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प्लेन क्रैश: बर्फ में 72 दिन, खाना खत्म, फिर क्या हुआ?

बिना खाने के 72 दिन जिंदा रहे लोगों का राज़!

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plane crash survival cannibalism
72 दिन तक एक पहाड़ पर बिना खाने के दिन गुजारने वाले लोग जिन्हें नरमांसभक्षण से गुजरना पड़ा (तस्वीर: Wikimedia)
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कमल
13 अक्तूबर 2023 (Published: 08:30 IST)
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"मैंने आपके बेटे के मुर्दा शरीर का मांस खाया है".

19 साल का एक लड़का दो लोगों के सामने ये बात कह रहा है. ये मां बाप हैं, उस लड़के के जिसके साथ कभी उसने मिलकर खून पसीना बहाया था. जिसके साथ खेला, जीत में जश्न मनाया और हार का गम साझा किया.लेकिन अब वो लड़का दुनिया में नहीं था. था तो बस उसका एक आख़िरी खत. मां बाप ने खत लिया. उसे पढ़ा भी लेकिन उनके कानों में वही शब्द गूंज रहे थे.

"मैंने आपके बेटे का मांस खाया".

दुनिया के कोई भी माता पिता ये सुनते तो क्या करते? पता नहीं. लेकिन आपको बताते हैं उन मां-बाप ने क्या किया? उनकी आंखों में आंसू थे. आंसू बहते रहे लेकिन साथ ही चार हाथ उठे और खत लाने वाले उस लड़के को भींचकर गले से लगा लिया. आज हम आपको बताएंगे कहानी उत्तरजीविता की. अंग्रेज़ी में बोले सर्वाइवल. 45 लोग, एक प्लेन क्रैश, एक बर्फ का पहाड़, -30 डिग्री तापमान और 72 दिनों का संघर्ष.

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प्लेन जिस ग्लेशियर से टकराया उसे ग्लेशियर ऑफ टियर्स का नाम दिया गया (तस्वीर: wikimedia)
ग्लेशियर से टकराया प्लेन 

कहानी शुरू होती है लैटिन अमेरिका के एक देश उरुग्वे से. साल 1972, 12 अक्टूबर की तारीख. उरुग्वे से एक प्लेन उड़ान भरता है. फ्लाइट संख्या 572. क्रू को मिलाकर प्लेन में 45 लोग सवार थे. जिनमें शामिल थे उरुग्वे की एक लोकल रग्बी टीम के खिलाड़ी. इन्हें चिली जाना था. चिली लैटिन अमेरिका में ही आता है. उरुग्वे और चिली के बीच एक और देश पड़ता है, अर्जेंटीना. उरुग्वे से उड़ान भरने वाला प्लेन पहले अर्जेंटीना में लैंड हुआ. मौसम की खराबी के कारण. अगले रोज़ इसने फिर उड़ान भरी. 13 अक्टूबर, दोपहर 3 बजकर 21 मिनट पर प्लेन अर्जेंटीना और चिली के बॉर्डर के ऊपर से उड़ रहा था. नीचे एंडीज़ की पहाड़ियां थीं. अमेरिकी महाद्वीप की सबसे लम्बी पर्वत श्रृंखला, जो बारहों महीने बर्फ से ढकी रहती हैं. मौसम साफ़ था. सब कुछ सही था लेकिन फिर पायलट से एक बड़ी गलती हो गई. (Plane Crash)

डॉक्टर रॉबर्ट केनेसा तब मेडिकल स्टूडेंट हुआ करते थे. और शौकिया तौर पर रग्बी की टीम से खेलते थे. प्लेन में बैठी रग्बी टीम में केनेसा भी शामिल थे. सालों बाद नेशनल जियोग्राफिक को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि प्लेन अचानक नीचे की और जाता महसूस हुआ. कुछ देर बाद उनके बगल में बैठा एक यात्री बोला,

“क्या तुम्हें नहीं लगता प्लेन पहाड़ की चोटियों से कुछ ज्यादा ही नजदीक उड़ रहा है?”

उस बंदे की आशंका एकदम सही थी. कोई कुछ समझ पाता. इससे पहले ही प्लेन तेज़ी से नीचे की ओर गिरने लगा. पूरे प्लेन में चीख पुकार मच गई. डॉक्टर केनेसा को लगा, ये शायद उनकी जिंदगी का आख़िरी दिन है. प्लेन क्रैश कर रहा था और केनेसा बेबस थे. कोई कुछ कर सकता था, तो वो था प्लेन का पायलट. लेकिन असलियत में सारी गलती वहीं से शुरू हुई थी.

एक गलतफहमी के चलते पायलट को लगा कि वो एयरपोर्ट से एकदम नजदीक है. जबकि डेस्टिनेशन अभी 60 किलोमीटर दूर था. इस चक्कर में प्लेन जिस ऊंचाई पर उड़ रहा था, पायलट वहां से काफी नीचे ले आया, एंडीज़ की पहाड़ियों के एकदम नजदीक. जब पायलट को अपनी गलती का अहसास हुआ उसने प्लेन को दुबारा ऊपर ले जाने की कोशिश की. लेकिन इसी चक्कर में प्लेन स्टाल कर गया. और सीधे नीचे की ओर गिरने लगा. प्लेन का बायां पंख एक पहाड़ी से टकराया और उसके परखच्चे उड़ गए. इसके बाद प्लेन पहाड़ी पर फिसलता हुआ सीधे जाकर एक ग्लेशियर से टकराया. पंख और टेल दोनों टूट चुके थे. सिर्फ प्लेन की बॉडी यानी फ्यूसलाज़ बचा था. 12 लोग प्लेन क्रैश के दौरान मारे गए थे. जो बचे थे, उनके सामने थी एक बड़ी चुनौती.

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रात को सर छिपाने के लिए प्लेन के अंदर शरण लेते थे (तस्वीर: wikimedia )
खाना ख़त्म हुआ 

वे लोग एंडीज़ की जिस पहाड़ी पर क्रैश हुए थे. वो सभ्यता से कोसो दूर था. चारों तरफ सिर्फ बर्फ की बर्फ. ऐसे में बचाव दल सिर्फ हेलीकॉप्टर से उन तक पहुंच सकता था. तभी उनकी जान बच सकती थी. बचाव दल के आने तक जरूरी था कि वो लोग अपनी जान बचाने का इंतज़ाम करें. सबसे जरूरी था खाने का इंतज़ाम. एंडीज़ की पहाड़ियों में न कोई हरियाली थी, न कोई जानवर ऐसे में उन्होंने प्लेन से जो कुछ मिला उसे इकट्ठा कर लिया.

आठ चॉकलेट, तीन जैम के डब्बे, कुछ बादाम, खजूर, अंजीर और वाइन की कुछ बोतलें- इस सामान से उन्हें तब तक काम चलाना था, जब तक बचाव दल ना आ जाए. इसके अलावा उन लोगों ने सूटकेस इकठ्ठा किए. उनसे बर्फ में एक क्रॉस बनाया. साथ ही SOS का निशान बनाया ताकि ऊपर से यदि कोई प्लेन गुजरे तो देख ले. इसके बाद वो बचाव दल का का इंतज़ार करने लगे. एक दिन गुजरा दो दिन गुजरे, तीन दिन गुजर गए. इस बीच में कई प्लेन उनके ऊपर से गुजरे लेकिन मदद कहीं से नहीं आई. सफ़ेद बर्फ में प्लेन का सफ़ेद फ्यूसलाज़ किसी को नहीं दिखा.

इस बीच एक और आफत खड़ी हुई. खाना ख़त्म होने लगा. कई लोग चोटिल थे, उन्हें ताकत देनी जरूरी थी. पानी तो धूप में बर्फ के टुकड़े पिघला कर मिल गया लेकिन खाने का कोई जरिया नहीं था. जब कई दिन बाद भूख सहन नहीं हुई, तो आखिर में उन्होंने वो चुनाव किया, जिसे इंसानी समाज में सबसे बड़ा टैबू माना जाता है. प्लेन में मारे गए लोगों की लाशें पास ही बर्फ में दबी हुई थीं. किसी ने आइडिया दिया कि उन लोगों का मांस खाया जा सकता है. आइडिया प्रैक्टिकल था. लेकिन इंसानी मांस सुनते ही सबसे मन में सिहरन दौड़ गई. खासकर तब जब ये लाशें उनके अपने दोस्तों और रिश्तेदारों की थी. (Cannibalism)

नेशनल जियोग्राफिक से बात करते हुए डॉक्टर रॉबर्ट केनेसा बताते हैं, मेडिकल स्टूडेंट होने के नाते उन्हें पता था कि इंसानी मांस या जानवर के मांस में टेक्निकली कोई अंतर नहीं होता. लेकिन जब मांस काटने की बारी आई, उनके हाथ कंपकपा उठे. हालांकि जान बचाने का कोई और रास्ता नहीं था. इसलिए उन लोगों ने आपस में बात कर एक दूसरे से एक वायदा किया. वायदा ये कि अगर किसी की मौत हो गई, तो वो व्यक्ति भी यही चाहेगा कि दूसरे लोग उसका मांस खाकर अपनी जान बचाएं. अंत में यही किया गया. मारे गए लोगों का कच्चा मांस खाकर उन्होंने खुद को जिन्दा रखा. सिर्फ दो लाशों को छोड़ दिया गया. एक जो ग्रुप के एक सदस्य की मां थी. और एक छोटा सा बच्चा जो किसी का भतीजा था.

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11800 फ़ीट की ऊंचाई पर पहाड़ दिन पर दिन इम्तिहान लेता जा रहा था. तापमान रात को -30 डिग्री पहुंच जाता था. ऐसी परिस्थितियों में उन लोगों ने 72 दिन गुजारे. (तस्वीर: Wikimedia)

इंसानी मांस के सहारे उन लोगों ने कई दिन गुजारे. रात को सर छुपाने के लिए प्लेन की बॉडी का इस्तेमाल किया और सीट की रुई निकालकर उनका कंबल बनाया. रात को कई बार ठण्ड इतनी बढ़ जाती थी कि पेशाब करने बाहर नहीं जा सकते थे . ऐसे में उन्होंने रग्बी की उन बॉल्स का इस्तेमाल किया जिन्हें वो खेलने के लिए लाए थे. जो भी हो सकता था, वो सब उन लोगों ने किया. तब तक जब तक किया जा सकता था. हालांकि मुसीबत दिन पर दिन बढ़ती जा रही थी. घटना के कुछ रोज़ बाद ग्रुप के कुछ लोग एक हिमस्खलन की चपेट में आ गए. और 17 लोगों की मौत हो गई. कुछ दिन बाद एक और शख्स चोट से मारा गया.

11800 फ़ीट की ऊंचाई पर पहाड़ दिन पर दिन इम्तिहान लेता जा रहा था. तापमान रात को -30 डिग्री पहुंच जाता था. ऐसी परिस्थितियों में उन लोगों ने 72 दिन गुजारे. बचाव दल का दूर-दूर तक कोई निशान नहीं था. उम्मीद बाकी थी. लेकिन वो भी जल्द ही टूट गयी. इन लोगों को प्लेन के मलबे में एक रेडियो मिला था. जिससे वो लगातार खबर सुन रहे थे. इस रेडियो से उन्हें पता चला कि बचाव दल अपनी तरफ से पूरी कोशिश में लगा था. हेलीकॉप्टर से एंडीज़ पहाड़ी के 100 से ज्यादा चक्कर लगाए गए. लेकिन जब कहीं प्लेन का निशान नहीं दिखा, सर्च ऑपरेशन रोक दिया गया.

बिना उपकरण पहाड़ चढ़ गए 

आख़िरी उम्मीद भी ख़त्म हो गई. प्लेन से बचे हुए लोगों को पहाड़ी पर 70 से ज्यादा दिन हो चुके थे. इस बीच कई लोगों की और मौत हुई और अंत में महज 16 लोग बचे. इन लोगों के जिंदा बचे रहने का अब सिर्फ एक रास्ता था. उनमें से कोई पहाड़ से बाहर जाने का रास्ता तलाशे और मदद लाने की कोशिश करे. काफी बहस के बाद तीन लोगों ने इस काम का बीड़ा उठाया. नंदो पराडो, अंतोनियो टिनटिन और रॉबर्ट केनेसा. तीनों ने खाने का कुछ सामान लिया और सफर पर निकल पड़े. कुछ दूर जाकर किस्मत से उन्हें पानी की एक धारा मिली. उम्मीद और बढ़ गयी थी. लेकिन तीनों ने तय किया कि टिनटिन लौट जाएगा. ताकि खाने का सामान ज्यादा दिन चले.

दो लोग आगे बढ़ते रहे. कुछ दूर जाकर उन्हें अहसास हुआ कि आगे बढ़ने के लिए 15 हजार फ़ीट का एक पहाड़ पार करना जरूरी था. उनके पास पहाड़ चढ़ने के उपकरण नहीं थे. न ही बर्फ पर चलने के जरूरी साजो सामान. प्लेन के टुकड़ों से जुगाड़ बनाकर उन्होंने कुछ जूते बनाए थे ताकि बर्फ पर चल सके. पहाड़ चढ़ना मुश्किल था, लेकिन वापसी का मतलबा था पक्की मौत. इसलिए दोनों ने तय किया कि वो पहाड़ चढ़ेंगे और बिना किसी उपकरणके चढ़ भी गए. पहाड़ के दूसरी तरफ उन्होंने 10 दिनों तक पैदल दूरी पार की. 63 किलोमीटर की दूरी चलने के बाद दोनों में ताकत का एक कतरा नहीं बचा था. दोनों निढाल होकर वहीं लेट गए. आंखें बंद कर ली. तभी एक आवाज आई. उम्मीद की आवाज. (Survival Story)

दोनों को किसी घोड़े के टापों की आवाज सुनाई दी. आंखें खोली तो दोनों ने देखा घोड़े के साथ एक आदमी भी है. वो उसकी भाषा नहीं जानते थे. लेकिन फिर भी किसी तरह उन्होंने उसे समझाया कि उन्हें मदद की जरूरत है. उस आदमी ने जाकर अधिकारियों को ये बात बताई. तुरंत एक हेलीकॉप्टर रवाना किया गया. और 16 लोगों को बचा लिया गया. ये 16 लोग 72 दिन तक एक निर्मम पहाड़ पर जिन्दा रहे थे. पूरे लैटिन अमेरिका में इस खबर ने हलचल मचा दी. लोगों की नजर में ये हीरो थे. इंसानी जज़्बे की मूरत. लेकिन फिर जल्द ही इस खबर ने एक स्कैंडल का रूप ले लिया.

I Had to Survive: How a Plane Crash in the Andes Inspired My Calling to Save Lives.
केनेसा ने आगे जाकर उरुग्वे के राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा. इस घटना पर उन्होंने एक किताब लिखी, जिसका नाम है, I Had to Survive: How a Plane Crash in the Andes Inspired My Calling to Save Lives. इस कहानी पर साल 1993 में एक फिल्म भी बनी-(तस्वीर: Wikimedia)

अचानक कहीं से अफवाह फ़ैल गई कि भूख शांत करने के लिए इन लोगों ने अपने बाकी साथियों को मार डाला और उनका मांस खा लिया. ये झूठ था. जिसके पांव नहीं थे. फिर भी खबर ऐसे उड़ी कि चर्च ने भी इस लोगों की आलोचना कर दी. तब डॉक्टर केनेसा ने ठाना कि वो इस घटना की सच्चाई सबके सामने पेश करेंगे. उन्होंने तमाम लोग जो इस दुर्घटना में मारे गए थे, उनसे जाकर मुलाक़ात की. और उनके परिजनों को समझाया कि असल में उस पहाड़ में हुआ क्या था. डॉक्टर केनेसा ने उन्हें चिट्ठियां भी दीं जो लोगों ने मरने से पहले लिखी थी. डॉक्टर केनेसा बताते हैं कि पूरी कहानी सुनकर लोगों ने उन्हें माफ़ कर दिया और कई लोग उनके गले से लगकर रोए भी.

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