चुनाव आयुक्त की नियुक्ति को लेकर मोदी सरकार के बिल में ऐसा क्या है जो हंगामा मच गया?
अबतक सत्ता में रहने वाली पार्टी ही अपनी पसंद के व्यक्ति को चुनाव आयुक्त बनाती थी.
"चुनाव आयोग को विधायिका की जीत-हार से पूरी तरह अलग रहना चाहिए. एक कमजोर चुनाव आयोग से गंभीर हालात पैदा हो सकते हैं."
2015 में मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियों को लेकर कानून बनाने की मांग के साथ सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई थी. तब कोर्ट ने ये टिप्पणी की थी. लेकिन केंद्र सरकार ने 10 अगस्त को राज्यसभा में एक बिल पेश कर दिया. इसका नाम है- 'मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, शर्तें और पद अवधि) विधेयक, 2023'. और यहीं से शुरू हो गया विवाद. विवाद इस कानून को लेकर ही नहीं है. ये बिल अभी टेबल हुआ है पास नहीं. दो बिल और हैं जिनको सरकार ने संसद से पास करा लिया है. जन विश्वास बिल और डेटा प्रोटेक्शन बिल. अब इन्हें देश के कानूनों की लिस्ट में गिना जाएगा. क्या है इन तीन बिलों का तिया-पांचा? क्यों इन पर विवाद हो रहा है?
पहले बात मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति से जुड़े बिल की.
चुनाव आयोग क्या होता है?संविधान के अनुच्छेद-324 में चुनाव आयोग का जिक्र है. चुनाव आयोग ही लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा से लेकर राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव के लिए जिम्मेदार संस्था है. सबसे बड़ा अधिकारी मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) होता है और उनके अंडर दो चुनाव आयुक्त (ECs) होते हैं. देश में एक केंद्रीय चुनाव आयोग है. फिर हर सूबे के लिए राज्य चुनाव अयोग भी होते हैं. इनमें भी एक मुख्य चुनाव आयुक्त होता है. राज्य और केंद्रीय चुनाव आयोग को आप हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की तरह भी समझ सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश देश के मुख्य न्यायाधीश होते हैं. लेकिन देश की सभी हाई कोर्ट में भी एक चीफ जस्टिस होते हैं.
चुनाव आयोग की पावर कितनी है? इसे आप ऐसे समझिए कि जब पिछले साल 2022 में यूपी में विधानसभा चुनाव हो रहे थे, तीन जिलों के DM और दो जिलों के SP के कामकाज को देखते हुए चुनाव आयोग ने उनका ट्रांसफर कर दिया था. आचार संहिता लागू होने के बाद चुनाव आयोग को ये अधिकार भी होता है कि वो जिलाधिकारी और जिले के कप्तान तक के तबादले कर सकता है. जिसका अधिकार सरकार को होता है.
अब प्वाइंट पर आते हैं. सरकार बिल लेकर आई है. 'मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त विधेयक, 2023. अगर बिल पास होता है तो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए एक कमिटी बनाई जाएगी. इस सेलेक्शन कमिटी में प्रधानमंत्री अध्यक्ष होंगे. दो और सदस्य होंगे, एक प्रधानमंत्री की ओर से नॉमिनेटेड कैबिनेट मंत्री और दूसरा लोकसभा में विपक्ष का नेता. अबतक इस कमेटी में देश के मुख्य न्यायाधीश भी होते थे. लेकिन नए बिल के पास होने के बाद कमेटी में CJI नहीं होंगे. और इसीलिए सरकार पर आरोप लग रहे हैं कि वो चुनाव आयोग में भी अपनी मनमानी करना चाहती है. आरोप हैं कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को पलटकर मोदी सरकार ने ऐसी कमेटी बना दी जो उनके कंट्रोल में होगी और जिससे वो अपने मनपसंद व्यक्ति को चुनाव आयुक्त बना सकेंगे.
पहले जान लेते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग में नियुक्तियों को लेकर क्या कहा था. 5 जजों की संवैधानिक पीठ ने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति पर इसी साल 2 मार्च को एक अहम फैसला दिया था. कोर्ट ने कहा था कि जब तक संसद चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से जुड़ा कानून नहीं बनाती, तब तक प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) की सदस्यता वाली समिति की सलाह पर मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की जाएगी. हालांकि इन पांच महीनों में इस कमिटी ने कोई नियुक्ति नहीं की, क्योंकि कोई भी पद खाली नहीं था.
यहां एक बात महत्वपूर्ण है. सुप्रीम कोर्ट ने CJI को सेलेक्शन कमिटी में रखने की अस्थायी व्यवस्था बनाई थी. एक कानून को इस अस्थायी व्यवस्था की जगह लेनी थी. कानून बना, लेकिन कमेटी से CJI को ही गायब कर दिया गया. और इसीलिए सरकार के इस बिल पर सवाल उठ रहे हैं. कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अमल में कानून तो बना दिया. लेकिन फैसले की भावना का ध्यान नहीं रखा, जिसमें चुनाव आयुक्तों के स्वतंत्र होने पर ज़ोर दिया गया था.
एक बात और. इसी मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने अरुण गोयल को चुनाव आयुक्त बनाने पर भी सवाल उठाया था. कहा था कि अरुण गोयल को "बिजली की रफ्तार" से चुनाव आयुक्त नियुक्त कर दिया गया, जबकि मामले पर कोर्ट में सुनवाई चल रही थी. गोयल को पिछले साल नवंबर में चुनाव आयुक्त बनाया गया था. यहां सुप्रीम कोर्ट ने 'बिजली की रफ्तार' वाले मुहावरे का इस्तेमाल क्यों किया उसकी भी कहानी है. दरअसल, गोयल ने 37 साल की नौकरी के बाद पिछले साल 18 नवंबर को वॉलेंट्री रिटायरमेंट यानी अपनी मर्जी से रिटायर होना का फैसला किया. 18 नवंबर को उन्होंने ये ऐलान किया. 30 नवंबर को उनकी सर्विस का आखिरी दिन था. लेकिन 19 नवंबर को ऑट ऑफ द ब्लू सरकार एक ऐलान करती है. और अरुण गोयल को चुनाव आयुक्त के पद पर नियुक्त कर दिया जाता है. इसी पर कोर्ट ने सवाल उठाया कि सर्च कमेटी, मंत्रिमंडल की अनुशंसा आदि जिन औपचारिकताओं का हवाला केंद्र देता है, उनका पालन एक दिन के भीतर कब और कैसे हो गया. या ठीक तरीके से हुआ भी कि नहीं.
मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर कानून बनाने के लिए सबसे पहले 2015 में एक जनहित याचिका दायर की गई थी. इसमें चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया को चुनौती दी गई थी. बाद में दूसरी याचिकाएं भी दाखिल की गई. सुप्रीम कोर्ट ने साल 2018 में इस मामले को संविधान पीठ के पास भेज दिया. इस मामले पर कोर्ट ने अंतिम सुनवाई पिछले साल नवंबर में की थी. और फैसला आया इस साल मार्च में, जिसमें तीन सदस्यीय कमेटी बनाने की बात थी.
इस फैसले से पहले चुनाव आयुक्त एडहॉक तरीके से नियुक्त हो रहे थे. जी हां. आपने ठीक सुना. जुगाड़ से काम चल रहा था. सीन ये है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद-324(2) में मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए कानून बनाने की बात है. ये काम करना था संसद को. जो कि अब तक हुआ नहीं था. तो ये जुगाड़ निकाला गया कि केंद्रीय मंत्रिमंडल नाम की सिफारिश कर देगा और राष्ट्रपति मुहर लगा देंगे. इस तरह सरकार जिसे चाहती, उसे चुनाव आयुक्त बनाती आ रही थी. जब हम सरकार नाम के हमाम की बात करते हैं, तो इसमें जो भी पार्टी दाखिल हुई, सबने एक ही तरह के कपड़े पहने. या नहीं पहने. कहने का मतलब ये कि जो भी पार्टी ताकत में रही, उसने मनमर्ज़ी के शख्स को चुनाव आयुक्त बनाया.
इसी प्रक्रिया में निष्पक्षता लाने के लिए सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने CJI और नेता प्रतिपक्ष को सेलेक्शन कमेटी में शामिल किया था. ताकि एक तरह का शक्ति संतुलन आकार ले. और चुनाव आयोग के पद पर बैठा व्यक्ति किसी भी दल या सरकार का कृपा पात्र न बना रह जाए. लेकिन सरकार नए बिल से इस बदलाव को उलट देना चाहती है. जबकि कोर्ट ने बार-बार इस संस्था की निष्पक्षता का हवाला दिया था.
नई सेलेक्शन कमेटी में प्रधानमंत्री, सरकार में नियुक्त मंत्री, और विपक्ष के नेता होंगे. यानी सरकार के दो आदमी हैं. तो ज़ाहिर है, हमेशा फैसला 2-1 से सरकार के पक्ष में ही जाएगा. अब लोग चाहें टू मच डेमोक्रेसी की शिकायत करें, लेकिन इतना लोकतंत्र तो नहीं ही है कि एक मंत्री, प्रधानमंत्री से उलट राय रख दे. और ये सिर्फ एक पार्टी या केंद्र की बात ही नहीं है. हाल ही में हमने राजस्थान में इसी का उदाहरण देखा. विधायक और गहलोत सरकार में मंत्री राजेंद्र गुढ़ा ने विधानसभा में अपनी ही सरकार को घेरा. मुख्यमंत्री गहलोत ने मिनटों में बाहर का रास्ता दिखा दिया. ऐसे में कमेटी में बैठने वाला मंत्री कितनी स्वतंत्र राय दे पाएगा, ये सोचने वाली बात है.
हालांकि अभी ये साफ नहीं कि सेलेक्शन कमिटी चुनाव आयुक्तों को बहुमत के आधार पर चुनेगी या सर्वसम्मति से. द लल्लनटॉप में हमारे साथी साकेत ने बिल के कई पहलुओं पर नजर डाली. उनका कहना है कि बिल के क्लॉज-8(1) में सिर्फ इतना लिखा है कि सेलेक्शन कमिटी आयुक्तों को चुनने के लिए "पारदर्शी तरीके" से अपनी प्रक्रिया अपनाएगी.
नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर पूर्व चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी मानते हैं कि सही तो यही होगा कि नियुक्ति सर्वसम्मति से हो. कुरैशी ने दी लल्लनटॉप से बातचीत में बताया कि ये सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन नहीं है क्योंकि कोर्ट ने वो प्रावधान कानून बनाने तक किया था. कुरैशी ने हमें बताया,
"ये व्यवस्था विश्वसनीय तब बनेगी जब सर्वसम्मति से नियुक्ति होगी. ऐसा नहीं है कि इससे विपक्ष के नेता को कोई वीटो पावर मिल जाएगा. उनके पास सर्च कमिटी के दिए हुए जो 5 नाम होंगे, उनमें से ही उन्हें चुनना होगा. LoP को अगर किसी नाम पर आपत्ति होगी, तो उन्हें दूसरा विकल्प दिया जाएगा."
तो हमें अभी ये देखना है कि सरकार जो कानून लाई है, क्या उसमें कोई बदलाव होंगे. और अगर बिना बदलाव बिल पास हो जाता है, तो नियुक्ति कैसे की जाती है. क्या सर्वसम्मति का ध्यान रखा जाएगा? और तब क्या होगा, जब सर्वसम्मति नहीं बन पाएगी?
डाटा प्रोटेक्शनअगला बिल है डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल, 2023. जिसे आम ज़ुबान में डेटा प्रोटेक्शन बिल कहा जा रहा है. विपक्ष के लगातार विरोध के बावजूद 7 अगस्त को ये बिल लोकसभा और बाद में राज्यसभा से पारित कर दिया गया. शनिवार, 12 अगस्त को इसे राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने भी मंज़ूरी भी दे दी और अब ये बन गया है डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन ऐक्ट, 2023.
केंद्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स और IT मंत्री अश्विनी वैष्णव ने सदन में बताया कि ये बिल देश के 140 करोड़ लोगों के डिजिटल पर्सनल डेटा की सुरक्षा की व्यवस्था करता है. देश में क़रीब 90 करोड़ लोग इंटरनेट से जुड़ चुके हैं. ऐसे में डिजिटल नागरिकों के अधिकार, सुरक्षा और प्राइवेसी के संरक्षण के लिए ये बिल लाया गया है. लेकिन इसी बिल पर एक प्रश्नचिन्ह ये भी है कि डेटा की सुरक्षा के नाम पर कहीं हमारी निजता तो ख़तरे में नहीं है? बिल का इतना विरोध क्यों हो रहा है? ये सब एक-एक कर बताते हैं.
हमने पहले भी इस बिल पर विस्तृत शो किया है. उसका लिंक आपको डिस्क्रिप्शन में मिल जाएगा. यहां हम आपको एक ब्रीफ़ पिक्चर देंगे. सबसे बेसिक सवाल तो यही है कि डेटा क्या है? इस संदर्भ में, हमारी और आपकी सारी जानकारी. जो इस डिजिटल युग में कहीं न कहीं दर्ज हो रही है. फेसबुक, ट्विटर, इंस्टा समेत इंटरनेट पर आप जो भी करते हैं, सब दर्ज होता है. आपका फोन सब देख सकता है, सब सुन सकता है. और किसी को बता भी सकता है कि वो क्या देख रहा है, सुन रहा है.
आधार कार्ड, वोटर आईडी कार्ड, पैन कार्ड, ऑनलाइन क्या ख़रीदा, कितने रुपये ट्रांज़ैक्शन किया, बायोमेट्रिक्स, पॉलिटिकल ओपिनियन. ये सब आपका डिजिटल डेटा है. अगर आपकी स्मार्टवॉच या फ़ोन में आपके दौड़ने या चलने के स्टेप्स काउंट होते हैं, तो वो भी उस कंपनी के लिए डेटा है. और, आपका डेटा दुनिया में जगह-जगह जा रहा है. कभी आपकी सहमति से, कभी उसके बिना भी. इसीलिए डेटा की सुरक्षा के लिए सरकार लेकर ये बिल - जो अब क़ानून बन गया है. और डेटा प्रोटेक्शन को लेकर, ये देश का पहला क़ानून है.
अब एक नज़र इस बिल और डेटा के संरक्षण की टाइमलाइन पर भी डाल लेते हैं.
> सरकार की तरफ़ से इस दिशा में पहली बार 2012 में काम शुरू हुआ. मनमोहन सिंह सरकार ने अक्टूबर 2012 में जस्टिस एपी शाह की अध्यक्षता में एक प्राइवेसी कमेटी बनाई थी. इस कमेटी ने प्राइवेसी कानून बनाने की सिफ़ारिश की थी. लेकिन मामला ठंडे बस्ते में रहा.
> फिर जुलाई 2017 में - नरेंद्र मोदी सरकार में - एक एक्सपर्ट कमेटी बनाई गई. सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस बीएन श्रीकृष्णा की अध्यक्षता वाली कमिटी ने इसका ड्राफ्ट तैयार किया. साल 2018 में रिपोर्ट सौंपी गई. सरकार ने पहली बार 11 दिसंबर 2019 को संसद में विधेयक पेश किया था. तब इस बिल का नाम डेटा प्रोटेक्शन बिल था. विपक्ष और जानकारों ने इस पर आपत्ति जताई थी. कहा था कि बिल में निजी डेटा को लेकर पर्याप्त सुरक्षा नहीं है. विपक्ष का आरोप - डेटा की सुरक्षा के नाम पर सरकार ने अपने पास मनमानी ताक़तें इकट्ठा कर रही है.
> इस बीच, बीएन श्रीकृष्णा कमिटी के बनने के डेढ़ महीने बाद प्राइवेसी को लेकर सुप्रीम कोर्ट की एक ज़रूरी टिप्पणी आई. 24 अगस्त, 2017 को 9 जजों की बेंच ने फ़ैसला सुनाया:
“निजता का अधिकार, लोगों का मूलभूत अधिकार है. जीवन जीने के अधिकार में निजता की स्वतंत्रता भी आती है.”
> ख़ैर, वापस ट्रैक पर आते हैं. 2019 में विरोध के बाद डेटा प्रोटेक्शन बिल को संसद की संयुक्त समिति के पास भेज दिया गया. समिति की रिपोर्ट को 16 दिसंबर 2021 के दिन लोकसभा में पेश किया गया था. समिति ने 97 संशोधन और 93 सुझाव बताए. साथ ही 7 असहमति के पॉइंट भी बताए गए. इन बदलावों को जोड़ने के बजाय, 3 अगस्त 2022 को सरकार ने इस विधेयक को ही वापस ले लिया. और अब इस सत्र में फिर से इस विधेयक को पेश किया गया है.
अब इस ऐक्ट में एक पेच है. सरकार ने जो बिल पेश किया और फिर पारित करवाया, उसमें ज्यादातर जगहों पर as may be prescribed लिखा है. माने - जैसा कि निर्धारित किया जाएगा. ग़ौर कीजिए, जाएगा. इस वाक्य का सरकार ने बिल में 26 बार जिक्र किया है. यानी कुछ चीजे़ं तय नहीं हैं; बाद में तय होंगी. फिर भी इसे क़ानून की शक्ल देने की कोशिश हो रही है.
केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने लोकसभा में कहा कि इस बिल को लाने से पहले लोगों से ख़ूब सुझाव लिए गए. दावा किया कि ड्राफ़्ट पर 48 संगठनों और 39 मंत्रालयों ने विस्तृत चर्चा की. अश्विनी वैष्णव ने बिल पेश करते हुए, जो बातें कहीं, वो भी जान ही लीजिए.
1. जिस उद्देश्य के लिए डेटा लिया जाए, उसी उद्देश्य के लिए उसका इस्तेमाल हो.
2. किसी काम के लिए अगर डेटा लिया जा रहा है, तो उतना ही लिया जाए जितना ज़रूरी हो.
3. जितने समय के लिए डेटा जरूरी है, उससे ज्यादा समय तक प्लेटफॉर्म डेटा न रखे.
4. डेटा लेने के बाद सुरक्षा की जिम्मेदारी सवारी की नहीं, संबंधित प्लेटफॉर्म या संस्थान की होगी.
5. अगर किसी संस्था से डेटा सुरक्षा में चूक होगी, तो वो कोर्ट के बजाय डेटा प्रोटेक्शन बोर्ड के पास जाएगी.
मतलब फ़ेस वैल्यू पर तो ये क़ानून बिल्कुल भी शेडी नहीं लग रहा. फिर विवाद क्यों है? एक लाइन में कहना हो, तो IIT दिल्ली में इकॉनमिक्स की प्रोफ़ेसर रीतिका खेड़ा ने द हिंदू में जो लिखा, उसे दोहरा देते हैं .
“समस्या डेटा प्रोटेक्शन नहीं, बल्कि डेटा कलेक्शन है.”
दरअसल, इस ऐक्ट के क्लॉज़-17(2)(a) में प्रावधान है कि भारत की संप्रभुता और अखंडता से जुड़े हितों में, देश की सुरक्षा, दूसरे देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, पब्लिक ऑर्डर बनाने या किसी संज्ञेय अपराध को रोकने जैसी स्थिति में केंद्र सरकार आपके डेटा को एक्सेस कर सकती है. यानी इन स्थितियों में सरकार पर ये क़ानून लागू नहीं होगा. अब संप्रभुता और देश की सुरक्षा जैसे विषय बहुत स्पष्ट नहीं हैं. कोई तय लकीर नहीं है कि पब्लिक ऑर्डर अमुक बात से ख़राब होगा कि नहीं, देश की सुरक्षा ख़तरे में है कि नहीं. इसीलिए विपक्षी दल और RTI ऐक्टविस्ट ऐसे संशय जता रहे हैं कि सरकार इस क़ानून का ग़ैर-वाज़िब इस्तेमाल कर सकती है.
सरकार को जो छूट मिली है, उसके जवाब में अश्विनी वैष्णव की दलील है कि अगर कहीं भूकंप या चक्रवात आता है, तो उस स्थिति में फॉर्म, सहमति, नोटिस आदि का ध्यान रखना चाहिए या जान-माल का? IT मंत्री ने यूरोप के डेटा सुरक्षा कानून (GDPR) का हवाला देते हुए कहा कि वहां तो 16 तरह की छूट हैं, हमारे वाले में तो सिर्फ़ 4 तरह की ही छूट हैं. नोट कीजिए, सरकार पश्चिम का उदाहरण दे रही है.
एक विवाद बोर्ड को लेकर भी है. ऐक्ट के क्लॉज़-18 और 19 में एक 'डेटा प्रोटेक्शन बोर्ड' बनाने का प्रावधान है. इस बोर्ड का एक अध्यक्ष होगा और कुछ सदस्य होंगे. इनकी नियुक्ति केंद्र सरकार ही करेगी. मल्लब अपील भी तुम, दलील भी तुम, गवाह भी तुम, वकील भी तुम. बाक़ी इस बिल पर RTI को को कमज़ोर करने का आरोप क्यों लग रहा है ये हम आपको यहां नहीं बताएंगे. इसके लिए आपको हमारे साथी साकेत की कॉपी पढ़नी होगी, जहां से हमने ये सारी जानकारी ली है.
जन विश्वास (प्रावधानों में संशोधन) बिलतीसरा और आख़िरी बिल है जन विश्वास (प्रावधानों में संशोधन) बिल, 2022. जिसे 27 जुलाई को पास कर दिया गया. पहले बेसिक बताएंगे. 22 दिसंबर, 2022 को वित्त और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ये बिल लेकर आए थे. मक़सद: 42 क़ानूनों में से 183 अपराधों को अपराध की कैटगरी से हटाना. ताकि भारत में जीवन और व्यापार करने में आसानी हो.
IT ऐक्ट की एक मिसाल पकड़िए. IT ऐक्ट या सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के तहत क़ानूनी कॉन्ट्रैक्ट में व्यक्तिगत जानकारी का खुलासा करने पर तीन साल तक की जेल या पांच लाख रुपये तक का जुर्माना लग सकता है. जन विश्वास ऐक्ट में इस सज़ा की जगह, 25 लाख रुपये तक का जुर्माना लगाने को कहा गया है. जेल हटाओ, पेनाल्टी बढ़ाओ. मतलब कोई तो कह ही सकता है, कि व्यक्तिगत जानकारी से छेड़छाड़ की जा सकती है. जेल नहीं होगी, बस 25 लाख रुपये देने होंगे. कोई कह सकता है, हम नहीं कह रहे.
कुछ क़ानूनों में जेल की जगह मोटा जुर्माना लगाने की बात है. और कहीं जुर्माने या पेनाल्टी की रक़म बढ़ा दी गई है. "ताकि जीवन और व्यापार करने में आसानी हो." लेकिन मामला इतना सपाट नहीं है. जैसा हमने आपको बताया कुल 42 मौजूदा क़ानूनों में बदलाव की बात है. तो ये केवल एक नहीं, कई क्षेत्रों को प्रभावित कर रहा है.
मसलन, हेल्थ सेक्टर. Drugs and Cosmetics Act, 1940 में भी दो संशोधन प्रस्तावित थे. जैसे ही ऐक्ट पारित हुआ, स्वास्थ्य नीति विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं के बीच बहस छिड़ गई. ड्रग्स पॉलिसी एक्सपर्टेस का कहना है कि संशोधन के बाद देश में दवा उत्पादन से जुड़े कुछ अपराध, अपराध की श्रेणी से हट जाएंगे और इससे दवा उत्पादकों की जवाबदेही ख़त्म हो सकती है. पब्लिक हेल्थ ऐक्टिविस्ट दिनेश ठाकुर ने भी ट्वीट किया था,“इस क़ानून ने दवा उद्योग की लंबे समय से चली आ रही इच्छा को पूरा कर दिया है. अब अगर आपको घटिया दवा खा कर नुक़सान होता है, तो कंपनियों को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जाएगा.”
दरअसल, क़ानून के तहत चार तरह के अपराध बांटे गए हैं -- मिलावटी दवा बनाना, नकली दवा बनाना, दवाओं पर ग़लत लेबल चिपकाना और मानक गुणवत्ता वाली दवाएं न बनाना. जैसा अपराध, वैसी सज़ा.
संशोधन के बाद, अब मानक गुणवत्ता वाली दवाएं न बनाने वाले जेल नहीं जाएंगे. बस 5 लाख रुपये तक का जुर्माना लगेगा.
जब विधेयक आया था, तो सरकार ने बारमबार कहा कि इससे व्यापार में आसानी होगी. छोटे अपराधों के लिए जेल जाने के डर से व्यापार तंत्र और व्यक्तिगत आत्मविश्वास में झिझक आ रही है. झिझक तो मिटेगी, मगर दवा जितनी संवेदनशील चीज़ पर ऐसी ढिलाई कितनी जायज़ है?
ड्रग एक्शन नेटवर्क के सदस्य एस श्रीनिवासन ने मीडिया से बात करते हुए कहा कि जेल जाने के जोख़िम को कम करने से देश की फ़ार्मास्युटिकल इंडस्ट्री में बहुत सारे युवाओं के लिए दरवाज़े खुलेंगे. लेकिन, ये कहना मुश्किल है कि उपभोक्ता की नज़र से ये क़दम ठीक है या नहीं. उपभोक्ता माने आप और हम.
अब चलते हैं दिन की दूसरी बड़ी खबर खबर की तरफ. पहाड़ों पर एक बार फिर बारिश आफत बनकर बरसी है. हिमाचल प्रदेश में हालात इतने गंभीर कि अलग अलग जिलों में बीते 24 घंटों में 41 लोगों की जान जा चुकी है. आपको सिलसिलेवार तरीके से बताते हैं. पहले बात शिमला की. जहां बारिश के चलते बड़ा भूस्खलन हो गया है और चपेट में आ गया एक शिव मंदिर. खबरों के मुताबिक करीब 50 लोग मलबे में दब गए. अब तक 9 शवों को निकाला जा रहा है. और रेस्क्यू ऑपरेशन अभी जारी है. हादसा शिमला के समरहिल इलाके में स्थित प्रसिद्ध शिव मंदिर में हुआ है. सावन का सोमवार होने के चलते सुबह मंदिर में बाकी दिनों के मुकाबले ज्यादा श्रद्धालु थे. इसी वजह से हादसा और विकराल हो गया.
इसके अलावा हिमाचल के सोलन में बारिश से तबाही देखी गई. इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक सोलन में तीन अलग-अलग घटनाओं में 10 लोगों की मौत हो चुकी है. यहां एक गांव में बीती रात बादल फटने से दो घर और एक गोशाला बह गई और पूरा गांव मलबे में तब्दील हो गया. इस आपदा में 7 लोगों की मौत हो गई. और 6 लोगों को बचाया जा चुका है. तीन लोगों के लापता होने की भी खबर है.
यही नहीं, मंडी में भी बादल फटने से बड़ी तबाही हुई है. अलग-अलग हादसों में मंडी से अबतक 14 लोगों की मौत की खबर हैं. मंडी में मकान ढहने से 7 लोगों की मौत हो गई. इस हादसे में तीन लोगों को बचाया गया है. कुछ स्थानीय मीडिया रिपोर्ट में दावा किया जा रहा है कि बादल फटने से एक ट्रक बह गया. साथ ही 10-15 घर बाढ़ में घिर गए हैं.
इसके अलावा सिरमौर में 4 और चंबा, हमीरपुर, कांगड़ा में 1-1 मौत की खबर भी आई है. प्रदेश भर में कुदरती आपदा का जायजा लेने के लिए मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने आज शाम अधिकारियों के साथ बैठक की. बैठक में ये फैसला किया गया है कि कल पूरे राज्य में स्वतंत्रता दिवस पर से जुड़ा कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित नहीं होगा.
हिमाचल से अब उत्तराखंड चलते हैं. उत्तराखंड में जारी भारी बारिश के बीच मौसम विभाग ने 6 जिलों में रेड अलर्ट जारी किया है. हरिद्वार में गंगा नदी खतरे के निशान से एक मीटर ऊपर बह रही है. बारिश को देखते हुए राज्य सरकार ने देहरादून, पौड़ी और चम्पावत स्कूल को बंद रखने का फैसला किया है. हरिद्वार में 14 अगस्त की सुबह गंगा नदी का जलस्तर 294.90 मीटर पर पहुंच गया है. यहां खतरे का निशान 294 मीटर है. वहीं अलकनंदा नदी भी उफान पर है.
बारिश से बिगड़ते हालात को देखते हुए राज्य सरकार ने चार धाम यात्रा पर दो दिन के लिए रोक लगा दी है.