रिपोर्ट: भारत में बेरोज़गारी का आलम देख सिर पीट लेंगे
CMIE के हिसाब से अक्टूबर से दिसंबर 2023 के बीच 20-24 की एज ग्रुप में 44.3 फीसदी युवा बेरोजगार थे. और 25-29 एज ग्रुप में बेरोजगारी की दर 14% से ज्यादा थी.
2024 का अंतरिम बजट. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने सरकार की उपलब्धियां गिना रही थीं. इन उपलब्धियों में जिक्र हुआ स्किल इंडिया मिशन का. सरकार की फ्लैगशिप पॉलिसी. जिसका जिक्र मोदी सरकार के कई मंत्री कई मौकों पर करते रहे हैं. आंकड़ों की मानें तो अभी तक इस पॉलिसी के तहत 1 करोड़ 40 लाख युवाओं को ट्रेनिंग मिली. 54 लाख युवाओं को अपस्किलिंग और रीस्किलिंग का फायदा मिला. यानी 54 लाख युवाओं ने अपने वर्क फील्ड में और बेहतर स्किल प्राप्त की या नई स्किल सीखी. कुल मिला कर सरकार ने ये बताने की कोशिश की थी कि उसने देश में रोजगार को बढ़ावा दिया. आर्थिक मोर्चे पर सरकार बार बार एक और उपलब्धि का जिक्र करती है. यही कि भारत दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था है. ये सारी बातें प्रारंभिक रूप से ऐसा संकेत देती हैं कि इंडियन इकॉनमी में सब चंगा है. लेकिन वो इंग्लिश की कहावत है ना. ‘डेविल लाइज इन द डिटेल्स’ इस मामले में भी बात कुछ वैसी ही है.
साल 2023. हरियाणा SSC एग्जाम. 13000 सीटों की भर्ती. लेकिन आवेदन कितने? 13 लाख से ज्यादा.
कुछ दिन पहले UP कांस्टेबल भर्ती की परीक्षा हुई. पद 60 हजार. और आवेदन कितने? 50 लाख से ज्यादा. और हद तो तब हो गई जब ये पेपर भी लीक हो गया.
ये इक्का दुक्का मामले होते तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता. लेकिन यही हाल पिछले सालों की कई परीक्षाओं में देखने को मिला. थोड़ा सा और डिटेल में चलते है. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी या CMIE. ये एक संस्था है, जो आर्थिक मामलों पर रिपोर्ट्स और आंकड़े पब्लिश करती है. इसके हिसाब से अक्टूबर से दिसंबर 2023 के बीच 20-24 की एज ग्रुप में 44.3 फीसदी युवा बेरोजगार थे. और 25-29 एज ग्रुप में बेरोजगारी की दर 14% से ज्यादा थी.
अब एक तरफ युवा बेरोजगारी से परेशान होकर आंदोलन कर रहे हैं और दूसरी तरफ सरकारें अपनी उपलब्धियों का बाजा बजा रही हैं. और इस सब के बीच आती है इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन की एक रिपोर्ट। नाम, इंडियन एम्प्लॉयमेंट रिपोर्ट 2024. इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेशन संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था है। इसने देश में युवाओं के हाल के बारे में एक बड़ी गंभीर बात सामने रखी. इसके मुताबिक देश के कुल बेरोज़गारों में 83% युवा हैं. इतने किस्से इतने आंकड़े, तो आखिर सच क्या है? पूरी बात समझने के लिए पहले थोड़ी सी इकोनॉमिक्स समझ लेते है. तभी समझ में आएगा कि देश की इस कॉम्प्लेक्स समस्या की जड़ें कितनी विशाल है.
इसको समझने के लिए पहले आपको 2 चीजें समझनी जरूरी हैं.
-लेबर फोर्स
-लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट
पहले लेबर फोर्स के बारे में कुछ चीजे समझते हैं.
हर आयु वर्ग का व्यक्ति काम नहीं करता. संस्थाएं ये मानती हैं कि काम करने वाले लोगों की उम्र 15 साल से ऊपर होती है. जिसे हम वर्किंग एज ग्रुप भी कहते हैं. इस वर्किंग एज ग्रुप की कुल जनसंख्या में से जितने लोग काम कर रहे हैं प्लस जितने लोग काम ढूंढ रहे हैं. इनका टोटल ही लेबर फोर्स कहलाता है. लेबर फोर्स के बाद लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन को समझते हैं. वर्किंग एज ग्रुप में से कितने प्रतिशत लोग लेबर फोर्स का हिस्सा हैं.इसे लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट कहते हैं.
अब समझिये बेरोजगारी की परिभाषा. अर्थशास्त्र की भाषा में बेरोजगारी का मतलब है वो सिचुएशन जब लेबर फोर्स का कोई व्यक्ति रोजगार ढूंढ रहा है, रोजगार करने लायक है, लेकिन उसे रोजगार नहीं मिल रहा है. इससे निकालते हैं बेरोजगारी दर यानी लेबर फ़ोर्स में बेरोज़गारों का प्रतिशत. इसे ही बेरोजगारी दर कहते हैं. किसी भी अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी दर एक बड़ी समस्या होती है लेकिन भारत के मामले में असली समस्या बेरोजगारी दर से नहीं बल्कि लेबर फ़ोर्स से शुरू होती है.
आपने बार-बार एक शब्द का जिक्र सुना होगा. डेमोग्राफिक डिविडेंड. यानी जब देश में कामगार जनसंख्या(वही जिनकी उम्र 15 साल से ज्यादा है). ये जनसंख्या ज्यादा होती है तब देश में कामगारों की संख्या ज्यादा होगी. जिसे हम टेक्निकल भाषा में लेबर फोर्स कहते हैं. लेबर फोर्स ज्यादा होने से देश में उत्पादन की क्षमता बढ़ती है. ये स्वाभाविक बात है कि उत्पादन ज्यादा होगा तो इकोनॉमिक ग्रोथ होगी और लोगों की आमदनी बढ़ेगी. लेबर फ़ोर्स से ये पता चलता है कि वर्किंग एज ग्रुप का कितना बड़ा हिस्सा काम कर रहा है और कितना नहीं.
CMIE के अनुसार भारत में वर्किंग एज ग्रुप, जनसंख्या का 79 फीसदी है. माने भारत में हर 100 में 79 लोग वर्किंग एज ग्रुप के हैं. देश की जनसंख्या कितनी है? 140 करोड़. तो इस हिसाब से देश की वर्किंग एज ग्रुप की संख्या करीब 111 करोड़ है. लेकिन CMIE की जून 2023 में आई सालाना रिपोर्ट के हिसाब से दिक्कत इस 111 करोड़ की संख्या में 92.2% महिलाएं और 33.6 फीसदी पुरुष ना ही कोई रोजगार कर रहे हैं और ना ही रोजगार ढूंढ रहे हैं.इसका भी आंकड़ा समझते हैं. वैसे तो देश में महिलाओं और पुरुषों का अनुपात 1020 इज टू 1000 है. यानी हर हजार पुरुष पर 1 हजार बीस महिलाएं है. लेकिन ये अनुपात राज्यों और अलग अलग आयु वर्ग में ऊपर नीचे होगा. तो बात को समझने के लिए हम इसको 1000 इज टू 1000 मान लेते हैं. तो मान लीजिए 111 करोड़ में साढ़े 55 करोड़ महिलाएं है और उतने ही पुरुष. जिनकी उम्र 15 साल से ज्यादा है. अब इन साढ़े 55 करोड़ महिलाओं में से लगभग 51 करोड़ महिलाएं और लगभग साढ़े 18 करोड़ पुरुष ना ही कोई रोजगार कर रहे हैं और ना किसी रोजगार की खोज में हैं. मसलन वो लेबर फोर्स का हिस्सा भी नहीं हैं. ये रिपोर्ट बताती है कि भारत में 2022-23 के बीच लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट महज 40% रहा. यानी वर्किंग एज ग्रुप और लेबर फोर्स के बीच 39% का फर्क है. माने वर्किंग एज ग्रुप की संख्या तो 111 करोड़ के आसपास है पर इसमें से सिर्फ ये नंबर, लोगों की संख्या (हेड काउंट) के मामले में 67 से 68 करोड़ के बीच आएगा. इसका मतलब ये हुआ कि वर्किंग एज के 68 करोड़ लोग देश में ना ही रोजगार कर रहे है और ना ही रोजगार ढूंढ रहे हैं. इस वजह से देश का एसेट देश के लिए लायबिलिटी बन रहा है? एसेट माने संपत्ति और लायबिलिटी माने भार. कैसे?
कम लेबर फाॅर्स पार्टिसिपेशन इकॉनमी की सेहत के लिए काफी नुकसानदायक है. ऐसी सिचुएशन में डेमोग्राफिक डिविडेंड तो मिलने से रहा. उल्टा नुकसान होगा, जिसे इकोनॉमिक्स में डेमोग्राफिक डिजास्टर कहते हैं.
कैसे? क्योंकि इससे हाउसहोल्ड इनकम यानी घरेलू आमदनी कम होती है, जिससे पूरी इकॉनमी में डिमांड घट जाती है. फिर इस कम होती डिमांड के कारण उद्योगों को घाटा होता है जिससे उद्योग बंद हो जाते हैं. और नौकरियों की संख्या में और गिरावट होती है. जिस वजह से बेरोज़गारी और ज्यादा बढ़ जाती है. यानी एक vicious साइकिल या एक कुचक्र शुरू हो जाता है. सबसे बड़ी परेशानी की बात ये है कि पिछले सालों में लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट गिरा है. 2016-17 में CMIE के डेटा के अनुसार लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट 46.2% था. जो 2023 में 40% हो गया है. कमी.
प्रतिशत के मामले में ये अंतर महज 6.2 % का दिख रहा है. लेकिन नंबर में ये 7 करोड़ के करीब है. यानी 2016 से 7 करोड़ लोग सिर्फ बेरोजगार ही नहीं हुए. वो तो लेबर फोर्स से ही बाहर चले गए. यानी वो अब रोजगार ढूंढ ही नहीं रहे हैं. सबसे बड़ी चिंता की बात ये है कि महिलाओं के मामले में लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट में लगातार कमी हो रही है. 2016-17 में महिलाओं की भागीदारी 15% थी जो निरंतर घटते हुए 2022-23 में 8.8% हो गई.
महिलाओं की इतनी कम भागीदारी की कुछ बड़ी वजहें हैं. जैसे काम में पुरुषों के मुकाबले कम सैलरी मिलना, एजुकेशन ना मिलना, सोसाइटी का प्रेशर, महिलाओं के लिए काम की जगहों में सुरक्षित माहौल ना होना. हालांकि की CMIE के अनुसार लेबर फोर्स में 1- 1.5 फीसदी की वृद्धि हुई है.
CMIE के अलावा भारत सरकार भी बेरोजगारी और लेबर फोर्स का एक सर्वे करवाती है. भारत सरकार के सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे किया जाता है. इसे पीरियोडिक कहते क्योंकि ये एक सालाना किया जाने वाला सर्वे है. इसके हिसाब से देखें तो दूसरी तस्वीर दिखाई देती है. इस रिपोर्ट की मानें तो भारत में लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट 2019-20 में 53.5 फीसदी था जो 2022-23 में बढ़कर 57.9 % हो गया.
दोनों सर्वे के बीच इतना फर्क कैसे?वजह है सर्वे करने के तरीके में. CMIE और सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय दोनों अपने डाटा के मामले में सम्मानित संस्थाएं हैं. लेकिन फिर भी आकंड़ो की फर्क है. हालांकि दोनों में से कोई भी आंकड़े सही हों, हम दुनिया के सबसे युवा देश होने के बाद भी कई देशों से लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन के मामले में पीछे हैं. वर्ल्ड बैंक के हिसाब से 2022 में बांग्लादेश, जापान, ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील जैसे देश हमसे आगे थे. बांग्लादेश में लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट 59 फीसदी, जापान में 62%, ऑस्ट्रेलिया में 66% और ब्राजील में 63% था.
लेकिन आपके हिसाब से रोजगार का मतलब क्या है? यही कि कोई व्यक्ति किसी फैक्ट्री में काम करता है, रोज अपनी दुकान लगाता है, कोई बिज़नेस करता है. वगैरह वगैरह. कुल मिला कर कोई व्यक्ति हफ्ते में 5-6 दिन काम पर जाता है तो आपके हिसाब से वो एम्प्लॉइड है. लेकिन सरकार के हिसाब से बेरोजगारी का मतलब कुछ अलग है. कैसे?
2 तरीकों से बेरोजगारी को मापा जाता है. UPSS यानी usual प्रिंसिपल एंड सब्सिडियरी स्टेटस करेंट वीकली स्टेटस.
UPSSUPSS वाला तरीका कहता है कि, अगर किसी व्यक्ति ने एक साल में 30 दिन से ज्यादा काम किया है तो उसे बेरोजगार नहीं माना जाएगा. वहीं, करेंट वीकली स्टेटस में बेरोजगारी नापने का पैमाना थोड़ा अलग है. इस तरीके में अगर कोई व्यक्ति एक हफ्ते में 1 घंटे भी काम करता है तो उसे बेरोजगार नहीं माना जाएगा. यानी अगर किसी ने साल में 30 दिन से ज्यादा काम कर लिया. भले ही बाकी के 10-11 महीने घर पर क्यों ना बैठा रहे. या फिर एक हफ्ते में 1 घंटे से ज्यादा काम किया हो और भले ही पूरे हफ्ते घर पर खाली बैठा हो, उसे बेरोजगार नहीं, नौकरी शुदा कहा जाएगा.
जैसा कि हमने पहले भी बताया है कि वर्किंग एज के 38% लोग तो लेबर फोर्स का हिस्सा हैं ही नहीं. और जो हैं उनकी बेरोजगारी मापने का तरीका कैसा है, ये भी आपने अभी देख ही लिया. उसके बाद भी 2023 में CMIE के हिसाब से 8% बेरोजगारी दर थी. यानी लगभग देश में 3.5 करोड़ लोग बेरोजगार थे. तो सोचिए अगर सरकारें आपकी बेरोजगारी वाली समझ को अपना कर इसका कैलकुलेशन करें तब ये संख्या कहां पहुंच जाएगी.
बेरोजगारी की वजहेंसमस्या अगर इतनी कॉम्प्लेक्स है तो एक बात तो साफ़ है कि इसके कारण आज नहीं पैदा हुए हैं. जब देश आजाद हुआ तब कई समस्याओं ने अर्थव्यवस्था को घेर रखा था. लेकिन संसाधनों की कमी और सरकारों की तरफ से किसी ठोस पॉलिसी का निर्माण ना होने की वजह से इन समस्याओं की जड़ें बेहद मजबूत हो गईं.
क्या हैं ये समस्याएं? एक एक करके डिटेल में समझते हैं.
इस देश में वर्किंग एज़ में आने वाले लोग पर्याप्य कार्य कुशलता नहीं रखते. वर्किंग एज ग्रुप माने 15 साल की उम्र से ऊपर की जनसंख्या. इसमें लेबर फोर्स और नॉन लेबर फोर्स दोनों ही जुड़े होते हैं. इसमें लगभग देश की 67% आबादी है. गिनती में कहें तो 90 करोड़ लोग.
-इसमें से 20% लोग या गिनती में कहें तो 18 करोड़ लोग छठी पास भी नहीं हैं.
-देश में 38% लोग 10वीं या 12वीं पास है. यानी लगभग 34 करोड़ सिर्फ की मैक्सिमम क्वालिफिकेशन 12वीं पास है. और इस लगभग 90 करोड़ की वर्किंग ऐज ग्रुप में मात्र 12% लोग ग्रेजुएट हैं.
सरकारी एजुकेशन सिस्टम के हालात एकदम खस्ता हैं. देश के ज्यादातर गरीब परिवार अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ने भेजते हैं. गरीबी की वजह से लोग अपने बच्चों को पढ़ाने की जगह उनसे काम करवाते हैं. आप ने कई बार देखा होगा. चाय के ठेले पर. ठेले का मालिक अपने बच्चों से भी वही काम करवाता है. कई बार गरीबी से मजबूर होकर लोग अपने बच्चों को होटल ढाबे पर काम करने भी भेज देते हैं. सरकरों की विफलता और गरीबों की मजबूरी के चलते देश को लो स्किल्ड लेबर की बड़ी समस्या से जूझना पड़ता है. देश में टेक्निकल एजुकेशन बहुत महंगा है. IIT, IIM जैसे सरकारी कॉलेज हों, या प्राइवेट कॉलेज सबकी फीस लाखों में है.
इकोनॉमिक्स का एक बेसिक रूल है. अगर देश में हाई स्किल्ड लेबर होगा तो उस देश में टेक्निकल सेक्टर्स में इन्वेस्टमेंट बढ़ेगा. जैसे मोबाइल मैन्युफैक्चरिंग, semiconductors, aircraft मैन्युफैक्चरिंग, shipbuilding. ऐसे प्रोडक्ट्स की मैन्युफैक्चरिंग जितनी ज्यादा होगी. देश की अर्थव्यवस्था उतनी ही मजबूत होगी. हाई स्किल्ड लेबर को सैलरी भी अच्छी मिलती है.
ज्यादा आमदनी यानी मार्केट में ज्यादा डिमांड. तो ज्यादा डिमांड होगी तो प्रोडक्शन बढ़ेगा जिसके लिए और लोगों को नौकरी देनी पड़ेगी. जिससे देश में बेरोजगारी कम होगी. और ये साइकिल ऐसे ही चलती रहेगी.
अब अगर आप भारत का हाल देखें. तो भारत में मोबाइल मैन्युफैक्चरिंग में ज्यादातर मोबाइल असेंबलिंग का काम होता है यानी पार्ट्स दूसरे देशों से बन कर आते हैं और यहां असेम्बल किया जाते हैं. देश में semiconductor की फैक्ट्री इस साल गर्मियों में चालू होने की उम्मीद है. और शिपबिल्डिंग, एयरक्राफ्ट मैन्युफैक्चरिंग जैसी इंडस्ट्री देश में लगभग नेग्लिजिबल यानी ना के बराबर हैं.
यूनिकॉर्न आसान भाषा में कहें तो एक ऐसी स्टार्टअप कंपनी जिनका कुल वैल्यूएशन 1 बिलियन डॉलर से ऊपर हो. आज की तारीख में करीब 8,300 करोड़ रुपये से ज्यादा हो. Ola, Paytm, byju’s , Flipkart ये सब यूनिकॉर्न हैं. देश में ऐसी 113 यूनिकॉर्न कंपनी हैं. 2 साल पहले तक इनमें से बहुत सी कंपनियां तेजी से हायरिंग कर रहीं थीं. इन सभी ने लाखों डायरेक्ट या इनडायरेक्ट नौकरियां दी. डायरेक्ट नौकरी माने जब इन कंपनियों ने खुद लोगों को हायर किया. और इनडायरेक्ट माने जब इनकी वजह से अर्थव्यवस्था में और नई नौकरियों का निर्माण हुआ हो. मसलन flipkart. कुछ लोगों को ये कम्पनी काम पर रखती हैं जैसे इनकी वेयरहाउस टीम, सेल्स टीम वगैरह वगैरह. लेकिन फ्लिपकार्ट की वजह से कुछ इनडायरेक्ट जॉब्स भी बनती हैं जैसे कस्टमर सपोर्ट के लिए ये कॉल सेंटर हायर करती है. वहां लोगों को नौकरी मिलती है. वहीं डिलीवरी के लिए भी कई एजेंसी काम करती हैं. उनको भी फायदा होता है.
लेकिन पिछले एक साल से इन यूनिकॉर्न में तेजी से लोगों को नौकरी से निकाला जा रहा है. जैसे, flipkart ने अपने टोटल एंप्लॉयीज में से 5-7% लोगों को निकालने का फैसला किया है. साल 2022 तब देश में 100 यूनिकॉर्न थे. इसमें से 69 यूनिकॉर्न लॉस में थे. सिर्फ 31 यूनिकॉर्न ऐसे थे जो प्रॉफिट कमा रहे थे. और इस लॉस मेकिंग यूनिकॉर्न में byjus सबसे आगे था. फ्लिपकार्ट भी इस लिस्ट में है. ये दोनों अभी तक लॉस में हैं.
केंद्र सरकार में स्वीकृत पदों की संख्या 39 लाख 77 हजार थी. जुलाई 2023 में केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने लोकसभा को बताया कि 1 मार्च 2022 तक केंद्र सरकार में 9 लाख 64 हजार पद खाली थे. इसमें से रेलवे में अकेले ढाई लाख से ज्यादा पद खाली थे. और आपकी जानकारी के लिए बता दें. इसमें से ढाई लाख से ज्यादा पद अकेले रेलवे में खाली थे. और इन पदों की भर्ती प्रक्रिया अभी तक पूरी नहीं हो पाई है. और इसके विरोध में पिछले एक साल में अभ्यर्थियों ने प्रदर्शन भी किए हैं.
पिछले साल देश के शिक्षा मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार. देशभर में सरकारी विद्यालयों में 8 लाख 40 हजार शिक्षकों के पद खाली थे. जिसमें से 7 लाख से ज्यादा पद एलिमेंट्री लेवल पर खाली थे. एलिमेंट्री लेवल माने क्लास 1 से 8 तक. और सेकेंडरी लेवल यानी 8वीं -10वीं क्लास की टीचर्स के 1 लाख 20 हजार पद खाली थे. एक तरफ तो लगभग साढ़े 8 लाख से ज्यादा लोग नौकरी के लाभ से दूर हैं. वहीं दूसरी तरफ उन बच्चों का भविष्य अंधकार में है, जिनको सही शिक्षा नहीं मिल पा रही. आगे चल के ये बच्चे फिर से अन स्किल्ड लेबर का हिस्सा बनेंगे और देश का एसेट देश की लायबिलिटी बन जाएगा.
आपने बेरोजगारी का आलम तो समझ लिया. इसके पीछे के कारणों को भी समझ लिया. अब एक बार उनका हाल भी जानिए जो लोग किसी ना किसी रोजगार से जुड़े हैं. ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में किस तरह का रोजगार उपलब्ध है इसे जान लीजिए. आपको देश के एम्प्लॉयमेंट का हाल समझ आ जायेगा.
International Labour Organisation यानी ILO एक संस्था है. जो दुनिया भर में कामगारों/मजदूरों की मदद के के लिए काम करती है. ILO की 2021 की रिपोर्ट बताती है दुनिया में काम करने वाले लोगों की कुल संख्या का 26% कृषि क्षेत्र में काम करता है लेकिन भारत में ये आंकड़ा काफी ज्यादा है.
भारत में 44% वर्कर्स कृषि क्षेत्र में काम करते हैं. जबकि हमारे पड़ोसी चीन में 24% लोग कृषि क्षेत्र में काम करते हैं. वहीं बांग्लादेश में 37% लोग किसानी करते हैं. किसानी में जॉब क्वालिटी हमेशा एक जैसी नहीं रहती. किसानों को अक्सर घाटा सहना पड़ता है. और ये बहुत हद तक मानसून पर भी निर्भर करता है. इसके बावजूद भारत में बड़े पैमाने पर लोग खेतों में काम करते हैं. कारण- स्किल्स की कमी और अच्छी नौकरियां न होना.
बात सिर्फ इतनी ही नहीं है. देश में टोटल लेबर फोर्स 44 करोड़ है. यानी देश में कुल करीब 44 करोड़ लोग काम करते हैं. इसमें से 13 करोड़ लोग MGNREGA के एक्टिव वर्कर्स हैं. जो कुल रोजगार का 29% है. सवाल ये उठता है कि अगर देश की लेबर फोर्स का इतना बड़ा हिस्सा MGNREGA जैसी एक योजना पर निर्भर है.
इस योजना के तहत काम करने के लिए किसी स्किल की जरूरत नहीं है. कोविड के दौर में ऐसी कई खबरें सामने आई जहां ग्रेजुएट भी MGNREGA के तहत काम कर रहे थे. और यहां दिहाड़ी कितनी मिलती है? अलग-अलग राज्यों में अलग अलग रेट है. लेकिन कुल मिलाकर 221 रुपये से लेकर 357 रुपये प्रति दिन की दिहाड़ी दी जाती है. और इस स्कीम में भी साल में 100 दिन के रोजगार की गारंटी है. 365 दिन की नहीं. ये तो ग्रामीण क्षेत्रों का हाल हो गया. अब शहरी क्षेत्रों का हाल भी जानिए.
यहां नौकरी के हालात कैसे हैं. जॉब सिक्योरिटी कैसी है. वगैरह वगैरह. इसे जानने से पहले एक छोटी सी बात जाननी होगी. मुख्य रूप से इकोनॉमी में 2 तरह की नौकरियां होती हैं. पहली organized सेक्टर में. यानी वो नौकरियां जो सरकार से मान्यता प्राप्त हैं. यहां काम की शर्तें और समय दोनों पहले से तय होते हैं. मेडिकल और प्रोविडेंट फंड की सुविधाएं भी मिलती हैं. जैसे सरकारी नौकरियां, MNC की नौकरियां.
दूसरे टाइप की नौकरी होती हैं, unorganised sector की नौकरी. जैसे मजदूर, किसान, construction सेक्टर. इनके पास organized सेक्टर जैसी की सुविधा नहीं होती. भारत की बात करें तो यहां organised sector में सिर्फ 17% लोग काम करते हैं. दुनिया के जितने बड़े देश हैं. जो भी बड़ी इकॉनमी है. वहां अधिकतर कामगार मैन्युफैक्चरिंग और सर्विसेज सेक्टर में काम करते हैं. लेकिन भारत में ये आंकड़ा कम है. क्योंकि अभी आपने जाना कि 44% लोग तो खेती से जुड़े हैं.
भारत में जॉब क्वालिटी की क्या हालत है. ये जानने के लिए एक बार आपको प्रॉविडेंट फंड का आंकड़ा बताते हैं. प्रॉविडेंट फंड वो रकम होती है जो एक नौकरी शुदा शख्स की सैलरी से काट कर सेविंग्स के नाम पर अलग जमा की जाती है. लेकिन आंकड़े बताते हैं कि भारत में महज 4.6 करोड़ लोग प्रॉविडेंट फंड में रेगुलर कंट्रीब्यूट कर पाते हैं. जबकि रजिस्ट्रेशन करने वालों की संख्या 27.7 करोड़ है. इतना बड़ा गैप बताता है कि ज्यादातर लोग अस्थायी नौकरी कर रहे हैं.
Unorganised और organised सेक्टर के अलावा नौकरी का एक तीसरा सेक्टर भी है जो हालिया समय में तैयार हुआ है. इसे गिग इकॉनमी कहते हैं. इसमें भी दो प्रकार के कामगार होते हैं.
पहले प्लेटफॉर्म गिग वर्कर्स जो किसी बड़े प्लेटफॉर्म यानी कंपनी से जुड़े हैं. जैसे ओला ड्राइवर्स, स्विग्जी डिलीवरी आदि. जबकि दूसरे नॉन प्लेटफॉर्म गिग वर्कर्स होते हैं. जो खुद से काम ढूढ़ते हैं. और किसी बड़ी कंपनी से जुड़े नहीं है जैसे फोटोग्राफर्स, कंटेंट राइटर्स, वेबसाइट डिजाइनर्स.
जून 2022 में आई नीति आयोग की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत के 77 लाख लोग इस समय गिग इकॉनमी का हिस्सा हैं. अनुमान है कि 2029-30 तक इनकी संख्या 2.35 करोड़ हो जाएगी.
इस सेक्टर को लेकर भी चिंता है कि यहां रोजगार तो मिल रहा है लेकिन भविष्य एकदम सुरक्षित नहीं है. इन गिग वर्कर्स के लिए बड़ी समस्या नौकरी जाने का खतरा और प्रोविडेंट फंड, हेल्थ इंश्योरेंस और पेड लीव जैसी सोशल सिक्योरिटी ना मिलना है. लेकिन एक बात पर गौर करना और जरूरी है. रोजगार के मामले में महिलाओं की क्या स्थिति है.
CMIE की रिपोर्ट एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2022-23 में एम्प्लॉयड लोगों की संख्या 40 करोड़ 60 लाख थी. जिसमें से सिर्फ लगभग 4 करोड़ महिलाएं थीं. यानी कुल एम्प्लॉयड लोगों में 10 प्रतिशत से भी कम हिस्सेदारी महिलाओं की थी. लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इन 4 करोड़ महिलाओं में से 48 फीसदी छोटी मोटी ट्रेडर या मजदूर हैं. 18% किसान हैं. 4 करोड़ में सिर्फ 23.4% महिलाओं के पास सैलरीड जॉब या एक निर्धारित इनकम है. संख्या में कहें तो करीब 94 लाख. अब अंदाजा लगा लीजिए कि 4 करोड़ में से 94 लाख ही काम कर रही हैं तो रोजगार के मामले में महिलाओं की स्थिति क्या है. बाकी वो हैं जो मेहनत मजदूरी से रोजाना दिहाड़ी कामाती हैं.
हालांकि, सरकारी आंकड़े काफी अलग है. सरकारी आंकड़ों के हिसाब से महिलाओं का लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट 2017-18 के मुकाबले 2022-23 में 10% की बढ़त हुई है. 2022-23 में महिलाओं का लेबर फ़ोर्स पार्टिसिपेशन 27.8 % था. हालांकि इस साल जनवरी में आई इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक इसमें ज्यादातर महिलाएं घरेलू उद्योग में हेल्पर की तरह काम कर रही थीं. जिसके लिए उन्हें कोई रेगुलर सैलरी नहीं मिलती थी. हर समस्या का समाधान होता है. इसका भी है. लेकिन सबसे पहले डेटा के मामले में इससे ठीक करना जरूरी है.