धांसू पत्रकार कुलदीप नैयर, जिनसे मेनका गांधी ने कहा था- संजय की मौत दुर्घटना नहीं, साजिश है
कुलदीप नैयर की किताब एक जिंदगी काफी नहीं के कुछ अंश.
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कुलदीप नैयर को पत्रकारिता का पितृ पुरुष कहा जाता था. 14 अगस्त को उनकी बर्थ एनिर्सरी होती है. करीब सात दशक लंबे अपने पत्रकारिता जीवन में उन्होंने भारत को बेहद करीब से बदलते देखा था. उनका यही अनुभव किताबों के ज़रिए बयान हुआ है. भारतीय उपमहाद्वीप की समस्याओं को आधार बनाकर उन्होनें बेहद विस्तृत लेखन कार्य किया. अपनी किताब 'एक जिंदगी काफी नहीं' में उन्होंने अपने जीवन के संस्मरण लिखे हैं, जो मूलतः अंग्रेजी में 'वन लाइफ इज नॉट एनफ' के नाम से छपी थी. दी लल्लनटॉप पर पढ़िए इस किताब के कुछ अंश.
अपनी इस किताब के बारे में कुलदीप नैयर ने कहा था, ''एक ज़िंदगी काफी नहीं' यह किताब उस दिन से शुरू होती है, जब 1940 में ‘पाकिस्तान प्रस्ताव’ पास किया गया था. तब मैं (लेखक) स्कूल का एक छात्र मात्र था, लेकिन लाहौर के उस अधिवेशन में मौजूद था जहां यह ऐतिहासिक घटना घटी थी. यह किताब इस तरह की बहुत-सी घटनाओं की अन्दरूनी जानकारी दे सकती है, जो किसी और तरीके से सामने नहीं आ सकती - बंटवारे से लेकर मनमोहन सिंह की सरकार तक. अगर मुझे अपनी जिन्दगी का कोई अहम मोड़ चुनना हो तो मैं इमरजेंसी के दौरान अपनी हिरासत को ऐसे ही एक मोड़ के रूप में देखना चाहूंगा.''पुस्तक अंश: एक ज़िंदगी काफी नहीं
‘अन्जाम’ के मालिक ने मुझे निकाल दिया था, क्योंकि मैं पाकिस्तान चले गए उनके भाई की सम्पत्ति को छुड़ा नहीं पाया था. ‘अन्जाम’ के मेरे एक सहकर्मी साबरी ने मुझे उसी तरह की दूसरी नौकरी दिलवा दी. ‘वहादत’ नाम का वह उर्दू अखबार भी बल्लीमारान से निकलता था. वहाँ से कुछ ही दूरी पर वह घर था जहाँ कभी हिन्दुस्तान के महानतम उर्दू शायर मिर्जा गालिब रहा करते थे.‘वहादत’ के दफ्तर में मेरी मुलाकात मौलाना हसरत मोहानी से हुई, जो एक जाने-माने उर्दू शायर थे और आजादी की लड़ाई में हिस्सा ले चुके थे. हम दोनों में अच्छी पटने लगी. वे एक सीधे-सादे, संयमी और वामपन्थी झुकाव वाले व्यक्ति थे. वे वर्षों कांग्रेस में रह चुके थे और गांधीजी के आह्वान पर कई बार जेल जा चुके थे. लेकिन बँटवारे से कुछ पहले वे मुस्लिम लीग में शामिल हो गए थे. उनके साथ अपनी दूसरी मुलाकात में ही मैंने उनसे पूछ लिया था, ‘‘आपने ऐसा क्यों किया? क्यों पाकिस्तान की माँग का समर्थन किया?’’ उन्होंने स्वीकार किया कि यह उनकी भारी भूल थी. उन्होंने कहा कि पाकिस्तान की जिस अवधारणा का उन्होंने समर्थन किया था, सच्चाई उससे बिलकुल अलग साबित हुई थी. उनका खयाल था कि भारत की तरह पाकिस्तान भी एक उदारवादी और अनेकधर्मी देश होगा.
कुछ ही हफ्तों में हम काफी घुल-मिल गए तो उन्होंने मुझे उर्दू पत्रकारिता छोड़ देने की सलाह दी, क्योंकि भारत में इसका कोई भविष्य नहीं था. उन्होनें मुझे एक और भी सलाह दी, उर्दू शे’रो-शायरी से तौबा कर लेने की सलाह. मैंने उन्हें अपने लिखे हुए कुछ शेर दिखाए थे. उन्होंने उन्हें महज ‘तुकबाजी’ बताया. उनमें से एक शेर मुझे आज भी याद है-
उन्हें देखकर हम इबादत को भूलेमैंने उनकी दोनों सलाहें मान लीं. मैंने शे’रो-शायरी छोड़ दी और ‘वहादत’ से इस्तीफा देकर ‘युनाइटिड स्टेट्स इन्फॉर्मेशन सर्विस’ (यूएसआईएस) में भर्ती हो गया.
जो देखा उन्हें तो इबादत भी कर ली
खुदाई अब तो बुला लो क़बर में
गुनाहों से हमने तो तौबा भी कर ली
मैंने सोचा कि अमेरीका से पत्रकारिता की डिग्री प्राप्त कर लेना अच्छा रहेगा. मैंने न्यूयॉर्क के ‘संडे रिव्यू ऑफ लिटरेचर’ के सम्पादक नॉर्मन कजिंस से बात की. बंटवारे के फौरन बाद वे शरणार्थियों की तकलीफों पर लिखने के लिए दिल्ली आए थे तो उन्होंने मुझे अपना दुभाषिया नियुक्त किया था. वो किंग्सवे कैंप के शरणार्थियों से बात कर रहे थे तो एक आदमी भीड़ को अमेरीकियों से बात करने से मना करने लगा, क्योंकि अमरीका ने भारत के बंटवारे में ब्रिटेन की मदद की थी.
कजिंस बहुत संवेदनशील व्यक्ति थे और शरणार्थियों की हालात देखकर उनका मन भर आया था. लेकिन शिविर में हंगामा होने लगा तो उन्हें वहां से निकलना पड़ा. इसका एक अच्छा परिणाम यह हुआ कि हम दोनों में दोस्ती हो गई. चार वर्ष बाद जब मैं पढ़ाई के लिए अमेरीका गया तो मैं न्यूयॉर्क में कुछ दिन उन्हीं के पास ठहरा. जब पत्रकारिता की डिग्री पा लेने के बाद नॉर्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी में बिल चुकाने की बारी आई तो मेरे पास 100 डॉलर कम पड़ गए. इस बार भी उन्होंने मेरी मदद की.
मुझे लगा कि अमेरीका में पत्रकारिता का कोर्स बिलकुल बेकार था. उसका भारतीय जरूरतों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं था. मैं कुछ खास नहीं सीख पाया था. मुझे सिर्फ एक प्रेस कांफ्रेंस में मैं पत्रकारिता के छात्र के रूप में गया था. शिकागो में हुई इस प्रेस कॉन्फ्रेंस को एक उद्योगपति सम्बोधित कर रहे थे. मुझे याद है, मैंने उनसे पूछा था कि अगर हथियारों की माँग खत्म हो गई तो अमरीकी अर्थव्यवस्था का क्या होगा. उनका जवाब था, ‘‘हम अपनी इंडस्ट्री को जिन्दा रखने के लिए लड़ाइयाँ तलाशते रहेंगे.’’ उनकी यह बात सही साबित हुई है.अमेरीका की जो यादें मेरे दिल में आज भी बसी हुई हैं वे हमारे एक शिक्षक सी.डी. मैकडगल से जुड़ी हुई हैं. लंबे-ऊंचे और काफी सख्त दिखाई देने वाले मैकडगल हमें व्याख्यात्मक रिपोर्टिंग सिखाते थे. वे एक उदारवादी व्यक्ति थे और अपने ऊपर लगाए जा रहे तमाम आरोपों का बड़ी निडरता से सामना कर रहे थे. यह वह दौर था जब किसी भी तरह के विरोध को ‘लाल सलाम’ के साथ जोड़कर देखा जा रहा था. अमरीका में कम्युनिज्म-विरोध का जनून अपने चरम पर था. इसका नेतृत्व जॉसेफ मैकार्थी नामक एक सिनेटर कर रहे थे.
अमेरीकियों में एक अच्छी बात यह है कि वे किसी भी तरह के राजनीतिक या भावनात्मक गुबार से जल्दी ही उबर जाते हैं. मैकार्थीवाद भी ज्यादा देर नहीं टिक पाया. लेकिन जब तक यह रहा, बड़ा खौफनाक माहौल बना रहा.
अमेरीकी बड़े खुले दिल के लोग भी हैं. नॉर्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी में दस महीनों के अपने प्रवास के दौरान मुझे इसका काफी अनुभव हुआ. एक अमरीकी दम्पती ने मेरी जिम्मेदारी लगभग अपने ऊपर ले ली थी. हर शनिवार को पति या पत्नी अपनी कार में मुझे कैम्पस से लेने आ जाते, मुझे खाना खिलाते और फिर वापस छोड़ जाते. रात के शानदार भोजन के बारे में सोचकर मैं कई बार दिन में खाना ही न खाता. इससे मेरे पैसे बच जाते. मैं बड़ी मुश्किल से अपनी पढ़ाई का खर्च उठा पा रहा था. मैं कई तरह के पार्ट-टाइम काम कर रहा था, जैसे कि घरों के बगीचों की घास काटना, होटलों में वेटरगिरी करना, सर्दियों में शिकागो की ऊंची बिल्डिंगों की खिड़कियों के शीशे साफ करना, वगैरह.
मैं घर से पैसे नहीं मंगवा सकता था, क्योंकि मेरे और मेरी पत्नी के बैंक खाते में सिर्फ 1200 रुपए जमा थे और मेरे बूढ़े माता-पिता बड़ी मुश्किल से गुजारा कर रहे थे. यह कहना बिलकुल सही होगा कि यूनिवर्सिटी की पढ़ाई जारी रखने के लिए मुझे बहुत-से पापड़ बेलने पड़े. कभी-कभी मुझे सिर्फ एक पाव और पानी पर गुजारा करना पड़ता था. फिर भी, इसमें एक अलग तरह का मजा था. पूरे कैम्पस में कोई भी मुझसे ज्यादा तेजी से बर्तन नहीं धो सकता था!
‘स्टेट्समैन’ से मेरे जुड़ाव के दिन
मैं ‘यू.एन.आई.’ में ही था कि ‘स्टेट्समैन’ के स्थानीय सम्पादक के. रंगाचारी ने मुझसे सम्पर्क स्थापित किया. वे जानना चाहते थे कि क्या मैं उनके अखबार में काम करना चाहूंगा. मैंने सोचा कि शायद वे राजनीतिक संवाददाता के ओहदे की बात कर रहे थे. लेकिन जब उन्होंने स्थानीय सम्पादक के पद का प्रस्ताव रखा तो मैं सचमुच ही चौंक गया. इसका मतलब था सम्पादक प्राण चोपड़ा के बाद दूसरे नम्बर की जगह, जिन्हें अखबार के पहले भारतीय सम्पादक के रूप में चुना गया था और जिन्हें अखबार के हेडक्वार्टर कलकत्ता में रहना था.
मुझे दी जा रही तनख्वाह ‘यू.एन.आई.’ में मेरी तनख्वाह से दुगनी से भी ज्यादा थी. लेकिन तनख्वाह के आकर्षण से कहीं ज्यादा उन दिनों के एक नामी अखबार का सम्पादक बनने के अवसर ने मेरे मन में हलचल मचा दी थी.
फिर भी, ‘यू.एन.आई.’ को छोड़ने में मुझे कुछ समय लग गया. इस संस्था को मैंने अपने हाथों से बनाया था और बहुत कम तनख्वाहों पर काम करनेवाले अपने सहयोगियों की मदद से, और दिन-रात एक करके, इसे खड़ा किया था. अपने इन सहयोगियों के कारण और उनके साथ अपने बहुत गहरे रिश्तों को देखते हुए मैं जल्दी से कोई फैसला नहीं कर पा रहा था. एजेंसी आर्थिक दृष्टि से कमजोर थी. हालत इतनी खराब थी कि अगर किसी महीने पहली तारीख को ऑल इंडिया रेडियो की सबस्क्रिप्शन का एक लाख रुपए का चेक न आता तो स्टाफ को तनख्वाहें देने में देर हो जाती। मैं खुद अपनी तनख्वाह तो दो महीने देर से लेता था.
उन्हीं दिनों सोशलिस्ट नेता डॉ. राममनोहर लोहिया से मेरी मुलाकात हुई. मेरे ‘स्टेट्समैन’ में जाने की खबर उन तक भी पहुंच चुकी थी. उन्होंने मुझे फटकार लगाते हुए कहा कि अंग्रेजों के जाने के बाद भी उनके प्रति मेरा मोह कम नहीं हुआ था. ‘यू.एन.आई.’ एक भारतीय संस्था थी, और लोहिया यह कहना चाहते थे कि इससे मुँह फेरने का अर्थ था अपनी खुद की चीज या भारतीयता से मुँह फेरना. मैंने उन्हें बताया था कि प्रायोजक और पैसा लगाने के लिए तैयार नहीं थे, जिसके बिना कर्मचारियों की मामूली तनख्वाहों में इजाफा करना मुश्किल हो रहा था.
इसके बाद जब मैं कई महीने बाद लोहिया से मिला तो वे एक सरकारी अस्पताल के बिस्तर में लेटे अपनी आखिरी साँसें ले रहे थे. उन्होंने ‘यू.एन.आई.’ या ‘स्टेट्समैन’ की कोई बात करने की बजाय सिर्फ यह कहा, ''कुलदीप, मेरी मौत डॉक्टरों की वजह से हो रही है.'' यह सच ही था, क्योंकि वे उनकी बीमारी का सही पता नहीं लगा पाए थे.मैंने ‘यू.एन.आई.’ के कर्मचारियों को अपनी विदाई के लिए मना तो लिया, लेकिन वे मन-ही-मन अब भी घबराए हुए थे. उन्हें डर था कि मेरे जाने के बाद न्यूज एजेंसी ज्यादा दिनों तक नहीं टिकेगी. मैं जानता था कि यह उनकी गलतफहमी थी, लेकिन मैं उन्हें यकीन नहीं दिला पा रहा था. विदाई से पहले मैं प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी से मिलने गया. वे भी इस बारे में सुन चुकी थीं. उन्होंने बड़े भावभीने शब्दों में कहा,
''कुलदीप, क्या कोई मां अपने बच्चे को भी छोड़ती है?''
इंदिरा गांधी की कुलदीप नैयर को कही गई बात.
उनका मतलब था कि मैंने ‘यू.एन.आई.’ को अपने बच्चे की तरह पाल-पोसकर बड़ा किया था और अब मैं उसे छोड़कर जा रहा था. मैंने उन्हें यकीन दिलाया कि ‘यू.एन.आई.’ अपने लिए एक जगह बना चुकी थी और मेरे बाद भी जिन्दा रह सकती थी.
‘यू.एन.आई.’ की तुलना में ‘स्टेट्समैन’ एक जमी-जमाई संस्था थी और कर्मचारियों को अच्छी तनख्वाएँ मिलती थीं. पहले ही दिन मुझे इस बात का अहसास हो गया कि यह एक अलग दर्जे की संस्था थी. मैंने चपरासी से पानी माँगा तो वह मुझे पानी देने की बजाय काफी दूर स्थित किचन में यह बोलने गया कि मेरे लिए पानी भिजवाया जाए. उसने मुझे बाद में बताया कि इस तरह के काम एक विशेष जाति के लोग करते थेे. ये दीवारें धीरे-धीरे ढहती चली गईं, लेकिन ऐसा करने में मुझे काफी समय लग गया.
मेरे लिए सबसे खुशी की बात मेरा साप्ताहिक कॉलम ‘बिटवीन द लाइन्स’ था, जिसे मैं पिछले 50 वर्षों से लगातार लिखता रहा हूँ. इसमें बीच में एक वर्ष का अन्तराल जरूर आया था, जब मैं लन्दन में भारत के हाई कमिश्नर के रूप में नियुक्त था. मेरी पहली किताब का भी यही नाम था- ‘बिटवीन द लाइन्स.’ यह नाम विद्वान सम्पादक चेलापति राव द्वारा सुझाया गया था.
‘स्टेटस्मैन’ में मुझे खबरों के लिए मंत्रियों के पीछे नहीं दौड़ना पड़ता था. मंत्री खुद मेरे पास आते थे. वे हमारे अखबार में अपनी तसवीर छपवाने के लिए मचलते रहते थे. अखबार की प्रसार-संख्या इतनी ज्यादा नहीं थी, लेकिन इसकी प्रतिष्ठा बहुत ऊँची थी. मुझे एक केन्द्रीय मंत्री का उदाहरण याद आ रहा है, जो अपनी पत्नी की तसवीर छपवाना चाहते थे. यह तसवीर उस समय की थी जब वे एक खेल समारोह में पुरस्कार बाँट रही थीं. मैंने यह तसवीर हिन्दी के एक अखबार में छपी देखी थी, जिसका सर्क्युलेशन हमसे तीन गुना ज्यादा था. लेकिन मंत्री जी का कहना था कि ‘स्टेट्समैन’ एक ऐसा अखबार था जिसे देश का ‘बौद्धिक वर्ग’ पढ़ता था.‘स्टेट्समैन’ में अपने कार्यकाल के दौरान ही मैंने ‘ऑल इंडिया उर्दू एडिटर्स कॉन्फ्रेंस’ की स्थापना की. इसमें अपने पहले अध्यक्षीय भाषण में मैंने कहा कि कोई भी भाषा जो लोगों की आजीविका का साधन न हो, अपने अस्तित्व को लेकर संकट का सामना करेगी. मैं उर्दू को उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली की दूसरी भाषा के रूप में मान्यता दिलवाना चाहता था.
उर्दू मेरा पहला प्यार थी और यह लगातार पिछड़ती जा रही थी. मेरा खयाल है कि एक बार इससे प्यार हो जाने के बाद इसका नशा उतरना बहुत मुश्किल होता है. मैंने एक पत्रकार के रूप में उर्दू से ही अपनी शुरुआत की थी. मैं चाहता था कि इस भाषा को भारत में भी मान्यता मिले. लेकिन इसे पाकिस्तान की भाषा मानकर ठुकराया जा रहा था. यह सच था कि वहाँ इसे आधिकारिक भाषा का दर्जा दे दिया गया था. लेकिन यह भी सच था कि इसका जन्म दिल्ली के आसपास हुआ था. यह इस लिहाज से हिन्दी से अलग थी कि इसे अरबी लिपि में लिखा जाता था और इसमें फारसी और अरबी के बहुत-से शब्द थे. फिर भी दोनों भाषाएँ करीब-करीब एक जैसी थीं.
केन्द्र सरकार ने उर्दू के विकास को बढ़ावा देने के तरीकों का पता लगाने के लिए बहुत-सी समितियाँ गठित कीं. बहुत-सी उर्दू अकादमियाँ शुरू की गईं. लेकिन, जैसा कि उपमहाद्वीप के एक अहम शायर और मेरे दोस्त अहमद फराज ने इन अकादमियों का दौरा करने के बाद कहा था, ये सब महज ‘अनुवाद ब्यूरो’ की भूमिका निभा रही थीं. यह बात आज भी उतनी ही सच है, क्योंकि इन अकादमियों में बहुत कम मौलिक काम होता है. पाकिस्तान उर्दू के विकास के नाम पर भारत से भी कम खर्च करता है, इसलिए यह भाषा निरन्तर मार खाती जा रही है.
मौलाना आजाद ने एक बार कहा था कि बँटवारे के बाद उर्दू ने अपना अधिकार खो दिया था. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उर्दू को मुसलमानों से जोड़कर देखा जाने लगा. उर्दू के विकास और प्रसार के लिए जब ‘इन्दर गुजराल समिति’ गठित की गई तो मैंने कहा था कि सरकार उर्दू के भविष्य को लेकर सिर्फ बातें करने तक सीमित रहती थी और इस समिति से भी कुछ भी हाथ नहीं लगेगा, क्योंकि इस तरह की कितनी ही समितियाँ बन चुकी थीं. समिति ने मुझे भरोसा दिलाया कि उसके सुझावों पर सचमुच ही अमल किया जाएगा. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। इस समिति की सिफारिशें भी कागजों पर ही धरी रह गईं. सच्चाई यह है कि हमारे यहाँ उर्दू के खिलाफ बहुत गहरे पूर्वाग्रह हैं. हिन्दुत्व शक्तियाँ समझती हैं कि उर्दू को बढ़ावा देने के लिए कुछ भी करना मुसलमानों का तुष्टिकरण करना है.
स्टेट्समैन में मेरी नियुक्ति के एक महीने के भीतर ही प्राण चोपड़ा ने अखबार के पहले भारतीय सम्पादक के रूप में अपना कार्यभार सँभाल लिया था. वे तब तक सह-सम्पादक (डिप्टी एडिटर) पद पर थे.
अखबार का स्वामित्व उद्योगपतियों के एक समूह के हाथ में था, जिनमें टाटा भी शामिल थे.
मोहभंग का वह दौर
इन्दिरा सरकार की हार को ‘दूसरी आजादी’ के रूप में देखा गया था. फिर भी, ऐसा लगता है कि जो लोग केन्द्र और राज्यों में मंत्री बनकर आए थे उनकी न तो जयप्रकाश नारायण द्वारा देश के सामने रखे गए आदर्शों में कोई आस्था थी, और न दबे-कुचले वर्गों के आर्थिक उद्धार के प्रति ही कोई प्रतिबद्धता थी. उनके लिए इन्दिरा गांधी की हार सत्ता पर कब्जा करने का एक अवसर मात्र था. गद्दी मिलते ही वे सैद्धान्तिक राजनीति और साफ-सुथरे सार्वजनिक जीवन की बातें करना भूल गए. उनके अन्दर एक क्रान्ति का नेतृत्व करने का माद्दा ही नहीं था.
देश भयंकर मोहभंग की स्थिति में था. लोगों ने कल्पना भी नहीं की थी कि सत्ता-परिवर्तन का मतलब सिर्फ स्वामियों का बदल जाना, खाली की गई कुर्सियों पर नए व्यक्तियों का बैठ जाना होगा; और सचमुच के परिवर्तन के नाम पर कुछ भी नहीं होगा- न तो राजनीतिक आचरण में और न नीतियों में. एक बड़ा फर्क सिर्फ यह था कि अब कोई खुफिया आँख उनकी निगरानी नहीं कर रही थी. वे अपनी बात कहने या लिखने के लिए स्वतंत्र थे.
कभी-कभी मुझे लगता था कि काश इमरजेंसी कुछ और वर्षों तक जारी रहती. तो फिर जेलों में बन्द लोगों की प्रतिबद्धता की कड़ी परीक्षा हो जाती और कुछ बेहतर आदर्शों और सूझ-बूझ वाले नेता सामने आते. मोरारजी देसाई, जगजीवन राम और चरण सिंह ढली उम्र के लोग थे. वे गुस्से में जरूर थे, लेकिन उनके पास किसी नई दिशा या विश्व-दृष्टि का अभाव था.हम नागरिक समाज के कुछ सदस्यों ने- रोमेश थापर, निखिल चक्रवर्ती, मृणाल दत्ता चौधरी, रजनी कोठारी, जॉर्ज वर्गीस, राज कृष्ण और मैंने- साथ बैठकर ‘भारत के लिए एक एजेंडा’ तैयार करने का फैसला किया. हमारा उद्देश्य हमारे समाज में हो रही घटनाओं का विश्लेषण करना और राष्ट्र के सामने मौजूद प्रश्नों का समाधान खोजना था. हमारे एजेंडे का विश्लेषण था कि भारतीय राजनीति का संकट दरअसल परिवर्तन का संकट था. यह राजनीति के आधार और उसके ढाँचे में बढ़ते अन्तर को प्रतिबिम्बित करता था. पिछले एक दशक से राजनीतिक और आर्थिक प्रक्रियाएँ हाशियों में सिमटे और उपेक्षित सामाजिक वर्गों को सक्रिय राजनीतिक समुदाय के दायरे में ले आई थीं. खासतौर से उत्तर भारत में नई कृषि तकनीकों के कारण मँझले किसान वर्गों ने अपनी आर्थिक स्थिति में काफी सुधार किया था और वे अब परम्परागत रूप से विशिष्ट वर्गों का दबदबा सहने के लिए तैयार नहीं थे. यह प्रक्रिया दक्षिण भारत में पहले ही दिखाई दे चुकी थी.
अवसरों के ढाँचे में धीरे-धीरे हो रहे परिवर्तन के कारण, और साथ ही राजनीतिक पार्टियों द्वारा उनके मॉबिलाइजेशन के प्रयासों के कारण भी, दलित वर्ग अब अपने अधिकारों के प्रति सचेत होने लगे थे. वे अपनी स्थितियों में सुधार की माँग करने लगे थे। इसके अलावा शेष सक्रिय राजनीतिक समुदाय की सामाजिक और राजनीतिक संवेदनाओं में भी भारी परिवर्तन आ चुका था. उद्देश्यपूर्ण और सैद्धान्तिक राजनीति की माँग जोर पकड़ने लगी थी. अपना घर भरने की राजनीति के प्रति जहाँ वितृष्णा की भावना पैदा होने लगी थी, वहीं सार्वजनिक हितों की उपेक्षा के लिए राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के प्रति आक्रोश की भावना दिखाई देने लगी थी.
यह एजेंडा तैयार करने के बाद हमने एक बड़ी मीटिंग आयोजित की, ताकि हम देश भर के लगभग 250 बुद्धिजीवियों को अपने साथ जोड़ सकें. लेकिन हमारे द्वारा यह पहल किए जाने तक शायद बहुत देर हो चुकी थी. चुनाव आयोजित हुए और किसी भी पार्टी ने हमारे एजेंडे को अपने घोषणा-पत्र में शामिल नहीं किया. इन्दिरा गांधी ने एजेंडे की एक प्रति जरूर माँगी थी, लेकिन 1980 में सत्ता में लौटने के बाद उनकी नीतियों में हमारे सुझावों की जरा भी झलक दिखाई नहीं दी.
इन्दिरा गांधी ने जनता सरकार के उदाहरण का अनुसरण करते हुए गैस-कांग्रेसी राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया. फिर भी, अब इन्दिरा और संजय दोनों ही फूँक-फँककर कदम रख रहे थे. परिवार नियोजन का प्रचार पूरी तरह बन्द कर दिया गया. यह आपातकाल का सबसे बड़ा दुष्परिणाम था. कोई भी सरकार परिवार नियोजन कार्यक्रम को छूना नहीं चाहती थी. एक बार मैंने अपने दोस्त हेमवती नन्दन बहुगुणा, जो तब केन्द्रीय मंत्री थे, से पूछा था कि बढ़ती जनसंख्या पर अंकुश लगाने के लिए कोई कदम क्यों नहीं उठाया जा रहा था. उन्होंने कहा कि कोई भी सरकार इस मुद्दे को हाथ लगाना नहीं चाहेगी, क्योंकि यह इन्दिरा गांधी की हार का सबसे बड़ा कारण था.वे गलत कह रहे थे. इन्दिरा गांधी की हार का एक प्रमुख कारण परिवार नियोजन नहीं बल्कि जबर्दस्ती नसबन्दी था.1980 में इन्दिरा गांधी के सत्ता में लौटने के बाद मुझे शायद ही कभी उनसे मिलने का मौका मिला. सिर्फ एक बार किसी फंक्शन में हमने एक-दूसरे से हाथ जोड़कर नमस्ते की थी. इस बार वे संजय के हाथ में कमान देने की बजाय उसे सख्ती से अपने हाथ में थामे रहीं. लेकिन सत्ता में वापसी के कुछ ही समय बाद वे अपने बेटे को खो बैठीं.
मेरे एक गहरे दोस्त राज थापर ने मुझे फोन करके संजय गांधी के विमान के साथ हुई दुर्घटना के बारे में बताया था. संजय एक रोमांच पसन्द पायलट थे. दुर्घटना में संजय के निधन के कुछ ही दिनों बाद मेनका की माँ ने मुझे फोन करके कहा था कि यह दुर्घटना नहीं बल्कि साजिश थी. उन्होंने मुझे इस बात की छानबीन करने के लिए कहा कि संजय के विमान के ऊपर एक दूसरा विमान कैसे उड़ रहा था. मैं यह बात पहली बार सुन रहा था. इसकी पुष्टि नहीं कर पाया कि उनके विमान के ऊपर कोई दूसरा विमान उड़ रहा था या नहीं.
जो बात तथ्यात्मक तौर पर सही थी वह यह थी कि इन्दिरा गांधी ने दुर्घटना-स्थल का फिर से दौरा किया था और ‘कोई चीज’ ढूँढ़कर अपने पास रख ली थी. वह क्या चीज थी, यह आज तक एक रहस्य बना हुआ है. क्या वह संजय के स्विस खाते का नम्बर था?
मैं मेनका और उनकी माँ से खुशवंत सिंह के घर पर मिल चुका था. खुशवंत सिंह ने खुद मुझे बुलाया था, क्योंकि वे चाहते थे कि मैं मेनका की पत्रिका ‘सूर्या’ के लिए लिखूँ. इमरजेंसी के दौरान यह पत्रिका खूब चली थी, लेकिन बाद में खत्म हो गई थी.
एक जिंदगी काफी नहीं कवर फोटो.
इंडियन एक्सप्रेस से मेरी विदाई
इन्दिरा गांधी की सत्ता में वापसी ‘इंडियन एक्सप्रेस’ से मेरी विदाई के रूप में परिणित हुई. उनके प्रधानमंत्री बनने के कुछ ही दिनों बाद गोयनका ने मुझे अपने कमरे में बुलाकर कहा कि वे उनके साथ अपने रिश्ते सुधारना चाहते थे. ‘‘आप जानते हैं कि...’’ उन्होंने अपना वाक्य पूरा करने की जरूरत नहीं समझी. उन्होंने कहा कि वे सम्पादकीय विभाग के ऊँचे पदों में भारी फेरबदल करना चाहते थे. इसके अलावा उन्होंने कुछ भी नहीं कहा. मैं उनका इशारा समझ गया था.
लगभग दो महीने बाद उन्होंने कहा कि तत्कालीन सम्पादक मालगाँवकर अपना पद छोड़ रहे थे, लेकिन एक सलाहकार के रूप में काम करते रहनेवाले थे. उन्होंने कहा कि निहाल सिंह नए सम्पादक होंगे. वे तब ‘स्टेट्समैन’ के स्थानीय सम्पादक थे और मेरे अधीन राजनीतिक संवाददाता के रूप में काम कर चुके थे. इसके बाद वे मेरी तरफ मुड़ते हुए बोले कि मेरा क्या इरादा था. मैंने कहा कि मैं अपना इस्तीफा दे दूँगा, क्योंकि वे यही चाहते थे. मुझे दो महीने पहले उनके साथ हुई बातचीत याद थी. उन्होंने मुझे तभी इशारा कर दिया था.
अजीत भट्टाचार्जी भी इमरजेंसी के दौरान सरकार की सूची में शामिल रहे थे. उन्होंने भी अपना इस्तीफा सौंप दिया. अखबार में एक गुपचुप-सी घोषणा छापकर ‘हमारी सेवाओं के लिए’ हमें धन्यवाद दे दिया गया. यह बड़ी अजीब बात थी कि इमरजेंसी के दौरान हमने साथ मिलकर जो लड़ाई लड़ी थी, वह एक सही विदाई तक के बिना खत्म हो गई थी.
मैंने उनसे कहा कि मैं एक सिंडिकेट सेवा शुरू करके अपने कॉलम को एक सिंडिकेेटिड कॉलम में बदलना चाहता था. मैंने उनसे पूछा कि क्या उनका अखबार मेरा कॉलम खरीदना पसन्द करेगा. उन्होंने कहा कि वे सोचकर जवाब देंगे. उनका जवाब कभी नहीं आया.
लेखक परिचय
कुलदीप नैयरजन्म: 14 अगस्त, 1924, सियालकोट, पाकिस्तान.
शिक्षा: बी.ए. (ऑनर्स), एल.एल.बी., एम.एस-सी. (जर्नलिज्म) यू.एस.ए., पी-एच.डी. (दर्शन शास्त्र).
कार्य: कुलदीप नैयर ने अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआत उर्दू अख़बार ‘अंजान’ से की थी. पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री के कार्यकाल में अमेरिका में सूचना अधिकारी रहे. इसके साथ ही, अंग्रेजी अख़बार ‘द स्टेट्समैन’ के सम्पादक के तौर पर काम किया. करीब 25 वर्ष तक ‘टाइम्स’ मैगज़ीन के भारतीय संवाददाता के रूप में कार्यरत भी रहे. वो अमेरिका में भारतीय उच्चायुक्त के रूप में तैनात थे. कुलदीप नैयर एक जुझारू व्यक्ति थे, इसका पता इस बात से भी चलता है कि इमरजेंसी के दौरान वो प्रेस की आज़ादी के लिए संघर्ष करते हुए जेल गए. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के वक़्त उन्होनें भारत-पाक रिश्ते सुधारने में अहम भूमिका निभाई.
किताब का नाम – एक ज़िंदगी काफी नहीं.
मूल्य – 599 रुपए (पेपरबैक)
लेखक – कुलदीप नैयर
प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन
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