करोड़ों के घाटे में ब्लिंकिट, इंस्टामार्ट जैसे ऐप्स, फिर भी निवेश के लिए इतना 'पइसा' कहां से आता है?
Quick Commerce Industry बीते दो साल में लगभग तीन गुना हो गई है. Blinkit, Instamart और Dunzo जैसे ऐप्स करोड़ों के घाटे में हैं, फिर भी लगातार निवेश बढ़ा रही हैं. इसका कारण क्या है?
याद है वो दिन, जब आधा संडे परचून की दुकान से चीनी-चाय पत्ती और सब्जी वाले से धनिया-पुदीना लाने में निकल जाता था? घर पर एक लिस्ट बनती थी. मम्मी बोलती थीं, बउआ लिखता था और चुपके से ऐड कर देता था क्रीम वाले बिस्कुट. लेकिन सोसायटी और बाज़ार, ससुर ऐसे बदल गए हैं कि अब सुविधा बहुत हो गई है. लेकिन थ्रिल नहीं रहा. टियर-1 और टियर-2 शहरों में लोगों में कैश रखने की आदत कम हुई है, UPI का चलन बढ़ा है. इस दौर में एक और चलन तेज़ी से बढ़ा है- इंस्टेंट डिलीवरी ऐप्स का. परचून की दुकानों और मंडी वाली ठीक-ठाक भीड़ इन ऐप्स पर डायवर्ट हुई है और घर बैठे सामान मंगा रही है.
हमको-आपको लग सकता है कि ‘गज़ब बिज़नेस मॉडल है गुरू, शुरू करने वाले की बलैया ले लें’. लेकिन आप शर्तिया चौंकेंगे, अगर हम बताएं कि Instamart, Blinkit, Dunzo – ये सभी बड़े Quick Commerce ऐप्स करोड़ों के घाटे में चल रहे हैं. फिर भी इन कंपनियों में बड़े-बड़े निवेशक पैसा झोंके जा रहे हैं. ब्लिंकिट का उदाहरण लीजिए. 2022 में ज़ोमैटो ने इसे ख़रीदा. तब ये एक हज़ार करोड़ रुपये के नुकसान में थी और अब भी नुकसान में ही है. एक और उदाहरण है Dunzo का, 2022-23 में इसको 1800 करोड़ का घाटा हुआ, लेकिन इसके बावजूद 2023 में Reliance Retail, Google India जैसे निवेशकों ने इसमें 2000 करोड़ का निवेश किया. क्यों?
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आखिर घाटे में होते हुए भी इन ऐप्स की इतनी ग्रोथ क्यों हो रही है? या यूं कहें कि ग्रोथ होने के बाद भी ये घाटे में क्यों दिख रही हैं? ये क्विक कॉमर्स इंडस्ट्री कैसे काम करती है? और इसका Revenue Model क्या है, जो इतनी बड़ी-बड़ी कंपनियों को आकर्षित करता है?
Quick Commerce Industry में बूम क्यों हैं?कोई इंडस्ट्री तेज़ी से तरक्की कर जाए, तो सबके मन में सवाल होता है- कैसे हुआ? किसी भी इंडस्ट्री को बूम करने के लिए तीन odds को मैनेज करना होता है. डिमांड, इन्फ्रास्ट्रक्चर, और कंज्यूमर बिहेवियर. ये तीन odds आपके फेवर में आए, तो बिज़नेस की चांदी है. तीनों को क्विक कॉमर्स इंडस्ट्री के पर्सपेक्टिव से समझते हैं.
पहला- डिमांड. माने क्या वाकई इस इंडस्ट्री की ज़रूरत है? अगर आप भारत के किसी बड़े शहर में रहते हैं, तो आपको पता है कि लोगों के पास समय है कम और कन्वीनिएंस सबको चाहिए ज़्यादा! तो जो सर्विस समय बचा सकती है और मेहनत कम कर सकती है, लोग उस पर पैसा खर्च करने में हिचकिचाते नहीं हैं. यही काम क्विक कॉमर्स Apps करते हैं. सोचिए, आप फ्रिज खोलते हैं और देखते हैं कि दूध ख़त्म... चाय पीने का मूड ख़राब! या फिर नहाने गए और शैंपू ख़त्म… नहाने का मूड ख़राब! तब ये डेंजो, इंस्टामार्ट, या ब्लिंकिट जैसे ऐप्स 10 मिनट में सामान लेकर हाज़िर हो जाते हैं. समय, ऊर्जा और मूड..तीनों बच गए. तो, इस इंडस्ट्री में डिमांड की कोई कमी नहीं. डिमांड के मामले में 10 ऑन 10.
दूसरा है, इन्फ्रास्ट्रक्चर. माने इंडस्ट्री सेट अप करने के लिए मूलभूत सुविधाएं. जैसे कोई फैक्ट्री लगाने के लिए बिजली और सड़क इन्फ्रास्ट्रक्चर है. इस इंडस्ट्री का क्या हाल है? एक अनुमान के मुताबिक़, भारत में क़रीब 70 से 80 करोड़ लोगों तक इंटरनेट की रीच है. और 80% डिजिटल ट्रांजैक्शंस UPI के जरिए होते हैं. माने ऐप चलाने और उसपर पेमेंट करने का सिस्टम भी एक फूलप्रूफ है. इसलिए इन्फ्रास्ट्रक्चर का हाल भी फुल ऑन है.
अब बात तीसरे लेकिन सबसे ज़रूरी पहलू की- कंज़्यूमर बिहेवियर. माने क्या लोग इस तरीके को अपनाने के लिए तैयार हैं? साल 2020. COVID-19 आया. लोग घरों में कैद हो गए. तमाम आदतें बदलीं, जिनमें शॉपिंग हैबिट्स भी शामिल थीं. लोगों को घर बैठे-बैठे ऑनलाइन शॉपिंग की आदत लग गई. और धीरे-धीरे ये आदत रुटीन बन गई. इसीलिए टियर-1 और टियर-2 शहरों में डिलिवरी ऐप्स का ट्रेंड तेज़ी से बढ़ा है. द मिंट की रिपोर्ट कहती है कि पिछले दो साल में ये इंडस्ट्री लगभग तीन गुना हो गई है.
ऐसे सभी odds इस इंडस्ट्री के पक्ष में अलाइन हो गए और इस पूरे खेल का सबसे बड़ा खिलाड़ी बना ब्लिंकिट. जिसकी देश की क्विक कॉमर्स मार्केट में 40- 45 फीसदी हिस्सेदारी है. माने फिलहाल blinkit भीखू म्हात्रे है. दूसरे नंबर पर है इंस्टामार्ट, 25% मार्केट शेयर के साथ. ये तो हुई इंडस्ट्री के बढ़ने की वजह. अब बात करते हैं इसके वर्किंग मॉडल की.
Quick Commerce Working Modelशुरुआत होती है डिमांड प्रेडिक्शन से. एक कंपनी के लिए ये सबसे ज़रूरी चीज़ है कि वो पहले से जान ले कि किसी इलाके में किस चीज़ की डिमांड कितनी होगी. इन सवालों का जवाब डेटा के सहारे ढूंढे जाते हैं. जैसे कस्टमर की पसंद-नापसंद क्या है? लोग चाय पसंद कर रहे हैं या कॉफी? और चाय में भी कौन सा ब्रांड. साथ ही लोगों की डिमांड में मौसम का क्या रोल रहेगा. गर्मी में ice cream की मांग बढ़ जाती है, जबकि सर्दियों में चाय और कॉफी का चलन ज्यादा होता है. माने ऐसी डिटेलिंग्स.
इसके साथ ही आर्डर पैटर्न को समझना भी जरूरी होता है. लोग किस वक्त सबसे ज्यादा ऑर्डर करते हैं? क्या आप भी दोपहर में ज़्यादा चाय-कॉफी मंगवाते हैं, या शाम का इंतजार करते हैं? इस सबकी जानकारी के बाद कंपनी समझ पाती है कि किस प्रोडक्ट को, कितनी मात्रा में वेयर हाउस में रखना है और अपने डिलीवरी पार्टनर्स को कैसे और कहां-कहां तैनात करना है. ताकि हर ऑर्डर समय पर पहुंच सके. इसके बाद बारी आती है इस प्रोसेस को अमल में लाने की, यानी लॉजिस्टिक्स की. इसके लिए कंपनियां अलग-अलग मॉडल्स का सहारा लेती हैं. ‘जहां की रही ज़रूरत जैसी, वाके लिए लॉजिस्टिक्स वैसी’ यानि जरूरत के मुताबिक प्लानिंग. इसके लिए कई मॉडल हैं.
पहला - इन्वेंटरी मॉडल. इन्वेंटरी मॉडल का इस्तेमाल इसलिए किया जाता है, जिससे ये सुनिश्चित किया जा सके कि जहां डिमांड ज्यादा है, वहां पहले से ही सामान मौजूद रहे. पहले इसके स्ट्रक्चर को समझ लेते हैं. मान लीजिये, Noida में ABC कंपनी का एक बड़ा वेयरहाउस है. यहां कंपनी अपने सप्लायर्स से सामान मंगवाती है और उसे स्टोर करती है. स्टोरेज के अलावा ये एक बड़े डिस्ट्रीब्यूशन सेंटर की तरह भी काम करता है. यहां से सामान छोटे-छोटे स्टोर्स में भेजा जाता है, जिन्हें डार्क स्टोर्स कहते हैं.
डार्क स्टोर्स को समझें, जैसे कि आपके घर के नजदीक एक छोटा सा गोदाम. या कंपनी का बेस. जो हर 2-3 किलोमीटर पर होते हैं और यहां पर 1000 से 2000 का स्टॉक रहता है. इनका चयन भी बड़ी सावधानी से होता है, ताकि हर इलाके की डिमांड कम से कम समय में पूरी हो सके. अब जैसे ही आप ऐप खोलते हैं, ऐप आपकी लोकेशन ट्रैक करता है और आपको सबसे नजदीकी डार्क स्टोर से कनेक्ट कर देता है. इस डार्क स्टोर में क्या मौजूद है, इसकी ट्रैकिंग OMS यानी Order Management System सिस्टम के जरिए होता है. यानि जो भी चीजें उस वक्त स्टोर में मौजूद होती हैं, वही आपको ऐप पर दिखाई देंगी.
जैसे ही आप ऑर्डर करते हैं, डार्क स्टोर का डिलीवरी पार्टनर तुरंत आंधी जैसे आपका ऑर्डर लेकर निकल पड़ता है. ‘हाल लगाओ हाल फायदा, देर लगाओ का फायदा.’ अब वेयरहाउस और डार्क स्टोर्स कंपनी खुद भी चला सकती है, या फिर किसी व्यक्ति को फ्रैंचाइज़ दे सकती है. फ्रैंचाइज़ी वाले को उसके डार्क स्टोर से हुई बिक्री का एक हिस्सा कमीशन के रूप में दिया जाता है. इससे कंपनी का खुद का खर्च भी कम होता है और लोगों को रोजगार भी मिलता है. बड़े शहरों जैसे दिल्ली, नोएडा, और मुंबई में ये मॉडल सफल रहता है, क्योंकि वहां डिमांड ज़्यादा होती है. लेकिन जब बात आती है टियर-2 शहरों की, वहां इस मॉडल का इस्तेमाल नहीं किया जाता. क्योंकि डिमांड कम होती है, इसलिए वहां कंपनियां दूसरे मॉडल्स अपनाती हैं. ताकि खर्च किफायती रहे.
दूसरा- हाइपर लोकल मॉडल. इसमें कंपनियां खुद सामान स्टॉक करने या गोदाम में जमा करने के बजाय एक प्लेटफॉर्म के तौर पर काम करती हैं. माने खरीदार और दुकानदार के बीच एक पुल की तरह काम करना. इसे ऐसे समझिए जैसे स्विगी खुद रेस्ट्रां नहीं चलाता, बल्कि आपको उनसे कनेक्ट कराता है और बदले में कुछ प्लेटफॉर्म फीस चार्ज करता है. तो कैसे काम करता है ये सिस्टम? जैसे ही आप अपना ऑर्डर देते हैं, ये प्लेटफॉर्म आपके अपने नज़दीकी सप्लायर यानी दुकानदार को एक रिक्वेस्ट भेजता है. दुकानदार उस सामान को पैक करता है, और डिलीवरी पार्टनर उसे आपके दरवाजे तक पहुंचाने के लिए निकल पड़ता है. इस मॉडल से कंपनी का गोदाम में स्टॉक रखने का खर्च बच जाता है. यानी उन इलाकों में जहां डिमांड कम होती है, वहां कंपनी को निवेश भी कम करना पड़ता है. पर कुछ चुनौतियां भी हैं.
जैसे, निर्भरता. इस मॉडल में कंपनी पूरी तरह से दुकानदार पर निर्भर हो जाती है. क्वालिटी. कभी-कभी ऐसा हो सकता है कि दुकानदार पुराना या एक्सपायरी माल दे दे, जिससे कस्टमर का अनुभव बिगड़ सकता है. इस मॉडल से कंपनियां कमाई कैसे करती हैं? इसके लिए प्लेटफॉर्म एक छोटी फीस चार्ज करता है, जो हर ऑर्डर के साथ कस्टमर या दुकानदार से लिया जाता है. यानी जितने ज्यादा ऑर्डर, उतनी ज्यादा कमाई. ये तो हुई मॉडल के वर्किंग की बात. अब समझते हैं. इस इंडस्ट्री में कपनियां कितना पैसे कमाती हैं और कैसे?
Revenue Modelइसके लिए कुछ टेक्निकल टर्म्स से परिचित होना पड़ेगा. ग्रॉस ऑर्डर वैल्यू (GOV). पूरे साल में किसी ऐप पर हुए सारे ऑर्डर्स का कुल दाम जोड़ दिया जाए, तो उसे ग्रॉस ऑर्डर वैल्यू (GOV) कहते हैं. उदाहरण के तौर पर, अगर सालभर में 10 ऑर्डर्स हुए और उनका कुल मूल्य 1000 रुपये था, तो ये 1000 रुपये आपका GOV कहलाएगा. दूसरा शब्द है एवरेज ऑर्डर वैल्यू (AOV), माने औसतन एक ऑर्डर कितने का था? इसके लिए GOV को कुल ऑर्डर्स की संख्या से भाग दिया जाता है. उदाहरण के तौर पर, अगर 1000 रुपये का GOV है और कुल 10 ऑर्डर्स हैं, तो 1000 / 10 = 100 रुपये एवरेज ऑर्डर वैल्यू (AOV) है. यानी औसतन हर ऑर्डर 100 रुपये का था.
एक और टर्म है. मान लीजिए, कंपनी को GOV का एक हिस्सा मिलता है, जो उनकी कमीशन और ऐड रेवेन्यू से आता है. इसे Take Rate कहते हैं. यहां एक बात ध्यान रहे. ये कंपनी का प्रॉफिट नहीं है, कमाई है. प्रॉफिट तो कमाई से खर्च को घटने के बाद निकलता है. इस Take Rate में कमीशन के साथ Ad Monetisation और डिलीवरी चार्ज शामिल है. माने अगर टेक रेट 10% है, तो कमाई 1000 का 10% यानी 100 रूपये हुई. इस इंडस्ट्री का रेवेन्यू मॉडल बस इसी Take Rate पर टिका है. अगर GOV, AOV और Take Rate ज्यादा हो और खर्चे कम, तो बिज़नेस सफल. कैसे? इसे टॉप 2 बड़े प्लेयर्स के आंकड़ों से समझते हैं. इंस्टमार्ट और ब्लिंकिट.
Blinkit2022 में जोमाटो ने इस कंपनी को खरीदा और क्विक कॉमर्स की दुनिया में कदम रखा. यहां कदम रखना आसान था, लेकिन असली चुनौती थी इस तेज़ी से बदलते बाज़ार में टिकना और बढ़ना. वित्तीय वर्ष 2022-23 में ब्लिंकिट की क्या स्थिति थी?
GOV (ग्रॉस ऑर्डर वैल्यू) - कंपनी ने पूरे साल में कुल 6450 करोड़ रुपये का ऑर्डर हासिल किया.
एवरेज ऑर्डर वैल्यू (AOV): हर ऑर्डर औसतन 541 रुपये का था.
टेक रेट: कंपनी का टेक रेट 16.5% था, जिससे कंपनी को 1000 करोड़ रुपये की कमाई हुई.
लेकिन इस कमाई के बावजूद कंपनी को भारी नुकसान उठाना पड़ा. स्टोर्स का खर्च और डिलीवरी एजेंट्स को भुगतान मिलाकर जैसे कई खर्च मिलाकर कमाई से दोगुना हो गए और नतीजा हुआ 1000 करोड़ का नुकसान. जोमाटो और कंपनी के बाकी इन्वेस्टर्स ने आगे बढ़कर निवेश किया. ये रणनीति रंग लाने लगी.
डार्क स्टोर्स में विस्तार: एक साल में डार्क स्टोर्स की संख्या 383 से बढ़कर 639 हो गई.
बढ़ता कस्टमर बेस: जहां पिछले साल 12 करोड़ ऑर्डर्स थे, वहीं 2023-24 में ये संख्या बढ़कर 20 करोड़ पार कर गई. ऑर्डर्स और कस्टमर्स बढ़ने से GOV लगभग दोगुना हो गया. इस बढ़त का फायदा कंपनी को दिखा. ज्यादा लोग ऐप का इस्तेमाल करेंगे, तो विज्ञापनों से भी कमाई बढ़ी, साथ ही ज्यादा डिमांड की वजह से डिलीवरी चार्जेज भी बढ़े. इससे Take Rate में सुधार आया. Take Rate 16.5% से बढ़कर 18.5% हो गया, जो भारत में किसी भी क्विक कॉमर्स कंपनी के लिए अब तक सबसे ज्यादा टेक रेट है.
नतीजा 2023-24 में कमाई का आंकड़ा 2300 करोड़ पार कर गया. लेकिन नए स्टोर्स के खुलने की वजह से खर्च भी बढ़ा. कंपनी को 384 करोड़ का नुकसान हुआ. हालांकि ये पिछले साल के मुकाबले काफी कम था. और अब अप्रैल से सितम्बर 2024 के बीच कंपनी ने अपना नुकसान सिर्फ 11 करोड़ तक सीमित कर लिया. ये ट्रेंड बताता है कि कंपनी जल्द ही नो प्रॉफिट, नो लॉस या मुनाफे की ओर बढ़ सकती है. ब्लिंकिट का ये मॉडल बताता है, कि क्विक कॉमर्स इंडस्ट्री में सक्सेस के लिए, मार्केट में पकड़ बनाना ज़रूरी है, जिसके लिए बड़े निवेश की ज़रूरत है. और इसके साथ ही स्पीड और क्वालिटी पर ध्यान देना जरूरी है. तभी Take Rate बढ़ेगा, और लॉस कम होगा.
Instamartइंस्टामार्ट, ब्लिंकिट के मुकाबले कभी काफी पीछे दिखाई दे रहा है. जैसे इसके लिए भी 2022-23 और 2023-24 के आंकड़ों को देखते हैं. साल 2022-23 में, कंपनी ने पूरे साल में करीब 510 करोड़ रुपये का ऑर्डर हासिल किया. जिसकी एवरेज आर्डर वैल्यू 398 रूपये थी. Take Rate करीब 10.6 % के करीब था. इस साल कंपनी ने 547 करोड़ की कमाई की. 2023-24 में कंपनी ने बेहतर परफॉर्म किया. आर्डर की संख्या साढ़े 12 करोड़ से बढ़ कर साढ़े 17 करोड़ पहुंची. हर ऑर्डर का औसत भी बढ़ा. 398 से बढ़कर 460 हुआ. कमाई 510 करोड़ से बढ़कर 1100 करोड़ पहुंची. लेकिन साल 2023-24 में भी कंपनी लॉस में रही. जो पिछले साल के मुकाबले कम हुआ.
लेकिन अगर इस लॉस की तुलना ब्लिंकिट से करें, तो कुल जमा ये निकलता है कि जितना नुकसान ब्लिंकिट को साल 2023-24 में हुआ, करीब उतना ही लॉस इंस्टमार्ट को एक क्वॉर्टर में हुआ- अप्रैल 2023 से लेकर जून 2023 में. दोनों सबसे बड़े क्विक कॉमर्स इंडस्ट्री के प्लेयर्स के आंकड़े देखने के बाद एक बात तो साफ़ जाहिर होती है. कि ये इंडस्ट्री पेशेंस का गेम है. पर डिमांड और इंटरनेट रीच ऐसी है कि बड़ी बड़ी कंपनियां इनवेस्ट कर रही हैं. इस सब के बाद भी कुछ कंपनियों के डूब जाने का ख़तरा फिर भी रहेगा ही. बिज़नेस का, और जीवन का भी यही नियम है- सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट.
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