क्या है बोडो समझौता, जिसे सरकार की बड़ी कामयाबी के तौर पर देखा जा रहा है
वो समझौता, जिससे असम में बोडोलैंड विवाद सुलझ सकता है.
जगह- नई दिल्ली. तारीख- 27 जनवरी, 2020. क्या हुआ- भारत सरकार, असम सरकार और प्रतिबंधित उग्रवादी संगठन- नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड के बीच एक शांति समझौता हुआ. इसी के साथ असम और पूर्वोत्तर में बोडो उग्रवाद की समस्या से पूरी तरह निजात पाने के रास्ते खुल गए. गृहमंत्री अमित शाह का कहना है कि तकरीबन डेढ़ हज़ार बोडो उग्रवादी 30 जनवरी के रोज़ आत्मसमर्पण कर देंगे.
ये समझौता क्या है? इसकी ज़रूरत क्यों पड़ी? असम और पूर्वोत्तर के लिए इसके क्या मायने हैं? एक-एक करके बताते हैं.
बोडोलैंड विवाद क्या है?
बोडो जनजाति असम में सबसे बड़ा आदिवासी समूह है. बोडो असम की जनसंख्या का 5-6 फीसदी हैं. असम में चार ज़िले बोडो टेरिटोरियल एरिया डिस्ट्रिक्ट BTAD के तहत आते हैं- कोकराझार, बक्सा, उदलगुड़ी, चिरांग. यहां कई बोडो जनजातियां बसती हैं. 26 नवंबर, 2019 को छपी 'इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट बताती है कि बोडो लंबे समय से अलगाववादी मांगें उठाते रहे हैं. इसके लिए हिंसक विरोध का सहारा भी लिया गया. 1966-67 में अलग बोडो राज्य 'बोडोलैंड' की मांग उठाई गई. प्लेन ट्राइबल्स काउंसिल ऑफ असम (PTCA) के तहत. ये एक राजनीतिक संगठन था.
अवैध प्रवासियों को मुद्दा बनाकर 1979 में असम आंदोलन शुरू हुआ. 1985 तक चले इस आंदोलन का अंत तब हुआ, जब राजीव गांधी ने ऑल असम स्टूडेंट यूनियन (AASU) और असम सरकार को साथ बिठाकर एक असम अकॉर्ड पर दस्तखत कराए. असम आंदोलन के तहत असमिया संस्कृति और पहचान को सहेजने का वादा किया गया. बोडो गुटों की मांग भी संस्कृति और पहचान की रक्षा की ही थी.
Around 1500 cadres of NDFB(P), NDFB(RD) & NDFB(S) will be rehabilitated by GOI and Assam Govt.
A Special Development Package Rs. 1500 Crore will be given by the Union Government to undertake specific projects for the development of Bodo areas. pic.twitter.com/1d0cc0AtBN — Amit Shah (@AmitShah) January 27, 2020
असम अकॉर्ड को बोडो गुटों ने दो तरह से लिया. बोडो अपनी पहचान के प्रति और सचेत हो गए, क्योंकि अकॉर्ड असमिया पहचान की बात करता था. बोडो गुटों को अपनी मांगों को उठाने और मनवाने का तरीका भी नज़र आया- आंदोलन और विद्रोह. 1987 में ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन (ABSU) ने इस मांग को नए सिरे से उठाया. तब ABSU के नेता उपेंद्रनाथ ब्रह्मा ने नारा दिया था-
''डिवाइड असम फिफ्टी-फिफ्टी'' (असम को आधा-आधा बांटो)
बोडोलैंड के लिए उग्रवादी संगठन भी बने
अलग बोडोलैंड की मांग के लिए राजनीतिक संगठनों के साथ उग्रवादी संगठन भी बने. अक्टूबर, 1986 में रंजन दैमारी ने बोडो सिक्योरिटी फोर्स (BDSF) नाम से एक उग्रवादी संगठन बनाया. BDSF ने ही आगे चलकर अपना नाम नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (NDFB) किया. 1990 के दशक में बोडो उग्रवादियों से निपटने के लिए सेना को लगाया गया. इसने बोडो उग्रवादियों को असम छोड़कर भूटान जाने पर मजबूर कर दिया. लेकिन यहां कूटनीति काम आई और भारत की फौज ने रॉयल भूटान आर्मी को साथ ले लिया. 2000 के पहले दशक में दोनों सेनाओं ने NDFB के खिलाफ कई जॉइंट ऑपरेशन चलाए.
NDFB ने बम धमाके कराए
NDFB का नाम सुरक्षाबलों और आम लोगों पर हमलों, हत्याओं और फिरौती के कई मामलों में आया. अक्टूबर, 2008 में असम में NDFB के किए बम धमाकों में 90 लोगों की जान गई. इन्हीं धमाकों में जनवरी, 2019 में NDFB के 10 सदस्यों और रंजन दैमारी को दोषी पाया गया था. इन धमाकों के बाद NDFB दो गुटों में बंट गया था. एक गुट गोबिंदा बासुमातारी का, जिसे NDFB-P कहा गया. दूसरा गुट दैमारी का.
2009 में गोबिंदा के NDFB-P ने सरकार से बातचीत शुरू की. 2010 में दैमारी को बांग्लादेश में गिरफ्तार किया गया और भारत के हवाले कर दिया गया. 2013 में दैमारी को बेल पर रिहा किया गया. इसके बाद NDFB के दैमारी धड़े ने भी सरकार से बात शुरू की.
2012 में NDFB से एक और धड़ा अलग हुआ. NDFB-R से इंग्ती कठार सोंग्बिजित ने अलग होकर NDFB-S बना लिया. 2015 में सोंग्बिजित को हटाकर बी साओराइग्वारा को अध्यक्ष बनाया गया. NDFB-S फौज की कार्रवाई से बचने के लिए म्यांमार चला गया था. NDFB-S ने लंबे समय तक भारत सरकार से बातचीत का विरोध किया.NDFB के धड़े बंटते रहे, लेकिन हिंसा का क्रम बना रहा. 2012 में बोडो-मुस्लिम दंगों में सैकड़ों लोगों की जान गई और 5 लाख लोग बेघर हुए. दिसंबर, 2014 में बोडो अलगाववादी गुटों ने असम के कोकराझार और सोनितपुर में 30 से ज़्यादा लोगों को मार डाला.
नया साल अच्छी खबर लाया 24 नवंबर, 2019 को भारत सरकार ने NDFB पर प्रतिबंध 5 साल के लिए और बढ़ा दिया. इसके बाद नया साल अच्छी खबर लाया. 11 जनवरी को आखिरी बोडो उग्रवादी गुट NDFB-S ने सरकार के सामने समर्पण की घोषणा कर दी. गुट के करीब 50 लड़ाकों ने म्यांमार का अपना बेस छोड़ा और चीफ बी साओराइग्वारा के साथ भारत-म्यांमार सीमा के पास आत्मसमर्पण कर दिया. गुवाहाटी में औपचारिकताओं के बाद ये लोग नई दिल्ली के लिए निकल गए. 24 जनवरी को गुवाहाटी हाईकोर्ट की एक विशेष डिविज़न बेंच ने रंजन दैमारी को चार हफ्तों के लिए बेल पर रिहा कर दिया. 25 जनवरी को उन्हें जेल से सीधे गुवाहाटी के हवाईअड्डे ले जाया गया, जहां से उन्हें दिल्ली लाया गया. तभी से लग रहा था कि बोडो गुटों के साथ शांति समझौता होने ही वाला है. 27 जनवरी की तारीख भी तभी मालूम चल गई थी.About 4000 people died in the Bodo movement. This historic agreement will usher in a new dawn of peace, progress and prosperity in the state of Assam.
I congratulate CM @SarbanandSonwal for his pioneering efforts to make North-East the Ashta Lakshmi of PM Modi Ji’s vision. pic.twitter.com/ZoSBmxd3PQ — Amit Shah (@AmitShah) January 27, 2020
27 जनवरी को आखिर हुआ क्या?
समझौता हुआ. इस पर गृहमंत्री अमित शाह ने कहा,
''नौ संस्थानों ने साथ मिलकर एक एग्रीमेंट किया है. मैं मानता हूं कि बोडो क्षेत्र और असम के विकास का रास्ता प्रशस्त करने वाला एग्रीमेंट होने जा रहा है. इसके साथ असम के अंदर भी जो इरिटेशन था कि कभी न कभी असम का विभाजन होगा, आज असम अखंड रहकर, अपने साथियों को महत्व देकर, उनको भी विकास की धारा में शामिल कर रहा है. उनकी भाषा, उनकी संस्कृति और उनके अधिकारों को सुरक्षित करके, एक अखंड असम आज हर कोई फील कर रहा है. इसका मुझे बहुत आनंद है.''
अमित शाह ने इस छोटे से बयान में सारे की-वर्ड बोल दिए. उन्होंने बोडो गुटों को भरोसा दिलाया कि उनकी जायज़ मांगों को पूरा किया जाएगा. साथ ही उन्होंने असम को भी भरोसा दिलाया कि सूबे का विभाजन नहीं होगा. समझौते के वक्त गृहमंत्री अमित शाह, असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल, NDFB के चारों गुट और ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन (ABSU) के लोग मौजूद थे. केंद्र और असम में गृह मंत्रालय के सचिव भी आए हुए थे.
उग्रवादियों का क्या होगा?
ये बात भी अमित शाह से पूछी गई. उन्होंने जवाब दिया,
''मिलिटेंट शब्द का प्रयोग ठीक नहीं है, आज से कोई मिलिटेंट नहीं है. 1550 हथियारी कैडर (सशस्त्र कैडर) हैं और वही कैडर सरेंडर कर चुके हैं. इस एग्रीमेंट के साइन होने के साथ ही. अब कोई मिलिटेंट नहीं है, सब हमारे भाई हैं. लीगल प्रक्रिया जो तय हुई है, इसके साथ सब आगे बढ़ेंगे.''
शांति समझौतों में अक्सर बीच का रास्ता अपनाया जाता है. तो ये कहना ठीक होगा कि सरकार उग्रवादियों पर थोड़ी नरमी बरतने के बारे में सोच सकती है. 27 जनवरी को हुआ समझौता बोडो गुटों के साथ हुआ तीसरा समझौता है. पहला 1993 में हुआ था. तब बोडोलैंड ऑटोनॉमस काउंसिल बनाए गए थे, लेकिन संघर्ष जारी रहा. फरवरी 2003 में केंद्र, असम सरकार और बोडो लिबरेशन टाइगर्स के बीच एक समझौता हुआ, जिसके बाद बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल बने. समझौते की बारीक बातें बाहर आने में फिलहाल वक्त है. लेकिन संभावना है कि स्पोर्ट्स यूनिवर्सिटी और जॉब ओरिएंटेड पढ़ाई कराने वाले संस्थान बोडो इलाकों में खोले जा सकते हैं. कुल मिलाकर, ये अच्छी खबर है. सभी के लिए.
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