G-20 की मीटिंग से पहले चीन ने नए नक्शे को क्यों जारी किया है?
चीन और भारत के बीच सीमा को लेकर क्या संघर्ष है?
चीन ने नया नक्शा निकाला है. जिसमें अरुणाचल प्रदेश, अक्साई चिन का इलाक़ा, ताइवान और विवादित दक्षिण चीन सागर के हिस्से हैं. चीन के हिसाब से ये हिस्से उसके हैं. BRICS में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति मिले, तो कहा गया कि लद्दाख सीमा विवाद का हल निकलेगा. G 20 के लिए भी ज़िनपिंग को भारत आना है. लेकिन आज इस नक्शे से तो लगता है कि चीन की मंशा कुछ और है.
एक मैप चीन ने भी जारी किया है. 2023 का कथित स्टैंडर्ड मैप. और चीन ने इसमें की है कारस्तानी. लद्दाख के कुछ हिस्सों को अपने इलाके में दिखाया है. और अरुणाचल प्रदेश तो वो पूरा ही हज़म कर गए हैं. चाइनीज़ कम्यूनिस्ट पार्टी के मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स ने सोशल मीडिया वेबसाइट X पर ये गुस्ताखी शाया की है. जाहिर है, भारत को इसपर आपत्ति है. अब ये क्रम एक परंपरा बनता जा रहा है. चीन, हिंदुस्तान में ज़मीनी घुसपैठ तो करता ही रहा है, जिसका जवाब कभी सेना तो कभी डिप्लोमेसी से दिया जाता है. लेकिन इसके साथ-साथ वो एक मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए समय-समय पर नक्शे और जगहों के नए नाम जारी करता रहता है. इसी साल अप्रैल के पहले हफ़्ते में ख़बर आई थी कि चीन ने अपने "नए शहरों की स्टैंडर्डाइज़्ड लिस्ट" में अरुणाचल प्रदेश की 11 जगहों का भी नाम जोड़ लिया है. ये नाम तिब्बती, चीनी और पिनइन लिपि में रखे गए थे. तब भी भारत की प्रेस और सरकार दोनों ने चीन की आलोचना की थी. आप कैलेंडर पलटते हुए पीछे जाते जाएंगे, तो आपके इन कथित स्टैंडर्ड नामों के उदाहरण मिलते जाएंगे और भारत की ओर से जताया गया विरोध भी.
इतना तो दर्शक जानते ही हैं कि चीन ने तिब्बत को कब्ज़ा लिया है. और उसका नाम रखा हुआ है, शिज़ांग. लेकिन शिज़ांग भर से चीन का पेट भरा नहीं है. उसका कहना है कि अरुणाचल प्रदेश का 90 हज़ार वर्ग किलोमीटर इलाका दरअसल दक्षिण तिब्बत है, जिसे वो 'ज़ंगनान' कहता है. और इसी लॉजिक से चीन, ज़ंगनान पर भी हक़ जताता है. यही राग अलापते हुए चीन हर कुछ दिन में अरुणाचल प्रदेश के भीतर पड़ने वाले इलाकों के नाम ''रख'' देता है. ये तीसरा मौका है, जब चीन ने ये किया. 2017 में छह जगहों के नाम ''रखे'' थे और 2021 में 15 जगहों के.
ये सब जितना रैंडम लगता है, उतना है नहीं. 2017 को लीजिए. उस साल दलाई लामा अरुणाचल प्रदेश गए थे. चीन ने इस दौरे पर कड़ी आपत्ति दर्ज की थी और इसी के बाद "नए नामों" की पहली लिस्ट जारी की थी.
अब आइए 2021 पर. तब चीन में एक नए बॉर्डर क़ानून को लाने पर बात हो रही थी. और, इस क़ानून को पूर्वी लद्दाख में चीनी सेना के अतिक्रमण को वैध बनाने के प्रयास के रूप में देखा गया था. किसने देखा? भारत सरकार ने. 2021 के मार्च में क़ानून पेश किया गया. अक्टूबर में भारत के विदेश मंत्रालय ने अपनी आपत्ति ज़ाहिर की थी. कहा था, "चीन एक ऐसा क़ानून लाने की कोशिश कर रहा है, जो सीमा पर हमारी मौजूदा स्थिति को प्रभावित करेगा. ये हमारे लिए चिंता का विषय है." इसी माहौल में नामों की दूसरी लिस्ट आई थी. इसीलिए हमने इसे शुरुआत में प्रेशर टैक्टिक कहा था. चीन के भीतर और बाहर लोगों को एक संदेश देने की कोशिश है. कि वो जगह हमारी है, हमारी भाषा में उस जगह के लिए नाम है. इस तरह एक फर्ज़ी संस्कार पैदा किया जा रहा है. ताकि आज से 20 साल बाद जब बहस हो, तो चीन के कह पाए, कि इन जगहों को तो दशकों से अमुक नाम से बुलाया जाता है.
लेकिन चीन से हमारा विवाद सिर्फ मानचित्र भर का तो है नहीं. असल वजह तो सीमा विवाद है. जो कि आज़ादी के बाद से ही चला आ रहा है. क्योंकि चीन मैकमोहन लाइन को मानता नहीं है. और भारतीय दावे की नींव में मैकमोहन लाइन की भूमिका ही प्रमुख है. यही वजह है कि 62 के युद्ध के बाद भी दोनों के देशों की सीमा पर चिरशांति नहीं रही.
संदर्भ के लिए, भारत और चीन के बीच बॉर्डर को ऐसे समझिए. चीन के साथ भारत की 3 हज़ार 488 किलोमीटर लंबी सीमा लगती है, जो 5 राज्यों से लगती है.
> लद्दाख (1 हज़ार 597 KM),
> हिमाचल प्रदेश (200 KM),
> उत्तराखंड (345 KM),
> सिक्किम (220 KM),
> अरुणाचल प्रदेश (1 हज़ार 126 KM).
सीमा को तीन सेक्टरों में बांटा गया है. लद्दाख वाले हिस्से को वेस्टर्न सेक्टर, हिमाचल और उत्तराखंड को मिडिल सेक्टर और सिक्किम और अरुणाचल को ईस्टर्न सेक्टर कहते हैं. विवाद सारी जगहों पर है, लेकिन समझ की आसानी के लिए यहां भी एक क्रम बनाया जा सकता है -
> वेस्टर्न सेक्टर - सबसे विवादित
> ईस्टर्न सेक्टर - तुलनात्मक रूप से कम विवादित
> मिडिल सेक्टर - सबसे कम विवादित है.
ध्यान दीजिए, अगर भारत के नक्शे पर कोई एक इंच भी कब्ज़ा करता है, तो उसकी गंभीरता को कम करके नहीं आंका जा सकता. हमने जो क्रम दिया, उसका संकेत ये है कि स्थिति कहां ज़्यादा या कम विकट है.
अब ये तो हमारा सत्य है. सरकार की भाषा में कहें, तो दावा है. चूंकि विवाद है, सो हम चीनी दावों पर एक नज़र डाल लें. भारत के लिए जो सीमा साढ़े तीन हज़ार किलोमीटर लंबी है, चीन के लिए उसकी लंबाई सिर्फ 2 हज़ार किलोमीटर है. आप पूछ सकते हैं कि भैया जब सीमा एक ही है, तो दोनों देशों का माप अलग अलग कैसे है. तो सीन ये है कि भारत और चीन दोनों की देशों के लिए अंतरराष्ट्रीय सीमा या फिर वास्तविक नियंत्रण रेखा LAC अलग अलग जगहों से निकलती है. दोनों देशों के बीच कभी ऐसा सीमांकन नहीं हो पाया, जिसे दोनों पार्टीज़ ने मान्यता दी हो.
सीमा विवाद को कुछ प्रमुख बिंदुओं में समझा जा सकता है -
> चीन ने 1950 में स्वायत्त क्षेत्र तिब्बत पर कब्जा कर लिया था. तिब्बतियों ने सालों विरोध किया लेकिन चीन ने सैन्य ताकत से दबा दिया. 1959 में दलाई लामा भारत निर्वासित हो गए और तभी से तिब्बत की स्वायत्तता का मुद्दा जारी है. इतिहास काफी पुराना है... इसलिए उस पर अभी नहीं जाते हैं. लेकिन यहीं से चीन की विस्तारवादी कोशिश शुरू हो गई थी.
>1914 में ब्रिटिश सरकार और तिब्बत के बीच ‘शिमला समझौता’ हुआ था. इस समझौते के तहत ब्रिटिश शासित भारत और तिब्बत के बीच एक सीमारेखा तय की गई. इसी सीमारेखा को 'मैकमहोन लाइन' कहा जाता है. लेकिन चीन ने इस समझौते और सीमा रेखा को कभी नहीं माना. चीन में क्रांति के बाद सत्ता माओ के हाथ आई. 1943 में वो कम्यूनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष बने. और उन्होंने कहना शुरू किया कि बीती एक सदी में चीन के साथ बड़ा अन्याय हुआ. इसीलिए, वो इस century of humiliation के दौरान हुए किसी समझौते को स्वीकार नहीं करेंगे. यहीं से तय हो गया कि चीन शिमला समझौते को भाव नहीं देगा.
> अब आते हैं लद्दाख की सीमा के पास अक्साई चिन में, जो फिलहाल चीन के कब्जे में है. 1956 में नेहरू के बुलावे पर चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन-लाइ भारत के दौरे पर आए थे और तब ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा दिया गया था. लेकिन अगले ही साल, अक्टूबर 1957 में चीन ने अपने शिनजियांग प्रांत से तिब्बत तक हाईवे का निर्माण कर लिया था और इसका काफी हिस्सा भारतीय क्षेत्र अक्साई चिन से भी होकर जाता है. 1950 के दशक में शुरु हुआ कब्ज़ा 1962 के युद्ध में पुख्ता होता गया. उसके बाद से स्थिति वैसी ही है. क्रमशः इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, नरसिम्हा राव और फिर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारों में सीमा पर दोनों देशों के बीच गर्मी को कुछ कम करने के प्रयास हुए, जो कि सफल भी रहे. इन्हीं प्रयासों में से एक था वो वादा, कि आप अपना दावा कीजिए, हम अपना दावा करेंगे, लेकिन ये सब बातचीत की मेज़ पर हो, न कि जंग के मैदान पर. सेनाएं आमने सामने आएं भी, तो उनके हाथों में हथियार न हों, झंडे और बैनर दिखाने से काम चला लिया जाए. सीमा पर शांति आई, तो व्यापार भी बढ़ने लगा.
> लेकिन अप्रैल 2020 में चीन ने वो वादाखिलाफी की, कि जून आते-आते पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी में दोनों सेनाओं के बीच हिंसक संघर्ष हुआ, जिसमें 20 भारतीय सैनिकों ने बलिदान दिया. चीन ने अपने नुकसान के ठीक-ठीक आंकड़े कभी जारी नहीं किए. अप्रैल 2020 से शुरू हुआ तनाव अब तक बदस्तूर जारी है. सेनाएं कुछ पीछें हटी हैं, लेकिन दोनों तरफ से तैयारी युद्ध स्तर पर है. और ये मुहावरे में नहीं कहा जा रहा है. भारत और चीन दोनों ने लद्दाख में इतनी फौज खड़ी कर रखी है कि कब क्या हो, कोई दावे से नहीं बता सकता.
ये तो पश्चिम में सीमा विवाद था. अब पूरब की तरफ चलते हैं. सबसे पहले डोकलाम विवाद.
भूटान के डोकलाम इलाके पर काफी समय से चीन अपना दावा करता आया है. इस एरिया को वो दोगलांग कहता है. यह एक ट्राई-जंक्शन प्वाइंट माना जाता है. भारत, चीन और भूटान तीनों की ही सीमाएं यहां मिलती हैं. भारत का सिक्किम बॉर्डर. साल 2017 में इस इलाके में चीन ने रोड कंस्ट्रक्शन शुरू कर दिया था. इसके कारण विवाद शुरू हुआ था. करीब 70 दिनों तक यह गतिरोध जारी रहा था.
भारत के लिए महत्वपूर्ण इसलिए क्योंकि इस क्षेत्र से कुछ दूरी पर भारत का वो 'चिकन नेक' कहा जाने वाला इलाका पड़ता है, जो सभी पूर्वोत्तर राज्यों को देश से जोड़ता है. ये इलाका 20 किलोमीटर चौड़ा है.
अब एक नजर अरुणाचल प्रदेश पर. अरुणाचल प्रदेश. पहले इसे हम नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (NEFA) कहते थे. 1972 में ये अरुणाचल प्रदेश हो गया था. चीन अरुणाचल प्रदेश को 'दक्षिणी तिब्बत' बताते हुआ इस पूरे क्षेत्र पर दावा करता है. लेकिन भारत ने हमेशा इसे खारिज किया है और कहा है कि अरुणाचल भारत का अभिन्न अंग है. चीन के साथ 1 हज़ार 126 KM की लंबी सीमा साझा होती है.
इसके बाद तवांग. पिछले साल दिसंबर में तवांग में चीनी सैनिकों ने घुसपैठ की कोशिश की. भारतीय सैनिकों से हाथापाई हुई. 9 दिसंबर को अरुणाचल के तवांग सेक्टर में भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच झड़प हुई थी. मीडिया रिपोर्टस के मुताबिक सोची समझी साजिश के तहत 300 चीनी सैनिक यांगत्से इलाके में भारतीय पोस्ट को हटाने पहुंचे थे. चीनी सैनिकों के पास कंटीली लाठी और डंडे भी थे. भारतीय सैनिकों ने तुरंत मोर्चा संभाल लिया. मारपीट हुई. खबरों के मुताबिक भारतीय जवानों को भारी पड़ता देख चीनी सैनिक पीछे हट गए. इस झड़प में 6 भारतीय जवान घायल हुए हैं, चीन की तरफ से कोई आंकड़ा जारी नहीं हुआ है लेकिन बताया जा रहा है कि बड़ी संख्या में पीएलए जवान जख्मी हुए हैं.
1962 के युद्ध में चीन ने अरुणाचल के कई हिस्सों पर भी कब्जा कर लिया था. इसके बाद समय-समय पर अलग-अलग इलाकों में विवाद जारी रहा है.
पिछले नवंबर में अमेरिकी रक्षा मंत्रालय का मुख्यालय पेंटागन ने दावा किया था कि चीन एलएसी के करीब साढ़े चार किलोमीटर अंदर घुसकर यहां लगभग 100 घरों वाला गांव बसा चुका है. हालांकि इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक सुबनसिरी नाम के जिस इलाके में ये गांव बनाया गया है वहां चीन ने 6 दशक पहले ही क़ब्ज़ा कर लिया था.
अरुणाचल प्रदेश से बीजेपी के सांसद तापिर गाओ भी इस बात को दोहरा चुके हैं. जनवरी 2021 में न्यूज़ एजेंसी ANI से बात करते हुए तापिर ने कहा कि चीन 1980 से सीमावर्ती इलाकों में कब्जा करता आ रहा है. तापिर ने इसके लिए पूर्व की सरकारों को दोषी ठहराया था. लेकिन सच ये भी है कि 2014 में बीजेपी की सरकार आने के बाद भी चीन की सीमा पर जरूरत से ज्यादा बवाल देखा जा चुका है.
और दूसरी तरह क्या होता है? बैठकें. विवाद सुलझाने के वादे. लद्दाख हो या अरुणाचल प्रदेश. दोनों देश सीमा पर तनाव कम करने की बात करते रहे हैं. हालांकि, चीन के एक्शन उसकी बातों से मैच नहीं करते. लेकिन भारत और चीन के बीच NSA स्तर से लेकर राष्ट्राध्यक्षों तक की बैठके हो चुकी हैं. और सवाल ये कि इन बैठकों और बातचीतों से हासिल क्या होता है.
गलवान को लेकर सरकार कहती रही है कि चीन ने भारत की जमीन का एक भी टुकड़ा नहीं लिया. लेकिन क्या स्टेटस को ऐंटे स्थापित हो पाया है. यानी क्या 2020 की झड़प से पहले की स्थिति वापस लौटी है. हम मानचित्र पर लड़ाई लड़ते रहेंगे पर जमीन पर हकीकत क्या है? विपक्ष भी इसको लेकर सरकार पर हमलावर रहा है. इंडिया टुडे के नेशनल अफेयर्स एडिटर राहुल श्रीवास्तव की 2020 की एक रिपोर्ट के मुताबिक गलवान झड़प के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय ने एक बयान में कहा कि पिछले 60 सालों में चीन ने लद्दाख की 43 हजार स्कॉयर किलोमीटर जमीन पर कब्जा जमाया है. इस पर विपक्ष ने सरकार को घेर लिया. क्योंकि 11 मार्च, 2020 को विदेश मंत्री वी मुरलीधरन ने संसद में बताया था कि चीन ने भारत की 38 हजार किलोमीटर जमीन पर कब्जा किया है. कांग्रेस ने पूछा कि क्या गलवान क्लैश के बाद हमने 5 हजार किलोमीटर और खो दिए.
गलवान क्लैश के बाद कमांडर लेवल की 19 दौर की बैठकें हो चुकी हैं और डिप्लोमैटिक स्तर पर 27 बैठकें हो चुकी हैं. ये बातचीत दोनों सेनाओं के पीछे हटने के उद्देश्य से हुईं. nsa स्तर पर भी बातचीत हुई. और BRICS सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने भी जिनपिंग से बात की. लेकिन सवाल वही है कि सीमा पर वो स्थिति बहाल हो पाई है जो गलवान क्लैश से पहले थी. क्या स्टेटस को-ऐंटे स्थापित हो पाया है. क्योंकि सरकार का कहना है कि चीन ने हमारी जमीन पर रत्ती मात्र भी कब्जा नहीं किया है.
इसमें एक मसला तो रक्षा से संबंधित था, जो हमने आपको अभी बता दिया. लेकिन इसमें अंतरराष्ट्रीय संबंधों का भी इतना ही बड़ा ऐंगल है. BRICS में मोदी और जिनपिंग मिले, तो ख़बर आई कि सीमा पर डी-एस्कलेशन होगा. लेकिन फिर ये मैप आ गया.
देखिए, साउथ-ईस्ट एशिया में भारत का महत्व बढ़ा है. ज़ाहिर है, इतना बड़ा मार्केट और इतना कुशल वर्कफ़ोर्स. अमेरिका से लेकर यूरोप तक भारत की अहमियत लगातार बढ़ रही है. क्या इससे चीन असहज हो रहा है. और इसीलिए भारत को ख़ारिज करने की कोशिश में ऐसी हरकतें करता है.
जब भी चीन और भारत के संबंधों की बात आती है, तीन ग्रुपिंग्स को देखना ज़रूरी है - (शंघाई सहयोग संगठन) SCO, BRICS और RIC - जिसमें रूस-भारत और चीन के बीच मंत्री स्तर की बातचीत होती है. अब इन तीनों ही समूहों में चीन का प्रभुत्व है. सबसे बड़ा कारण है - अर्थव्यवस्था. अंतरराष्ट्रीय संबंधों के जानकारों का मानना है कि इन समूहों में रहना हमारे लिए घाटे का सौदा है. पॉलिटिकल साइंटिस्ट और इंडियन एक्स्प्रेस में कॉन्ट्रीब्यूटिंग ए़डिटर प्रताप भानू मेहता ने तो ब्रिक्स के लिए यहां तक लिखा है कि शायद ही दुनिया में कोई और ऐसी ग्रुपिंग हो, जिसमें आकांक्षाओं और असलीयत के बीच इतना फ़र्क़ है. ब्रिक्स के विस्तार के लिए दलील दी जाती है कि एक संतुलित वैश्विक व्यवस्था बने. लेकिन यहां जो कहा नहीं जा रहा है, वो ये - कि किसके ख़िलाफ़? और किसके लिए संतुलन बनाना है?
ब्रिक्स हमेशा ही एक चुनौतीपूर्ण समूह रहेगा क्योंकि इसमें एकजुट रहने के लिए कुछ भी मौलिक नहीं है. पश्चिम को संतुलित करने की अस्पष्ट इच्छा की नींव पर ये समूह बन तो गया. मगर पश्चिम को संतुलित करना और चीन को संतुलित करना, बराबर चिंता का विषय है. कई एजेंडों में तो चीन ही समाधान में बाधक है. जैसे, कॉमन करेंसी का मसला.
जितनी अंतरराष्ट्रीय राजनीति हमें समझ आती है, चीन का एक्कै मक़सद है. चीन एक बाय-पोलर दुनिया बनाने के रास्ते पर है. बाय-पोलर माने ताक़त के दो केंद्र. कौन दो? एक तो है ही है - अमेरिका. यथास्थिति के हिसाब से दूसरे नंबर पर है चीन. चीन इस व्यवस्था के साथ सहज है. हालांकि, भारत समेत और देशों की क़वायद है कि ताक़त के कई केंद्र हों. मल्टी-पोलर वर्ल्ड. इसमें यूरोप अलग हो, अमेरिका अलग, रूस अलग, मिडल-ईस्ट अलग और अफ़्रीका अलग. अगर आपने सुना हो, तो ब्रिक्स मीटिंग में प्रेस-वार्ता के दौरान भी प्रधानमंत्री मोदी ने इस शब्द का इस्तेमाल किया था: मल्टी-पोलर वर्ल्ड.
हमारे और दुनिया के भविष्य के लिए ये एक शांति-प्रिय और सहज व्यवस्था हो सकती है. लेकिन चीन तो चीन है. उसका कोई मिशनरी स्टैंड नहीं है. उसे ब्रितानियों की तरह दुनिया को "सिविलाइज़" करना. बस ताक़त की रेस जीतनी है. और इसमें भारत एक अड़ंगा मालूम पड़ सकता है. इसीलिए ये घटनाएं. लेकिन हमारी सरकार का चीन के लिए क्या रवैया है, ये बड़ा सवाल है. क्या सरकार केवल सांकेतिक तौर पर लाल आंख दिखाएगी या वाक़ई एक बोल्ड स्टैंड लेंगी? सीमा पर असल में क्या स्थिति है, उसे लेकर ट्रांसपैरेंट होगी?
सवाल हैं. जवाब आएगा, तो हम बताएंगे.