The Lallantop
X
Advertisement

क्या ब्रिटिश संसद भारत की आज़ादी वापिस छीन सकती है?

'लीज़ पर मिली आजादी' का पूरा सच, ट्रांसफर ऑफ पॉवर कैसे हुआ था?

Advertisement
indian independence act 1947 partition 15 august dominion status
ब्रिटेन से भारत को ट्रांसफर ऑफ पॉवर लिए डोमिनियन स्टेटस और गवर्नर जनरल की व्यवस्था अपनाई गई थी (तस्वीर: wikimedia commons)
pic
कमल
15 अगस्त 2023 (Updated: 15 अगस्त 2023, 10:25 IST)
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share

15 अगस्त. आज़ादी का दिन. 77 साल से हम ये दिन मना रहे. आज़ादी किससे? अंग्रेजों की ग़ुलामी से. इतना हम मानते, जानते हैं. लेकिन फिर गाहे बगाहे क़ई सवाल हैं इस दिन को लेकर जो उठते रहते हैं. 
कोई कहता है, आज़ादी 15 अगस्त को नहीं मिली. क्योंकि 1950 तक हम ब्रिटेन के डोमिनियन थे. कोई कहता है, आज़ादी मिली ही नहीं, लीज़ पे ली गई है. फिर ऐसी बातें भी हैं कि हमने अंग्रेजों को मारकर क्यों नहीं भगाया. क्यों उनसे मोलतोल करते रहे? 
क्यों आज़ादी के बाद भी लॉर्ड लाउंटबेटन को गवर्नर जनरल बनाया गया? 
भारत को आज़ाद करने में जल्दबाज़ी क्यों की गई. जबकि जून 1948 तक का वक्त था? 
और सबसे बड़ा सवाल ये कि इंडिया इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट, जिसके तहत ट्रान्स्फ़र ऑफ़ पावर हुआ, वो अगर ब्रिटिश संसद ने पास किया, तो क्या हमारी आज़ादी ब्रिटिश संसद की मोहताज है?
क्या अंग्रेज किसी दिन क़ानून वापस लेकर कह सकते हैं, आज़ादी कैंसिल?

15 अगस्त के मौक़े पर सिलसिलेवार तरीक़े से समझेंगे भारत में सत्ता का हस्तांतरण, इंग्लिश में बोलें तो, ट्रान्स्फ़र ऑफ़ पावर हुआ कैसे.

 माउंटबेटन के आते ही  

बात शुरू होती है सुदूर लंदन से. साल 1947. नए साल का दिन. एक काले रंग की ऑस्टिन प्रिंसेज कार लंदन की सड़कों पर दौड़ी चली जा रही थी. कार का ब्रेक लगा तो सामने दरवाज़े पर लिखा था 10 डाउनिंग स्ट्रीट. ये ब्रिटिश प्राइम मिनिस्टर का निवास था. कुछ साल पहले तक इस घर का मालिक एक ऐसा व्यक्ति था, जिसने गांधी को अधनंगा फ़क़ीर और भारतीयों को खरगोश की तरह बच्चे पैदा करने वाले लोग कहा था. चर्चिल की चलती तो भारत कभी आज़ाद ना होता. लेकिन 1947 में वो सरकार में नहीं, विपक्ष में थे. लेबर पार्टी के क्लीमेंट एटली प्रधानमंत्री बन चुके थे. और उनके सामने सबसे बड़ा सवाल था, भारत की आज़ादी या जिसे अपने शब्दों में वो ट्रान्स्फ़र ऑफ़ पावर कहते थे. उस रोज़ जो गाड़ी एटली के घर के आगे आकर रुकी, उसमें ब्रिटेन के राजा के चचेरे भाई और द्वितीय विश्व युद्ध में दक्षिण पूर्व एशिया में मित्र राष्ट्रों की ओर से सेना का सर्वोच्च पद सम्भालने वाले लुई माउंटबेटन सवार थे.

एटली माउंटबेटन को भारत का नया वाइस रॉय बनाकर भेजना चाहते थे. ताकि ट्रान्स्फ़र ऑफ़ पावर के इस पेचीदा सवाल को हल किया जा सके. उनके पहले के वाइसरॉय आर्किबाल्ड वेवल ने पहले ही ये कहकर हाथ खड़े कर दिए थे कि ये काम लगभग आसंभव है. माउंटबेटन इस मुसीबत को अपने गले में नहीं डालना चाहते थे. इसलिए वो अपने राजा और रिश्ते में भाई जॉर्ज 6 से मिलने गए. यहां से भी माउंटबेटन को कोई ख़ास राहत नहीं मिली. उल्टा राजा ने उनके सर एक और बोझ डाल दिया. जॉर्ज 6 ने माउंटबेटन से कहा, “डिकी, (माउंटबेटन का निकनेम) संयुक्त हो या बंटा हुआ. कोशिश करना भारत, कॉमन वेल्थ का हिस्सा रहे.'

patel and mountbatten
माउंटबेटन और सरदार पटेल के बीच पहली मुलाक़ात तनाव भरी रही (तस्वीर: Wikimedia Commons) 

यहां पहली बार भारत के कॉमनवेल्थ में बने रहने की चर्चा हुई. भारत में इस समय माहौल अलग था. कांग्रेस के तमाम नेता कॉमनवेल्थ में बने रहने की बात को सिरे से नकार रहे थे. हालांकि कॉमन वेल्थ अभी एक छोटा मुद्दा था. असली दिक़्क़त ये थी कि भारत का होगा क्या. कैसी शासन व्यवस्था होगी, क्या भारत का बंटवारा होगा? अगर हां तो किस तरह? ये तमाम सवाल माउंटबेटन के दिमाग़ में थे. लेकिन उन्हें मुद्दे की असली गम्भीरता तब समझ आई जब वो भारत आकर पहली बार मुहम्मद अली जिन्ना से मिले. जिन्ना के तेवर कैसे थे, इस पर 14 अगस्त के एपिसोड में हमने विस्तार से चर्चा की है. लिंक आपको डिस्क्रिप्शन में मिल जाएगा. मोटा मोटी बताएं तो माउंटबेटन की भारतीय नेताओं से मुलाक़ात कुछ इस तरह रही.

नेहरू से - दोस्ती भरी, दोनों पहले से एकदूसरे को जानते थे और साथ मिलकर काम करने को एकदम तैयार. 
गांधी से- गांधी बंटवारे के सबसे बड़े विरोधी थे. उन्होंने माउंटबेटन से यहां तक कह दिया था. आप हमें हमारे हाल पर छोड़ दो. और जल्द से जल्द निकल जाओ. जो खून बहेगा वो हम सह लेंगे. गांधी के पास इतनी ताक़त नहीं थी कि वो बंटवारे को रोक सकें. लेकिन कमजोर सा ये बूढ़ा इतनी कुव्वत रखता था कि अगर उसने माउंटबेटन की योजना की सरे आम मुख़ालफ़त कर दी तो पूरा हिंदुस्तान सड़कों पर उतर जाता. 
सरदार पटेल- यूं पटेल कांग्रेस के सबसे बड़े नेता थे. और एकदम प्रैक्टिकल. पार्टिशन की व्यावहारिक हक़ीक़त को वो पहचानते थे. लेकिन माउंटबेटन से उनकी पहली ही मुलाक़ात पंगे भरी रही. किसी नियुक्ति के चक्कर में पटेल ने एक नोट माउंटबेटन के पास भिजवाया था. जिसकी भाषा थोड़ी सख़्त थी. माउंटबेटन ने पटेल से नोट वापस लेने को कहा. पटेल नहीं माने. इस पर माउंटबेटन ने उन्हें धमकी देते हुए कहा, आप मुझे समझते क्या हैं?. मैं अभी अपना विमान बुलाकर वापिस जा रहा हूं. आख़िर में पटेल को अपना नोट वापिस लेना पड़ा और उन्होंने उसे फाड़ दिया. इस मुलाक़ात के बाद हालांकि दोनों के अच्छे सम्बंध रहे. 
जिन्ना- जिन्ना माउंटबेटन के किसी प्लान के लिए तैयार नहीं थे. उन्हें बस एक चीज़ चाहिए थी- पाकिस्तान. इस मुलाक़ात के बाद माउंटबेटन को अहसास हो गया था कि 30 करोड़ हिंदुओं और 10 करोड़ मुसलमानों का साथ रहना अब मुश्किल है. 

इसके बावजूद माउंटबेटन ने एक आख़िरी कोशिश की. स्थिति की थाह लेने के लिए माउंटबेटन ने पंजाब का दौरा किया. वहां हालात भयावह थे. लगभग हर दूसरे दिन दंगे की खबर आ रही थी. लोग मरने मारने पर उतारू थे. यही हाल बंगाल का था. हालांकि बंगाल के लिए माउंटबेटन के पास एक तुरुप का इक्का था. आधे बदन पर धोती पहनने वाला, महात्मा आगे जाकर बंगाल को जलने से बचाने वाला था. जबकि 60 हज़ार की फ़ोर्स भी पंजाब को इस आग में झुलसने से नहीं बचा पाई थी. हालांकि ये सब आगे की बात है लेकिन माउंटबेटन के पंजाब दौरे से आप ये समझ सकते हैं कि उन्होंने अगस्त 1947 में ही भारत को सत्ता देने का निर्णय क्यों लिया. जबकि उनके पास जून 1948 तक का वक्त था. माउंटबेटन के अपने तमाम अफ़सरों को बुलाकर पूछा, क्या गृह युद्ध की स्थिति में हम कुछ कर सकते हैं. हर तरफ़ से एक ही जवाब आया - हम कुछ नहीं कर पाएंगे. माउंटबेटन ने तय किया कि उन्हें कोई ना कोई फ़ैसला लेना होगा. वो भी जल्द से जल्द. नई योजना बनाने के लिए माउंटबेटन ने शिमला का रुख़ किया. शिमला में क्या हुआ देखिए.

शिमला में नेहरू का ग़ुस्सा

मई 1947 का महीना . दिल्ली की गर्मी और राजनीतिक परेशानियों से कुछ राहत पाने के लिए माउंटबेटन दम्पति शिमला पहुंचे. यहां ट्रान्स्फ़र ऑफ़ पावर का एक नया मसौदा तय हुआ. इस मसौदे की एक लाइन कहती थी कि भारत के किसी प्रांत में अगर हिंदू मुस्लिम मिलकर तय करें तो वो अपना अलग देश बना सकते हैं. माउंटबेटन ने ये चीज़ बंगाल को सोचकर एड की थी. क्योंकि बंगाल का बंटवारा सबसे पेचीदा मसला था. नए मसौदे के तहत अगर बंगाल के लोग मिलकर तय करते तो बंगाल एक नया देश बन सकता था, जिसकी राजधानी कलकत्ता होती. ये सलाह माउंटबेटन को और किसी ने नहीं, हुसैन सुहरावर्दी ने दी थी. वही सुहरावर्दी जिसने 1946 में जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन के कॉल पर कलकत्ता में खूनी खेल खेला था, और जिसे बंगाल के कसाई की उपाधि मिली थी. 

पेशावर में एडविना माउंटबेटन और शिमला में माउंटबेटन दम्पति (तस्वीर: NAM/Wikimedia )

बहरहाल नया प्लान बनाने के बाद माउंटबेटन दिल्ली जाकर उसे भारतीय नेताओं के आगे पेश करना चाहते थे. जिसकी मंज़ूरी लंदन से पहले ही मिल चुकी थी. लेकिन माउंटबेटन को ना जाने क्या सूझी, उन्होंने ये प्लान शिमला में उनसे मिलने पधारे नेहरू को दिखा दिया. नेहरू ने पूरी रात इस दस्तावेज का अध्ययन किया और उसे पूरा पढ़ने के बाद बिस्तर में लगभग फेंकते हुए बोले, सब बर्बाद हो गया. 
नेहरू का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर था. उन्होंने सीधे जाकर माउंटबेटन से कह दिया कि कांग्रेस इस पर कभी राज़ी ना होगी. क्योंकि नेहरू के अनुसार इस प्लान से देश दो नहीं कई छोटे छोटे टुकड़ों में बंट जाता. नेहरू की बात सुन माउंटबेटन को भी इस हक़ीक़त का अहसास हुआ. उन्होंने इस प्लान को रदद्दी की टोकरी में डाल दिया. लेकिन सवाल था कि अब आगे क्या. माउंटबेटन की 6 हफ़्ते की मेहनत बेकार चली गई थी. और उनके पास ट्रान्स्फ़र ऑफ़ पावर की कोई योजना नहीं थी. यहां से इस प्रकरण में एक नए नाम की एंट्री होती है. VP मेनन. माउंटबेटन के राजनैतिक सलाहकार. 

मेनन ने माउंटबेटन को एक नया रास्ता सुझाया. डोमोनियन स्टेटस का. भारत और पाकिस्तान दोनों को डोमिनियन स्टेटस दे दिया जाए. और रियासतों के पास हक़ हो कि वो दोनों में से एक को चुन लें. माउंटबेटन को डोमिनियन स्टेटस की बात जंची. 2 जून को दिल्ली में उन्होंने ये नया प्लान, जिसे माउंटबेटन प्लान भी कहा जाता है, भारतीय नेताओं के आगे रखा. कांग्रेस, मुस्लिम लीग, और सिख नेता तीनों इस पर सहमत हो गए. और ये मौसदा पास होने के लिए ब्रिटिश संसद में पेश करने के लिए भेज दिया गया. अब यहां पर सवाल ये कि जो कांग्रेस पूर्ण स्वराज की मांग से एक कदम पीछे हटने को तैयार नहीं थी. वो डोमिनियन स्टेटस के लिए तैयार क्यों हो गई. इसके लिए आपको ट्रान्स्फ़र ऑफ़ पावर की दिक्कतें समझनी होंगी.

डोमिनियन स्टेटस क्यों? 

सत्ता तानाशाहों के पास भी होती है जैसे नोर्थ कोरिया. और क्रिमिनल गैंग्स के पास भी. जैसे हेती और दक्षिणी अमेरिका के कई और देश. सत्ता ट्रान्स्फ़र से उद्देश्य ये था कि भारत में एक स्टेबल लोकतांत्रिक व्यवस्था हो. जो सत्ता सम्भाले. 1947 में हमारे पास अंग्रेजों का सिस्टम था. जिसमें चुने हुए प्रधानमंत्री, सबको वोट डालने का हक़, जैसी चीजें नहीं थीं. ये चीजें संविधान से आ सकती थी. और संविधान बनने में वक्त लगना था. देश में लगातार गृह युद्ध के हालात बन रहे थे. एक बार गृह युद्ध छिड़ जाता, फिर कोई नहीं कह सकता था कि सत्ता क़िसके हाथ में जाती. सम्भव था कि इस गृह युद्ध से एक तानाशाही सत्ता निकलती या टूटे-फूटे अलग-अलग देशों का एक समूह. और ज़्यादा इंतज़ार, एक पासे की चाल जैसा था, जिसका क्या अंजाम होगा कोई नहीं बता सकता था. इस दिक़्क़त का एक हल था. जल्द से जल्द एक काम चलाऊ तरीके से सत्ता संविधान सभा को सौंप दी जाए. आगे संविधान बनने का काम जारी रहे. और इस दौरान एक वैकल्पिक व्यवस्था चलती रहे. इसी वैकल्पिक व्यवस्था का नाम था डोमिनियन स्टेटस.

ट्रांसफ़र ऑफ़ पावर के लिए डोमिनियन स्टेटस एक आसान रास्ता था. क्योंकि डोमिनियन रूल देने के लिए ब्रिटिश संसद को महज़ एक क़ानून पास करना था. अगर आप फिर भी सोच रहे हैं कि क्यों ना अंग्रेज चले जाते, उसके बाद देश के लोग आपस में देख लेते. तो बता दें यही विचार गांधी का भी था. वो कई बार कह चुके थे कि आप हमें हमारे हाल पर छोड़ दीजिए. लेकिन कांग्रेस में नेहरू पटेल जैसे नेताओं की राय अलग थी. जून 1947 तक भारत में टूटा फूटा ही सही, एक सिस्टम था, लॉ और ऑर्डर था. लेकिन अगर गृह युद्ध छिड़ जाता. जैसा दुनिया के कई देशों में देखा गया, तो कोई सत्ता ही नहीं बचती, जिसे किसी को सौंपा जा सकता. इतना ही नहीं डोमिनियन स्टेटस के दो फ़ायदे और थे. 

पहला- नया संविधान बनने तक भारत को ब्रिटिश सिविल सेवकों और सेना का कार्यभार सम्भाल रहे मिलिट्री अफ़सरों की ज़रूरत थी. डोमिनियन स्टेटस से भारत इनकी सेवाएं ले सकता था. ये उसी तरह था जैसे आप देश में डैम बनाने के लिए विदेशी इंजिनीयरों की सेवाएं लें. 1947 के बाद सेना, एयर फ़ोर्स और नेवी में कई ब्रिटिश सैन्यध्यक्ष और अफ़सर रहे. लेकिन ये सभी भारतीय सरकार के मातहत काम कर रहे थे. इसीलिए जब 1948 में भारत पाकिस्तान युद्ध हुआ. इन ब्रिटिश सैन्य अफ़सरों ने भारत के हित के लिए लड़ाई लड़ी. ब्रिटेन के हित लिए नहीं.

Dominian status
तनाव भरे हालात देखते हुए डोमिनियन स्टेटस की अस्थायी व्यवस्था अपनाई गई थी (तस्वीर: Wikimedia Commons) 

डोमिनियन स्टेटस अपनाने का एक दूसरा बड़ा कारण और था- भारत की वो साढ़े पांच सौ से ज़्यादा रियासतें. जिनके भविष्य का फ़ैसला होना अभी बाक़ी था. ये सभी खुद को ब्रिटिश रूल के नज़दीक समझती थीं. और डोमिनियन स्टेटस के तहत इनसे नेगोशिएशन करना आसान होता. डोमिनियन रूल वाले प्लान में कांग्रेस ने एक ख़ास बात ये भी एड करवाई थी कि रियासतों के संचार माध्यम, टेलीग्राफ ऑफ़िस, रेलवे लाइनों का पूर्व की तरह उपयोग होता रहेगा. क्योंकि अगर रजवाड़े इस पर रोक लगा देते तो देश चलाने में आगे बहुत मुश्किल आ सकती थी.

माउंटबेटन को गवर्नर जनरल क्यों बनाया?  

इस तरह डोमिनियन स्टेटस वाले माउंटबेटन प्लान के तहत इंडिया इंडिपेंडेंस एक्ट बना. जो 15 जुलाई को ब्रिटिश संसद में पारित हुआ और 18 जुलाई को इस एक्ट पर शाही मुहर भी लग गई. 15 अगस्त 1947 को इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट लागू हुआ, जिसके तहत संविधान सभा आजाद भारत की पहली विधायिका बनी. और नेहरू अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री बने रहे. चूंकि भारत डोमिनियन स्टेटस के तहत था इसलिए वाइसरॉय का पद भंग कर दिया गया. अब सवाल ये कि माउंटबेटन को गवर्नर जनरल का पद क्यों दिया, जबकि 15 अगस्त को हम आज़ाद हो गए. तो बात यहां भी घूमफ़िरकर डोमिनियन स्टेटस पर आ जाती है. इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट के तहत ट्रान्स्फ़र ऑफ़ पावर जल्दी हो गया और डोमिनियन स्टेटस क़ायम रहा. डोमिनियन स्टेटस के तहत ब्रिटेन के राजा का एक प्रतिनिधि यानी गवर्नर जनरल वही ज़िम्मेदारी सम्भालने वाला था, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति ने सम्भाला. ये पद माउंटबेटन को क्यों मिला? 

इसका एक बड़ा कारण ये कि नेहरू चाहते थे कि रियासतों के विलय में माउंटबेटन मदद करें. पटेल का भी यही मानना था. रियासतों के विलय के विषय पर पटेल और माउंटबेटन के बीच एक दिलचस्प बातचीत सुनिए. माउंटबेटन ने रजवाड़ों और भारतीय संग के बीच मध्यस्थ का रोल अदा किया. उन्होंने पटेल को ऑफ़र दिया कि अगर वो रजवाड़ों के कुछ अधिकार क़ायम रखें तो वो भारतीय संघ में विलय को राज़ी हो जाएंगे. इस पर पटेल ने माउंटबेटन से कहा, 

"अगर आप मुझे टोकरी में पेड़ के सारे सेब तोड़कर ला देंगे तो मैं ख़रीद लूंगा. एक भी कम हुआ तो नहीं लूंगा" 

इस पर माउंटबेटन ने जवाब दिया, “एक दर्जन मेरे लिए छोड़ दीजिए”. पटेल ने कहा, "ये ज़्यादा हैं. मैं आपको सिर्फ़ दो सेब दूंगा".

क्या ब्रिटिश संसद इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट को वापस ले सकती है? 

माउंटबेटन 21 जून, 1948 तक गवर्नर जनरल के पद पर रहे. उनके इस्तीफ़े के बाद सी. राजगोपालाचारी भारत के गवर्नर जनरल नियुक्त हुए. भारत 26 जनवरी 1950 तक ब्रिटेन का डोमिनियन बना रहा. भारत का संविधान लागू होते ही इंडिया इंडिपेंडेंस एक्ट रद्द हो गया और इसी के साथ डोमिनियन स्टेटस भी. इतनी कहानी आपने सुन ली अब आख़िरी सवाल. 

constituent assembly
संविधान सभा ने इंडिया इंडिपेंडेंस एक्ट को निरस्त कर दिया था (तस्वीर: wikimedia Commons)

अगर भारत को आज़ादी इंडिया इंडेपेंडेस ऐक्ट के तहत मिली, तो क्या ब्रिटिश संसद इस एक्ट को वापिस ले सकती है? क्या इसका मतलब ये कि भारत की आजादी हमेशा ब्रिटिश संसद के रहमो करम पर निर्भर रहेगी? सवाल ये भी कि क्या भारतीय संविधान ब्रिटिश संसद के द्वारा पास किए इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट को रद्द कर सकता है?

इन बातों के यूं तो कोई व्यावहारिक मतलब नहीं. 2023 की बात करें तो ऋषि सुनक अपने ससुराल में आकर ये तो नहीं कहेंगे कि भारत फिर ब्रिटेन का ग़ुलाम हो गया है. लेकिन फिर भी तसल्ली के लिए इस टेक्निकल डीटेल को भी समझ लेते हैं. संविधान और क़ानून की भाषा में एक शब्द है. कॉन्स्टिटूशनल ऑटोक्थनी. जिसका मोटा मोटी मतलब होता है. मूल ज़मीन से उपजा संवैधानिक मूल्य. यानी संविधान का नेचर ऐसा हो कि उसे ताक़त और शक्ति उसके मूल देश से मिली हो. ना की किसी बाहरी शक्ति द्वारा. इस ऑटोक्थनी को हासिल करने के लिए भारतीय संविधान बनाते हुए एक नियम का उल्लंघन किया गया. कौन सा नियम?

इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट के सेक्शन आठ के तहत संविधान बनाने के बाद इसे गवर्नर जनरल की सहमति की ज़रूरत थी. लेकिन संविधान निर्माताओं ने जानबूझकर ऐसा नहीं किया. संविधान के आर्टिकल 395 के तहत इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट को अमान्य करार दे दिया गया. जबकि इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट की मानें तो संविधान सभा को इसका अधिकार नहीं था. इसके बावजूद ये उल्लंघन किया गया ताकि संविधान का इंडिया इंडिपेंडेंस ऐक्ट से कोई रिश्ता ना रहे. और भारतीय आज़ादी के तार ब्रिटिश संसद से पूरी तरह टूट जाएं. ये आख़िरी विद्रोह था कि आपके क़ानून का हमारे लिए अब कोई महत्व नहीं है. इस तरह हमारे संविधान को कॉन्स्टिटूशनल ऑटोक्थनी हासिल हुई. अब ब्रिटिश संसद चाहे तो इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट को रिपील करे, जला दे, जो चाहे करे. भारत पर इसका कोई असर नहीं होगा. ये बात संविधान बनाते हुए ही साफ़ कर दी गई थी. 

वीडियो: तारीख: जब स्पेस में ही फंसा रह गया एस्ट्रोनॉट और देश टूट गया!

Comments
thumbnail

Advertisement

Advertisement