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माचिस के जलने की कहानी, जिसमें सोने की तलाश है और ढेर सारा मानव पेशाब

Phosphorus ऐसा तत्व है जो DNA, RNA, हड्डियों और दांतों समेत तमाम जगहों पर मौजूद और बेहद जरूरी है. लेकिन इसकी खोज की कहानी पचास बाल्टी पेशाब से होकर निकलती है.

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Phosphorus chemical element discovery
कार्ल शीले ने कई तत्वों की खोज की लेकिन क्रेडिक के मामले में बदकिस्मत रहे. (Image: Wikimedia commons)
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राजविक्रम
26 जुलाई 2024 (Updated: 27 जुलाई 2024, 10:02 IST)
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जर्मनी का हैम्बर्ग शहर (Hamburg, Germany). 1670 का दशक. शहर में एक तहखाना. जहां एक लैब में कुछ अजीब ही ‘टोटका’ हो रहा था. जिसकी वजह से पूरा तहखाना खतरनाक बदबू से भरा था. ऐसी बदबू कि बेहोश आदमी पहले होश में आए, फिर बेहोश हो जाए. ये बदबू थी मानव पेशाब की. वो भी एक-दो नहीं, पूरे पचास बाल्टी. दरअसल यहां पेशाब से सोना बनाने की कोशिश की जा रही थी. ये कोशिश कर रहे थे, जर्मन एल्केमिस्ट हेनिंग ब्रांड (Henning Brand). घंटों पेशाब उबालने के बाद सोना तो नहीं बन पाया, पर तब सोने से महंगी एक चीज ब्रांड ने खोज ली.

दरअसल यह वो दौर था, जब लोग एल्केमी के प्रयोग किया करते थे. जिसमें वो पारस पत्थर या सोना बनाने के प्रोसेस को खोजना चाहते थे. लोगों को लगता था कि किसी न किसी तरीके से दूसरे तत्वों को सोने में बदला जा सकता था. अमेरिकी पत्रकार और लेखक बिल ब्रायसन (Bill Bryson) अपनी किताब ‘अ शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ नियर्ली एव्रीथिंग’ (A Short History Of Nearly Everything) में लिखते हैं,

"केमिकल साइंस में शायद ही कोई अजीब और संयोग से हुई खोज, 1675 में की गई हेनिंग ब्रांड की खोज जैसी हो. ब्रांड को यकीन हो गया था कि इंसानों के पेशाब से सोना छाना जा सकता था (शायद रंग की समानता ऐसा सोचने की एक वजह रही हो)." 

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बिल ब्रायसन अपनी किताब में भी इस किस्से का जिक्र करते हैं. 

वो आगे लिखते हैं कि ब्रांड ने कई तरीके अपनाए. पहले उन्होंने पेशाब को उबालकर एक पेस्ट में बदला. बेहद बदबूदार पेस्ट. फिर उससे कुछ-कुछ पारदर्शी और मोम जैसा पदार्थ बनाया. हालांकि घंटों के इस प्रयोग में वो तो नहीं मिला, जिसकी उम्मीद में ब्रांड थे. पर एक ऐसी चीज मिली, जो अंधेरे में चमकती थी. ये कई बार हवा के संपर्क में आने पर जल भी उठती थी.

ब्रांड ने जो चीज खोजी थी, उसे बाद में फॉस्फोरस (Phosphorus) की संज्ञा दी गई. इस शब्द की ग्रीक और लैटिन जड़ों तक जाएं, तो मतलब निकलता है ‘रौशनी वाली चीज’. ब्रांड ने संयोग से ये तत्व खोज तो लिया, पर एक समस्या थी. 

इसे बनाने के लिए कच्चा माल कहां से लाएं?

जल्द ही व्यापारियों और केमिस्ट्स को इस तत्व के बारे में पता चला. लोगों ने इस नए तत्व के इस्तेमाल की सोची. नए प्रयोग करने चाहे. पर दिक्कत थी, फॉस्फोरस बनाने का ये मुश्किल और नाक की नसें फाड़ने वाला प्रोसेस. बकौल बिल, “इसी दिक्कत के चलते तब फॉस्फोरस की कीमत सोने से भी ज्यादा थी.” आज के हिसाब से देखें तो कुछ 30 ग्राम की कीमत 500 डॉलर, या 41 हजार रुपये के अल्ले-पल्ले.

बहरहाल, फॉस्फोरस की डिमांड थी, तो सप्लाई का तरीका भी खोजना ही था. शुरुआत में सैनिकों को बुला कर पेशाब इकट्ठा किया गया. ताकि फॉस्फोरस के लिए कच्चा माल इकट्ठा कर सकें. लेकिन बड़े पैमाने पर फॉस्फोरस बनाने के लिए ये तरीका नाकाम था. फिर पिक्चर में आते हैं एक स्वीडिश जनाब.

असाधारण दिमाग और बदकिस्मती का मालिक

कार्ल शीले (Carl Scheele) एक गरीब स्वीडिश फार्मासिस्ट थे. जिन्होंने बिना एडवांस तकनीकों के 8 तत्वों की खोज की- क्लोरीन, फ्लोरीन, मैंगनीज, बेरियम, मॉलिब्डेनम, टंगस्टन, नाइट्रोजन और ऑक्सीजन. लेकिन इनमें से किसी की खोज का श्रेय उन्हें नहीं दिया गया. कहें तो जितना तेज इनका दिमाग था, उतनी ही खराब इनकी किस्मत. 

लेकिन एक श्रेय इन्हें बराबर मिला, बड़े पैमाने पर फॉस्फोरस बनाने का तरीका खोजने का. शीले ने दुर्गंध और गंदगी से इतर नया तरीका बताया. जिससे औद्योगिक इस्तेमाल लायक फॉस्फोरस बनाया जा सकता था. 

फॉस्फोरस बना सकने की इसी कला के चलते स्वीडन में माचिस का कारोबार खूब फला फूला. आज भी भारत के बाद स्वीडन माचिस के निर्यात के मामले में दूसरे नंबर पर रहता है. 

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साल 2022 में सबसे ज्यादा माचिस का निर्यात करने वाले देश (oec.world)
फॉस्फोरस पहुंचा माचिस तक

माचिस, मैच या दियासलाई. आज तो हमें ये मामूली सी लगती है. लेकिन जरा सोचिए, इस छोटी सी चीज ने जिंदगी कितनी आसान की होगी. नहीं पता चले आज भी लोग पत्थर घिस रहे होते, या लकड़ियां आपस में रगड़ कर आग जला रहे होते. और कहीं आखिर में नाक से टपक कर पसीने की बूंद चिंगारी को बुझा देती.

बहरहाल, आज जो सेफ्टी मैच या माचिस हम इस्तेमाल करते हैं, उसके बनने में फॉस्फोरस का बड़ा रोल है. हम जानते हैं, माचिस में दो मेन चीजें हैं. एक तो तीली और दूसरा डिब्बे के किनारे लगी लाल सी पट्टी. इसी लाल सी पट्टी में होता है लाल फॉस्फोरस.

समझते हैं. तीली में होता है सल्फर, पोटेशियम क्लोरेट, फिलर और इस सब को बांध के रखने के लिए ग्लू. वहीं माचिस की डिब्बी के किनारे की पट्टी में होता है, लाल फॉस्फोरस और कांच का पाउडर.

मजेदार काम शुरू होता है, जब आप माचिस की तीली को पट्टी पर रगड़ते हैं. तब तीली और कांच वगैरह के बीच Friction माने घर्षण होता है. इस घर्षण की वजह से पैदा होती है, गर्मी. जिससे थोड़ा सा लाल फॉस्फोरस, सफेद फॉस्फोरस में बदल जाता है. जो हवा पाकर आग बबूला हो जाता है. जिससे निकलती है और गर्मी.

ये गर्मी माचिस की तीली में मौजूद फ्यूल को जलाती है. वहीं इसमें मौजूद पोटेशियम क्लोरेट फ्यूल को ऑक्सीजन मुहैया कराने में मदद करता है. और फिर बहुत छोटे से, क्यूट से धमाके के बाद तीली की लकड़ी आग पकड़ती है. जिससे मोमबत्ती जला कर आप कैंडल लाइट डिनर कर पाते हैं.

कमाल है न, सोने की खोज में निकले एक आदमी ने रातों में जागकर पढ़ने का भी जुगाड़ कर दिया.

वीडियो: गाजा के खिलाफ चमड़ी, हड्डी जलाने वाला वाइट फॉस्फोरस का इस्तेमाल कर रहा इज़रायल? आरोपों पर क्या कहा?

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