उत्कल का वो बेबाक नेता जिसने मंच से कहा था, मैं चाहूं तो इंदिरा गांधी को सबके सामने नचवा सकता हूं
2 बार सीएम रहे बीजू बाबू का जब निधन हुआ तो 3 देशों के झंडे में लपेटे गए थे
एक नेता जिसे स्कूल के समय से ही एडवेंचर पसंद था. बाद में वह प्लेन उड़ाने लगा. उसने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया, एक नहीं बल्कि दो देशों के स्वतंत्रता संग्राम में. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जिसे खतरनाक क्रिमिनल बताकर जेल में रखा गया. वह आजाद भारत में राजनीति में सक्रिय रहा. 2 दफा उड़ीसा का मुख्यमंत्री और 1 दफा केन्द्र में मंत्री भी रहा. और जब इस महान नेता का देहांत हुआ, तब उनके पार्थिव शरीर को एक नहीं बल्कि 3 देशों के राष्ट्रीय ध्वज में लपेट कर रखा गया.
जी हां, हम बात कर रहे हैं बीजू पटनायक की. और हम उनकी बात इसलिए कर रहे हैं क्योंकि हाल ही में दिल्ली में स्थित इंडोनेशिया के दूतावास का एक कमरा उनके नाम पर किया गया है. लेकिन इंडोनेशियन ऐंबेसी ने आखिर क्यों उन्हें इस सम्मान के लायक समझा? इसे जानने के पहले बीजू पटनायक, उनकी लड़ाकू छवि और खतरों से खेलने की उनकी क्षमता की चर्चा करना लाजिमी हो जाता है. यहां यह बताते चलें कि उनके गृह राज्य ओडिशा में लोग उन्हें प्यार से बीजू बाबू कहकर संबोधित करते हैं.5 मार्च 1916 को उड़ीसा (ओडिशा) के गंजम जिले में जन्में बीजू बाबू ने पहला एडवेंचर स्कूल के दिनों में महज 14 वर्ष की उम्र में ही कर दिया था, जब वे अपने कुछ दोस्तों के साथ कटक से पेशावर की साइकिल यात्रा पर निकल पड़े थे. उसके बाद महज 18 वर्ष की उम्र में दिल्ली के फ्लाइंग क्लब में प्लेन उड़ाने की ट्रेनिंग लेने लगे. इसी फ्लाइंग क्लब की ट्रेनिंग के दौरान उन्होंने 2 चीजें हासिल की. एक तो अपना प्यार और दूसरा बतौर पायलट खतरनाक से खतरनाक मिशन को पूरा करने का जीवट.
बीजू पटनायक
फ्लाइंग क्लब की पायलट ट्रेनिंग के दौरान ही उनकी मुलाकात अपने साथ ट्रेनिंग कर रही ज्ञान देवी से हुई. ज्ञान देवी एक पंजाबी परिवार से थीं और रावलपिंडी की रहने वाली थीं. फ्लाइंग क्लब में पहले दोनों की दोस्ती हुई. तगड़ी वाली दोस्ती और अंततः 1939 में दोनों ने शादी कर ली. इस शादी से दोनों के 3 बच्चे हुए. प्रेम पटनायक, नवीन पटनायक उर्फ पप्पू (ओडिशा के मुख्यमंत्री) और लेखिका गीता मेहता.
पायलट बीजू बाबू के मिशन
रंगून से भारतीयों को सुरक्षित निकाला
बतौर पायलट बीजू बाबू ने पहला चैलेंजिंग टास्क निभाया द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान. इस दौरान उन्हें रंगून में फ़ंसे भारतीयों को सुरक्षित निकालने का जिम्मा दिया गया, क्योंकि वहां पर भीषण लड़ाई चल रही थी. एक तरफ ब्रिटेन और मित्र राष्ट्रों की सेना थी तो दूसरी तरफ जापान और उसके साथ आजाद हिंद फौज के लड़ाके. दोनों में भीषण लड़ाई चल रही थी और इस लड़ाई के बीच बीजू को अपना टास्क पूरा करना था. लेकिन पायलट बीजू ने इस चैलेंज को स्वीकार किया और कई बार खुद प्लेन उड़ाकर रंगून गए और वहां से हजारों भारतीयों को सुरक्षित निकालकर देश के अलग-अलग हिस्सों में पहुंचाया. इस दौरान उनपर कई बार हमला भी हुआ लेकिन बीजू किस्मत के धनी निकले. कई बार वे बेहद करीब से बाल-बाल बचे.
मिशन कश्मीर
15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हो गया. लेकिन यह आजादी देश को 2 टुकड़े कर मिली थी. भारत के साथ-साथ पाकिस्तान भी बना था. लेकिन कश्मीर की रियासत ने भारत या पाकिस्तान - किसी में विलय नहीं किया था. कश्मीर पर पाकिस्तान के हुक्मरानों की टेढ़ी नजर थी और यह सितंबर 1947 में उस समय स्पष्ट हो गया जब पाकिस्तान सैनिकों ने कबायलियों के वेश में कश्मीर पर हमला कर दिया. इस हमले से घबराए कश्मीर के राजा हरि सिंह ने भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मदद की गुहार लगाई और साथ ही भारत में विलय की इच्छा प्रकट की. नेहरू ने भी हरि सिंह को निराश नही किया और कश्मीरियों की मदद के लिए सेना भेजने का फैसला किया. लेकिन यक्ष प्रश्न यही कि सेना की टुकड़ी लेकर पहले जाएगा कौन. और उस समय इस काम के लिए भरोसा जताया गया कुछ सालों पहले रंगून से भारतीयों को सुरक्षित निकालने के ऑपरेशन को सफलतापूर्वक अंजाम दे चुके पायलट बीजू पटनायक पर. बीजू ने इस चैलेंज को भी स्वीकार किया और भारतीय सेना की पहली खेप लेकर श्रीनगर हवाई अड्डे पर उतरे. फिर उनके पीछे सैनिकों से भरे अन्य हवाई जहाज भी उतरे और तब किसी प्रकार कश्मीर को बचाया गया.
मिशन इंडोनेशिया
आजादी के बाद के शुरुआती दिनों में जवाहर लाल नेहरू सिर्फ देश के ही नेता नहीं थे बल्कि वे पूरी दुनिया में औपनिवेशिक सत्ता से संघर्ष कर रहे देशों की जन भावनाओं के प्रतीक के तौर पर पहचाने जाने लगे थे. यही कारण था कि वे सिर्फ भारत को आजादी मिलने से ही संतुष्ट नहीं थे. वे दुनिया के किसी भी हिस्से में औपनिवेशिक शासन के सख्त खिलाफ थे और नागरिक स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक माने जाते थे. इंडोनेशिया की स्वतंत्रता संग्राम के नेता सुकर्णो से तो नेहरू की व्यक्तिगत दोस्ती हुआ करती थी. इंडोनेशिया ने अपने अधिकांश इलाकों को 1946 के आखिरी महीनों में डचों यानी नीदरलैंड के कब्जे से मुक्त करा लिया था लेकिन 1948 आते-आते डचों ने एकबार फिर इंडोनेशिया पर धावा बोल दिया. और तब इंडोनेशिया के सर्वोच्च नेता सुकर्णो को अपने दोस्त नेहरू की याद आई. उन्होंने नेहरू से तत्काल मदद की गुहार लगाई और अपने देश के राजनीतिक नेतृत्व के लिए तत्काल भारत में शरण की मांग की. नेहरू ने भी सुकर्णो की मांग को तत्काल स्वीकार कर लिया. लेकिन तब भी यक्ष प्रश्न यही था कि चारों तरफ हे डच सैनिकों से घिरे इंडोनेशिया में आखिर जाएगा कौन और वहां की लीडरशिप को सुरक्षित निकालकर भारत पहुंचाएगा कौन?
तभी नेहरू को रंगून और श्रीनगर वाले ऑपरेशन को सफलतापूर्वक मुकम्मल करने वाले पायलट बीजू पटनायक की याद आई. नेहरू को बीजू इसलिए भी उपयुक्त लगे क्योंकि वे पहले भी इंडोनेशिया जा चुके थे और वहां डचों के खिलाफ लड़ाई में सुकर्णो का साथ दे चुके थे. इसलिए जब नेहरू ने बीजू से इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता जाकर वहां की लीडरशिप को सुरक्षित दिल्ली तक लाने के बारे में बात की तब बीजू ने इस मिशन के लिए हामी भर दी. इस बार बीजू को इंडोनेशिया के ऑपरेशन के लिए एक पुराना डाकोटा प्लेन दिया गया और इस प्लेन में वे अपनी पत्नी ज्ञान देवी के साथ जकार्ता के लिए उड़ चले. लेकिन डच आर्मी ने उनके प्लेन के इंडोनेशिया के हवाई क्षेत्र में प्रवेश करते ही उन्हें मार गिराने कोशिश की. इसके बाद बीजू ने अपने प्लेन को जर्काता के पास उतार दिया और वहां से बड़ी सावधानी से किसी प्रकार इंडोनेशिया के सुल्तान शहरयार और सुकर्णो को साथ लेकर दिल्ली आ गए.
इसके बाद सुकर्णो आज़ाद इंडोनेशिया के पहले राष्ट्रपति बने. इस बहादुरी के काम के लिए बीजू बाबू को मानद रूप से इंडोनेशिया की नागरिकता दी गई और उन्हें इंडोनेशिया के 'भूमि पुत्र' सम्मान से नवाज़ा गया था.
इतना ही नहीं, 1996 में बीजू बाबू को इंडोनेशिया के सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कार 'बिंताग जसा उतान' से भी सम्मानित किया गया.
सुकर्णो से बीजू बाबू की दोस्ती ऐसी थी कि जब सुकर्णो की बेटी मेघावती का जन्म हुआ तब उनका नामकरण भी बीजू बाबू ने ही किया था. कहा जाता है कि उस दिन मेघ बरस रहा था इसलिए बीजू बाबू ने उनका नाम मेघावती सुकर्णोपुत्री रख दिया. यही मेघावती सुकर्णोपुत्री 2001 में इंडोनेशिया की राष्ट्रपति बनीं थी.
इंडोनेशिया की राष्ट्रपति रहीं मेघावती सुकर्णोपुत्री (आगे) का नामकरण बीजू पटनायक ने ही किया था.
बीजू बाबू के इसी योगदान को याद करते हुए अब इंडोनेशिया ने अपने दिल्ली स्थित दूतावास के एक कमरे का नामकरण उनके नाम पर किया है. इस कमरे को बीजू बाबू को समर्पित करते हुए, भारत में इंडोनेशिया के राजदूत, सिद्धार्थो रेजा सूर्योदिपुरो ने इंडोनेशिया के स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान को याद किया और कहा कि यह कमरा उनकी स्मृतियों को संजोकर रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा.
बीजू बाबू की सियासी पारी
आजादी के बाद 50 के दशक में बीजू पटनायक कांग्रेस की राजनीति करने लगे. 50 के दशक के आखिर में उन्हें प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया और अंततः 1961 में वे मुख्यमंत्री बनाए गए. 1977 में वे मोरारजी देसाई की सरकार में इस्पात और खान मंत्री बनाए गए जबकि 1990 में जनता दल की ओर से एक बार फिर ओडिशा के मुख्यमंत्री बने और पूरे कार्यकाल तक मुख्यमंत्री रहे. इस दरम्यान बीजू बाबू ने कई पार्टियां बनाई और कई पार्टियां तोड़ी.
बीजू पटनायक अपने बड़बोलेपन और अक्खड़ स्वभाव के लिए भी जाने जाते थे.
'उत्कल का सांड'
बीजू बाबू अपने पूरे राजनीतिक करियर के दौरान अक्सर नेताओं से भिड़ते रहे. मुंहफट स्वभाव के बीजू बाबू की बहुत कम राजनेताओं से ठीक-ठाक ढंग से निभ सकी. उनके आलोचक अक्सर उन्हें लोकतांत्रिक तानाशाह (a democratic dictator) कहा करते थे. उन्हें उत्कल का सांड तक कहा जाता था. उनकी बदजुबानी और राजनीतिक उच्छृंखलता के 3 किस्सों से आपलोगों को रूबरू करवाते हैं.
1.जब इंदिरा गांधी से डांस करवाने की बात कही
यह 1967 का साल था और इंदिरा गांधी को अभी प्रधानमंत्री बने एक साल ही बीता था. इसी दरम्यान कटक में छात्रों के एक सम्मेलन में बीजू बाबू बोलते-बोलते बोल गए,
"यदि मैं चाहूं तो इसी मंच पर आप लोगों के सामने इंदिरा गांधी को डांस करवा सकता हूं."
उनके इस बयान पर बवाल मच गया और अंततः उन इंदिरा गांधी से उनकी राजनीतिक राहें ज़ुदा हो गई, जिन्हें वह अक्सर इंदू कहकर संबोधित किया करते थे. इसके बाद उन्होंने उत्कल कांग्रेस के नाम से अपनी क्षेत्रीय पार्टी बनाई. बाद में इमरजेंसी के दिनों में बाकी विपक्षी नेताओं की तरह उन्हें भी जेल में डाल दिया गया. जेल से छूटने के बाद उन्होंने अपनी पार्टी का विलय जनता पार्टी में कर दिया और मोरारजी देसाई की सरकार में इस्पात और खान मंत्री बनाए गए.
2. जनता पार्टी की सरकार में रहकर संजय गांधी का समर्थन
बीजू बाबू को बड़े उद्योगों, उपक्रमों, पोर्ट, हवाईअड्डे वगैरह बनाने का बहुत शौक था. ओडिशा के पारादीप पोर्ट को बीजू पटनायक की ही देन माना जाता है. लेकिन इमरजेंसी में जिस संजय गांधी का विरोध करते हुए वे जेल गए थे, जनता सरकार में मंत्री बनने के बाद उन्हीं संजय गांधी के मारुति उद्योग लिमिटेड का उन्होंने समर्थन कर दिया. उस वक्त बीजू बाबू का मानना था कि आम आदमी के लिए सुलभ जनता कारें बननी ही चाहिए और इसके लिए संजय गांधी यदि कोई प्रयास कर रहे हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं है.
लेकिन उस दौर में जनता पार्टी में संजय गांधी की प्रशंसा करना आफत को न्यौता देने जैसा था. बीजू बाबू के साथ भी यही हुआ और अंततः उनकी जनता पार्टी नेतृत्व से दूरी बननी शुरू हो गई. जिसकी चरण परिणति 1979 में जनता पार्टी के विभाजन के रूप में हुई. इस विभाजन में चरण सिंह, मधु लिमये, राजनारायण और कर्पूरी ठाकुर के साथ बीजू पटनायक ने भी बड़ी भूमिका निभाई थी.
संयुक्त मोर्चा के नेताओं के साथ बीजू पटनायक
3. मंडल कमीशन पर अपनी ही पार्टी के प्रधानमंत्री वी पी सिंह से भिड़े
यह 1989-90 का दौर था. केन्द्र और ओडिशा दोनों जगहों पर जनता दल की सरकार थी. वीपी सिंह प्रधानमंत्री और बीजू पटनायक ओडिशा के मुख्यमंत्री थे. दरअसल वीपी सिंह को प्रधानमंत्री बनाने में भी बीजू बाबू की बड़ी भूमिका थी. दिसंबर 1989 में ओडिशा भवन में ही अरूण नेहरू और कुलदीप नैयर के साथ बैठकर बीजू बाबू ने देवीलाल को मोहरा बनाकर चंद्रशेखर को दांव देते हुए वीपी सिंह की ताजपोशी की मुकम्मल प्लानिंग की थी. लेकिन अगस्त 1990 में जैसे ही वीपी सिंह ने मंडल कमीशन का राग छेड़ा, बीजू बाबू उनके विरोध में खड़े हो गए और उनकी तीखी आलोचना करने लगे. बीजू बाबू ने तब वीपी सिंह की आलोचना करते हुए कहा था,
"समाज को बांटने की गंदी चालें चलने में वीपी सिंह राजीव गांधी से तनिक भी अलग नहीं हैं."
देवीलाल (हरी पगड़ी में) के साथ बीजू पटनायक
ऐसे निडर स्वभाव के बीजू पटनायक का 17 अप्रैल 1997 को निधन हो गया. 19 अप्रैल 1997 को जब उनकी अंतिम यात्रा निकल रही थी तब उनके पार्थिव शरीर को 3 देशों (भारत, इंडोनेशिया और रूस) के राष्ट्रीय ध्वज में लपेटा गया था. ऐसे बीजू पटनायक को भारत के साथ-साथ इंडोनेशिया में भी इतना सम्मान हासिल है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है.