1971 Indo-Pak War: "प्यारे अब्दुल्ला, खेल खत्म"; अखबार में क्या छपा जिसने 'रावलपिंडी' के होश उड़ा दिए
India-Pakistan War 1971: जंग के बाद General Niyazi ने सरेंडर की एक मुख्य वजह इस फोटो को भी बताया. उन्होंने बताया कि लंदन में छपी इस तस्वीर ने Pakistani Army का मनोबल तोड़ दिया था.
16 दिसंबर 1971. जब-जब भारत की फौज और उसके पड़ोसी पाकिस्तान, बांग्लादेश का जिक्र आएगा, तब-तब इस तारीख का जिक्र किया जाएगा. 16 दिसंबर को पूर्वी (INdo-Pak War 1971) पाकिस्तान जो आज का बांग्लादेश है वहां मौजूद पाकिस्तानी सेना ने भारत की फौज के सामने सरेंडर कर दिया था. लिहाजा दुनिया के नक्शे पर एक नए देश, 'बांग्लादेश' का जन्म हुआ. वैसे तो इस लड़ाई से जुड़े कई दिलचस्प किस्से हैं. जैसे राजस्थान के लौंगेवाला में 83 सैनिकों का पूरी पाकिस्तानी टैंक ब्रिगेड से लड़ना, या पाकिस्तान की पनडुब्बी PNS Ghazi को नेस्तनाबूद करना. पर इन सब किस्सों में एक ऐसा किस्सा है, जिसे सुनकर लगता है कि आज के जमाने में जिस इंफॉर्मेशन वॉरफेयर की बात होती है, भारत ने 1971 की जंग में ही उस इंफॉर्मेशन वॉरफेयर का इस्तेमाल किया था.
युद्ध की शुरुआत से पाकिस्तानी आर्मी लीडरशिप को अंदाज़ा नहीं था कि भारत, ढाका पहुंचने की कोशिश करेगा. जनरल याह्या, नियाज़ी और टिक्का खान समझ रहे थे, ज्यादा से ज्यादा भारत एक हिस्से पर कब्जा कर वहां नई सरकार का शिलालेख कर देंगे. और जैसा कि पहले के युद्धों में होता आया था, UN में अमेरिका सीजफ़ायर का प्रस्ताव पास कर देगा और मामला अधर में फ़ंस जाएगा. जनरल नियाज़ी पूर्व में पाकिस्तान आर्मी की कमान संभाल रहे थे. जब उन्हें लगा कि भारत, ढाका पहुंचने की कोशिश में है तो उन्होंने ढाका की सुरक्षा के लिए दो घेरे बनाए. इनर और आउटर, सभी मुख्य शहरों में फौज मौजूद थी. जो ज़रूरत पड़ने पर ढाका की तरफ़ मूव कर सकती थी. मानेकशॉ भी इसी फिराक में थे कि ब्लिट्ज़क्रीग तरीक़े से सभी मुख्य शहरों पर कब्जा जमाते हुए ढाका की ओर बढ़ेंगे. लेकिन मेजर जनरल जे एफ आर जैकब इस रणनीति से सहमत नहीं थे. जैकब ने कहा कि ये ठीक नहीं होगा. इसमें जोखिम ज्यादा है. मानेकशॉ ने पूछा, फिर क्या करें? जवाब में जैकब लेकर आए एक खास स्ट्रैटजी. वॉर ऑफ मूवमेंट. इसके मुताबिक, भारतीय सेना को पूरा बांग्लादेश आजाद कराना था. लेकिन शहरों से होकर नहीं बल्कि छोटे-छोटे गांवों और देहातों से होते हुए.
ऐसे में रिस्क कम था. छोटे इलाकों में बांग्ला निवासियों का सहयोग मिलता और बिना युद्ध को लंबा खींचे भारत अपने मिशन में कामयाब हो जाता. 7 दिसंबर तक भारतीय सेना ने जैसोर और सियालहट को आजाद करा लिया था. ढाका तक पहुंचने के लिए आर्मी आगे बढ़ी, तो उत्तर में मौजूद 93 पाकिस्तानी ब्रिगेड ने ढाका की ओर मूव करना शुरू किया.
इन्हें बीच में रोकने के लिए भारत की 2 पैरा बटालियन को पैराशूट के माध्यम से तंगेल में लैंड कराया गया. इनका मिशन था ज़मीन पर मराठा लाइट इंफैंट्री से लिंक स्थापित करना. मराठा लाइट इंफेंट्री तब ढाका की ओर बढ़ रही थी. 11 दिसम्बर की शाम IAF के 6 AN-12, 20 C-119 ‘पैकेट’ और 22 डकोटा विमान ने कोलकाता के दमदम हवाई अड्डे से उड़ान भरी. 800 जवानों को 12 जीपों सहित तंगेल में पैरा ड्रॉप कराया गया.
इसके साथ ही पाकिस्तान को कन्फयूज करने के लिए और दो इलाकों में डमी पैराशूट उतारे गए. अगले दिन ब्रिटेन से लेकर अमेरिका के अखबारों में इस घटना की तस्वीर छपी. हल्ला मचा कि भारत ने ढाका पर कब्जे के लिए पूरी ब्रिगेड उतार दी है. असलियत ये थी कि तंगेल में कभी कोई तस्वीर खींची ही नहीं गई. राम मोहन रॉय तब दिल्ली से भारतीय सेना के मूवमेंट की प्रेस रिलीज की ज़िम्मेदारी सम्भाल रहे थे. उन्होंने जो तस्वीर रिलीज़ की, वो दरअसल एक साल पहले हुई ट्रेनिंग एक्सरसाइज की फोटो थी. तस्वीर ने अपना काम कर दिया.
जंग के बाद जनरल नियाज़ी ने सरेंडर की एक मुख्य वजह इस फोटो को भी बताया. उन्होंने बताया कि टाइम्स लंदन में छपी इस तस्वीर ने ट्रूप्स का मनोबल तोड़ दिया था. तस्वीर से लग रहा था भारत ने पूरी ब्रिगेड उतार दी है. जबकि असल में सिर्फ़ एक बटालियन भर सैनिक ड्रॉप हुए थे. यही वो बटालियन थी जिसने सबसे पहले ढाका में एंटर किया. प्यारे अब्दुल्ला को संदेश देने के लिए 16 दिसंबर की सुबह जनरल गंधर्व नागरा फ़ोर्स के साथ ढाका के ठीक बाहर खड़े थे. नियाज़ी को सरेंडर के लिए 16 दिसम्बर की सुबह 9 बजे का वक्त दिया गया था. 9 बजे तक कोई जवाब नहीं आया तो जनरल नागरा ने अपने दो अफसर भेजे. साथ में नियाज़ी के लिए एक संदेश,
“प्यारे अब्दुल्ला, मैं ढाका पहुंच चुका हूं. खेल खत्म हो चुका है. मेरी सलाह है कि तुम खुद को मेरे हवाले कर दो. मैं तुम्हारा पूरा ध्यान रखूंगा.”
सुबह 9 बजे एक सफेद जीप में दोनों ऑफिसर संदेश लेकर नियाज़ी के पास पहुंचे. वापस लौटे तो पाकिस्तानी सेना के मेजर जनरल जमशेद भी साथ थे. नियाज़ी सरेंडर के लिए तैयार हो गए थे. तब सीजफायर को शाम 5 बजे तक बढ़ा दिया गया. इसके बाद जनरल नागरा खुद नियाज़ी से मिलने पहुंचे.
हेडक्वार्टर में नियाज़ी सिर नीचे करे बैठे थे. नागरा को देखते ही बिलख-बिलख कर रोने लगे. फौजी को फौजी का सहारा मिला, तो नियाज़ी ने अपना दुखड़ा सुनाया. बोले,
“पिंडी में बैठे हुए लोगों ने हमें मरवा दिया.”
16 की दोपहर मेजर जनरल जैकब ‘सरेंडर अग्रीमेंट ड्राफ्ट’ के साथ ढाका में लैंड हुए. वहां उन्हें एक पकिस्तानी ब्रिगेडियर और दो UN प्रतिनिधियों ने रिसीव किया. इनमें से एक मार्क केली ने कहा,
“जनरल हम आपके साथ चलेंगे ताकि आप ढाका में सरकार को टेक ओवर कर सको.”
जैकब ने जवाब दिया,
“थैंक यू बट नो थैंक यू ”
जैकब किसी नौटंकी के मूड में नहीं थे. वो सीधे ढाका स्थित आर्मी हेडक्वार्टर पहुंचे. वहां नियाज़ी के साथ फरमान अली भी मौजूद थे. वही फ़रमान अली जिनकी डायरी में बांग्लादेश के प्रबुद्धजनों को मारने की लिस्ट मिली थी. जंग से परे शतरंज की बिसात जैकब ने नियाज़ी और फरमान अली को सरेंडर ड्राफ़्ट पढ़कर सुनाया. शतरंज की बिसात तैयार हो चुकी थी. दोनों तरफ फौजी, लड़ाई शब्दों से होनी थी. नियाज़ी ने अपनी पहली चाल से कुछ लेवरेज वापस हासिल करने की कोशिश की. उन्होंने सरेंडर की शर्तें मानने से साफ इनकार कर दिया. उन्होंने कहा,
“किसने कहा कि मैं सरेंडर कर रहा हूं? आप तो यहां बस सीजफायर की शर्तों और सेना वापसी पर बात करने आए हैं.”
अब बारी जैकब की थी. पहले तो कुछ देर उन्होंने नियाज़ी को मनाने की कोशिश की. लेकिन जब नियाज़ी नहीं माने, तो जैकब ने अपने तेवर सख़्त किए. उन्होंने नियाज़ी को साइड में ले जाकर कड़ी आवाज़ में कहा,
“सरेंडर की शर्तों के हिसाब से तुमसे इज्जत से पेश आया जाएगा. लेकिन जैसा कि जेनेवा कन्वेंशन में निहित है, केवल तब, जब तुम सरेंडर के लिए राज़ी होगे. अगर तुम सरेंडर से इनकार करते हो, तो फिर आगे जो होगा, मेरी ज़िम्मेदारी नहीं होगी. 30 मिनट दे रहा हूं, सोच लो. अगर उसके बाद तुमने इनकार कर दिया तो जंग जारी रहेगी और हम ढाका पर बमबारी करते रहेंगे.”
इससे पहले कि नियाज़ी कुछ कहते, जैकब बिना जवाब का इंतज़ार किए कमरे से बाहर निकल गए. शतरंज के हिसाब से ये रिस्की मूव था. अगर नियाज़ी इनकार कर देते तो मामला अधर में लटक सकता था. 15 दिसंबर की रात से जो संघर्षविराम लागू हुआ था, उसे खत्म होने में कुछ ही वक्त बचा था. ऊपर से जैकब बिल्कुल कॉन्फिडेंट नजर आ रहे थे. मगर अंदर ही अंदर उन्हें बहुत घबराहट हो रही थी. वो सोच रहे थे कि अगर नियाज़ी ने सरेंडर करने से इनकार कर दिया, तो आगे की क्या रणनीति होगी. ऊपर से UN में भी सीज फ़ायर का प्रस्ताव कभी भी पारित हो सकता था. उनके पास बहुत वक्त नहीं था. सेकेंड राउंड- चेक एंड मेट आधे घंटे की मोहलत खत्म हुई तो जैकब दुबारा कमरे के अंदर घुसे. पूछा, जनरल, ‘तुम सरेंडर के लिए तैयार हो’? नियाज़ी ने कोई जवाब नहीं दिया. जैकब ने दो बार और वही सवाल पूछा. तीसरी बार जब कोई जवाब नहीं आया तो उन्होंने सरेंडर के काग़ज़ात उठाए और बोले,
“तो ठीक है फिर. मैं आपकी खामोशी को आपकी हां मान रहा हूं.”
नियाज़ी को कुछ समझ नहीं आया. नियाज़ी की चुप्पी के बावजूद जैकब ने आख़िरी लेवरेज भी छीन ली थी. पूरी बाजी अब उनके हाथ में थी. इसके बाद उन्होंने नियाज़ी के पेंच कसने शुरू किए. बोले, 'कल रेस कोर्स में तुम ढाका के लोगों के सामने सरेंडर करोगे.'
नियाज़ी जो अभी-अभी सरेंडर के सदमे से उभरे नहीं थे. ‘सबके सामने’ वाली बात से उनकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई. रुंधे हुए गले से उन्होंने इनकार करने की कोशिश की. लेकिन तब तक खेल ख़त्म हो चुका था. चेक एंड मेट. जैकब ने तब उनकी आंख से आंख मिलाते हुए कहा,
“तुम सरेंडर करोगे. पब्लिक में सरेंडर ना करने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता. इतना ही नहीं, तुम लेफ्टिनेंट जनरल अरोड़ा को गार्ड ऑफ़ ऑनर भी दोगे.”
नियाज़ी जितना ज़मीन से ऊपर थे, उतना ही ज़मीन के नीचे धंस चुके थे. फौज के उसूलों के हिसाब से एक कमांडर के लिए दुश्मन को गार्ड ऑफ़ ऑनर देने से ज्यादा शर्मिंदगी की बात दूसरी नहीं हो सकती थी. नियाज़ी ने बहाना मारा. बोले, कोई है ही नहीं, जो गार्ड ऑफ़ ऑनर को कमांड कर सके. मेजर जनरल जैकब ने नियाज़ी के ADC की ओर इशारा करते हुए कहा,
“तुम्हारा ADC यहां है. ही विल ब्लडी कमांड इट”
जैकब गार्ड ऑफ़ ऑनर के लिए क्यों अड़े थे. ये जानने के लिए एक दूसरी तारीख पर जाना होगा. दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब जापानी फौज ने सरेंडर किया था, तो वो जैकब ही थे जिन्होंने ब्रिटिश इंडियन आर्मी की तरफ़ से सुमात्रा में जापानी फौज का सरेंडर स्वीकार कराया था. तब जापानी टुकड़ी ने उन्हें गार्ड ऑफ़ ऑनर भी दिया था. इसी कारण वो गार्ड ऑफ़ ऑनर के लिए इतना जोर दे रहे थे. सरेंडर के कागजात पर दस्तखत- दो बार सरेंडर ऐक्सेप्ट करने के लिए 16 की शाम को लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा पहुंचे. नियाज़ी ने खुद ढाका एयरपोर्ट जाकर लेफ्टिनेंट जनरल अरोड़ा को रिसीव किया. 16 दिसंबर 1971, ढाका का रामना रेसकोर्स. वही जगह, जहां कुछ साल पहले खड़े होकर शेख मुजीब-उर-रहमान ने बांग्लादेश की आजादी का एलान किया था. जहां बांग्लादेश का झंडा लहराया गया था.
अरोड़ा और उनकी पत्नी, दोनों हेलिकॉप्टर से ढाका पहुंचे थे. जनरल नियाज़ी ने उन्हें देखा. उन्हें गार्ड ऑफ़ ऑनर दिया गया. फिर आगे बढ़कर नियाज़ी ने अरोड़ा से हाथ मिलाया. दोनों में कोई बात नहीं हुई. यहां से वो लोग सीधे रामना रेसकोर्स पहुंचे. हजारों बंगालियों की भीड़ वहां मौजूद थी. वो भारतीय सेना के लिए नारे लगा रही थी. बांग्लादेशी आवाम भारतीय जवानों के लिए ताली बजा रही थी. नियाज़ी भारतीय फौज की सुरक्षा में थे. लोग उनके खून के प्यासे हुए जा रहे थे. लेकिन भारतीय फौज ने किसी तरह उन्हें बचाए रखा.
इसके बाद जनरल नियाज़ी और लेफ्टिनेंट जनरल अरोड़ा ने सरेंडर के कागजात पर दस्तखत किए. अगले दिन संसद में इसकी घोषणा हुई. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश को आज़ाद देश घोषित किया और बताया कि 16 दिसंबर शाम 4.31 पर पाकिस्तान ने सरेंडर कर दिया. असल में ये वक्त 4 बजकर पचपन मिनट था, पर शायद ज्योतिष के चलते सदन में 4.31 का वक्त बताया गया था.
BBC के साथ एक इंटरव्यू में मेजर जनरल जैकब ने खुद इस बात की पुष्टि की थी. इतना ही नहीं इस घटना के दो हफ्ते बाद सरेंडर के काग़ज़ पर दोबारा दस्तखत करवाए गए. कारण कि ओरिजिनल दस्तावेज में कुछ गलतियां हो गई थीं. 1971 युद्ध के नतीजे में ना केवल बांग्लादेश आजाद हुआ. बल्कि भारत ने वेस्टर्न फ़्रंट पर 15 हज़ार वर्ग किलोमीटर ज़मीन पर कब्जा कर लिया था, जिसे 1972 में हुए शिमला समझौते के बाद वापस लौटा दिया गया. आम तौर पर इसे इंदिरा सरकार की एक बड़ी नाकामी माना जाता है. लेकिन ये भी सच है कि तब जेनेवा कन्वेंशन के हिसाब से भारत युद्धबंदियो को लेवरेज के तौर पर इस्तेमाल नहीं कर सकता था. इसके अलावा सोवियत संघ, जिसने युद्ध में भारत की मदद की थी, भारत पर अनुचित लाभ ना लेने का दबाव डाल रहा था.
दूसरी तरफ का तर्क ये है कि पाकिस्तान ने कभी किसी नियम शर्त का पालन नहीं किया, तो भारत अकेले इस ढर्रे पर चले, ये क्यों ज़रूरी है. पाकिस्तान ने बाद में शिमला समझौते की कई शर्तों से भी हाथ पीछे खींच लिया था. 1971 युद्ध में चाहे भारत की जीत हुई हो. लेकिन उससे ज्यादा याद रखने वाली बात ये है कि इस युद्ध में भारत के साढ़े तीन हजार जवान शहीद हुए थे.
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