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अमेरिका स्पेस में जाबड़ चीज तैयार कर रहा, आर्टिफिशियल ग्रेविटी वाला स्पेस स्टेशन देखा?

पुराने वाले 'इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन' में दरारें पड़ गईं, नए नकली ग्रेविटी वाले का डिजाइन तैयार

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Airbus Shows Off Space Station Design With Simulated Gravity
पुराने स्पेस स्टेशन में कई तरह की दिक्क्तें आई हैं जिसके बाद नए पर काम शुरू किया गया | फोटो: एयरबस
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अभय शर्मा
8 मई 2023 (Updated: 8 मई 2023, 09:24 IST)
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साल 2000 की बात है. नवंबर महीने में एक अद्भुत काम हुआ. वो काम जो तब से नहीं हो सका, जब से इंसान पृथ्वी पर रहते आए हैं. तकरीबन 70 लाख साल से. आप सोच रहे होंगे भाई ऐसा क्या काम हो गया? वो है इंसान का पृथ्वी के वायुमंडल से बाहर रहने का, और वो भी जिंदा. 2 नवंबर, 2000 को पहली बार कोई मनुष्य पृथ्वी के वायुमंडल से बाहर गया और महीनों वहां रहा. इस जगह का नाम है 'इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन'. जो पृथ्वी के वायुमंडल से बाहर अंतरिक्ष में है. 23 साल से 'इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन' हमारा ठिकाना बना हुआ है.

इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन को शॉर्ट में कहते हैं ISS. ये अंतरिक्ष में मौजूद सबसे बड़ी लैब है. ISS पर अब तक कुल 100 बिलियन डॉलर से ज़्यादा खर्च हो चुका है. यानी लगभग 75 खरब रुपए. कह सकते हैं कि ये अब तक बनाई गई दुनिया की सबसे महंगी चीज़ है.

आप सोच रहे होंगे कि ISS को लांच हुए 23 साल हो गए तो अचानक ये अब हमें ये सब क्यों बता रहे हो? इसलिए बता रहे हैं क्योंकि दुनिया की इस सबसे महंगी चीज में जंग लगने लगी है, इसमें दरारें पड़ने लगी हैं. और साफ़ कहें तो इसकी मियाद लगभग पूरी हो गई है. हालत खराब है तो इसे रिप्लेस करने पर काम शुरू हो गया है, यानी इसकी जगह पर नया स्पेस स्टेशन बनाया जा रहा है. नए वाले का एक मॉडल डिजाइन किया गया है और अब इसकी ही तस्वीरें सामने आई हैं. इसमें आर्टिफिशियल ग्रैविटी भी है.

ये छोटी बात तो है नहीं, तो सोचा आपसे शेयर किया जाए. हालांकि, इस नए वाले स्पेस स्टेशन से पहले पुराने इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन के बारे में जानेंगे. इसे क्यों बनाया गया? जरूरत क्यों पड़ी? लोग इसमें कैसे रहते हैं? वगैरह-वगैरह.

पहले जानते हैं कि ISS की जरूरत क्यों है?

इंसान को किसी ग्रह तक पहुंचने में महीनों का समय लगता है. इतने महीने अंतरिक्ष में कैसे गुजारने होंगे. अंतरिक्ष में रहने पर हमारे शरीर में क्या असर पड़ेगा? इस दौरान हम ज़िंदा कैसे रहेंगे. किन-किन चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा? ऐसे और न जाने कितने सवालों के लिए रिसर्च ज़रूरी है. ऐसी रिसर्च, जो सिर्फ अंतरिक्ष में ही की जा सकती है. यही रिसर्च स्पेस स्टेशन में होती है. ISS में कई एस्ट्रोनॉट रहते हैं. वहां रिसर्च करते हैं. और ये ही स्पेस-स्टेशन की साफ़-सफाई और मेंटिनेंस का काम करते हैं.

पृथ्वी से 100 किलोमीटर ऊपर अंतरिक्ष की शुरूआत हो जाती है. इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन लगभग 400 किलोमीटर की ऊंचाई पर है. ये एक जगह स्थिर नहीं है. ये करीब 28,000 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से पृथ्वी की परिक्रमा करता है. इतनी स्पीड से ये 90 मिनट में पृथ्वी का एक चक्कर लगा लेता है.

आमतौर पर इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन यानी ISS में एक साथ छह लोग रहते हैं. लेकिन एक बार यहां 13 लोग भी एकसाथ रह चुके हैं. अब तक कुल 266 लोग यहां जा चुके हैं. यहां सबसे ज़्यादा दिन रहने वाले ऐस्ट्रोनॉट नासा के स्कॉट कैली हैं. स्कॉट कैली ने ISS में 340 दिन बिताए.

ISS की शुरुआत कैसे हुई?

1973 में नासा ने एक स्पेस स्टेशन लॉन्च किया. इस अमेरिकी स्पेस स्टेशन का नाम था- स्काईलैब (Skylab). लेकिन यहां ऐस्ट्रोनॉट्स कुछ ही हफ्तों तक रहे. फिर ये खाली पड़ा रहा. हर साल स्काईलैब का ऑर्बिट पृ़थ्वी के नज़दीक आने लगा. इसे लेकर नासा की कोई तैयारी नहीं थी. 1979 में स्काईलैब पृथ्वी के वायुमंडल में घुस आया और इसके टुकड़े-टुकड़े हो गए.

1984 में अमेरिकी राष्ट्रपति रॉनल्ड रीगन ने एक स्पेस स्टेशन का ऐलान किया. इस अमेरिकी स्पेस स्टेशन का नाम रखा गया- फ्रीडम. अगले दस साल तक फ्रीडम स्पेस स्टेशन का डिज़ाइन तैयार किया गया. इसकी इंजीनियरिंग और रिसर्च में खूब पैसा खर्च हुआ. लेकिन अमेरिका का फ्रीडम स्पेस स्टेशन कभी लॉन्च हुआ ही नहीं.

1991 में अमेरिका और सोवियत रूस का शीत युद्ध खत्म हुआ. तब अंतरराष्ट्रीय सहयोग से एक स्पेस स्टेशन लॉन्च करने की बात हुई. आखिरकार 1993 में रूस ने इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन के लिए हस्ताक्षर किए.

ISS में 15 देशों की हिस्सेदारी है. अमेरिका, रूस, जापान, कनाडा और यूरोपियन स्पेस एजेंसी के 11 देश. ब्राज़ील भी एक पार्टनर हुआ करता था. लेकिन 2007 में ब्राज़ील इस संधि से बाहर निकल गया.

ISS एक फुटबॉल के मैदान जितना बड़ा है. लेकिन ये हमेशा से इतना बड़ा नहीं था. इसे साल दर साल अंतरिक्ष में ही जोड़कर तैयार किया गया. जैसे हमारे घर में अलग-अलग कमरे होते हैं, वैसे ही ISS में कई मॉड्यूल हैं. ये मॉड्यूल और बाकी हिस्से कई साल में एक-एक करके भेजे गए हैं.

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20 नबंवर, 1998 को रूस ने ISS का पहला मॉड्यूल लॉन्च किया. इस मॉड्यूल का नाम है- ज़ारया. दो हफ्ते बाद अमेरिका ने यूनिटी मॉड्यूल लॉन्च किया. यूनिटी जाकर ज़ारया से जुड़ा. दो साल में ऐसे मॉड्यूल जोड़कर ये रहने लायक हो गया था. तय हुआ कि ISS के दो हिस्सों में से एक में रूस अपनी रिसर्च करेगा. दूसरा हिस्सा यूएस का होगा. इस हिस्से में अमेरिका और बाकी देशों की लैब होंगी.

2 नवंबर, 2000 को ISS में ऐस्ट्रोनॉट्स पहुंचे. तब से यहां हमेशा से ही इंसान मौजूद रहे हैं. ऐस्ट्रोनॉट लगभग यहां छह महीने गुज़ारते हैं. उसके बाद वो पृथ्वी पर आ जाते हैं. उनकी जगह कोई और चला जाता है.

ISS में पृथ्वी से क्या अलग है?

पृथ्वी पर हमारे हिसाब से सही तापमान है. लेकिन अंतरिक्ष में ऐसा नहीं है, वहां तापमान बहुत कम हो जाता है. पृथ्वी पर प्रेशर है. अगर ये प्रेशर न हो, तो हमारा शरीर फूलने लगेगा. स्पेस स्टेशन के अंदर तापमान और प्रेशर भी बनाए रखना पड़ता है. ऑक्सीजन और कार्बन-डाइऑक्साइड का लेवल सही रखना होता है. ISS का हर हिस्सा प्रेशराइज़्ड होता है.

इसमें बाहर जाने के लिए एयरलॉक का इस्तेमाल करते हैं. एयरलॉक दो दरवाज़ों वाला एक कमरा होता है. एक दरवाज़ा स्पेस स्टेशन के अंदर ले जाता है. दूसरा दरवाजा बाहर अंतरिक्ष में ले जाता है. एस्ट्रोनॉट पहले एयरलॉक में आते हैं और फिर यहां से बाहर अंतरिक्ष में जाते हैं.

इन्हें कई बार स्पेस स्टेशन के मेंटेनेंस के लिए बाहर जाना पड़ता है. स्पेस-वॉक करनी पड़ती है. इसके लिए उन्हें स्पेस सूट पहनना जरूरी होता है, जो बाहर प्रेशर और टेंपरेचर मेंटेन किए रहता है. स्पेस स्टेशन के अंदर सब लोग नॉर्मल कपड़ों में ही रहते हैं.

बिना ग्रैविटी कैसे काम चलता है?

पृथ्वी गोल है, लेकिन सब लोग ज़मीन से चिपके रहते हैं. क्योंकि पृथ्वी का अपना गुरुत्वाकर्षण बल है. ISS के अंदर बहुत ही कम ग्रैविटी होती है. इसका कारण ISS का अंतरिक्ष में होना नहीं है. ऐसा नहीं है कि 400 किलोमीटर ऊपर पृथ्वी की ग्रैविटी ज़ीरो हो जाती है. दरअसल, जिस ऊंचाई पर ISS है, वहां पृथ्वी के मुकाबले 90% ग्रैविटी रहती है. लेकिन ISS के अंदर ग्रैविटी फील नहीं होती, क्योंकि ये बहुत तेज़ रफ्तार से चल रहा होता है.

ग्रैविटी ना होने के चलते बहुत सारे काम मुश्किल हो जाते हैं. ऐस्ट्रोनॉट हवा में तैरते रहते हैं. ISS में सोने के लिए खास तरह के स्लीपिंग स्टेशन बने हुए हैं. ऐस्ट्रोनॉट खुद को स्लीपिंग बैग में बांध लेते हैं, ताकि नींद में यहां-वहां न उड़ जाएं.

ISS का टॉयलेट भी बहुत अलग होता है. पृथ्वी पर तो ग्रैविटी हमारे मल और मूत्र को नीचे खींच लेती है. लेकिन स्पेस स्टेशन के अंदर तो ग्रैविटी है ही नहीं. इसलिए यहां खास तरह के माइक्रोग्रैविटी टॉयलेट लगाए जाते हैं. ये टॉयलेट हवा के ज़रिए मल और मूत्र को अंदर खींच लेते हैं.

अब इसमें क्या दिक्क्त आ रही है?

75 खरब रुपए के ISS की अब वो हालत नहीं है, जो पहले थी. जब इसे बनाया गया था तब इसकी उम्र 15 साल बताई गई थी.15 साल पूरे हुए तो कहा गया कि ये 2024 तक काम कर लेगा. अब जब 2024 नजदीक आ रहा है तो नासा इसके 2030 तक खिंचने की उम्मीद जता रहा है. लेकिन, ISS से जुडी जो खबरें है वो चिंता में डालती हैं.

साल 2021 में रूस ने बताया कि इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन के जारया मॉड्यूल में कुछ जगहों पर दरारें देखी गई हैं. इसका इन-फ्लाइट सिस्टम 80 फीसदी तक एक्सपायर हो चुका है. कई और भी उपकरण एक्सपायर हो चुके हैं. रूस ने ये भी ऐलान किया कि वो 2024 में इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन से अलग हो जाएगा और चीन की तरह अपना एक अलग स्टेशन लांच करेगा.

नए एयर स्पेस स्टेशन का जबर डिजाइन

रूस ने ISS की हालात को लेकर जो कुछ कहा, वो नासा को भी खूब पता होगा. और यही वजह है कि उसने भी नए स्पेस स्टेशन को बनाने का काम काफी पहले शुरू कर दिया. नासा ने स्पेस स्टेशन्स डिजाइन करने के लिए तीन एरोस्पेस कंपनियों- ब्लू ओरिजिन की ऑर्बिटल रीफ, एक्सिओम स्पेस स्टेशन और स्टारलैब के साथ कॉन्ट्रेक्ट किया है. इस पूरे प्रोजेक्ट की कीमत 415 मिलियन डॉलर यानी करीब 34 अरब रुपए है. पिछले दिनों इस प्रोजेक्ट से यूरोप की मल्टीनेशनल एरोस्पेस कंपनी एयरबस भी जुड़ गई.

बीते हफ्ते एयरबस ने एक वीडियो जारी करके एयरबस लूप (Airbus LOOP) नाम के मल्टीपर्पस ऑर्बिटल मॉड्यूल का एक प्रस्ताव रखा. जैसा कि हमने आपको पहले बताया कि स्पेस स्टेशन अलग-अलग मॉड्यूल से मिलकर बनता है. ये वही एक मॉड्यूल है. Airbus LOOP मॉड्यूल में तीन डेक यानी तीन लेवल हैं. इनमें सबसे ऊपर हैबिटेशन डेक, इसके बाद साइंस डेक और सबसे नीचे सेंट्रीफ्यूज डेक है.

मॉड्यूल का व्यास करीब 26 फीट है और लंबाई भी करीब-करीब इतनी ही है. ऊपर से नीचे तक एक सुरंग नुमा सेंट्रल टनल दी गई है. इसके जरिए मॉड्यूल के हर हिस्से में पहुंचा जा सकता है. ये टनल एक ग्रीनहाउस स्ट्रक्चर से घिरी हुई है. इस ग्रीनहाउस स्ट्रक्चर में पौधों से जुड़े प्रयोग किए जा सकते हैं. इसे ऐसा बनाया गया है कि इससे साग, फलियां और अन्य पौधे बराबर मिलते रहेंगे.

Airbus ने इस मॉड्यूल को चार एस्ट्रोनॉट्स के लिए डिज़ाइन किया है, लेकिन इसमें अस्थायी रूप से आठ एस्ट्रोनॉट्स आ सकते हैं. एयरबस से जुड़े अधिकारियों का कहना है कि जैसा भी मिशन तय किया जाएगा, उसकी ज़रूरतों के हिसाब से मॉड्यूल के हर डेक में मशीनरी और इन्फ्रास्ट्रक्चर लगाया जा सकता है.

Airbus LOOP मॉड्यूल की सबसे ख़ास बात इसका सेंट्रीफ्यूज बताया जा रहा है. इसमें बड़े-बड़े दो बॉक्स बनाए गए हैं. जिन्हें पॉड्स कहते हैं. इनमें एक्सरसाइज करने के लिए साइकल्स लगाई गई हैं. कम्पनी का कहना है कि इन पॉड्स में आर्टिफिशियल ग्रैविटी क्रिएट की गई है, जिसमें दो लोग एक साथ एक्सरसाइज कर सकते हैं. यहां पर आपको एक और जरूरी बात बता दें. स्पेस स्टेशन में ऐस्ट्रोनॉट्स को ज़्यादा मेहनत नहीं करनी होती है. इसलिए उनकी मसल्स कमजोर होने लगती हैं. और इस समस्या से बचने के लिए उन्हें एक्सरसाइज करनी पड़ती है. हर एस्ट्रोनॉट को हर दिन दो घंटे एक्सरसाइज करना जरूरी है.

कुल मिलाकर एयरबस के स्पेस स्टेशन का डिजाइन बिलकुल नए तरह का है, मॉडर्न तकनीक का इस्तेमाल है, उम्मीद कर सकते हैं कि ये अंतरिक्ष में इंसान के कदमों को और आगे पहुंचाएगा. चांद के बाद मंगल तक.

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