महिला को दफनाया, 2 दिन बाद कब्र से आने लगीं आवाजें
क्यों किया गया 'मौत' से वापिस लाने वाला अविष्कार? और क्यों ताबूतों में घंटी लगाई जाने लगीं? पूरी कहानी
इंग्लैंड के हैंपशायर में मौजूद एक कब्रिस्तान- साउथ विव सेमेट्री. कब्रिस्तान में एक कब्र, कब्र पर लगी एक तख्ती… जिस पर लिखा है, ‘विलियम ब्लंडेन की पत्नी, मिसेज ब्लंडेन, जिन्हें जुलाई 1674 में इस कब्रिस्तान में जिंदा दफना दिया गया था.’ आगे बताया जाता है कि इस लापरवाही के लिए संसद ने पूरे कस्बे पर जुर्माना भी लगाया था. पर ये लापरवाही हुई कैसे?
कहानी ये चलती है कि मिसेज ब्लंडेन के पति विलियम ब्लंडेन, माल्ट का काम करते थे. यानी शराब वगैरह में इस्तेमाल किये जाने वाले जौ को उगाने का काम. विलियम बाबू ब्रैंडी के भी काफी शौकीन थे. लेकिन एक रोज इनकी गैरमौजूदगी में मिसेज ब्लंडेन ने ब्रैंडी से अलग ही नशा कर लिया. दरअसल साल 1674 के जुलाई महीने की 15 तारीख को - मिसेज एलिस ब्लंडेन अफीम का पानी पीकर बेहोश हो गईं. बेहोश ऐसी कि जिंदा-मुर्दा का फर्क बता पाना भी मुश्किल. ऐसे में बुलाए गए डॉक्टर साहब. वो आए, साथ लाए एक शीशा. शीशे को मिसेज ब्लंडेन की नाक और मुंह के पास लगाकर रखा. ये देखने के लिए कि वो जिंदा हैं या नहीं. दरअसल उस दौर में चलती सांस की नमी को जांचने के लिए, शीशे का इस्तेमाल किया जाता था.
बहरहाल शीशे में कोई बदलाव ना देख, डॉक्टर ने महिला को मृत करार कर दिया. और उनके पति को संदेश भेजने के लिए कहा. लोग तत्काल अंतिम संस्कार करना चाहते थे लेकिन डॉक्टर ने पति की वापसी तक मिसेज ब्लंडेन का अंतिम संस्कार करने के लिए मना कर दिया. परिवारवालों को कुछ और ही मंजूर था. बेचारी को दफनाने की तैयारियां शुरू कर दी गईं. मिसेज ब्लंडेन का शरीर ताबूत के लिए थोड़ा बड़ा था, इसलिए उनके हाथ-पैर को लकड़ी के सहारे ताबूत में डाला गया और ऊपर से ढक्कन लगा दिया गया. कहानी यहीं नहीं खत्म हुई. क्योंकि एक रोज 4 फुट जमीन में धंसे ताबूत से एक आवाज आई. मौत के पार से मिसेज़ ब्लंडेन कुछ कहना चाहती थीं.
विलियम ब्लंडेन से ही कहानी का सिरा आगे बढ़ाते हैं. अंतिम संस्कार की रस्में खत्म हो चुकी थीं. साउथ विव कब्रगाह में मिसेज ब्लंडेन का ताबूत जमीन के कई फुट नीचे था. दो दिन बीत चुके थे. तभी कब्रगाह में खेलते कुछ बच्चों को दबी सी आवाजें सुनाई देती हैं. पर आस-पास तो कोई महिला नहीं थी. पता चलता है कि आवाज जमीन के नीचे से आ रही है. दबी चीखें और आह सुनकर बच्चे डरे-सहमे से भाग जाते हैं. कई लोगों को ये कहानी बताते हैं. पर कोई उनकी बात नहीं मानता. यहां तक कि हेडमास्टर झूठ बोलने के लिए उनकी क्लास भी लगा देते हैं. हालांकि उसी रोज़ हेडमास्टर कब्र के पास जाते हैं. ताकि खुद मामले की तह तक पहुंच सकें. हेडमास्टर को भी महिला की मदद की गुहार सुनाई देती है. पर बिना घरवालों और अधिकारियों की इजाजत के कब्र को फिर से खोदा नहीं जा सकता था.
फिर अगले दिन सभी औपचारिकताओं के बाद ताबूत खोदा गया. ढक्कन खुला तो देखा, खून से लथपथ मिसेज ब्लंडेन का शरीर ताबूत में ठूंसा हुआ था. पता चल रहा था कि ताबूत से बाहर आने की खूब कोशिश की गई थी. मिसेज़ ब्लंडेन को जिन्दा ही दफना दिया गया था. खैर अब क्या ही किया जा सकता था. वक्त पर उन्हें बचाया न जा सका. इसलिए उन्हें फिर से दफना दिया गया. हालांकि अबकी बार कब्र की निगरानी के लिए एक गार्ड भी रखा गया. ताकि वो रात भर निगरानी रख सके. मिसेज़ ब्लंडेन शायद दोबारा लौटना चाहती थीं लेकिन उस रात मौसम और गार्ड को ये मंजूर ना था. ठंडी रात में गार्ड कब्र को छोड़कर, पास के एक पब में चला गया.
अगली सुबह कब्र को एक बार फिर खोला गया. ताकि लोग तसल्ली कर सकें. और पता चला कि ब्लंडेन एक बार फिर नींद से जागी थीं. अपने शरीर और चेहरे पर खरोंचा, अपने कपड़े फाड़े. ऐसा उनकी लाश को देखकर पता चला. शायद मदद के लिए पुकार भी लगाई हो, पर निगरानी वाला गार्ड तो पब में नशे में धुत था. और इस बार खून से लथपथ उनकी लाश देखकर मालूम चला कि वो मर चुकी थीं. असल में और आखिरी बार.
’मुझे जिंदा ना दफनाया जाए’एक कहानी फिलॉसफर जॉन डून्स स्कॉट्स की भी चलती है. चौदहवीं शताब्दी में उनकी कब्र को खोला गया, तो उनकी लाश ताबूत के कुछ बाहर मिली. जैसे खुद को बचाने की कोशिश की गई हो. ऐसे कई मामलों का जिक्र किस्से कहानियों में सुनने को मिलता है. दरअसल ये बात है 18वीं-19वीं शताब्दी के बीच की. कॉलरा महामारी का दौर था. बीमारी हो जाए तो जिंदा बचना मुश्किल था. लेकिन मौत से भी बड़ा डर था जिंदा दफनाए जाने का. इस डर को ब्रिटिश डिप्लोमैट और राजनेता लॉर्ड चेस्टरफील्ड की चिट्ठी सेे भी समझा जा सकता है. 16 मार्च, 1769 को वो अपनी बहू के नाम एक खत में लिखते हैं,
“मैं अपनी मौत के बारे में बस इतनी ख्वाहिश रखता हूं कि मुझे जिंदा ना दफनाया जाए”
इस डर का एक नाम भी है, टैफोफोबिया. दरअसल फोबिया का इस्तेेमाल अलग-अलग तरह के डरों को बताने के लिए किया जाता है. मसलन मौत के डर को थैनेेटोफोबिया, कब्र के पत्थरों के डर को प्लैकोफोबिया और बंद और संकरी जगह के डर को क्लॉस्ट्रोफोबिया नाम दिया जाता है. खैर जब मौत के बाद लोगों के जिंदा होने की खबरें हवा में हों, तो जिंदा दफनाए जाने का ये खौफ इतना बेेजा भी नहीं मालूम पड़ता.
ये सिर्फ 18वीं-19वीं शताब्दी की बात नहीं है, साल 2011 में एक रूसी महिला को डॉक्टरों ने मृत घोषित किया, पर अपने ही अंतिम संस्कार के दिन वो जाग गईं. पर रूस तक क्यों ही जाना. साल 2023 में ऐसा ही एक मामला यूपी के फिरोजाबाद में भी सामने आया था. यहां एक महिला को मृत करार दिया गया था, लेकिन घर पहुंच कर वो होश में आईं, चाय पी और फिर अगले दिन उनकी मृत्यु हो गई. आज केे दौैर में जब ये मामले सुननेे को मिलतेे हैं, तो उस दौर के बारे में आप सोच ही सकतेेे हैं. इससे लोगों के भय का अंदाजा भी लगाया जा सकता है.
जिंदा लोगों के ताबूतखैर इस खौफ पर लोगों ने किताबें भी लिखीं. किस्सेबाज ‘एडगर एलेेन पो’ की कहानियों में भी जिंदा दफनाए जानेे का डर पढ़ने को मिलता है. साल 1844 में आई इनकी शार्ट स्टोरी, ‘प्रीमेच्योर बरियल’ भी इसी मुद्दे के इर्द गिर्द घूमती है.
कहानी मेें एक शख्स को कैटेलेप्सी जैसी बीमारी का डर रहता है, जिसमें मौत जैसे लक्षण दिख सकते हैं. मसलन अकड़ा हुआ लाश जैसा शरीर रहना. खैर इनकी कहानी के किरदार को भी डर था कि वो भी किसी ऐसी कंडीशन की वजह से मरा हुआ समझ लिया जाएगा और उसे जिंदा दफना दिया जाएगा. इससे बचने के लिए ये किरदार अपने दोस्तों से वादा भी लेता है कि उसे समय से पहले ना दफनाएं. दूसरी तरफ वो एक ऐसा मकबरा भी बनाता है, जिसमें ताबूत के भीतर से बाहर लोगों को सिग्नल दिया जा सके. एलेन पो इस ताबूत के बारे में जिक्र करते हैं,
“एक लंबे लीवर पर हल्का सा दबाव डालते ही, स्प्रिंग की मदद से लोहे का पोर्टल खुल जाएगा. ताबूत के भीतर हवा और पानी पहुंचने का भी इंतजाम है. इसमें गद्दे भी लगाए गए हैं. साथ ही तापमान गर्म रखने का इंतजाम भी है. किसी बैंक की तिजोरी के दरवाजे की तर्ज में एक लिवर, जिस पर हल्की सी हरकत से आजादी का रास्ता निकलता है. इस सब के अलावा कब्र के बाहर रस्सी के सहारे एक घंटी भी बांधी गई है, जो मृतक के हाथ से जुड़ी हुई रहे.”
हालांकि यह तो कहानी थी. पर जहां धुआं होता है, वहां आग होनी भी लाजमी है. कब्र में जिंदा दफनाए जाने की कहानियां थीं, तो ऐसे ताबूतों की जरूरत भी महसूस हुई. जिसका जिक्र एलेन पो करते हैं.
स्मार्ट ताबूतयह पूरी तरह कहना मुश्किल है कि इस कहानी से प्रेरणा लेकर ही ऐसे ताबूत बनाए गए या फिर अपनी ही कब्र में जागने के खौफ और दर्दनाक मौत से बचने के लिए. जैसे अंग्रेजी में कहते हैं- नेसेसिटी इज़ मदर ऑफ इन्वेंशन. मादरी ज़बान में कहें तो आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है. इस अलग या अजीब आवश्यकता के चलते ही कई आविष्कार भी किए गए. और यहीं ताबूत में घंटी बांधने की जरूरत निकली. साथ में निकले तरह-तरह के ताबूत. अब बिल्ली के गले में घंटी किसने बांधी ये तो पता नहीं. पर इस पूरे मामले में कई पेटेंट जरूर करवाए गए. मसलन पेटेंट नंबर 81,437
25 अगस्त, 1868 फ्रांज वेस्टर ने एक नए किस्म का ताबूत बनाया. जिसमें कई तरह के फीचर्स थे. जैसे कि हवा आने का रास्ता, एक सीढ़ी और एक घंटी ताकि अगर कोई जिंदा शख्स दफनाया जाए, और वो सीढ़ी चढ़ने की हालत में ना हो. तो वो घंटी बजाकर खुद को बचा सके.
इसके अलावा और भी ताबूतों के मॉडल बनाए गए. एक था पेटेंट नंबर 268,693 - जो जारी किया गया था, 5 दिसंबर, 1882 को. इसे बनाया था जॉन क्रिचबम नाम के शख्स ने. इसे नाम दिया गया ‘डिवाइस फॉर इंडिकेटिंग लाइव इन बरीड पर्सन’ बेजा अनुवाद करें तो कह सकते हैं- दफनाए गए शख्स में जिंदगी का सूचक.
कैसे काम करता था ताबूत?इस ताबूत के डिवाइस में एक पाइप जोड़ा गया. जिसमें हवा आने का रास्ता भी था. एक पंथ दो काज. खैर T के आकार के पाइप का काम ये था कि ये ताबूत के भीतर हो रही हरकतों को बाहर तक पहुंचाए. इसमें दफनाए गए शख्स के हाथ पाइप पर रखे जाते थे और ऊपर एक इंडिकेटर होता, जिससे ताबूत के भीतर हुई हलचल का पता चल सकता.
इसके अलावा कुछ ताबूतों के डिजाइन में पंखे भी लगाए गए, जिससे हवा और आसानी से भीतर आ सके. इस डिवाइस में बैटरी से लगा एक अलार्म भी था. पेटेंट में इसके काम करने के बारे में भी जानकारी दी जाती है. बताया जाता है कि जब कोई शख्स ताबूत के भीतर हरकत करेगा. तो इससे होगा ये कि अलार्म के तार और शरीर के साथ एक सर्किट पूरा हो जाएगा और घंटी बज जाएगी.
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हालांकि समय के साथ मेडिकल साइंस के क्षेत्र ने उपलब्धियां हासिल कीं. लोगों की जिंदगी और मौत का फैसला शीशे से होकर मशीनों तक पहुंचा. दिमाग की गतिविधियों और इलेक्ट्रिक मशीनों से आज बेहतर तरीके से किसी के जीवित या मृत होने का पता लगाया जा सकता है. लेकिन ऐसे ताबूतों के पेटेंट हाल के सालों में भी देखने को मिले हैं, मसलन साल 2010 में जेफ डैनेंबर्ग का डिजाइन. जिसमें ताबूत के भीतर की आवाज सुनने का भी इंतजाम था. खैर शीशे की जगह मशीनों ने ली तो घंटी और रस्सी की जगह बिजली वाले डिवाइसेज ने ली. पर इन सब के केंद्र में एक ही चीज है. टैफोफोबिया - जिंदा दफनाए जाने का खौफ! मौत के बाद जिन्हें जला दिया जाएगा, वे बेहतर मसहूस कर सकते हैं. पहले मौत का डर और फिर मौत के बाद जिंदा दफनाए जाने का डर. ग़ालिब शायद इसीलिए लिख गए थे -
"मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती"
वीडियो: तारीख: 'मौत' से वापिस लाने वाला अविष्कार! जब अफीम के नशे में बेसुध एक महिला को ताबूत में दफना दिया गया