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बजट भाषण में बोले जाने वाले भारी-भरकम शब्दों से लगता है डर, बस एक क्लिक और...

ज़्यादातर लोगों को बजट इसलिए समझ नहीं आता है क्योंकि Budget में भारी भरकम अंग्रेजी के शब्द होते हैं. जैसे- Income Tax, Corporate Tax, Fiscal Deficit, और भी कई. इसलिए हम आपको बजट में बार-बार इस्तेमाल होने वाले ऐसे कई शब्दों के बारे में विस्तार से बताएंगे.

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terms and jargons used in budget budget explained
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण
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आकाश सिंह
23 जुलाई 2024 (Updated: 23 जुलाई 2024, 10:41 IST)
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क्लास 10th के बोर्ड एग्जाम से पहले एक सब्जेक्ट की बहुत चिंता होती थी. सब्जेक्ट का नाम, साइंस. न्यूटन के नियम से ज्यादा मुश्किल उस नियम की परिभाषा में यूज़ होने वाले शब्द थे. जैसे वेलॉसिटी, मोमेंटम. वैसे ही कुछ बजट (Budget 2024) के साथ भी होता है. कुछ शब्द टेक्निकल होते हैं. लेकिन ज्यादातर बजट तो इसलिए समझ नहीं आता है क्योंकि बजट में भारी भरकम अंग्रेजी के शब्द होते हैं. इसलिए हम आपको बजट में बार-बार इस्तेमाल होने वाले ऐसे कई शब्द समझायेंगे. जिससे आप बजट को आराम से समझ पाएं. आइए सबसे पहले समझते हैं पर्सनल इनकम टैक्स (Income Tax) और कॉर्पोरेट टैक्स (Corporate Tax) के बीच का फर्क. 

पर्सनल इनकम टैक्स v/s कॉर्पोरेट टैक्स (Personal Income Tax vs Corporate Tax)

पर्सनल का मतलब है निजी. इनकम यानी आमदनी. यानी जो टैक्स किसी व्यक्ति की आमदनी पर लगाया जाये उसे पर्सनल इनकम टैक्स कहते हैं. ये वही है जिसका जिक्र बजट के दिन हर न्यूज़ चैनल पर होता है. जब बात होती है कि टैक्स में कितनी छूट मिली तब लोग इसी पर्सनल इनकम टैक्स का जिक्र करते हैं. आमतौर पर सरकार बजट में टैक्स स्लैब बनाती है और ये निर्धारित करती है कि कितनी आमदनी पर टैक्सपेयर्स को कितना टैक्स चुकाना होगा. ये टैक्स नौकरीपेशा लोगों के लिए तो आसानी से समझ में आ जाता है. पर बिज़नेस करने वाले लोगों के लिए इसमें कुछ पेचीदगियां है. यहां बात आती है. कॉर्पोरेट टैक्स की.

budget
भारत में टैक्स कलेक्शन

कॉर्पोरेट टैक्स यानी किसी कंपनी के प्रॉफिट पर लगने वाला टैक्स. देश का कानून कुछ अलग है. यहां कंपनी और कंपनी के मालिक दो अलग एंटिटी यानी दो अलग इकाई हैं. इसको उदाहरण से समझिये. मान लीजिये ABC इंफ़्राटेक नाम की एक कंपनी है. इसने साल में 1000 करोड़ का प्रॉफिट कमाया है. इस कंपनी के 3 मालिक हैं. मुकेश, सुरेश और राहुल. ये तीनों लोग कंपनी में बराबर के हिस्सेदार हैं. सबसे पहले सरकार इस कंपनी के ऊपर कॉर्पोरेट टैक्स लगाएगी. मान लीजिये ये कॉर्पोरेट टैक्स 10% है. सरकार को 1000 करोड़ का 10% यानी 100 करोड़ कॉर्पोरेट टैक्स मिल गया. इसके बाद बचे 900 करोड़ तीनों मालिकों में बटेगा. सबके हिस्से आया 300-300 करोड़. अब इन तीनों की इनकम पर पर्सनल इनकम टैक्स लगेगा. मान लीजिये पर्सनल इनकम टैक्स भी 10% है. अब मुकेश, सुरेश और राहुल अपनी कमाई से 30-30 करोड़ रुपये सरकार को पर्सनल इनकम टैक्स के तौर पर देंगे. यहां सरकार को कितना पैसा मिला? 100 करोड़ कॉर्पोरेट टैक्स और 90 करोड़ का पर्सनल इनकम टैक्स. कुल 190 करोड़.   

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फिस्कल डेफिसिट (Fiscal Deficit)

बजट रिलीज़ होने के बाद विपक्ष के नेताओं का एक बयान हमेशा सामने आता है कि देश का फिस्कल डेफिसिट बढ़ गया है. ये देश के लिए चिंता का विषय है. लेकिन हम आपको आसान भाषा में समझते हैं आखिर ये फिस्कल डेफिसिट है क्या. फिस्कल का अंग्रेजी में मतलब होता है राजकोषीय. डिफिसिट यानी कमी. डेफिसिट की स्थिति तब बनती है जब पैसा जरूरत से कम हो. यानि आमदनी कम हो रही है और खर्च उससे ज्यादा. आम तौर पर हम सभी जिंदगी में इस स्थिति से दो चार होते ही हैं. सरकार भी होती है. बस फर्क इतना है कि हमारा डेफिसिट कुछ हज़ार रुपयों का हो सकता है और सरकार का लाखों करोड़ों रुपयों का. हम अपने घाटे को भले ही कैजुअली ले लें, पर सरकार नहीं ले सकती. अपने हर घाटे को वो अलग अलग कैटेगरी में बांट कर रखती है. माने कौन सा घाटा किस वजह से हो रहा है. इसमें से एक कैटेगरी है, फिस्कल डेफिसिट. बहुत सिंपल है. जब सरकार का खर्च ज्यादा हो और आमदनी कम. तब एक साल के टोटल खर्च और आमदनी के बीच का फर्क को फिस्कल डेफिसिट कहते हैं. 

उदाहरण से समझते हैं. साल 2023-24 में सरकार की कुल आमदनी सिर्फ 27 लाख 20 हज़ार करोड़ रुपये थी. लेकिन, खर्च 45 लाख करोड़ से भी ज्यादा था. यानी 17 लाख 80 हज़ार करोड़ की कमी. फिस्कल डेफिसिट को हमने उदाहरण से बताया लेकिन सरकार इन आंकड़ों को संख्या में कभी नहीं बताती. अपनी सरकारें इस घाटे को हमेशा जीडीपी के प्रतिशत में बताती है. इस वजह से हमें ये घाटा सुनने में बहुत कम लगता है. जैसे 17 लाख करोड़ रुपये. कितनी बड़ी रकम है ये. मगर फीसदी में ये जीडीपी का 5.9% ही है.

लेकिन जिस तरह से आपकी आमदनी और आपकी सारी संपत्ति की कीमत (जैसे घर, FD) बराबर नहीं होते. दोनों के बीच काफी गैप होता है. वैसे ही जीडीपी और बजट बराबर नहीं हैं. देश की जीडीपी जहां 301 लाख करोड़ है वहीं बजट में आमदनी सिर्फ 27 लाख करोड़ है. हिसाब लगाएं तो पता चलेगा आमदनी के मुकाबले ये डेफिसिट 65% है. थोड़ा और बेहतर समझने के लिए एक उदाहरण की मदद लेते हैं.

मान लीजिये किसी व्यक्ति की आमदनी 1000 रुपये है, लेकिन उसका खर्च 1650 रुपये है. उसने 650 यानी अपनी इनकम का 65% कर्ज़ लिया. अब अगले महीने फिर से उसका खर्च उसकी आमदनी से ज्यादा है. तो क्या वो पिछला कर्ज़ चुकाने की स्थिति में होगा? जवाब है नहीं. अब वो कर्ज़ लेकर क़र्ज़ चुकाएगा. ऐसा ही हाल सरकार का भी है. वो भी कर्ज़ लेकर पिछले कर्ज़ चुकाती है. उदाहरण के बाद अब आंकड़े देखिए-  
-साल 2019-20 में सरकार की आमदनी साढ़े 17 लाख करोड़ रुपये और डेफिसिट 9 लाख करोड़ से ज्यादा था.
-साल 2020-21 में आमदनी सिर्फ साढ़े 15 लाख करोड़ रुपये और डेफिसिट आमदनी से भी ज्यादा था.
-साल 2021-22 में आमदनी 21 लाख करोड़, वहीं डेफिसिट 15 लाख करोड़ रुपये था.
-साल 2022-23 में आमदनी 24 लाख करोड़ और डेफिसिट 16.6 लाख करोड़ था.

fiscal deficit
फिस्कल डेफिसिट
कैपिटल एक्सपेंडिचर (Capital Expenditure)

कैपिटल का मतलब है पूंजी और एक्सपेंडिचर माने खर्च. जो खर्चा देश के बुनियादी ढांचे के विकास में होता है उसे कैपिटल एक्सपेंडिचर या capex कहते हैं. अब इंडिविजुअल लेवल पर घर, गोल्ड, बैंक में रखी सेविंग्स, FD जैसे इन्वेस्टमेंट पूंजी होते है. लेकिन सरकार के लिए रेलवे स्टेशन, रोड, ट्रेन, एयरपोर्ट, सरकारी कंपनियां पूंजी होती हैं. कैसे? सरकारी कंपनियां तो बिज़नेस करती है तो उनके प्रॉफिट में एक हिस्सा सरकार का होता है. बाकी चीजें जैसे रोड रेलवे बनाने से अर्थव्यवस्था को रफ्तार मिलती है. सरकार इनके ज़रिए कमाई तो करती ही है, इनको लीज पर भी दे सकती है. जैसे, हाईवे पर जो टोल टैक्स लिया जाता है वो कमाई है. वहीं, ये कुछ सालों के लिए इन्हें प्राइवेट कंपनियों को लीज पर भी दिया जाता है. इसे पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप यानी पीपीपी कहा जाता है. इसमें प्राइवेट कंपनियां सरकार के साथ साझेदारी करके इनके बदले सरकार को पैसा देती है और टोल टैक्स कलेक्ट करके अपनी कमाई करती हैं. साथ ही साथ, रोड क्वालिटी आदि भी मेंटेन करती हैं.

capex
कैपिटल एक्सपेंडिचर 
कैपिटल एक्सपेंडिचर का जादू

अब बात कर लेते हैं कैपिटल एक्सपेंडिचर के एक ज़रूरी फायदे की. मल्टीप्लायर इफेक्ट. एक उदाहरण से आपको समझाते हैं. मान लेते हैं कि सरकार एक हाईवे बनाने में 1000 करोड़ का खर्चा करती है. स्वाभाविक है कि ये खर्चा कॉन्ट्रेक्टर, इंजीनियर, मैटेरियल सप्लायर और मजदूरों में बंटेगा. यानी 1000 करोड़ सरकार के खजाने से निकल कर हाईवे बनाने के बदले लोगों की जेबों में आ जाएंगे. मान लीजिए ये लोग अपनी कमाई के 20% पैसे की बचत करते हैं. बाकी 80% खर्च करते हैं. कोई इससे टीवी खरीदता है, कोई स्कूटी, कोई कुछ और. नतीजतन, मार्केट में बढ़ती है डिमांड. इस तरह 1000 करोड़ में से 80% यानी 800 करोड़ मार्केट में वापस आ जाएगा. डिमांड में इजाफा होगा. बाजार में तेजी आएगी. और इकॉनमी को मिलेगा फायदा. इकॉनमी में तेज़ी आने से लोगों की कमाई में भी इजाफा होगा. और, इस तरह ये साइकिल चलती रहती है. अंत में ये 1000 करोड़ रुपए इकॉनमी में घूमते घूमते 5000 करोड़ बन जाते हैं. इसी को कहते हैं मल्टीप्लायर इफेक्ट. इस मल्टीप्लायर इफेक्ट से सरकारी खजाने को भी फायदा होता है. फरवरी 2022 में निर्मला सीतारमण ने संसद में ये बताया था कि जब सरकार कैपिटल एक्सपेंडिचर में ₹1 खर्च करती है तो उसी साल में सरकार को लौट कर ₹2.45 मिलते हैं. अब बात सरकारी अकाउंट्स की. 

ये भी पढ़ें: बजट 2024 से किसको फायदा, क्या उम्मीदें? आप भी समझ लीजिए

कंसॉलिडेटेड फंड ऑफ़ इंडिया 

जैसे हम लोगों की आदत है कि कामों के हिसाब से अलग-अलग अकाउंट बना लेते हैं. जिससे इधर का पैसा उधर न हो जाये. जैसे सैलरी अकाउंट या सेविंग्स अकाउंट अलग होता है. कुछ कुछ वैसे ही भारत सरकार के 3 अकाउंट होते हैं. जिसमें अलग-अलग जगहों से आया पैसा रखा जाता है और अलग अलग कामों के लिए खर्च किया जाता है. कंसोलिडेटेड फंड ऑफ इंडिया, भारत सरकार का सबसे इम्पोर्टेन्ट अकाउंट होता है. कंसॉलिडेटेड मतलब किसी चीज़ को इकट्ठा करके रखना, इस अकाउंट में बहुत सारी जगहों से आया पैसा जमा होता है इसलिए इसका नाम कंसॉलिडेटेड फंड ऑफ़ इंडिया है. इसी अकाउंट में हमारे आपके द्वारा दिया टैक्स जैसे इनकम टैक्स, GST, पेट्रोल डीज़ल पर लगाने वाली एक्साइज ड्यूटी जमा होती है. यहां तक कि अगर सरकार किसी राज्य को उधार पैसा देती है तो उसका ब्याज़ भी इसी अकाउंट में जमा होता है. सरकार अपना सारा खर्चा इसी अकाउंट से करती है. इस अकाउंट से पैसा निकालने के लिए सरकार को लोक सभा से अनुमति लेनी पड़ती है. पूरे साल के खर्च के लिए सरकार एक बार बजट पेश करके अनुमति ले लेती है. अगर साल के बीच में सरकार को किसी काम के लिए दोबारा पैसे की ज़रूरत होती है तब भी सरकार को लोकसभा से अनुमति लेनी पड़ती है. इस अकाउंट के ऑडिट की ज़िम्मेदारी CAG की होती है. इसके अलावा सरकार के दो और अकाउंट होते हैं.

कन्टिजेंसी फंड ऑफ़ इंडिया-कन्टिजेंसी का मतलब भविष्य की कोई संभावना. यानी इस फण्ड में रखा पैसा किसी अचानक आये खर्च के लिए रखा जाता है. इसमें एक निर्धारित अमाउंट जमा रहता है और ये पैसा राष्ट्रपति के कंट्रोल में होता है. 

पब्लिक एकाउंट्स ऑफ़ इंडिया- कुछ पैसा जैसे प्रोविडेंट फंड, डिसइनवेस्टमेंट (यानी वो पैसा जो सरकार को सरकारी संपत्ति या संपत्ति का हिस्सा बेचकर मिला है) या नेशनल स्मॉल सेविंग्स फंड (ये कई स्कीम्स का फंड है, जैसे कि PPF पब्लिक प्रोविडेंट फंड, पोस्ट ऑफिस की स्कीम्स जैसे RD या FD) ये सारा पैसा इस अकाउंट में जमा होता है. इस अकाउंट से पैसा निकालने के लिए सरकार को लोक सभा की अनुमति नहीं चाहिए. इस अकाउंट का ऑडिट CAG के द्वारा किया जाता है.   

डिमांड्स फॉर ग्रांट्स

डिमांड का मतलब मांग. ग्रांट्स मतलब फंड या पैसा होता है. डिमांड्स फॉर ग्रांट्स का सीधा मतलब हुआ पैसे की मांग करना है. अब बजट में ये टर्म क्यों आती है इसको उदाहरण से समझिए. मान लीजिये आप घर में बच्चे के जन्मदिन के मौके पर एक फंक्शन करना चाहते हैं. तो आप एक प्लान तैयार करेंगे. इस दौरान पता चलेगा कि डेकोरेशन पर 1,000 का खर्च आएगा, कैटरिंग में 5000 का खर्च आएगा. इस पैसे की डिमांड को एक तरीके से डिमांड फॉर ग्रांट्स कहा जा सकता है. आप इस सारे खर्चों को समझेंगे और फिर अकाउंट्स के मुखिया से पैसे खर्चने की अनुमति लेंगे. ऐसा ही सरकार के साथ भी होता है. वित्त मंत्रालय सरकार के अलग-अलग विभागों की पैसे की डिमांड को लोक सभा के सामने रखता है. इसी को सरकार की डिमांड्स फॉर ग्रांट्स कहते हैं. इसके बाद लोक सभा इसपर वोटिंग करके वित्त मंत्रालय को कंसॉलिडेटेड फण्ड ऑफ़ इंडिया से पैसे निकलने की अनुमति देती है.

डिसइन्वेस्टमेंट 

इन्वेस्टमेंट का अर्थ किसी जगह निवेश करना. डिसइन्वेस्टमेंट इसका उल्टा होता है. माने जहां निवेश किया है वहां से पैसे वापस निकालना. हर सरकारी कंपनी में सरकार की कम या ज़्यादा हिस्सेदारी होती है. सरकार चाहे तो इनको पूरी तरह बेच सकती है, जैसे एयर इंडिया के साथ किया या फिर इसके शेयर्स को बेच कर पैसा जुटा सकती है. शेयर्स बेचने के लिए स्टॉक मार्केट के रस्ते भी सरकार आगे बढ़ सकती जैसे अभी हाल में ही LIC का IPO निकला था. या फिर डायरेक्ट किसी इन्वेस्टर को भी शेयर्स बेचे जा सकते हैं. सरकार की इसी नीति को डिसइन्वेस्टमेंट कहते हैं. इस पैसे का सरकार अलग अलग जगह उपयोग कर सकती है. जैसे किसी स्कीम में पैसा डालना, इंफ्रास्ट्रक्चर बनाना, या फिर अपने फिस्कल डेफिसिट को कम करना. अब ज़रूरत के हिसाब से सरकार 3 तरह से डिसइन्वेस्टमेंट करती है.

मेजॉरिटी डिसइन्वेस्टमेंट- यानी 50% से अधिक हिस्सेदारी को बेच देना.
माइनॉरिटी डिसइन्वेस्टमेंट- यानी सरकार अपने पास कम से कम 51 % की हिस्सेदारी रखती है बाकी शेयर्स मार्केट में बेच देती है. जैसे कि LIC
तीसरा है कम्पलीट प्राइवेटाइजेशन- यानी पूरी कंपनी को बेच देना. जैसे एयर इंडिया.

उम्मीद है कि ये आर्टिकल पढ़कर अगले बजट भाषण के दौरान बहुत ज्यादा कंफ्यूज नहीं होंगे.

वीडियो: बजट सत्र से पहले पीएम ने विपक्ष पर आवाज दबाने का आरोप लगाया

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