क्या होता है MSP, जिसके लिए देश के किसानों ने 'गांवबंद' किया है?
हजारों लीटर दूध सड़कों पर बहा चुके हैं, सब्जियां फेंकी जा रही हैं.
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देश के दूसरे प्रधानमंत्री थे लाल बहादुर शास्त्री. अप्रैल 1965 में जब भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध शुरू हुआ था, उससे ठीक पहले प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने एक नारा दिया था
जय जवान-जय किसानइस नारे के पीछे उद्देश्य ये था कि सेना के जवानों और देश के किसानों दोनों का ही मनोबल ऊंचा किया जाए. वजह ये थी कि 1962 में भारत चीन के साथ हुई लड़ाई हार चुका था और देश के किसानों की कमर अकाल की वजह से टूट चुकी थी. इससे उबारने के लिए जवानों और किसानों दोनों में ही जोश भरने की ज़रूरत थी और इस नारे ने बखूबी ये काम किया. लेकिन इसके बावजूद किसानों की हालत में कुछ खास सुधार नहीं हुआ. कई बार अनाज ज्यादा पैदा हो जाने की वजह से किसानों को उसका दाम कम मिलता था, तो कई बार अनाज कम पैदा हो जाने की वजह से अनाज के दामों में बेतहाशा बढ़ोतरी हो जाती थी. इसके लिए सरकार की ओर से अनाजों की कीमतों को तय करने की पहल की गई.
फोटो : BJP Twitter
देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की मौत के बाद देश संभालने का जिम्मा लाल बहादुर शास्त्री पर ही था. किसानों का मनोबल किसी तरह से कमजोर न हो और उन्हें अनाज का वाजिब दाम मिले, इसके लिए प्रधानमंत्री ने एक दिन अपने कृषि मंत्री चिदंबरम सुब्रमण्यम को बुलाया और इस बारे में बात की. चिदंबरम सुब्रमण्यम अनाजों की कम से कम उतनी कीमत तय करने के लिए तैयार हो गए, जिससे कि किसानों को किसी तरह का नुकसान न हो. इसके लिए चिदंबरम सुब्रमण्यम ने प्रधानमंत्री के सचिव एलके झा का नाम सुझाया. पीएम शास्त्री इस बात को मान गए.
चिदंबरम सुब्रमण्यन ने एमएसपी तय करने की कमिटी बनाई थी. बाद में देश की हरित क्रांति में भी इनका बड़ा योगदान था.
एलके झा के नेतृत्व में 1 अगस्त 1964 को एक कमिटी बनाई. इस कमिटी में एलके झा के अलावा थे टीपी सिंह, बीएन आधारकर, एमएल दंतवाला और एससी चौधरी. इस कमिटी का काम था कि वो अनाज के न्यूनतम और अधिकतम दाम तय कर सके. 24 सितंबर 1964 को इस कमिटी ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी. लाल बहादुर शास्त्री सरकार ने केंद्रीय कृषि मंत्रालय और राज्यों की सरकारों से बात करके 13 अक्टूबर 1964 को अनाज का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर दिया. 24 दिसंबर 1964 को इसपर मुहर भी लग गई, लेकिन इसे लागू नहीं किया जा सका. भारत सरकार के सचिव बी शिवरामन ने 19 अक्टूबर 1965 को इसपर अंतिम मुहर लगाई, जिसके बाद 1966-67 के लिए पहली बार गेहूं के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा कर दी गई. इसे आम तौर पर एमएसपी (Minnimum Support Price) कहा जाता है. इसके बाद से ही हर साल सरकार फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती है. ये समर्थन मूल्य फसलों की बुवाई से ठीक पहले घोषित किया जाता है.
क्यों घोषित किया जाता है न्यूनतम समर्थन मूल्य?
धान के खेत में किसान. बुवाई से पहले किसान को पता होता है कि सरकार उसके पैदा किए गए धान को किस कीमत पर खरीदेगी. इसी आधार पर वो बुवाई का रकबा तय करता है.
न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने के पीछे सरकार की ये मंशा थी कि अगर किसी साल अनाज का उत्पादन ज्यादा भी होता है, तो अनाज की कीमतें एक तय सीमा से नीचे न जाएं. इसकी वजह से किसानों को कम से कम उनकी लागत के साथ ही कुछ मुनाफा भी मिल जाए. इसके अलावा सरकार का मकसद किसानों की मुश्किलों को कम करना भी है. सरकार न्यूतम समर्थन मूल्य तय करने के बाद स्थानीय सरकारी एजेंसियों के जरिए खरीदकर फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया और नेफेड (National Agricultural Cooperative Marketing Federation of India) के पास उसका भंडारण करती है. फिर इसी स्टोर से वो सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के जरिए सरकार गरीबों तक कम कीमत में अनाज पहुंचाती है.
किस-किस फसल पर घोषित होता है न्यूनतम समर्थन मूल्य?
फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य केंद्र सरकार तय करती है. वहीं गन्ना के लिए अलग से समर्थन मूल्य तय किया जाता है.
1966-67 में जब न्यूतम समर्थन मूल्य की शुरुआत हुई थी, तो उस वक्त सिर्फ एक फसल गेहूं के लिए इसे तय किया गया था. इसकी वजह से किसान और फसलों को छोड़कर सिर्फ गेहूं की बुवाई करने लगे. इसके बाद अनाजों का उत्पादन कम हो गया. इसके बाद सरकार ने पहले धान औऱ फिर तिलहन और दलहन की कुछ फसलों का भी न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित कर दिया. फिलहाल सरकार की ओर से कुल 23 फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया जाता है. इन फसलों में सात अनाज धान, गेहूं, मक्का, ज्वार, बाजरा, जौ, जई, रागी के साथ ही पांच दालें चना, अरहर, मूंग, उड़द, मसूर, सात तेल मूंगफली, सरसो, सोयाबीन, शीशम, सूरजमुखी, कुसुम और नाइजर सीड के साथ ही चार व्यापारिक फसलों गरी, गन्ना, कपास और जूट शामिल हैं.
कौन तय करता है एमएसपी?
एमएसपी तय करने के लिए संस्था है कृषि मूल्य एवं लागत आयोग. फिलहाल इस आयोग में चार सदस्य हैं, जिनमें से दो पद पिछले कई दिनों से खाली हैं.
एमएसपी तय करने के लिए देश में एक संस्था काम करती है, जिसका नाम है कृषि लागत एवं मूल्य आयोग. अंग्रेजी में इसे CACP (Commission for Agricultural Cost and Prices) कहते हैं. ये संस्था देश के कृषि मंत्रालय के तहत आती है. ये संस्था जनवरी 1965 में बनाई गई थी और तब इसका नाम था कृषि मूल्य आयोग. 1985 में इसमें लागत भी जोड़ दी गई और नाम हो गया कृषि लागत एवं मूल्य आयोग. ये संस्था कृषि मंत्रालय, आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति और भारत सरकार को अपने आंकड़े बताती है. इन तीनों जगहों से इज़ाज़त मिलने के बाद अलग-अलग फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया जाता है. वहीं गन्ना का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने के लिए एक अलग आयोग है, जिसे गन्ना आयोग कहा जाता है.
कैसे तय होती है एमएसपी?
ये हर साल चलने वाली एक लंबी प्रक्रिया है. कृषि लागत एवं मूल्य आयोग फिलहाल 23 फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करता है. इसके लिए आयोग कुछ मानकों पर आंकड़े इकट्ठा करता है.
इस फॉर्म को देश के करीब हर राज्य को भेजा जाता है. इसके आधार पर आंकड़े इकट्ठे किए जाते हैं और उसके बाद औसत निकालकर एमएसपी तय की जाती है.
1. देश के अलग-अलग इलाकों में किसी खास फसल की प्रति हेक्टेयर लागत
2. खेती के दौरान होने वाला खर्च और आने वाले अगले एक साल में होने वाला बदलाव
3. देश के अलग-अलग क्षेत्र में प्रति क्विंटल अनाज को उगाने की लागत
4. प्रति क्विंटल अनाज उगाने के दौरान होने वाला खर्च और आने वाले अगले एक साल में होने वाला बदलाव
5. अनाज की प्रति क्विंटल बाजार में कीमत और आगे एक साल में होने वाला औसत बदलाव
6. किसान जो अनाज बेचता है उसकी कीमत और जो चीजें खरीदता है उसकी कीमत
7. सरकारी और सार्वजनिक एजेंसियों जैसे एफसीआई और नफेड की स्टोरेज क्षमता
8. एक परिवार पर खपत होने वाला अनाज और एक व्यक्ति पर खपत होने वाले अनाज की मात्रा
9. अंतरराष्ट्रीय बाजार में उस अनाज की कीमत, आने वाले साल में कीमत में होने वाला बदलाव
10. विश्व के बाजार में उस अनाज की मांग और उसकी उपलब्धता
11. अनाज के भंडारण, उसको एक जगह से दूसरी जगह पर लाने ले जाने का खर्च, लगने वाला टैक्स, बाजार की मंडियों का टैक्स और अन्य फायदा.
कृषि लागत एवं मूल्य आयोग देश के अलग-अलग हिस्सों से इन आंकड़ों को इकट्ठा करता है. इन आंकड़ों को इकट्ठा करने के लिए सीपीएसी हर राज्य की सरकारों से मदद लेता है. इसके अलावा अलग-अलग राज्यों के कृषि वैज्ञानिक, किसान नेता और सामाजिक कार्यकर्ताओं से बात की जाती है. इसके अलावा केंद्रीय मंत्रालयों, केंद्रीय मंत्रालयों के विभागों, एफसीआई, नफेड. कॉटन कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया, जूट कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया और व्यापारियों के संगठनों से बातचीत कर आंकड़े इकट्ठे किए जाते हैं.
फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया किसानों से एमएसपी पर अनाज खरीदता है और पीडीएस सिस्टम के जरिए उसे गरीबों तक पहुंचाता है.
आयोग रिसर्च इंस्टीट्यूट से भी संपर्क कर उनसे आंकड़े लेता है और बात करता है. सारे आंकडे सीपीसी के आने के बाद आयोग एक औसत निकाल लेता है और इस आधार पर किसी एक फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करता है. इसके बाद ये आंकड़े सरकार को भेज देता है. सरकार इन आंकड़ों को सभी राज्य सरकारों को भेजती है और उनके सुझाव मांगती है. उनके सुझाव मिलने के बाद केंद्र सरकार के आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति अंतिम फैसला लेती है. अंतिम फैसला आने के बाद सीएसीपी अपनी वेबसाइट पर सारे आंकड़े जारी कर देती है.
फिर दिक्कत क्या है?1. सभी फसलों की नहीं होती खरीद
गुजरात विधानसभा चुनाव में मूंगफली का एमएसपी बड़ा मुद्दा था.
सरकार भले ही हर साल फसलों के लिए एमएसपी तय करती है, लेकिन उसका फायदा किसानों को नहीं मिल पाता है. इसकी सबसे बड़ी वजह ये है कि सरकार भले ही 23 फसलों को एमएसपी के तहत लाती है, लेकिन सरकारी स्तर पर उनकी खरीद नहीं हो पाती है. आम तौर पर धान और गेहूं की तो खरीद हो जाती है, लेकिन मूंगफली, सोयाबीन, अरहर और दूसरी फसलों की सरकारी स्तर पर खरीद नहीं हो पाती है. इसकी एक वजह ये भी है सार्वजिक वितरण प्रणाली के तहत सरकार गरीबों को हर महीने जो राशन देती है, उसमें सिर्फ गेहूं और चावल ही शामिल होता है. ऐसे में दूसरे फसलों की खरीद नहीं हो पाती है. उदाहरण के लिए गुजरात में मूंगफली की खूब खेती होती है, लेकिन गुजरात के विधानसभा चुनाव में मूंगफली और उसका न्यूनतम समर्थन मूल्य बड़ा मुद्दा रहा. पिछले कई सालों में 2016 में सरकार ने पहली बार कहा था कि सरकार किसानों से सोयाबीन खरीदेगी. इसी तरह से और भी कई ऐसी फसलें हैं, जिनका समर्थन मूल्य घोषित होने के बाद भी खरीद नहीं होती है.
2. सिर्फ 6 फीसदी किसानों को ही होता है फायदा
गेहूं की खेती वो किसान भी करता है, जिसके पास अपना खेत नहीं है. लेकिन जब वो सरकारी क्रय केंद्रों पर उसे बेचने जाता है तो खेत के कागज की ज़रूरत होती है. ऐसे में वो किसान खुले बाजार में कम कीमत पर ही अनाज बेच देता है.
सरकार एमएसपी तय करती है, जिसके बाद देश के अलग-अलग राज्यों में अनाजों की खरीद के लिए सेंटर खोले जाते हैं. इन सेंटरों पर किसान अपना अनाज बेच सकता है. इसमें दिक्कत ये होती है कि अनाज बेचने के लिए किसान को अपने खेत के कागजात दिखाने होते हैं. सरकारी भाषा में इसे खसरा और खतौनी कहते हैं. खसरा-खतौनी में दर्ज किसान के नाम पर ही खरीद की जाती है. इसके बाद उसे पर्ची पकड़ा दी जाती है और कुछ दिन के बाद उसके खाते में पैसे आ जाते हैं. लेकिन देश के करीब 94 फीसदी किसान ऐसे हैं, जो दूसरे के खेत में खेती करते हैं और अनाज उपजाते हैं. ऐसे में उनके नाम पर खेत नहीं होते और वो इसका फायदा नहीं उठा पाते हैं. अगर उन्हें अनाज बेचना होता है, तो उन्हें बिचौलिए की शरण लेनी पड़ती है. वो बिचौलिया किसी दूसरे के नाम पर अनाज बेच देता है और मेहनत कर अनाज उपजाने वाला किसान खाली हाथ रह जाता है.
3. हर राज्य में लागत अलग है, बेचने पर पैसे एक जैसे मिलते हैं
पूर्वी यूपी में नहरें न होने की वजह से धान के उत्पादन की लागत ज्यादा होती है. जब अनाज बेचने की बारी आती है, तो लागत ज्यादा होने की वजह से मुनाफा कम हो जाता है.
दो उदाहरण लेते हैं. एक है बिहार और एक है पूर्वी यूपी. बिहार में गेहूं का उत्पादन करना हो या धान का, पानी की दिक्कत नहीं होती है. ऐसा इसलिए है कि वहां पर ज्यादा संख्या में नहरें हैं. इसलिए किसानों को पानी के लिए डीजल इंजन पर खर्च नहीं करना पड़ता है. वहीं पूर्वी यूपी में किसी किसान को धान-गेहूं पैदा करने के लिए पानी डीजल इंजन से चलाना पड़ता है. ऐसे में पूर्वी यूपी के किसान की उत्पादन लागत बिहार के किसान की उत्पादन लागत से करीब डेढ़ गुना ज्यादा होती है. लेकिन जब अनाज तैयार हो जाता है, तो बेचने के वक्त बिहार वाले और यूपी वाले दोनों को एक ही कीमत मिलती है.
4. उत्पादन की क्वॉलिटी और बिचौलियों का दबदबा
पंजाब के किसानों का उपजाया गेहूं और पूर्वी यूपी में उपजाया गेहूं एक ही कीमत पर बिकता है.
सरकार गेहूं और धान खरीदने के लिए सेंटर तो खोल देती है, लेकिन उस सेंटर पर खरीदने के दौरान अनाज की गुणवत्ता भी देखाी जाती है. कई बार खरीद सेंटर वाले अनाज में पानी की मात्रा ज्यादा बता देते हैं, तो कई बार अनाज में कंकड की मात्रा ज्यादा बताकर प्रति क्विंटल दो से चार किलो तक का बट्टा लगा देते हैं. ऐसे में किसान को नुकसान हो जाता है और वो उसे अपने अनाज की कीमत बाजार के भाव से भी कम मिलती है. इसके अलावा किसान को नकद पैसे भी नहीं मिलते हैं, जिससे वो अपना अनाज सरकारी केंद्रों पर बेचने की बजाय खुले बाजार में बेच देता है और नकद पैसे लेकर वापस आ जाता है.
क्या है भावांतर योजना, जो मध्यप्रदेश में लागू की गई है
मध्यप्रदेश सरकार ने एक नई योजना शुरू की है, इसके बाद भी किसानों का सबसे ज्यादा गुस्सा मध्यप्रदेश में ही देखने को मिल रहा है.
न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने के बाद भी किसानों को होने वाली परेशानी से बचने के लिए मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान सरकार ने एक नई योजना शुरू की है. इस योजना को नाम दिया गया है भावांतर. इस योजना के तहत कोई किसान अपना अनाज क्रय केंद्रों पर न बेचकर खुले बाजार में बाजार भाव पर भी बेचता है, तो उसे भी न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाएगा. इसके तहत सरकार ने ये तय किया है कि खुले बाजार में अनाज बेचने के बाद किसान अगर वो पर्ची क्रय केंद्र पर जमा कर देता है, तो बाजार की कीमत और न्यूनतम समर्थन मूल्य के भाव में जितना अंतर होगा, उतना पैसा सरकार किसान के खाते में जमा करवा देगी. इसलिए इस योजना को भावांतर नाम दिया गया है.
फिर भी किसान क्यों परेशान हैं?
एमएसपी देखकर किसान अपनी फसल का रकबा तो बढ़ा देता है, लेकिन फसल पैदा होने के बाद उसे कीमत नहीं मिलती है.
इन सारी सुविधाओं और योजनाओं के बाद भी किसान परेशान है. इसकी वजह है न्यूनतम समर्थन मूल्य को तय करने में खामी. कृषि मामलों के विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा बताते हैं कि देश के अलग-अलग राज्यों की स्थिति अलग-अलग है. ऐसे में हर राज्य में किसी अनाज की उत्पादन लागत एक जैसी हो ही नहीं सकती है. उत्तर प्रदेश के किसान नेता मुकुट सिंह कहते हैं कि न्यूनतम समर्थन मू्ल्य सिर्फ इतना सा होता है कि किसान की लागत निकल जाए, उसे कोई फायदा न मिले. उनका कहना है कि अनाज की कीमत तय करने के दौरान सरकार किसान के जमीन की कीमत और किसान के घर के काम करने वाले लोगों की मजदूरी नहीं जोड़ती है. जिस किसान के पास जमीन है, उसका तो काम चल जाता है. लेकिन भूमिहीन को किराए पर जमीन लेकर खेती करनी होती है.
एमएसपी तय होने के बाद भी सरकारी खरीद के दौरान कहा जाता है कि अनाज काला पड़ गया है. इसकी कीमत कम लगेगी, जबकि सरकारी आदेश में ऐसा कुछ नहीं होता है. मजबूरी में किसान अपना अनाज खुले बाजार में बेच देता है.
ऐसे में न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने के दौरान सरकार जमीन के किराए को नहीं जोड़ती है और ऐसे किसानों को खेती की वजह से नुकसान ही होता है, फायदा नहीं. इसके अलावा किसान फलों, सब्जियों और दूध के लिए भी न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने की मांग कर रहे हैं. भारतीय किसान सभा के उपाध्यक्ष दीनानाथ यादव बताते हैं कि एफसीआई, सहकारी समिति, साधन सहकारी समिति और ऐसी कई समीतियों के पास अनाज खरीदने की जिम्मेदारी है. लेकिन ये सभी धान-गेहूं के अलावा किसी और चीज की खरीद करती ही नहीं हैं. वो बताते हैं कि इन समीतियों को किसी और अनाज या दाल की खरीद की ज़रूरत ही नहीं है, क्योंकि गरीबों को दिए जाने वाले अनाज में गेहूं और चावल ही होता है. ऐसे में किसान अपने दूसरे अनाज बाजार भाव पर बेचने को मजबूर हो जाते हैं. कई बार हालत ऐसी हो जाती है कि उन्हें उनकी लागत भी नहीं मिलती है और अगली बार से वो अनाज उगाना छोड़ देते हैं.
क्या हैं स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें?
प्रोफेसर एमएस स्वामीनाथन, जिनकी सिफारिशों को लागू करने के लिए देश भर के किसान प्रदर्शन कर रहे हैं.
देश के किसी भी हिस्से में हो रहे किसान आंदोलन की सबसे बुनियादी मांग है कि सरकार स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करे. किसानों की हालत को सुधारने के लिए 18 नवंबर 2004 को प्रोफेसर एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई थी, जिसे देश में किसानों की हालत सुधारने के रास्ते खोजने थे. करीब दो साल बाद 2006 में कमेटी ने अपनी सिफारिशें दे दीं, जो अब तक लागू नहीं की जा सकीं. तब की कांग्रेस सरकार और अब की बीजेपी सरकार ने इन सिफारिशों को सीधे तौर पर लागू नहीं किया. एक किसान नीति बनाई गई और कहा गया कि सरकार की नई योजनाएं और फैसले कमेटी की सिफारिशों के आधार पर ही लिए जा रहे हैं. स्वामीनाथन कमेटी की सबसे बड़ी सिफारिश ये थी कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य को खत्म करे और किसानों को उनकी किसी भी फसल की लागत का डेढ़ गुना मूल्य दे. इसके अलावा समिति की और भी सिफारिशें थीं-
#1. लैंड रिफॉर्म के लिए: किसानों को कितनी जमीन मिले, ये हमारे देश में बड़ा मसला है. खेती और बाग की जमीन को कॉरपोरेट सेक्टर या खेती के अलावा किसी भी दूसरे मकसद के लिए न दिया जाए. ‘नेशनल लैंड यूज अडवाइजरी सर्विस’ बनाया जाए, जो मौसम और बिजनेस जैसे फैक्टर्स को ध्यान में रखते हुए फैसला ले सके कि जमीन को किस उपयोग में लाया जाएगा.
#2. सिंचाई के लिए: नियमों-कानूनों में सुधार किया जाए, ताकि किसानों को लगातार और जरूरत के मुताबिक पानी मिल सके. रेनवाटर हार्वेस्टिंग के जरिए पानी की सप्लाई अनिवार्य कर देनी चाहिए. कुओं को रीचार्ज करने का प्रोग्राम शुरू करना होगा.
#3. प्रोडक्शन के लिए: दूसरे देशों के मुकाबले भारतीय किसान उपलब्ध जमीन के अनुपात में प्रोडक्शन नहीं कर पाते. इसलिए सिंचाई, पानी निकालने, वाटर हार्वेस्टिंग, रिसर्च डिवेलपमेंट और रोड कनेक्टिविटी के लिए जरूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करने के लिए सार्वजनिक निवेश को बढ़ाना होगा. मिट्टी के पोषण से जुड़ी कमियों को सुधारने के लिए मिट्टी की टेस्टिंग वाली लैबों का बड़ा नेटवर्क तैयार करना होगा.
35000 किसानों और आदिवासियों ने मार्च 2018 में मुंबई में मार्च निकालकर अपनी मांगें रखी थीं.
#4. क्रेडिट और बीमा के लिए: सरकार को क्रेडिट सिस्टम उन किसानों तक पहुंचाना होगा, जो वाकई गरीब और जरूरतमंद हैं. सरकार की मदद से किसानों को मिलने वाले कर्ज की ब्याज दर सीधे 4% कम की जाए. जब तक किसान कर्ज चुकाने की स्थिति में न आ जाए, उससे कर्ज न वसूला जाए. किसानों को प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के लिए अग्रीकल्चर रिलीफ फंड बनाया जाए. किसानों और फसल का साथ में बीमा किया जाए.
#5. फूड सिक्यॉरिटी के लिए: यूनिवर्सल पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम बनाया जाए, जिसके लिए GDP के 1% हिस्से की जरूरत होगी. पंचायत जैसी लोकल बॉडीज की मदद से सरकार की उन योजनाओं को री-ऑर्गनाइज किया जाए, जो कुपोषण दूर करने के लिए चलाई गईं. महिला स्वयंसेवी ग्रुप्स की मदद से ‘सामुदायिक खाना और पानी बैंक’ स्थापित करने होंगे, जिनसे ज्यादा से ज्यादा लोगों को खाना मिल सके.
#6. किसानों की खुदकुशी रोकने के लिए: उन्हें कम कीमत पर बीमा और चिकित्सा सुविधा दिलवाई जाए. नेशनल रूरल हेल्थ मिशन को उन हिस्सों तक पहुंचना होगा, जहां किसान ज्यादा खुदकुशी करते हैं. सरकार किसानों के लिए जो काम करती है, उन्हें किसानों तक पहुंचाने के लिए राज्य-स्तर पर कमीशन बनाया जाए, जिसमें किसान ही सर्वेसर्वा हों. हर फसल का बीमा हो. किसानों को हर जगह सस्ती दरों पर बीज और खाद उपलब्ध कराई जाए.
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