‘अगर ये आंदोलन वापस नहीं लिया जाता तो दूसरी जगहों पर भी ऐसी घटनाएं होतीं.’असहयोग आंदोलन वापस लेने के बाद 16 फरवरी 1922 को महात्मा गांधी ने एक लेख लिखा था.जिसका टाइटल था 'चौरी चौरा का अपराध'. ये लाइन उसी आर्टिकल से है. गांधी के मुताबिक़उन्हें चौरी-चौरा कांड के चलते ही असहयोग आंदोलन वापस लेना पड़ा था. गांधी ने इसकांड के लिए एक तरफ़ पुलिस वालों को जिम्मेदार ठहराया, जिन्होंने भीड़ को उकसाया था,और दूसरी तरफ़ घटना में शामिल लोगों से खुद को पुलिस के हवाले करने को भी कहा था.आज 4 फरवरी है. और आज हम आपको उस चौरी-चौरा कांड के पूरे घटनाक्रम से रू-ब-रूकरवाएंगे. वही चौरी-चौरा जिसे हम आप बचपन में स्कूल की छोटी कक्षाओं से ही सुनतेचले आ रहे हैं. राॅलेट एक्ट का विरोधथोड़ा बैकग्राउंड में चलते हैं. साल 1919-20 का दौर था.अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफगुस्सा बढ़ता जा रहा था. राॅलेट एक्ट आ गया था, जिसके तहत पकड़े जाने पर बिनान्यायिक कार्यवाही के किसी को भी जेल में रखा जा सकता था. इस भेदभावपूर्ण क़ानून कोलेकर खिलाफत और स्वदेशी जैसे मुद्दे जोर पकड़ रहे थे. लोग लामबंद हो रहे थे.कांग्रेस में भी नए युग की शुरुआत हो चुकी थी. महात्मा गांधी का दौर आ चुका था. इनसबके बीच अमृतसर में जलियांवाला बाग नरसंहार हो गया. जिससे पूरे देश अंग्रेजों केखिलाफ़ रोष में था.लोगों के इस गुस्से को भांपते हुए महात्मा गांधी ने कांग्रेस के सामने असहयोगआंदोलन (Non-cooperation movement) शुरू करने का प्रस्ताव रखा. कांग्रेस नेप्रस्ताव स्वीकार कर लिया. और 1 अगस्त 1920 से पूरे देश में असहयोग आंदोलन शुरू होगया. इस आंदोलन में महात्मा गांधी का जोर पूरी तरह स्वदेशी अपनाने पर था. महात्मागांधी के आह्वान पर स्टूडेंट्स ने स्कूल जाना छोड़ दिया, वकीलों ने कोर्ट-कचहरीजाना छोड़ दिया, मजदूरों ने फैक्ट्रियों में काम करना बंद कर दिया. लोग विदेशीसामान का बॉयकॉट करने लगे. एक अनुमान के मुताबिक, उस समय क़रीब चार सौ हड़तालेंहुईं, और लगभग 70 लाख वर्किंग डेज़ का नुकसान हुआ था. मोटा माटी कहें तो आंदोलनसफलतापूर्वक चल रहा था. और ब्रिटिश गवर्नमेंट की नींद उड़ी हुई थी.अमृतसर में जलियांवाला बाग नरसंहार (फोटो सोर्स- Wikimedia Commons)घटना की नींवउत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले में चौरी और चौरा नाम के दो गांव थे. रेलवे के एकअधिकारी ने दोनों को मिलाकर एक किया था. जनवरी 1885 में यहां एक रेलवे स्टेशन कीस्थापना की गई थी. इसके पहले तक वहां रेलवे प्लेटफार्म और माल-गोदाम के अलावाचौरी-चौरा नाम की कोई जगह नहीं थी. 1885 के बाद चौरा गांव में एक बाज़ार शुरू हुईथी. चौरा गांव के थाने से एक मील की दूरी पर छोटकी डमरी गांव है. जनवरी 1921 में इसगांव में कांग्रेस के वालंटियरों के एक मंडल की स्थापना हुई. शुरुआत मेंवालंटियरों की भर्ती में बहुत तेजी नहीं थी. लेकिन फिर गांधी जी ने असहयोग आंदोलनको मुसलमानों के खिलाफत आंदोलन के साथ मिला दिया. गांधीजी का ये डिसीजनआर्गेनाईजेशनली काफी ठीक साबित हुआ. अब बड़ी संख्या में मुसलमान भी इस आंदोलन मेंशामिल होने लगे थे.जनवरी 1922 में चौरा के रहने वाले लाल मुहम्मद सांई ने गोरखपुर कांग्रेस खिलाफतकमेटी के हकीम आरिफ़ को डुमरी मंडल के लोगों को संबोधित करने के लिए बुलाया. हकीमआरिफ ने मंडल के लोगों से कहा कि कपास की खेती करो, उसका सूत कातो, और उसी के बनेकपड़े पहनो. स्वदेशी आंदोलन में जुड़ने वालों को कई कसमें खिलाई जाती थीं, उन्हींमें से एक कसम ये भी थी- खद्दर पहनने की. आरिफ़ ने लोगों से कहा कि अपने झगडे खुदनिपटाओ, पुलिस के पास न जाओ. और भी कई बातें कहीं, कार्यकर्ताओं से चंदा और चुटकीजमा करने को कहा, स्वराज आने के बाद लगान बहुत कम देना पड़ेगा ये भी कहा. इसके अलावाआरिफ़ ने संगठन में कुछ पदाधिकारी नियुक्त कर दिए. और वापस लौट गए. यहां चुटकी कामतलब समझ लीजिए, दरअसल, आंदोलन के समय गांधीजी ने सभी देशवासियों को सलाह दी थी किवे रोज़ अपने खाने के अनाज में से सिर्फ़ एक मुट्ठी देश के लिए अलग रख लें. जिसे बादमें कांग्रेस के स्वयंसेवक घर-घर जाकर इकट्ठा कर लेते थे. इसे ही ‘चुटकी' कहा जाताथा. ये चुटकी-चुटकी जमा किया गया अनाज आंदोलन के समय स्वयंसेवकों के काम आताथा. हकीम आरिफ के जाने के अगले दिन से ही मंडल में स्वयंसेवक शामिल करने का कामशुरू कर दिया गया था. चौरी-चौरा की घटना से लगभग 10-12 दिन पहले डुमरी के करीब 30 से 35 वालंटियर्स नेमुंडेरा बाज़ार में धरना दिया. इस बाज़ार का मालिक था संत बक्स सिंह. संतबक्स केआदमियों ने वालंटियर्स को बाज़ार से खदेड़ दिया. वालंटियर्स ने तय किया कि अगली बारवे और ज्यादा संख्या में आएंगे. इसके बाद वालंटियरों की संख्या बढाने पर काम कियागया. जब संख्या 300 से ज्यादा हो गई थी तो उनकी फिजिकल ट्रेनिंग भी शुरू कर दी गई.इसकी जिम्मेदारी ली एक रिटायर्ड फौजी भगवान अहीर ने. भगवान अहीर प्रथम विश्वयुद्धमें ब्रिटिश सेना की तरफ से इराक में लड़ा था.मुख्य घटना से करीब चार दिन पहले कांग्रेस के मंडल कार्यकर्ता डुमरी में एक बड़ीसभा आयोजित करते हैं. सभी वालंटियरों को यह निर्देश दिया गया था कि अपने साथ भीड़लाओ , संख्या कम हुई तो पुलिस पिटाई कर सकती है. गिरफ्तार भी किया जा सकता है. सभामें करीब 4000 लोग शामिल हुए. गोरखपुर से आए कुछ नेताओं ने अपने भाषण में गांधी औरमुहम्मद अली की बातें कीं. लोगों से उनकी बताई गई राह पर चलने की अपील की. सभा ख़त्महुई तो एक बड़े से चरखे के साथ तहसील दफ्तर, थाना और बाजार के आस-पास एक बड़ा जुलूसनिकाला गया. इस बार किसी ने कोई रोक-टोक नहीं की.इस सभा की सफलता से उत्साहित कार्यकर्ताओं ने दूसरे दिन यानी 1 फरवरी, दिन बुधवारको फिर से संतबक्स की मुंडेरा बाजार में धरना देने का मन बनाया. करीब 60 से 65वालंटियर नज़र अली, लाल मुहम्मद सांई और मीर शिकारी की लीडरशिप में बाजार पहुंचे.लेकिन संत बक्स सिंह के आदमियों ने एक बार फिर उन्हें डांट-डपट कर भगा दिया. लेकिनवापस जाने से पहले इन कार्यकर्ताओं ने संत बक्श सिंह के कर्मचारियों को चेतावनी दी.कहा कि शनिवार को वे और भी ज्यादा लोगों के साथ आएंगे. फिर उनसे बात करेंगे.जुलूस (प्रतीकात्मक फोटो सोर्स - Aajtak)चौरी-चौरा (CHAURI CHAURA)4 फरवरी 1922 यानी आज ही के दिन. शनिवार था. सुबह आठ बजे लगभग 800 लोग एक जगह जमाहुए. चर्चा हो रही थी कि बदला कैसे लिया जाए. इधर चौरा थाने के दरोगा गुप्तेश्वरसिंह को इस मामले की खबर थी. उसके मुखबिरों ने उसे बताया था कि इस मीटिंग में कुछअहम फैसले हो सकते हैं. सो गुप्तेश्वर सिंह ने गोरखपुर से अतिरिक्त सिपाही बुला लिएथे जिनके पास बंदूकें भी थीं. मीटिंग में भी अपने कुछ आदमियों को भेजा.कार्यकर्ताओं को समझाने की कोशिश की गई. लेकिन कार्यकर्ताओं ने बात नहीं मानी. तयहो गया कि मुंडेरा बाज़ार को बंद कराया जाएगा. खतरा जो भी हो, सभी कार्यकर्ता इसकेलिए तैयार थे.कुछ ही देर बाद सभा ने एक जुलूस की शक्ल ले ली. 'महात्मा गांधी की जय' के नारे लगरहे थे. भीड़ चौरा थाने की ओर बढ़ रही थी. लोगों की संख्या लगभग ढाई से तीन हजार तकहो गई थी. रास्ते में उन्हें संत बक्स सिंह के यहां काम करने वाला कर्मचारी अवधुतिवारी मिला. वही, जिसने उन्हें पिछली बार मुंडेरा बाज़ार से भगाया था. अवधु तिवारीने इस बार पुलिस की बंदूकों का डर बताया,लेकिन जुलूस के नेताओं ने उस पर कोई ध्याननहीं दिया. और आगे बढ़ गए. दरोगा गुप्तेश्वर सिंह अपने बंदूकधारी सिपाहियों औरचौकीदारों के साथ खड़ा दिखाई दिया. नेता पहले कुछ ठिठके, लेकिन उन्हें अपनेसंख्याबल पर भरोसा था, आगे बढ़ लिए. इलाके के ज़मींदार सरदार उमराव सिंह के मैनेजर थेहरचरण सिंह. हरचरण ने पुलिस और नेताओं के बीच मध्यस्थता की कोशिश की. नेताओं नेआश्वासन दिया कि वे शांतिपूर्वक मुंडेरा बाज़ार चले जाएंगे. हरचरण ने दरोगा औरसिपाहियों को उनके रास्ते से हटने के लिए कह दिया. लेकिन इसके बाद जैसे-जैसे जुलूसआगे बढ़ा, बहुत से लोग जो भोपा और मुंडेरा की शनिवार को लगने वाली साप्ताहिक बाज़ारोंमें आए थे, वो भी जुलूस में शामिल हो गए. संख्या बहुत बढ़ गई थी.कुछ देर बाद जुलूस थाने के सामने से गुजरा. माहौल बिगड़ने की आशंका देखते हुए दरोगाने जुलूस को अवैध मजमा घोषित कर दिया. इस पर भीड़ भड़क गई. पुलिस और भीड़ के बीचझड़प शुरू हो गई. उसी दौरान थाने के एक सिपाही ने बड़ी गलती कर दी. सिपाही ने एकआंदोलनकारी की गांधी टोपी उतार ली उसे पैर से कुचलने लगा. उस दौर में गांधी टोपी औरमहात्मा गांधी भारत की आजादी के सिंबल माने जाने लगे थे. गोरखपुर के पास के इसपिछड़े इलाके में गांधी को लेकर यहां तक बातें चला करती थीं कि वो चमत्कारी हैं. उसवक़्त के लोकल अखबारों में ऐसी कई घटनाएं छपती थीं जिनमें गांधी के चमत्कार की बातहोती थी, किसी को शारीरिक मानसिक कष्ट होता तो कहा जाता गांधी बाबा उसे उसकी करनीकी सजा दे रहे हैं, गांधी के नाम का जाप भी किया जाता था. लिहाजा गांधी टोपी कोपैरों तले रौंदे जाते देख आंदोलनकारियों का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया.आंदोलनकारियों का विरोध और तेज हो गया. हालात से घबराकर पुलिसवालों ने जुलूस मेंशामिल लोगों पर फ़ायरिंग शुरू कर दी. गोलीबारी में 11 आंदोलनकारियों की मौत हो गईऔर कई अन्य घायल हो गए.फायरिंग करते-करते पुलिसवालों की गोलियां खत्म हो गईं. वो थाने की तरफ़ भागे.गोलीबारी से भड़की भीड़ ने पुलिसवालों को दौड़ाना शुरू कर दिया. पुलिस वाले थानेपहुंचे, कहा जाता है कि भीड़ से बचने के लिए पुलिस वालों ने खुद को लॉकअप में अन्दरसे बंद कर लिया. तभी कुछ आंदोलनकारियों ने किसी दुकान से केरोसीन तेल का टिन उठालिया. और थाने पहुंचकर मूंज और घास-पतवार रखकर थाने में आग लगा दी. दरोगागुप्तेश्वर सिंह ने भागने की कोशिश की, तो भीड़ ने उसे भी पकड़कर आग में फेंक दिया.दरोगा के अलावा सब-इंस्पेक्टर पृथ्वी पाल सिंह, बशीर खां, कपिलदेव सिंह, लखई सिंह,रघुवीर सिंह, विशेसर यादव, मुहम्मद अली, हसन खां, गदाबख्श खां, जमा खां, मंगरूचौबे, रामबली पाण्डेय, कपिल देव, इन्द्रासन सिंह, रामलखन सिंह, मर्दाना खां, जगदेवसिंह, जगई सिंह को भी आग के हवाले कर दिया गया. उस दिन अपना वेतन लेने के लिए थानेपर आए चौकीदार वजीर, घिंसई, जथई और कतवारू राम को भी आंदोलनकारियों ने जलती आग मेंफेंक दिया. कुल मिलाकर बाईस पुलिसवाले जिंदा जलाकर मार दिए गए.किसी तरह एक सिपाही मुहम्मद सिद्दीकी वहां से भागने में कामयाब हो गया. वह भागताहुआ पड़ोस के गौरी बाजार थाने पहुंचा. लेकिन वहां के दरोगा नदारद थे. उनकीगैरमौजूदगी में मोहम्मद जहूर नाम का एक सब-ऑर्डिनेट थाने के इंचार्ज की जिम्मेदारीसंभाल रहा था. जहूर को सिद्दीकी ने सारा घटनाक्रम बताया. उसने जनरल डायरी में केसदर्ज कर लिया. इसके बाद जहूर और सिद्दीकी पास के कुसमही रेलवे स्टेशन पहुंचे. औरवहां से गोरखपुर जिला प्रशासन को सारी घटना की सूचना दी, जिस पर आगे कार्रवाई हुई.पुलिस और पब्लिक के बीच झड़प (प्रतीकात्मक फोटो सोर्स -Twitter)क़ानूनी कार्यवाईचौरी-चौरा कांड में पुलिस ने सैकड़ों आंदोलनकारियों पर केस दर्ज किया था. केस कीसुनवाई गोरखपुर जिला कोर्ट में हुई थी. पुलिस रिपोर्ट के मुताबिक़ इस दंगे में करीब6000 लोग शामिल थे जिनमें से करीब 1000 लोगों से पूछताछ की गई और आखिर में 225 लोगों पर मुकदमा चलाया गया. वालंटियरों के एक ख़ास लीडर रहे मीर शिकारी को सरकारीगवाह बनाया गया और वहां के सेशन जज एच.ई. होल्म्स ने 9 जनवरी 1923 को अपना फैसलासुनाया था. फैसले में होल्म्स ने 172 आरोपियों को फांसी की सजा सुनाई. 2 लोगों को 2साल की कैद की सजा दी. और 47 आरोपियों को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया था.गोरखपुर जिला कांग्रेस कमेटी ने जज के इस फैसले के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट मेंअपील दायर की. मामले की पैरवी कांग्रेस के बड़े नेता और वकील मदन मोहन मालवीय कररहे थे. ने केस की सुनवाई की थी. हाईकोर्ट के दो जज चीफ सर ग्रिमउड पीयर्स औरजस्टिस पीगाॅट इस फैसले में 19 आरोपियों को फांसी की सजा सुनाई गई. और 16 लोगोंको काला पानी भेजने का आदेश दिया. इनके अलावा बचे लोगों को भी कुछ साल की सजा दीगई. जबकि 38 लोगों को केस से बरी कर दिया गया था.गोरखपुर जिला कोर्ट ने जहां 172 आरोपियों को गुनहगार मानते हुए फांसी की सजा सुनाईथी, वहीं हाईकोर्ट ने विक्रम, दुदही, भगवान, अब्दुल्ला, काली चरण, लाल मुहम्मद,लौटी, मादेव, मेघू अली, नजर अली, रघुवीर, रामलगन, रामरूप, रूदाली, सहदेव, मोहन,संपत, श्याम सुंदर और सीताराम के लिए फांसी की सजा पर मुहर लगाई.चौरी चौरा की घटना की सूचना मिलते ही महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन को स्थगितकरने की घोषणा कर दी थी. यह घोषणा अधिकांश आंदोलनकारियों को स्तब्ध कर देने वालीथी. सब सोच रहे थे कि जब आंदोलन पूरे जोशो-खरोश से चल रहा था, तब इसे रोकने की क्याजरूरत थी? कुछ का कहना था कि अगर आंदोलन रोकना ही है तो सिर्फ गोरखपुर के इलाके मेंरोक दिया जाए, पूरे देश में क्यों? लेकिन महात्मा गांधी पूर्ण अहिंसा में विश्वासकरने वाले थे. उनके लिए यह घटना बेहद दुखदायी थी. यही वजह थी कि उन्होंने आंदोलनपूरी रोक दिया था.