कौन हैं राजा सुहेलदेव, जिन्हें भाजपा से बसपा तक सब अपना बनाना चाहते हैं
ये पासी जाति के राजा बताए जाते हैं, जिन्होंने 11वीं सदी में मुस्लिम आक्रमणकारियों को हराया था.
तारीख 24 फरवरी 2016. जगह उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले का गुल्लावीर इलाका. देश की सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह एक प्रतिमा का अनावरण कर रहे हैं. प्रतिमा 11वीं सदी के राजा सुहेलदेव की है. चूंकि मंच राजनीतिक है, तो कुछ राजनीतिक बातें भी होनी हैं. शाह ने रवायत निभाते हुए कहा, 'कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी साफ करें कि क्या वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देश-विरोधी नारों का विरोध करते हैं या नहीं? क्या फ्रीडम ऑफ स्पीच के नाम पर किसी को 'अफज़ल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल ज़िंदा हैं' जैसे नारे लगाने की इजाज़त दी जा सकती है?'
इस भाषण के साथ ही प्रतिमा का अनावरण भी हो गया. साथ में 'सरदार पटेल: एक जननायक' नाम की बुकलेट भी बांट दी गई. मंच पर चढ़ने की होड़ में मंच भी टूटा, जिससे कार्यकर्ताओं को हल्की-फुल्की चोटें आईं. पर इस इवेंट का क्रक्स ये था कि देशभर का मीडिया इसे बीजेपी की तरफ से उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की शुरुआत बता रहा था, जो ठीक एक साल बाद होना था.
सुहेलदेव की प्रतिमा के अनावरण के बाद अमित शाह का ट्वीट:
आज उत्तरप्रदेश के बहराइच में मुझे राजा सुहेलदेव की मूर्ति का अनावरण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ | pic.twitter.com/khfvkkqVtZ
— Amit Shah (@AmitShah) February 24, 2016
पर असल सवाल तो ये है कि राजा सुहेलदेव कौन हैं, जिन्हें भगवान राम और महाराणा प्रताप के प्रेम में पगी पार्टी इतनी निष्ठा से सम्मानित कर रही है.
किसी सवाल का जवाब पाने की पहली सीढ़ी है पूछना. हमने बहुत सी जगह सवाल पूछे.
- हमने 17वीं शताब्दी के मिरात-ए-मसूदी से पूछा, तो उसने बताया कि सुहेलदेव 11वीं सदी में श्रावस्ती के राजा थे, जिन्होंने महमूद गजनवी के भांजे गाज़ी सैयद सालार मसूद को युद्ध में हराया था. - हमने 1940 में स्कूल टीचर रहे गुरु सहाय दीक्षित द्विदीन की कविता 'श्री सुहेल बवानी' से पूछा, तो उसने बताया कि सुहेलदेव जैन राजा थे, जिन्होंने हिंदू संस्कृति की रक्षा की थी. - हमने 1950 के कांग्रेसी नेताओं से पूछा, तो उन्होंने बताया कि सुहेलदेव पासी समुदाय से आने वाले राजा थे, जिन्हें उतना सम्मान नहीं मिला, जितने के वो हकदार थे. - हमने आर्य समाज से पूछा, तो उसने बताया कि सुहेलदेव एक हिंदू राजा थे, जिन्होंने मुस्लिम आक्रांताओं को युद्ध में मार गिराया था. - हमने RSS से पूछा, तो उसने बताया कि सुहेलदेव संतभक्त राजा थे, जो गोरक्षा और हिंदू धर्म की रक्षा को लेकर बेहद तत्पर रहते थे. - हमने ब्रिटिश गजटियर से पूछा, तो उसने बताया कि सुहेलदेव राजपूत राजा थे, जिन्होंने 21 राजाओं का संघ बनाकर मुस्लिम बादशाहों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. - हमने देश के मौजूदा निज़ाम से पूछा, तो उन्होंने बिना नाम लिए कहा कि पुराने ज़माने में बादशाह अपनी फौज के आगे गायें रख देते थे और इसी उलझन में राजा हार जाते थे. - आखिर में हमने राजा सुहेलदेव के नाम पर अपनी पार्टी का नाम रखने वाले ओम प्रकाश राजभर से पूछा, तो वो बमुश्किल इतना ही बता पाए कि वो अपना इस्तीफा जेब में रखकर चलते हैं और बीजेपी गठबंधन धर्म नहीं निभा रही है.
राजा सुहेलदेव के नाम पर अपनी पार्टी 'सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी' बनाने वाले ओम प्रकाश राजभर.
उदार नज़रिए से देखा जाए, तो इतनी विविधता भरी जानकारी गढ़ने में गलती किसी की नहीं है. सुहेलदेव 11वीं सदी के राजा बताए जाते हैं. उस समय के अपेक्षाकृत छोटे राजक्षेत्र वाले राजाओं के बारे में सटीक जानकारी होना वाकई मुश्किल है. पर दिक्कत ये है कि जातीय विविधता वाले उत्तर प्रदेश में राजा सुहेलदेव के इस्तेमाल को लेकर किसी ने उदारता नहीं बरती. राजनीतिक पार्टियों से लेकर उपद्रवी संगठनों तक कोई ऐसा नहीं बचा, जिसने राजा सुहेलदेव का चंद बरदाई बनने की कोशिश न की हो.
सालार मसूद के साथ शुरू होती है सुहेलदेव की कहानी
17वीं सदी में मुगल राजा जहांगीर के दौर में अब्दुर रहमान चिश्ती नाम के एक लेखक हुए. 1620 के दशक में चिश्ती ने फारसी भाषा में एक दस्तावेज लिखा 'मिरात-इ-मसूदी'. हिंदी में इसका मतलब 'मसूद का आइना' होता है. इस दस्तावेज को गाज़ी सैयद सालार मसूद की बायोग्राफी बताया जाता है. मिरात-इ-मसूदी के मुताबिक मसूद महमूद गजनवी का भांजा था, जो 16 की उम्र में अपने पिता गाज़ी सैयद सालार साहू के साथ भारत पर हमला करने आया था. अपने पिता के साथ उसने इंडस नदी पार करके मुल्तान, दिल्ली, मेरठ और सतरिख (बाराबंकी) तक जीत दर्ज की.
अज़हर अब्बास की पेंटिंग, जिसमें महमूद गज़नवी को सोमनाथ मंदिर में तोड़-फोड़ करते दिखाया गया है.
सतरिख में मसूद को न जाने क्या भाया कि उसने यहां टिकने का फैसला किया. टिकने के लिए उसे आसपास के हिंदू राजाओं से सुरक्षा भी चाहिए थी. तो उसने अपने साथियों को आसपास के राजाओं को ठिकाने लगाने के लिए भेजा. इनमें से एक खेमे का खुद मसूद का पिता सालार साहू नेतृत्व कर रहा था. बहराइच और उसके आसपास के इलाकों के राजाओं ने मसूद के साथियों से युद्ध किया, लेकिन वो सालार साहू से हार गए. वो अलग बात है कि हार के बावजूद वो झुकने को तैयार नहीं थे. ऐसे में छिटपुट लड़ाइयां चलती रहीं.
फिर 1033 ई. में खुद सालार मसूद अपनी ताकत परखने बहराइच आया. उसका विजय रथ तब तक बढ़ता रहा, जब तक उसके रास्ते में राजा सुहेलदेव नहीं आए. सुहेलदेव के साथ युद्ध में मसूद बुरी तरह ज़ख्मी हो गया और फिर इन्हीं ज़ख्मों की वजह से उसकी मौत हो गई. उसने मरने से पहले ही अपने साथियों को बहराइच की वो जगह बताई थी, जहां उसकी दफ्न होने की ख्वाहिश थी. उसके साथियों ने उससे किया वादा निभाया और उसे बहराइच में दफना दिया गया. कुछ सालों में वो कब्र मज़ार में और फिर दरगाह में तब्दील हो गई.
आज इस दरगाह की सूरत कुछ यूं दिखाई देती है
ये 'मिरात-इ-मसूदी' ही राजा सुहेलदेव का पहला पुख्ता लिखित ज़िक्र है. इस दस्तावेज में उन्हें श्रावस्ती के राजा मोरध्वज का बड़ा बेटा बताया गया है. लेकिन पूरे लिखे में अलग-अलग जगहों पर उनका अलग-अलग नाम बताया गया है. मसलन, सकरदेव, सुहीरध्वज, सुह्रददेव, सहरदेव या सुहिलदेव.
ज़ुबानी स्मृतियों में सुहेलदेव
किताबों से इतिहास पढ़ने वाले लोगों को शायद सुहेलदेव की इस कहानी पर ऐतबार न हो. लेकिन इतिहास सिर्फ किताबों में दर्ज नहीं होता है. लोक का भी अपना एक इतिहास होता है, जो एक मुंह से दूसरे मुंह तक पहुंचता है. राजा सुहेलदेव इसी इतिहास के नायक हैं.
किताबी इतिहास में यकीन रखने वाले पहला सवाल यही उठाते हैं कि अगर 11वीं सदी के किसी राजा के बारे में पहली बार उसकी मौत के 6 सदी बाद कुछ लिखा जा रहा है, जो उस जानकारी पर कितना यकीन किया जा सकता है. इतिहासकार शाहिद अमीन अपनी किताब 'Conquest and Community: The Afterlife of Warrior Saint Ghazi Miyan' में यही तर्क मज़बूती से रखते हैं. हालांकि, उनकी आपत्ति के मूल में सुहेलदेव कम और सालार मसूद ज़्यादा है.
शाहिद अमीन की किताब
शाहिद लिखते हैं, 'मिरात-ए-मसूदी रचने वाले अब्दुर रहमान के मुताबिक सालार मसूद पर लिखी गई उनकी कहानी मुल्ला महमूद गज़नवी की 'तवारिख' पर आधारित है. तवारिख के तथ्यों को सिर्फ मसूद के लिए प्रमाणित किया गया, क्योंकि अब्दुर रहमान के मुताबिक सालार मसूद उनके ख्वाब में आया था और उसने अपने बारे में लिखी गईं बातों को इकट्ठा करने के लिए कहा था.' शाहिद के मुताबिक 'मिरात...' किसी ऐतिहासिक दस्तावेज के बजाय एक सूफी संत की रचनात्मकता का उत्पाद है.
इतिहास की एक व्याख्या किसी दूसरी व्याख्या पर धारणा का ठप्पा लगा सकती है. पर सालार मसूद के मामले में इसकी गुंजाइश कम है, क्योंकि 'मिरात...' के तथ्यों और महमूद गज़नवी पर लिखी दूसरी सामग्री में काफी अंतर है. 'मिरात...' में सालार मसूद की मां का नाम Sitr-i-Mualla बताया गया है. 'मिरात...' के अलावा गज़नवी की इस नाम की बहन का कहीं कोई ज़िक्र नहीं मिलता. न तो गज़नवी की फौज में सालार साहू (सालार मसूद का पिता) नाम का कोई सेनापति था और न सालार मसूद नाम का गजनवी का कोई भांजा बताया जाता है.
दरगाह के अंदर की एक तस्वीर
'मिरात...' एक और मामले में कम भरोसेमंद साबित होती है कि इसमें सालार मसूद के बारे में बारीक जानकारियां नहीं हैं. मसलन, दस्तावेज बताता है कि जब गज़नवी ने सोमनाथ पर आक्रमण किया था, तब सालार मसूद उसके साथ था. लेकिन सालार मसूद ने वहां क्या किया, इसका कोई खास ज़िक्र नहीं है.
साथ ही, 17वीं सदी के दूसरे साहित्यिक और ऐतिहासिक कामों में 'तवारिख' का कोई और ज़िक्र नहीं मिलता. ऐसे में मुमकिन है कि अब्दुर रहमान ने अपने काम को प्रामाणिक दिखाने के लिए तवारिख को खुद से गढ़ा हो. बताते हैं कि अर्जेंटीना के नॉवेलिस्ट जॉर्ज लुइस बोर्ग भी अपनी कहानियों में इस तरह के प्रयोग करते थे. हालांकि, ये सभी तर्क सालार मसूद की प्रामाणिकता को कटघरे में खड़ा करते हैं, राजा सुहेलदेव को नहीं. पर इनमें से एक के बिना दूसरे की कहानी पूरी नहीं होती.
जॉर्ज लुइस बोर्ग
तो क्या सुहेलदेव के बारे में बाकी तथ्य मौजूद हैं
सुहेलदेव के बारे में और जानने के लिए हमने प्रो. बद्री नारायण से बात की, जिन्होंने Fascinating Hindutva: Saffron Politics and Dalit Mobilisation लिखी है. 'सुहेलदेव कौन थे' के सवाल पर प्रोफेसर एक वाक्य में जवाब देते हैं कि वो 'भर' लोगों के नायक थे, जिनका बहराइच में मंदिर है. प्रोफेसर ने अपनी किताब में बताया है कि कैसे पासी और राजभर सैकड़ों बरसों से सुहेलदेव की विरासत पर दावा ठोंकते आ रहे हैं.
प्रो. बद्री नारायण की किताब
हिंदू धर्म में सदियों से जाति-आधारित शोषण हुआ है. ऐसे में ये हैरानी सहज ही हो सकती है कि एक कथित पिछड़ी जाति से आने वाला कोई व्यक्ति क्या कभी राजा बन पाया होगा. प्रोफेसर बताते हैं, 'ऐसा रहा है. पासी राजा होते थे. असल में उस समय जो समुदाय लाठी से मज़बूत होते थे, वो ताकत के बूते अपना राज्य स्थापित करने में कामयाब हो जाते थे.'
सुहेलदेव के संदर्भ में ये तर्क गले से उतर सकता है, क्योंकि इनका राज्य बहुत बड़े क्षेत्र में नहीं था. जहां तक पासी और भर समुदाय के सक्षम होने का सवाल है, तो राजाओं की सेना में ये अच्छी-खासी तादाद में होते थे. युद्ध जिताने और उससे भी महत्वपूर्ण, युद्ध लड़ने में राजा काफी हद तक इन पर आश्रित रहते थे. वो अलग बात है कि कथित ऊंची जातियों से ताल्लुक रखने वाले राजाओं में कभी आश्रित होने वाला भाव आता नहीं था.
राजा सुहेलदेव की एक प्रतिमा
मौजूदा वक्त की बात करें, तो पूर्वी यूपी में करीब 18% राजभर हैं, जिनमें से अधिकतर मज़दूर हैं. यूपी में राजभरों के करीब 2.5% वोट हैं और ये बहराइच से बनारस तक के 15 जिलों की 60 सीटों पर चुनाव प्रभावित कर सकते हैं. राजभर यूपी की उन 17 अति पिछड़ी जातियों में से हैं, जो अनुसूचित जाति का दर्जा चाहते हैं. कुल दलितों में इनकी 16% हिस्सेदारी है.
बाकी जहां तक सुहेलदेव की जाति का सवाल है, तो अब तक कई जाति समूह सुहेलदेव पर दावा जता चुके हैं. 'मिरात...' में सुहेलदेव को 'भरथरु' समुदाय का बताया गया है. बाद के लेखकों ने सुहेलदेव को भर, भर राजपूत, राजभर, थरु, बैस राजपूत, पांडव वंशी तोमर, जैन राजपूत, भरशिव, थरु कल्हान, नागवंशी क्षत्रिय और विसेन क्षत्रिय के रूप में भी दिखाया.
पर सालार मसूद का ज़िक्र सुहेलदेव से ज़्यादा कैसे हुआ
जनश्रुतियों और कुछ लिखित उल्लेखों के मुताबिक 1034 ई. में मरने के बाद 12वीं सदी आते-आते ढेर सारे श्रद्धालु मसूद की कब्र पर जाने लगे. 1250 ई. में दिल्ली के सुल्तान नसीरुद्दीन महमूद इस कब्र पर मज़ार बनवा दी. फिर 13वीं सदी में अमीर खुसरो ने अपने लिखे में मसूद का ज़िक्र किया. बताते हैं कि 1341 ई. में दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक मोरक्को के यात्री इब्न बतूता के साथ मसूद की दरगाह पर आए थे. लोगों के लगातार आने की वजह से मसूद की मज़ार दरगाह में तब्दील हो गई और आज बहराइच में इस जगह इतना बड़ा मेला लगता है कि हिंदू-मुस्लिम एक भाव से मन्नतें मांगने आते हैं.
अमीर खुसरो
RSS इस दरगाह की कहानी अपने हिसाब से सुनाता है. RSS के मुताबिक इस दरगाह की जगह पहले बालार्क ऋषि का आश्रम था, जो सुहेलदेव के गुरु थे. फिर फिरोज़ तुगलक ने इसे दरगाह में तब्दील कर दिया. तो सुहेलदेव का इतिहास इसी तरह दावों के आधार पर आगे बढ़ा है, जबकि सालार मसूद का लिखित उल्लेख ज़्यादा मिलता है. यही वजह है कि लोगों को सुहेलदेव के बारे में कैसी भी कहानी गढ़ने का मौका मिल जाता है.
सुहेलदेव के बारे में क्या-क्या कहानियां सुनाई जाती हैं
दक्षिणपंथ से प्रभावित इंडस रिसर्च सेंटर के अभिनव प्रकाश ने The Forgotten Battle of Bahraich शीर्षक से एक निबंध लिखा है. इसमें सुहेलदेव का बारीक ज़िक्र किया गया है. मसलन 11वीं सदी की घटनाओं की तारीखें बताई गई हैं, सुहेलदेव के लड़ने के तौर-तरीकों और उनके साथियों के नाम भी बताए गए. लेकिन इनके पक्ष में कोई प्रमाण पेश नहीं किए गए. सब कुछ सुनी-सुनाई बातों के आधार पर लिखा गया है. निबंध के मुताबिक सुहेलदेव ने मसूद का या तो सिर कलम किया था या उसके गले में तीर मारा था. निबंध के मुताबिक मसूद की मौत सूर्यकुंड झील के पास महुए के पेड़ के नीचे हुए. ऐसी जानकारी कहीं और नहीं मिलती.
इंडस रीसर्च के निबंध का एक अंश
निबंध में दावा किया गया कि मसूद के आक्रमण के वक्त लखीमपुर, सीतापुर, लखनऊ, बाराबंकी, बहराइच और श्रावस्ती में सुहेलदेव के नेतृत्व में 21 पासी राजाओं का गठबंधन शासन करता था. निबंध दावा करता है कि मसूद के साथ युद्ध में सुहेलदेव बच गए थे, जिसके बाद उन्होंने स्मारक के तौर पर श्रावस्ती में कई तालाब खुदवाए. वहीं कुछ और जगहों पर उल्लेख मिलता है कि यही युद्ध सुहेलदेव की मौत का भी कारण बना था.
जब राजनाथ ने सुहेलदेव पर लिखी किताब लॉन्च की
10 जून 2015 को लखनऊ में मसूद पर सुहेलदेव की जीत की याद में एक कार्यक्रम रखा गया, जिसमें गृहमंत्री राजनाथ सिंह और VHP नेता अशोक सिंघल शामिल हुए. इस कार्यक्रम में महाराजगंज के एक पीजी कॉलेज के टीचर डॉ. परशुराम गुप्ता की सुहेलदेव पर लिखी किताब लॉन्च की गई. तीन साल के रिसर्च के आधार पर लिखी गई ये किताब दावा करती है कि 'गजनवी ने भारत पर जितनी बार हमले किए, मसूद उन सबमें शामिल था. सुहेलदेव ने उसकी लाखों की जेहादी सेना खत्म कर दी थी. इससे दुनिया में भारतीय शूरवीरों का ऐसा आतंक फैला कि अगले 150 सालों तक किसी ने भारत पर आक्रमण नहीं किया.'
डॉ. परशुराम गुप्ता की किताब (बाएं) और इसके विमोचन के कार्यक्रम में अशोक सिंघल और राजनाथ सिंह.
ये दावा भारत के उस इतिहास के विरोध में खड़ा दिखाई देता है, जिसके मुताबिक 1221 ई. में भारत पर मंगोलों के आक्रमण शुरू हो गए थे. परशुराम की किताब के मुताबिक 'सुहेलदेव के पिता का नाम प्रसेनजित था और सुहेलदेव बसंत पंचमी के दिन पैदा हुए थे. वो नागवंशी भारशिव क्षत्रिय थे, जिन्हें आज 'भर' या 'राजभर' कहा जाता है.' इस किताब में सुहेलदेव के सभी 21 सहयोगी राजाओं का नाम दर्ज हैं और इसके मुताबिक शुरुआती लड़ाई में गदे के हमले से मसूद के दो दांत भी टूट गए थे. परशुराम इतनी बारीक जानकारी देते हैं, लेकिन इसका कोई स्रोत नहीं बताते.
परशुराम गुप्ता की किताब का वो हिस्सा, जिसमें सालार मसूद के दांत टूटने का ज़िक्र किया गया है.
इसी कार्यक्रम में राजनाथ सिंह ने कहा था कि वो चाहते हैं कि भारतीय इतिहासकार देश की अलग-अलग जगहों पर जाकर उन तथ्यों को सही करें, जिनके साथ विदेशी इतिहासकारों ने छेड़छाड़ की है. वहीं अशोक सिंघल ने कहा था कि ब्रिटिश अधिकारियों ने कुछ चापलूस भारतीय इतिहासकारों को पैसे देकर भारतीय इतिहास के साथ छेड़छाड़ कराई थी, इसीलिए सुहेलदेव के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं मिल पाई.
मसूद की दरगाह पर जाने वाले हिंदू क्या सोचते हैं
बहराइच में लोग सालार मसूद और सुहेलदेव, दोनों को जानते हैं. मसूद की दरगाह को गाज़ी मियां के नाम से जाना जाता है, जहां हर साल मई में उर्स के मौके पर बड़ा मेला लगता है. इसमें हर जाति-धर्म के लोग आते हैं और एक भाव से मन्नतें मांगते हैं. इस मौके पर गाज़ी मियां की बारात भी निकाली जाती है, क्योंकि माना जाता है कि उन्हें शादी से पहले कत्ल कर दिया गया था. यहां आने वाले श्रद्धालु सांप्रदायिकता का पुट लेकर नहीं आते हैं. गाज़ी मियां पर ABP न्यूज़ की रिपोर्ट में एक हिंदू श्रद्धालु ये कहता नज़र आता है कि वो हिंदू होकर भी इस मज़ार पर आया है, क्योंकि वो लोग बरसों से गाज़ी मियां को मानते आ रहे हैं.
एबीपी न्यूज़ से बातचीत के दौरान एक श्रद्धालु ने बताया कि वो हिंदू है, लेकिन इतने सालों से गाज़ी मियां को मानता आ रहा है.
बहराइच का मेला गरमी में एक रविवार से तब शुरू होता है, जब बाराबंकी के देवा शरीफ से गाजी मियां की बारात आती है. जिस दिन ये बारात आती है, उसी दिन पिछले कई सालों से कट्टर हिंदुत्व के पोषक लोग राजा सुहेलदेव का विजयोत्सव मनाते हैं. प्रशासन के लोग बताते हैं कि विजयोत्सव मनाने का तरीका लगातार आक्रामक होता जा रहा है और कभी न कभी दंगा होना तय है. प्रशासन के लोग उस दिन भयंकर तनाव में होते हैं और लगभग चौबीस घंटे जागते हैं.
बहराइच में गाज़ी के घोड़े की मज़ार
सुहेलदेव पर सियासत थेथरई में कब बदली
20वीं सदी से सुहेलदेव का राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिशें शुरू हुईं. इसके तहत हिंदूवादी संगठन सुहेलदेव को परम हिंदू राजा के तौर पर चित्रित करने लगे, जिन्होंने मुस्लिम आक्रांताओं को हराया. इनके बारे में ये कहानी चर्चित की गई कि सुहेलदेव को हराने के लिए सालार मसूद ने अपनी सेना के आगे गाएं खड़ी कर दी थीं, ताकि सुहेलदेव उस पर हमला न कर पाएं. लेकिन सुहेलदेव ने युद्ध से एक रात पहले गायों को छुड़वा दिया और फिर मसूद को हरा दिया. RSS को इस कहानी से खासा लगाव है.
1920 से गाज़ी मियां पर संगठित रूप से वैचारिक हमले होने लगे. इनमें आर्य समाज सबसे आगे रहा, जिसके मुताबिक दरगाह की जगह पहले सूर्य मंदिर था. मुस्लिम शासकों ने मंदिर तुड़वाकर गाज़ी मियां की दरगाह बनवा दी. ऐसे हमले तेज होने पर दरगाह कमेटी ने आर्य समाज के के दावे के खिलाफ एक बुकलेट निकाली. पर इस विवाद का नतीजा ये हुआ कि दरगाह पर आने वालों की तादाद कम होने लगी.
दरगाह के अंदर की एक तस्वीर
1940 में आर्य समाज से प्रभावित बहराइच के एक स्कूल टीचर गुरु सहाय दीक्षित द्विदीन ने सुहेलदेव पर 'श्री सुहेल बवानी' शीर्षक से एक कविता लिखी. इसमें सुहेलदेव को एक जैन राजा के रूप में पेश किया गया, जिसने हिंदू संस्कृति की रक्षा की थी. ये कविता समाज में स्वीकार कर ली गई और आज़ादी के बाद इसे छपवाए जाने का ज़िक्र भी मिलता है.
कांग्रेसी नेता गाज़ी मियां के विरोध में हिंदुओं के साथ खड़े थे
बड़ा विवाद हुआ अप्रैल 1950 में, जब आर्य समाज, राम राज्य परिषद और हिंदू महासभा ने सालार मसूद की दरगाह पर एक मेला लगाने की योजना बनाई. प्रो. बद्री नारायण लिखते हैं कि बहराइच के चित्तौरा में सुहेलदेव की याद में ये मेला आयोजित किया जा रहा था, जिसमें कांग्रेस के स्थानीय नेता शामिल होने वाले थे. ऐसे नेता, जिनके घर पंडित नेहरू और गांधीजी तक का आना-जाना था. पर उद्घाटन वाले दिन का माहौल देखकर दरगाह कमेटी के एक सदस्य ख्वाजा खलील अहमद शाह ने जिला प्रशासन से शिकायत की कि दंगे रोकने के मकसद से ये मेला प्रतिबंधित कर दिया जाए.
दरगाह पर मन्नत मांगता एक युवक
प्रशासन ने माहौल भांपते हुए धारा 144 लागू कर दी. इस प्रतिबंध ने हिंदू संगठनों को भड़का दिया और वो रैली निकालने लगे. नतीजतन पुलिस लोगों को गिरफ्तार करने लगी. इस गिरफ्तारी के विरोध में हिंदुओं ने करीब हफ्तेभर दुकानें बंद रखीं और लगातार गिरफ्तारियां देते रहे. कांग्रेसी नेता लगातार इस विरोध में शामिल थे. सैकड़ों लोगों के जेल जाने के बाद आखिरकार धारा 144 वापस लेनी पड़ी और फिर कांग्रेस नेताओं ने रैली निकालकर मेले का उद्घाटन किया. फिर इसी क्रम में सुहेलदेव का मंदिर बनाने के लिए सुहेलदेव स्मारक समिति बनाई गई. समिति को प्रयागपुर रियासत से 500 बीघा ज़मीन दान में मिली, जिस पर कुछ प्रतिमाएं बनाई गईं.
और फिर सुहेलदेव पासी राजा बन गए
1960 के दशक में बहराइच और इसके आसपास के जिलों के नेताओं ने पासियों को आकर्षित करने के मकसद से सुहेलदेव को महान पासी राजा के रूप में चित्रित करना शुरू किया. दशकों से दबाए गए पासियों ने भी सुहेलदेव पर दावा ठोंकते हुए उन्हें गर्वभरी निगाह से देखना शुरू किया. 1980 आते-आते बहराइच और आसपास के इलाकों में ऐसी नौटंकियां शुरू हुईं, जो मनोवैज्ञानिक रूप से संदेश देती थीं कि एक महान हिंदू राजा ने मुस्लिम आक्रांताओं से राज्य की रक्षा की. ये नौटंकियां आयोजित कराने में RSS की भूमिका का अक्सर ज़िक्र हुआ.
सुहेलदेव की एक प्रतिमा
2001 में गाज़ी मियां की दरगाह की जगह मंदिर बनाने की मांग पर सुहेलदेव समिति और RSS साथ आ गए. इसके तीन साल बाद मई 2004 में गोरखपुर से बीजेपी सांसद योगी आदित्यनाथ ने RSS के साथ इस जगह पांच दिनों का उत्सव रखा. इस उत्सव के बारे में प्रो. बद्री नारायण लिखते हैं, 'RSS के जश्न में मुस्लिमों के खिलाफ नफरत पैदा करने की कोशिश साफ देखी जा सकती थी. असल में ये सुहेलदेव को एक कट्टर हिंदू राजा के तौर पर पेश करने की कोशिश थी, जबकि बहराइच के बाहर उनका कोई खास अस्तित्व नहीं रहा. राजनीति ने सुहेलदेव को राज्य और राज्य के बाहर भी चर्चित बना दिया.'
2002 में खुद को राजभरों का मसीहा मानने वाले ओम प्रकाश राजभर ने सुहेलदेव के नाम पर अपनी पार्टी बनाई- सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी. ये पार्टी अभी बीजेपी के साथ गठबंधन में है और ओम प्रकाश यूपी में पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री हैं. 2017 विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने इन्हें गठबंधन में 8 सीटें दी थीं, जिनमें से ये 4 जीत पाए थे.
राजा सुहेलदेव के नाम पर आयोजित एक कार्यक्रम में योगी आदित्यनाथ
RSS की ट्रिक्स के बारे में एक नज़रिया ये भी है
अक्टूबर 2016 में The BJP’s fascination with a Dalit Icon शीर्षक वाले आर्टिकल में 'दि हिंदू' के करेस्पॉन्डेंट ओमर राशिद लिखते हैं, 'कई गैर-भाजपाई पार्टियों, खासकर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने कई सालों तक राजनीतिक फायदे के लिए खुद को सुहेलदेव के साथ जोड़ा है. बीजेपी-RSS कोशिश इस लिहाज से अलग है कि इन्होंने सुहेलदेव के आसपास एक अलग तरह का नैरेटिव बुना है. संघ पहले भी ऐसे किरदारों, आइकन और लोक-साहित्य को तवज्जो देता रहा है, जिनके अतीत के बारे मे कोई स्पष्ट जानकारी नहीं होती है. ऐसे में राजनीतिक फायदे के लिए इन्हें तोड़ने-मरोड़ने का पर्याप्त अवसर रहता है.'
ओमर राशिद का आर्टिकल
नरेंद्र मोदी को सुहेलदेव कब याद आए
अगस्त 2016 में जब गुंडई कर रहे कथित गो-रक्षकों का आतंक हद पार कर गया, तब देश के निज़ाम नरेंद्र मोदी ने इस पर अपनी चुप्पी तोड़ी. उन्होंने कहा कि कुछ लोग रात में एंटी-सोशल होते हैं, जबकि दिन में गो-रक्षक बन जाते हैं. इतना कहकर उन्होंने कहानी सुनाई, 'पुराने ज़माने में आपने देखा होगा बादशाह क्या करते थे. अपनी लड़ाई की फौज के आगे गाय रख देते थे. राजा को परेशानी होती थी कि वार करें, तो गाय मरेंगी और पाप लगेगा. इसी उलझन में वो हार जाते थे.'
उस इवेंट की तस्वीर, जिसमें नरेंद्र मोदी ने बादशाह और राजा वाली कहानी का ज़िक्र किया था.
अपनी कहानी में नरेंद्र मोदी ने नहीं बताया कि वो किस बादशाह और किस राजा की बात कर रहे थे, लेकिन दलितों पर विमर्श करने वाले जानते हैं कि वो किसकी बात कर रहे थे. बीजेपी-RSS खेमे ने सुहेलदेव को केंद्र में रखकर ये गाय वाली कहानी खूब सुनाई है. वैसे मोदी के इस किस्से की एक व्याख्या ये भी की गई कि जब तक गो-रक्षा के नाम पर मुस्लिमों पर हमले हो रहे थे, तब तक वो चुप रहे, लेकिन जब इसकी आंच दलितों तक पहुंचने लगी, तो उन्होंने ये कहानी सामने रख दी.
गोरक्षा के नाम पर गुजरात के ऊना में पीटे जाते दलित
सुहेलदेव के नाम पर हुई ट्रेन पॉलिटिक्स
13 अप्रैल 2016 की शाम साढ़े चार बजे गाजीपुर रेलवे स्टेशन से एक ट्रेन चलाई गई. नाम था 'सुहेलदेव सुपरफास्ट एक्सप्रेस'. तब के रेलमंत्री मनोज सिन्हा ने इसे हरी झंडी दिखाई थी. इस ट्रेन का नाम रेलवे की उस नीति के खिलाफ थी, जिसके मुताबिक राजनीतिक फायदे के लिए किसी शख्सियत के नाम पर ट्रेन नहीं चलाई जाएगी. गाज़ीपुर से आनंद विहार के बीच चलाई गई इस ट्रेन की टाइमिंग और शहर से साफ था कि ये किसे लुभाने के लिए है.
रेलवे की पॉलिसी पर बात करते हुए एक अधिकारी बताते हैं कि केरल में माता अमृतानंदमयी के नाम पर अमृता एक्सप्रेस चलाई गई, लेकिन इसका कोई राजनीतिक मकसद नहीं था. तमिलनाडु में स्थानीय समाज सुधारक के नाम पर बसावा एक्सप्रेस ट्रेन चलाई जाती है और इसका सुझाव किसी नेता ने नहीं, बल्कि खुद अधिकारियों ने दिया था. वहीं नागरकॉइल और शालीमार के बीच चलने वाली गुरुदेव एक्सप्रेस रवींद्रनाथ टैगोर और स्वामी चिन्मयानंद को साझी श्रद्धांजलि है. लेकिन सुहेलदेव एक्सप्रेस को एक सोची-समझी रणनीति के तरह शुरू किया गया.
ये नई ट्रेन चलाने से पहले इसका पन्नेभर का विज्ञापन दिया गया था.
रेलवे अधिकारियों ने इस ट्रेन को लेकर मनोज सिन्हा के सामने आपत्ति भी दर्ज कराई, लेकिन जब सिन्हा प्रधानमंत्री कार्यालय से इजाज़त ले आए, तो अधिकारी मजबूर हो गए. बाद में जब सिन्हा से सीधे इस पर सवाल किए गए, तो उन्होंने सफाई दी कि 'सुहेलदेव' शब्द तो पूर्वी यूपी में एक विशेषण की तरह इस्तेमाल होता है.
बीजेपी के लखनऊ वाले दफ्तर में लगी राजा सुहेलदेव की तस्वीर. कार्यालय के लोग बताते हैं कि इसे यहां इसलिए लगाया गया है, ताकि दलित कार्यकर्ताओं में उत्साह आए.
प्रो. बद्री नारायण से आखिरी सवाल हमने ये पूछा कि जब सुहेलदेव के बारे में उपलब्ध जानकारी इतनी कच्ची है और इतनी सारी पार्टियां इतने बरसों से उनका फायदा उठाने में लगी हैं, तो क्या वाकई किसी को फायदा होगा? प्रोफेसर ने जवाब दिया कि ये इस पर निर्भर करता है कि कौन कितना बनता है और कौन कितना बना पाता है.
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