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ऑस्ट्रेलिया ने जेरुसलम को इज़रायल की राजधानी मानने से इंकार क्यों किया?

जेरुसलम को लेकर क्या झगड़ा है?

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जेरुसलम को लेकर क्या झगड़ा है?
जेरुसलम को लेकर क्या झगड़ा है?
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साजिद खान
18 अक्तूबर 2022 (Updated: 18 अक्तूबर 2022, 20:53 IST)
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एक शब्द है, क्रूसेड. मतलब होली वॉर. ऐसे युद्ध, जो धर्म के आधार पर लड़े गए. साल 1099 और महीना जुलाई का था. ये कालखंड पहली क्रूसेड का था. इसमें ईसाइयों ने जेरुसलम को जीत लिया. उसके कुछ समय बाद ईजिप्ट में एक मुस्लिम योद्धा तैयार हुआ. ठीक 88 साल बाद उसने जेरुसलम पर हमला बोल दिया. उस वक्त जेरुसलम का सर्वे-सर्वा था, बालियन डी बेलिन. बालियन लड़ाई हार चुका था. दुश्मन सेना ने जेरुसलम को चारों ओर से घेर लिया. फिर भी बालियन सरेंडर करने को तैयार नहीं. वो कैदी नहीं बनना चाहता था. बालियन ने उस वक्त जो शब्द कहे वो इतिहास के पन्नों में गहरी स्याही से लिख दिए गए. बालियन ने कहा था-

‘हम अपनी औरतों और बच्चों को मार डालेंगे और जो कुछ हमारे पास है उसे जला देंगे. हम तुम लोगों को एक भी दीनार लूटने नहीं देंगे. न ही कोई दिरहम. एक भी आदमी या औरत को बंदी बनाने के लिए नहीं छोड़ेंगे, फिर हम पवित्र चट्टान, अल-अक्सा मस्जिद समेत दूसरे स्थलों को नष्ट कर देंगे. हम उन पांच हज़ार मुस्लिम कैदियों को भी मार डालेंगे जिन्हें हमने अभी पकड़ रखा है.’

बाहर खड़ी सेना का योद्धा सामने आया, उसने कहा हम आपको बंदी नहीं बनाएंगे, न ही किसी का क़त्ल करेंगे. उसने बालियन को 40 दिन का समय दिया जिसमें वो युद्ध की भरपाई के रूप में कुछ राशि जमा कर सके. बालियन ने शर्त मान ली और सरेंडर कर दिया. बालियन को हराकर जेरुसलम को कब्ज़ाने वाले उस योद्धा का नाम था सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी.

ये किस्सा इसलिए सुनाया ताकि दर्शकों को पता चले कि जेरुसलम को पाने के लिए कैसी दीवानगी लोगों में रही है. जेरुसलम पर कई बार हमले हुए.ई बार उसे जीता गया. लेकिन इस शहर के प्रति दीवानगी आज भी खत्म नहीं हुई है. आज भी इस शहर को लेकर वही तनाव है. लेकिन ऐसा क्या है इस शहर में? शहर के पुराने हिस्से में एक पहाड़ी के ऊपर फैला एक आयताकार प्लेटफॉर्म है. इसका क्षेत्रफल है करीब 35 एकड़. इस कंपाउंड को यहूदी पुकारते हैं, हर हबायित. ये हिब्रू भाषा का शब्द है. इस नाम का प्रचलित अंग्रेज़ी संस्करण है- टेम्पल माउंट. इसी परिसर को मुस्लिम बुलाते हैं हरम-अल-शरीफ़. एक ही जगह के अलग-अलग नाम क्यों? इसकी वजह है, दोनों धर्मों की मान्यताएं. यहूदी, मुसलमानों के साथ ईसाईयों का भी इस शहर से अकीदा जुड़ा हुआ है. 

अब सवाल आता है कि इतने महान शहर का कब्ज़ा किसके पास होना चाहिए? इसका जवाब इट्स कॉम्प्लिकेटेड. इज़रायल इसे अपनी राजधानी बताता है. लेकिन दुनिया के मुस्लिम मुल्क समेत और भी कई देश इसका विरोध करते हैं. इस बहस में मोड़ आया 6 दिसंबर 2017 को, जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने इसे इज़रायल की राजधानी के रूप में मान्यता दी. अमेरिका के नक्शेकदम पर चलते हुए ऑस्ट्रेलिया ने भी 2018 में जेरुसलम को इजरायल की राजधानी के तौर पर मान्यता दी थी. लेकिन आज ये कहानी सुनानी की वजह क्या है?

दरअसल ऑस्ट्रेलिया ने इजरायल की राजधानी के तौर पर जेरुसलम को दी गई मान्यता वापस ले ली है. ऑस्ट्रेलिया सरकार का कहना है कि इस मुद्दे को इजरायल और फिलीस्तीन के बीच शांति-वार्ता के जरिए सुलझाया जाना चाहिए.

अब समझते हैं, जेरूसलम को लेकर इतना बवाल क्यों मचता है?

इसके लिए हमें फिर से इतिहास में जाना पड़ेगा.

जेरुसलम के इतिहास को समझने के लिए हम समय की दो अलग-अलग टाइमलाइन में जा सकते हैं. एक तो कुछ सौ साल पहले की. दूसरी टाइमलाइन है सदियों पहले की. ईसा से भी पहले की.

सबसे पहले पुरानी वाली टाइमलाइन में दाखिल होते हैं.

ईसा से तक़रीबन 1 हज़ार साल पहले किंग सोलोमन हुए. उन्होंने जेरुसलम में एक मंदिर बनवाया. यहूदी मानते हैं ये मंदिर उस जगह है जहां पैगंबर अब्राहम ने अपने बेटे की कुर्बानी देने की ठानी थी, लेकिन इश्वर ने उनकी त्याग भावना को देखते हुए वहां एक भेड़ भेज दी, जिसके बाद अब्राहम ने भेड़ की कुर्बानी की. कमोबेश मुसलमान भी इसी मान्यता को मानते हैं. और इसी घटना के बाद ईद-उल अज़हा मनाते हैं.

रही बात किंग सोलोमन की तो इस्लाम में उन्हें एक पैगंबर का दर्जा मिला हुआ है. मुसलमान मानते हैं कि पैगंबर सुलेमान के पास जिन्नों को कंट्रोल करने की ताकत थी. उनकी मदद से उन्होंने मस्ज़िद-ए-अक्सा बनवाई थी.  

मस्ज़िद-ए-अक्सा (AFP)

आप सोच रहे होंगे कि इन धर्मों में इतनी समानता कैसे? इनकी कहानियां और मान्यताएं इतनी मिलती जुलती कैसे हैं? दरअसल यहूदी, मुसलमान और ईसाई धर्मों के तार समय में पीछे जाकर एक साथ जुड़ते हैं, ये सभी पैगंबर इब्राहीम के मानने वाले हैं. इसलिए इन्हें ऐब्राहमिक रिलेजन कहा जाता है.

खैर हम लौटते हैं किंग सोलेमन के बनाए हुए मंदिर की तरफ. इस मंदिर के बनाए जाने के तकरीबन पांच सदी बाद, माने 516 ईसापूर्व में यहूदियों ने दोबारा इसी जगह पर एक और मंदिर बनाया. वो मंदिर कहलाया- सेकेंड टेम्पल. ये सेकेंड टेम्पल करीब 600 सालों तक वजूद में रहा. सन 70 में रोमन्स ने इसे तोड़ दिया. इस मंदिर की एक दीवार आज भी मौजूद है. इसे कहते हैं- वेस्टर्न वॉल.

ये रही यहूदी मान्यता. मुसलमान मानते हैं कि इसी जगह माने मस्ज़िद-ए-अक्सा से इस्लाम के आखिरी पैगंबर मोहम्मद ने जन्नत तक का सफ़र किया था, इसे इस्लाम में ‘मेराज’ नाम से जाना गया. साथ ही इसी मस्ज़िद में उन्होंने उनसे पहले आए सभी पैगम्बरों के साथ नमाज़ अदा की थी. मुसलमानों की इस मस्ज़िद से एक और मान्यता जुडी हुई है, दरअसल पहले मुसलमान इसी मस्ज़िद की तरफ रुख करके नमाज़ अदा किया करते थे. लेकिन अल्लाह के एक आदेश के बाद ये रुख बदलकर मस्ज़िद-ए-हरम जो मक्का में है वहां कर दिया गया.
पैगंबर मोहम्मद की वफात के 4 साल बाद मुसलामानों ने जेरुसलम पर हमला कर दिया. तब यहां बैजेन्टाइन साम्राज्य का शासन था. मुसलमानों ने आगे चलकर वहां अल अक्सा मस्ज़िद की बिल्डिंग फिर से खड़े की, भव्य रूप में. इसी अल-अक्सा मस्ज़िद के सामने की तरफ़ है, एक सुनहरे गुंबद वाली इस्लामिक इमारत. इसे कहते हैं- डम ऑफ़ दी रॉक.
आगे जाकर इसके लिए कई क्रूसेड वॉर हुईं. इसाई और मुसलामानों के बीच में.

अब आते हैं हम अपनी पहली टाइमलाइन में माने हाल के इतिहास में. जेरुसलम, फिलिस्तीन की ज़मीन पर था. उस वक्त फिलिस्तीन पर ओटोमन्स का कब्ज़ा था. साल 1917 में पहले विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटेन ने फिलिस्तीन पर कब्ज़ा कर लिया. जर्मनी में यहूदी पर ज़ुल्म जारी था, यहूदी अपने घर की तालाश में थे. वे इज़रायल को अपने पुरखों की ज़मीन मानते थे. उन्होंने अपने लिए उसी जगह एक अलग देश की मांग कर दी. ब्रिटेन ने उनकी मांगों को उठाया. फ़िर बलफोर डिक्लेरेशन हुआ. 1939 तक हर साल 10 हज़ार से ज़्यादा यहूदी फिलिस्तीन में बसाए जाने लगे. 1947 में जिस साल हमें आज़ादी मिली उसी साल UN ने सिफारिश की कि फिलिस्तीन की ज़मीन को दो हिस्सों में बांट देना चाहिए. एक यहूदी को देना चाहिए और एक अरब देशों को.

ऐसा ही हुआ. साल 1948 में गठन हुआ, इज़रायल का. लेकिन इज़रायल इतने में खुश नहीं हुआ, वो जेरुसलम को अपनी राजधानी बनाना चाहता था. क्योंकि उसकी पवित्रतम जगहें, उसका टेम्पल माउंट यही हैं. मगर जेरुसलम और टेम्पल माउंट पर अधिकार मिलना इतनी साधारण बात नहीं थी. यहूदियों की ही तरह दुनियाभर के मुसलमानों की भी आस्था जुड़ी थी इससे. मुसलमान पहले ही इज़रायल के गठन का विरोध कर रहे थे. ऐसे में जेरुसलम और टेम्पल माउंट का कंट्रोल अगर इज़रायल को मिल जाता, तो भयंकर खून-ख़राबा होता.
संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में दुनिया के बड़े देशों ने एक मसौदा बनाया. इसे कहते हैं, पार्टिशन रेजॉल्यूशन. इसके मुताबिक, जेरुसलम पर इंटरनैशनल कंट्रोल की बात कही गई. और इस कंट्रोल का पहरेदार UN ने ख़ुद को बनाया.

इज़रायल मसौदे पर राज़ी था. मगर अरब मुल्कों ने इसे खारिज़ कर दिया. दोनों पक्षों के बीच संघर्ष हुआ. इसी संघर्ष का एक अध्याय था, 1967 का सिक्स डे वॉर. इस युद्ध में इज़रायल की जीत हुई. और इसके साथ ही टेम्पल माउंट उसके कंट्रोल में आया.

इज़रायल ने इस इलाके को जीत तो लिया, मगर उसने पवित्र परिसर के कंट्रोल में बदलाव नहीं किया. उस समय इज़रायल के रक्षामंत्री थे, मोशे डायन. उन्होंने टेम्पल माउंट को लेकर मुस्लिम नेताओं से वार्ता की. दोनों पक्षों के बीच एक समझौता हुआ. इसके मुताबिक, टेम्पल माउंट के प्रबंधन का अधिकार जॉर्डन को दे दिया गया. वो इसका कस्टोडियन बना गया. इस समझौते में एक बड़ा बदलाव ये हुआ कि अब यहूदियों को भी इस परिसर में प्रवेश की अनुमति मिल गई. लेकिन केवल पर्यटक के तौर पर. वो कंपाउंड में आ तो सकते थे, मगर यहां पूजा-पाठ नहीं कर सकते थे.

लेकिन इससे दोनों तरफ के कुछ लोग ख़ुश नहीं थे. कुछ समय तो स्चीवेशन ऐसी ही रही. लेकिन जब मसला नहीं सुलझा तो 1982 में एक और झड़प हुई. इस बरस ऐलन गुडमैन नाम का एक इज़रायली सैनिक पवित्र परिसर में स्थित 'डॉम ऑफ़ दी रॉक' में घुस गया. उसने मशीनगन से फायरिंग शुरू कर दी. इस वारदात में दो लोग मारे गए.
इस घटना के बाद यहूदियों और मुस्लिमों के बीच भी तनाव बढ़ा. लेकिन मामला फिर शांत हो गया, हालांकि समय-समय पर दोनों के बीच तना-तनी चलती रही.
फिर आया साल 2000. इस साल इज़रायल के पूर्व प्रधानमंत्री एरियल शेरन ख़ूब भारी-भरकम सुरक्षा के बीच टेम्पल माउंट पहुंचे. मकसद था, इज़राल का अधिकार स्थापित करना. इस प्रकरण के चलते ख़ूब फ़साद हुआ. जेरुसलम में ख़ूब दंगा हुआ.

2007 में फिलिस्तीन में एक टेम्पररी सरकार बनी, 2014 में हमास और इजराइल में जंग शुरू हो गयी. वेस्ट बैंक पर इजराइल का कब्ज़ा है. गाजा में फिलिस्तीनी रहते हैं. पर इजराइल की मिलिट्री ने वहां डेरा डाल रखा है.2014 में इजराइल और हमास में भयानक भिड़ंत हुई. 8 जुलाई से 26 अगस्त तक चली इस लड़ाई में दो हज़ार से अधिक फिलिस्तीनी और 73 इजराइली मारे गए.फरवरी 2017 में इज़रायल की ससंद में एक कानून पारित हुआ, जिससे वेस्ट बैंक के कुछ इलाकों में जहां फिलिस्तीन का कब्ज़ा था वहां नई यहूदी बस्ती बसाई जा सके.
साल 2017 खत्म होने को था, दिसंबर का महीना था. उस समय अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प थे. व्हाइट हाउस के डिप्लोमैटिक रिसेप्शन रूम से ट्रम्प ने एक घोषणा की. उस घोषणा ने पूरी दुनिया में कोहराम मचा दिया. ट्रम्प ने कहा –

‘आज हम आखिरकार स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं कि जेरुसलम इजरायल की राजधानी है.यही वास्तविकता है. न इससे ज़्यादा और न इससे कुछ कम. यही सही है. पूर्व राष्ट्रपतियों ने इस बारे में अभियान चलाया, लेकिन इस वादे को पूरा करने में असफल रहे. आज मैं इस वादे को पूरा कर रहा हूं’

ट्रंप ने अमेरिकी प्रशासन को इस बारे में भी निर्देश दिया कि इजरायल के तेल अवीव स्थित अमेरिकी दूतावास को जेरुसलम ले जाने की प्रक्रिया शुरू की जाए.

एक साल बाद ऑस्ट्रेलिया ने भी अमेरिका की देखादेखी में फैसला लिया और जेरुसलम को इज़रायल की राजधानी के तौर पर मान्यता दे दी. लेकिन अब उन्होंने अपने फैसले से यू-टर्न ले लिया है. ऑस्ट्रेलिया के विदेश मंत्री पेनी वॉन्ग ने एक मीडिया कॉन्फ्रेंस के दौरान कहा कि

‘पश्चिमी जेरुसलम  को इज़रायल की राजधानी के रूप में मान्यता का फैसला पलट दिया गया है. राजधानी का दर्जा तब तक अंतिम नहीं माना जाना चाहिए जब तक कि फलीस्तीनी लोगों के साथ शांतिवार्ता पूरी नहीं हो जाती. इसे दोनों देशों के बीच शांतिवार्ता के साथ ही सुलझाया जाना चाहिए’

उन्होंने ये भी कहा कि पिछली सरकार का ये फैसला सही नहीं था, वो सिर्फ वोट पाने और चुनाव जीतने के लिए किया गया था. ऑस्ट्रेलिया का दूतावास तेल अवीव में ही रहेगा.

ऑस्ट्रलिया के इस फैसले के बाद इज़रायल ने कड़ी प्रतिक्रिया दी है. वहीं दूसरी तरफ फिलिस्तीन ने इस फैसले की सराहना की है.

इजरायल के प्रधानमंत्री याया लापिड ने कहा ,

‘हम केवल ये उम्मीद कर सकते हैं कि ऑस्ट्रेलियाई सरकार दूसरे मामलों को अधिक गंभीरता और पेशेवर रूप से हैंडल करे. जेरुसलम, इज़रायल की राजधानी है, ये हकीकत कभी नहीं बदलने वाली है’

अब देखने वाली बात ये होगी कि इज़रायल और फिलिस्तीन का ये मसला कब तक सुलझता है.

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