहीं है. इसमें कोई भी पक्ष निर्दोष नहीं. लड़ाई शुरू हुए करीब एक सदी हो गई. लेकिन हिंसा और बर्बादी के अलावा कुछ हाथ नहीं आया. इंटरनैशनल बिरादरी भी विवाद सुलझाने में नाकाम रही. इतिहास का सबक है कि ये मसला हथियारों से हल नहीं होगा. हिंसा के जवाब में प्रतिहिंसा होती रहेगी. इज़रायल और फ़िलिस्तीन पहले भी कई बार समझौते का मौका मिस कर चुके हैं. कभी एक पक्ष ने रोड़ा अटकाया, कभी दूसरे पक्ष ने प्रस्ताव ख़ारिज कर दिया.
अमेरिका को अफ़गानिस्तान से निकलना था, तो उसने तालिबान को बराबरी में बिठाकर वार्ता की. उसके साथ डील किया. इस डील के चक्कर में उसने अफ़गानिस्तान की चुनी हुई सरकार को सेकेंडरी पावर बना दिया. अगर फ़िलिस्तीन का हल निकालना है, तो हमास को भी वार्ता की मेज पर लाना होगा.
कुछ जानकार मानते हैं कि अगर इज़रायल गाज़ा को आर्थिक राहत दे, तो शायद हमास से डील हो सकती है. वैसे भी हमास के साथ फंडिंग की समस्या रही है. ईरान उसका सपोर्टर रहा है. हथियार और पैसा, दोनों की आपूर्ति करता रहा है ईरान. मगर दोनों के बीच असहमतियां भी होती रही हैं. मसलन, जब ईरान ने सीरिया में असद सरकार को सपोर्ट किया. तब हमास और ईरान के बीच दूरी आ गई थी. ईरान ने उसकी फंडिंग रोक दी थी. ईरान ने हमास की जगह इस्लामिक जिहाद नाम के फिलिस्तीनी चरमपंथी गुट को सपोर्ट करने लगा था.
सीरिया के मौजूदा राष्ट्रपति बशर अल असद. (तस्वीर: एपी)
मई 2017 में हमास ने एक डॉक्यूमेंट जारी किया था. इसमें उसने समझौते के संकेत दिए थे. 1967 से पहले की फ़िलिस्तीनी सीमा को स्वीकार करने का भी संकेत दिया था. यानी हमास ने ख़ुद को थोड़ा टोन डाउन किया था. एक्सपर्ट्स कहते हैं कि इज़रायल समेत बाकी देशों को इसी दिशा पर आगे बढ़ना चाहिए. इज़रायल को चाहिए कि वो फ़िलिस्तीनी इलाके खाली करे. अवैध यहूदी सेटलमेंट्स पर अपने पांव पीछे खींचे. ये दिखाना बंद करे कि वो अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों और जवाबदेहियों से ऊपर है. बदले में फ़िलिस्तीन को भी हिंसा रोकने की गारंटी देनी होगी. जब तक ऐसा नहीं होता, हिंसा के ऐसे एपिसोड्स होते रहेंगे.