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कहानी ULFA की, जिसने भारत सरकार के साथ शांति समझौते पर दस्तखत किए हैं

90 के दशक में ULFA पूरे साउथ-ईस्ट एशिया का सबसे खतरनाक और ताकतवर संगठन हुआ करता था. उल्फा की पूरी कहानी जानिए.

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ulfa peace agreement
उल्फ़ा के लड़ाके (फाइल फोटो- इंडिया टुडे)
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शिवेंद्र गौरव
29 दिसंबर 2023 (Updated: 29 दिसंबर 2023, 23:41 IST)
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आज, 29 दिसंबर को असम (assam) के सबसे बड़े उग्रवादी संगठन (extremist organization), यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम यानी ULFA ने भारत सरकार (modi government) और असम के साथ एक त्रिपक्षीय शांति समझौते (peace agreement) पर हस्ताक्षर किए. ULFA के प्रो टॉक डेलिगेशन में 16 लोग थे. इस डेलिगेशन ने गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात की और समझौते पर बात बनी. इस दौरान असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा भी मौजूद रहे.

समझौते का मकसद असम में दशकों से व्याप्त उग्रवाद, हिंसा और डर के माहौल को ख़त्म करना है. सालों से उल्फ़ा के हजारों काडरों और देश के सुरक्षा बलों के बीच हिंसात्मक संघर्ष जारी है. इसमें सुरक्षा बलों के जवानों सहित हजारों आम लोग मारे गए हैं. समझौता असम को भय और हिंसा से मुक्त करने की दिशा में एक बड़ा कदम है. हालांकि, परेश बरुआ के नेतृत्व वाला उल्फा का गुट, उल्फ़ा (इंडिपेंडेंट)  इस समझौते का हिस्सा नहीं होगा.  

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आजतक की एक खबर के मुताबिक, ये जानकारी सामने आई है कि 29 दिसंबर को शाम 5 बजे केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की मौजूदगी में भारत सरकार, असम सरकार और उल्फ़ा के प्रतिनिधियों के बीच इस समझौते पर दस्तखत हुए. समझौते के तहत, उल्फा के हजारों सशस्त्र काडर आत्मसमर्पण करके मुख्य धारा में शामिल होंगे. बीते एक साल से भारत सरकार इस शांति समझौते पर काम कर रही थी और उल्फा के बड़े नेताओं और सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों के बीच बातचीत चल रही थी.

कुछ सवाल हैं जिनके जवाब जानना जरूरी है. मसलन, उल्फ़ा क्या है, इसकी नींव क्यों रखी गई, इसके दो गुट कैसे बने, और क्या सबसे गुट इस शांति समझौते पर सहमत हैं? सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या इस शांति समझौते के बाद, असम पूरी तरह उल्फ़ा के आतंक से मुक्त हो जाएगा? शुरू से शुरू करते हैं.

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उल्फ़ा क्यों बना?

असम मूल रूप से कई छोटी-छोटी जनजातियों की जमीन रहा है. साल 1826 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने जनजातीय समूहों के राजवंश को हराकर असम पर कब्जा कर लिया था. फिर 1874 में असम एक अलग प्रांत बना. तब इसकी राजधानी शिलॉन्ग थी. देश आजाद हुआ और असम भारत का राज्य बना. असम में लोगों को तीन श्रेणियों- जनजातीय, गैर-जनजातीय और अनूसूचित जाति में बांटा गया है.

साल 1979 में असम में विद्रोह की शुरुआत हो गई. विद्रोह के पीछे, कोई बड़ी मांग होती है. ये मांग थी- असम को अलग देश बनाना. और इसके केंद्र में था- ULFA. इसे बनाया था परेश बरुआ और राजीव राजकोँवर उर्फ़ अरबिंद राजखोवा ने. परेश, उल्फ़ा की मिलिट्री विंग का कमांडर था. कुछ और लोग भी साथ थे. मसलन-  भीमकान्त बुरागोहांइ, गोलाप बरुवा उर्फ अनुप चेतिया, समिरण गोगई उर्फ प्रदीप गोगई और भद्रेश्वर गोहांइ. ये लोग माओवादी विचारधारा के मानने वाले थे. उल्फ़ा का कहना था कि असम कभी भी भारत का हिस्सा नहीं था. उसके मुताबिक, असम जिन परेशानियों का सामना कर रहा था उनमें सबसे बड़ी थी- उसकी राष्ट्रीय पहचान की समस्या. इसीलिए उल्फ़ा का लक्ष्य था एक 'संप्रभु असम' बनाना. माने एक अलग देश.

1979 में ही ऑल स्टूडेंट्स असम यूनियन यानी AASU भी बना, जिसने अवैध प्रवासियों के खिलाफ आंदोलन छेड़ा था. 1987 में ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन (ABSU) ने बोडो जनजाति के लिए अलग 'बोडोलैंड' की मांग को लेकर आंदोलन कर दिया. इसके बाद बोडो जनजाति के कई उग्रवादी संगठन बनते चले गए. नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (NDFB) और कामतापुर लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (KLO) बड़े उग्रवादी संगठन थे. इस दौरान कई और जनजाति और आदिवासियों ने भी अपने-अपने संगठन बना लिए.

लेकिन 90 के दशक के आखिरी सालों तक, उल्फा सबसे बड़ा उग्रवादी संगठन बन चुका था. माना जाता है कि नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ़ नागालैण्ड (NSCN) और म्यान्मार में सक्रिय संगठन काछिन रेबेल्स जैसे संगठनों से भी उल्फ़ा को हथियार, पैसा और ट्रेनिंग की मदद मिल रही थी. तिनसुकिया और डिब्रुगढ़ जिलों में इसके कई प्रशिक्षण कैम्प खुल गए. 89 में उल्फ़ा को बांग्लादेश में भी कैंप लगाने की अनुमति मिल गई. दावे ये भी किए जाते हैं कि उल्फ़ा के लोगों को पाकिस्तान तक में ट्रेनिंग दी जाती थी. ज्यादा से ज्यादा युवा उल्फ़ा से जुड़ रहे थे. बंदूक उठा रहे थे. इन युवाओं को उल्फा के नेताओं की तड़कती-भड़कती बातें पसंद आ रही थीं. अवैध अप्रवासी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और गैर-असम नागरिकों का कारोबार में दबदबा भी था जो वहां के युवाओं को काफी अखरता था. लेकिन इस 'क्रांति' की आड़ में जबरन वसूली और हथियारों की तस्करी बढ़ रही थी. सुरक्षा बलों के साथ खूनी संघर्ष में बड़ी तादाद में आम नागरिक मारे जा रहे थे. उल्फ़ा का समर्थन भी कुछ घट रहा था.

उल्फ़ा के दो गुट क्यों बने?

90 के दशक तक, उल्फ़ा कई बड़ी हिंसक वारदातों को अंजाम दे चुका था. अपने गठन से एक दशक से भी कम वक़्त में उल्फ़ा साउथ-ईस्ट एशिया का सबसे हिंसक, सबसे ताकतवर और सबसे तेजी से बढ़ने वाला विद्रोही संगठन बन चुका था. ऐसे में केंद्र सरकार ने साल 1990 में इसे प्रतिबंधित संगठन घोषित कर दिया. लेकिन उल्फ़ा की वारदातें नहीं रुकीं. उल्फ़ा कई सरकारी, गैर सरकारी नामचीन हस्तियों, विदेशी नागरिकों, व्यापरियों की हत्या कर चुका था. उल्फ़ा के कई बम विस्फोटों में आम लोगों की जान जा रही थी. तेल की पाइपलाइन, रेलवे ट्रैक, सरकारी इमारतें. उल्फ़ा के उग्रवादी कहीं भी हमला कर रहे थे. साल 1996 में उल्फ़ा से निकलकर, एक और मिलिट्री विंग बनी- संजुक्ता मुक्ति फ़ोर्स (SMF) इसकी कई सशस्त्र बटालियन थीं. उल्फा के साथ भारत सरकार ने कई बार बात करनी चाही. लेकिन उल्फा में आपसी टकराव भी था, इसलिए बातचीत बेनतीजा रही.

साल 1991 में 31 दिसंबर के दिन उल्फ़ा के एक शीर्ष कमांडर, हीरक ज्योति महंत उर्फ़ नरेन डेका की मौत हो गई. उल्फ़ा को और भी कई मोर्चों पर लड़ना था. भारत सरकार के अलावा, बांग्लादेश में भी, शेख हसीना की सरकार, उल्फ़ा को अब अपने जमीनी बेस देने के मूड में नहीं थी. उल्फ़ा के कुछ बड़े नेता मार दिए गए, कुछ को गिरफ्तार कर लिया गया. 21 वीं सदी के पहले दशक के ख़त्म होते-होते उल्फ़ा बंट चुका था. सिर्फ औपचारिक घोषणा बाकी थी. 5 फरवरी, 2011 को उल्फ़ा के दूसरे नंबर के नेता प्रदीप गोगोई और उनके गुट के शशधर चौधरी और मिथिंगा दैमारी ने घोषणा की, कि उल्फ़ा की जनरल काउंसिल, सेंट्रल एग्जीक्यूटिव काउंसिल के इस प्रस्ताव को मानने पर सहमत है कि केंद्र सरकार के साथ बिना शर्त बातचीत की जाए. दूसरा गुट था- परेश बरुआ का. उन्होंने, जनरल काउंसिल को ही अवैध बता दिया और, उसके प्रस्ताव को खारिज कर दिया. इसके बाद अगस्त, 2012 में परेश बरुआ ने अरविंद राजखोवा को निकालकर अभिजीत बर्मन को अध्यक्ष बना दिया.

अरविंद राजखोवा (मध्य में), फोटो सोर्स- इंडिया टुडे

इस तरह औपचारिक रूप से उल्फ़ा के दो गुट उभरे- भारत सरकार से वार्ता का विरोधी गुट उल्फ़ा ATF और भारत सरकार से वार्ता का समर्थक गुट उल्फ़ा PTF. उल्फ़ा ATF की कमान परेश के हाथों में थी जबकि अरविंद राजखोवा, उल्फ़ा PTF के नेता बने. अरविंद राजखोवा का गुट, 3 सितंबर 2011 को ही सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशंस (SOO) पर दस्तखत करने के बाद सरकार के साथ बातचीत में शामिल हो गया था. लेकिन परेश का गुट सरकार के साथ वार्ता के खिलाफ रहा. इसने अपना नाम उल्फ़ा ATF से बदलकर, उल्फ़ा I कर लिया.

परेश बरुआ (फोटो सोर्स- आजतक)
हालिया स्थिति क्या है?

उल्फ़ा का कोई भी गुट उतना ताकतवर नहीं रहा. जितना वो 90 के दशक में हुआ करते थे. बीते सालों में उल्फ़ा के हजारों उग्रवादियों ने सरकार के सामने हथियार डाले हैं. लेकिन पूर्ण शांति के लिए पूर्ण समझौते की जरूरत होती है. परेश बरुआ वाला गुट उल्फ़ा-I अभी भी सरकार से बात करने के पक्ष में नहीं है. उल्फ़ा (I) की हिंसा अभी भी जारी है. असम के जंगली इलाकों में हाल ही में कुछ विस्फोट हुए थे. उल्फा-I का दावा था कि ये विस्फोट उसने किए.

बीते दिनों असम के वर्तमान DGP, जीपी सिंह और उल्फा-आई के बीच तीखी बयानबाजी सामने आई. इंडियन एक्सप्रेस की एक खबर के मुताबिक, उल्फ़ा के बम विस्फोट के दावे पर जीपी सिंह ने कहा,

"असमिया लोगों को उनसे (उल्फा-आई) से सवाल करना चाहिए कि वे ये (धमाके) क्यों कर रहे हैं. अगर वे किसी के खिलाफ निजी तौर पर कुछ करना चाहते हैं तो उन्हें उसी तरह की कोशिश करनी चाहिए. मैंने कब कहा कि मैं उनसे डरता हूं? मेरा निवास काहिलीपारा में है और मेरा ऑफिस उलुबरी में है. अगर आपको मुझसे कोई दिक्कत है तो आइए और मुझ पर निशाना साधिए."

इसके बाद, उल्फ़ा ने बयान जारी कर जीपी सिंह को सिर्फ एक हफ्ते तक बिना सिक्योरिटी कवर के निकलने की चुनौती दी. जीपी सिंह का कहना है कि 'असम को शांतिपूर्ण बनाए रखने के लिए वो सभी कानूनी कदम उठाएंगे. असम के विकास में बाधक लोगों का विरोध करेंगे.'

असम के DGP, जीपी सिंह (फोटो सोर्स- इंडिया टुडे)

बीते दिनों असम के मुख्यमंत्री हिमंता ने कहा कि परेश बरुआ के मुख्यधारा में लौटने से सारे मुद्दे सुलझ जाएंगे. अखबार के मुताबिक, उन्होंने कहा,

"कुछ लोग संगठन (उल्फ़ा) में जॉइन होने जाएंगे और लौट भी आएंगे. ऐसे लोगों के मिलने पर पुलिस कार्रवाई कर सकती है. एक बार परेश बरुआ मुख्यधारा में लौट आएं तो ये सभी मुद्दे खत्म हो जाएंगे. ये मुद्दे उनके लौटने तक जारी रहेंगे. हर कोई ये जानता है."

लेकिन परेश आज भी शांति के किसी समझौते पर दस्तखत करने को सहमत नहीं हैं.

वीडियो: ग्राउंड रिपोर्ट : "मत बोलो मुझे उग्रवादी"

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