चौधरी चरण सिंह. देश के पांचवें प्रधानमंत्री. जुलाई 1979 से लेकर जनवरी 1980 तककुर्सी पर रहे. उन्हें उत्तर भारत में किसान पॉलिटिक्स शुरू करने वाला नेता कहाजाता है. किसानों की सियासत के साथ-साथ चरण सिंह ने अपने आख़िरी दिनों में एक कामऔर किया. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपने खानदान की सियासी चौधराहट को बरकरार रखनेका काम. लेकिन इसके लिए जो राजनीतिक सक्रियता और दमखम चाहिए था, वो 1982-83 के बादचरण सिंह में बाकी नहीं दिख रहा था. सेहत भी नासाज़ रहने लगी थी. लिहाजा इस काम केलिए उन्होंने अमेरिका में IBM जैसी कंपनी में काम कर रहे अपने बेटे को वापस भारतबुलाया. चौधरी चरण सिंह के बेटे अजित सिंह (Ajit Singh). जो आगे चलकर वेस्ट यूपीमें जाटों के बड़े नेता माने गए. जो, चार बार केंद्रीय मंत्री रहे. और जिन्हेंभारतीय राजनीति का दूसरा सबसे बड़ा 'मौसम वैज्ञानिक' माना गया. क्योंकि पहले तोरामविलास पासवान ही रहे.अजित सिंह IIT खड़गपुर से पढ़कर निकले थे. फिर अमेरिका के इलिनोइस इंस्टीट्यूट ऑफटेक्नॉलजी से भी पढ़ाई की और अमेरिका में ही नौकरी करने लगे. चौधरी चरण सिंह नेउन्हें भारत वापस बुलाकर सियासत में उतार दिया. 1986 में बरास्ते राज्यसभा. अजितसिंह भारतीय राजनीति में उतरने वाले पहले आईआईटीयन बन चुके थे. 1987 में चौधरी चरणसिंह नहीं रहे. और उसके बाद से लेकर अब तक अजित सिंह ने कितनी पार्टियां तोड़ी,कितनी बनाईं, कब-कब किस-किस सरकार में मंत्री रहे - शायद ये सब एक सिक्वेंस मेंउन्हें भी याद न हो. आज पॉलिटिकल किस्से में हम कोशिश करेंगे अजित सिंह की सियासीज़िंदगी से, उनकी शख़्सियत से, आपको रूबरू करवाने की.12 फरवरी 1939 को चौधरी चरण सिंह और गायत्री देवी के घर में अजित सिंह (लाल घेरेमें) का जन्म हुआ था. (फोटो- India Today Archive)अजित की एंट्री और लोकदल में टूट1987 का साल और मार्च का महीना था. लोकदल के अध्यक्ष चौधरी चरण सिंह बिस्तर पर पड़ेथे. सेहत नासाज़ थी. हेमवती नंदन बहुगुणा को चौधरी साहब ने लोकदल का कार्यकारीअध्यक्ष बना दिया था. लेकिन इसी बीच लोकदल में अंदरूनी लड़ाई तेज हो चुकी थी. एकतरफ थे बहुगुणा, दूसरी तरफ थे सियासत में नए-नए कदम रखने वाले चौधरी साहब केसाहबजादे अजित सिंह. अब अजित सिंह पार्टी पर नियंत्रण चाहते थे. लेकिन पार्टी मेंबाकी लोगों मसलन बहुगुणा, कर्पूरी ठाकुर, नाथूराम मिर्धा, चौधरी देवीलाल और UPविधानसभा में विपक्ष के नेता मुलायम सिंह यादव को यह मंजूर नहीं था. विवाद बढ़ा.लोकदल के अधिकांश विधायकों ने अजित सिंह के इशारे पर बैठक बुलाई. बैठक में मुलायमसिंह को नेता विपक्ष के पद से हटा दिया गया. उनकी जगह अजित सिंह के करीबी सत्यपालसिंह यादव को अपना नेता चुन लिया. सत्यपाल सिंह यादव विधानसभा में विपक्ष के नेताबन गए. पार्टी में फूट पड़ने लगी.इसी बीच 29 मई 1987 को पार्टी अध्यक्ष चौधरी चरण सिंह का देहांत हो गया. इसकेबाद पार्टी भी टूट गई. लोकदल (अ) और लोकदल (ब) में. अजित गुट और बहुगुणा गुट.देवीलाल, कर्पूरी ठाकुर, मुलायम सिंह, शरद यादव और नाथूराम मिर्धा जैसे बड़े नेताबहुगुणा के साथ चले गए. लेकिन UP के अधिकतर विधायक अजित सिंह के साथ रहे. इस बीचअजित सिंह 'अध्यक्ष जी' की शरण में जाने की तैयारी करने लगे.अजित सिंह के लोकदल अध्यक्ष बनने की प्रक्रिया काफी विवादित रही थी. (फोटो- IndiaToday)चंद्रशेखर से साथ और अलगावये वो दौर था, जब जनता पार्टी के अंदरूनी हालात भी कमोबेश लोकदल जैसे ही थे. जनतापार्टी अध्यक्ष चंद्रशेखर और कर्नाटक के मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े के बीच पार्टीपर कब्जे की रस्साकशी चरम पर थी. हेगड़े का पॉलिटिकल करियर उन दिनों काफी चमक रहाथा. पार्टी और पार्टी के बाहर के उनके खुशामदियों ने उन्हें दिल्ली में 'टॉप जॉब'की दावेदारी का सपना दिखा दिया. लेकिन इस राह में सबसे बड़ी बाधा उनके 'अध्यक्ष जी'यानी चंद्रशेखर ही थे. इसी बीच राजस्थान में हुआ रूप कंवर देवराला सती कांड. इसकांड का जनता पार्टी के राजस्थान प्रदेश अध्यक्ष कल्याण सिंह कालवी ने समर्थन करदिया. उनके इस समर्थन को लेकर जनता पार्टी में बवाल मच गया और कालवी के खिलाफकार्रवाई की मांग की जाने लगी. लेकिन तब चंद्रशेखर, कालवी के बचाव में उतर गए.नतीजतन मधु दंडवते, जॉर्ज फर्नांडीस, सुरेन्द्र मोहन, जयपाल रेड्डी, बीजू पटनायक सबचंद्रशेखर के खिलाफ हो गए. उनपर अध्यक्ष पद छोड़ने का दबाव बढ़ने लगा. तभीचंद्रशेखर ने अपना दांव चल दिया. उन्होंने अजित सिंह के नेतृत्व वाले लोकदल (अ) कोजनता पार्टी में मर्ज करवा दिया. कुछ समय में ही अजित सिंह को पार्टी प्रेसिडेंटबना दिया.इसी दौर में बोफ़ोर्स का बवाल भी सामने आ गया. कांग्रेस से निकाले गए वी पी सिंह औरउनके जनमोर्चा के साथियों (अरूण नेहरू, विद्याचरण शुक्ल, आरिफ मोहम्मद खान वगैरह)को जनता के बीच जबरदस्त समर्थन मिलने लगा. लेकिन उनके साथ दिक्कत यह थी कि आगामीचुनाव में इस जनसमर्थन को वोट में बदलने के लिए कोई संगठन नहीं था. जनता पार्टी औरलोकदल के बीच यह सहमति बनने लगी कि 'क्यों न वीपी सिंह के नेतृत्व में एकजुट होकरएक दल बना लिया जाए.' लेकिन इन दोनों दलों में चंद्रशेखर ही अकेले थे, जो वीपी सिंहको नेता मानने के सख्त खिलाफ थे. इस मुद्दे पर अजित सिंह भी चंद्रशेखर का साथ छोड़गए. अंततः चंद्रशेखर को भी झुकना पड़ा. 11 अक्टूबर 1988 को बैंगलोर में जनतापार्टी, जनमोर्चा और लोकदल के मर्जर से जनता दल का गठन हुआ. वीपी सिंह को जनता दलका अध्यक्ष और अजित सिंह को प्रधान महासचिव बनाया गया. लेकिन अजित सिंह के इस पालाबदल पर चंद्रशेखर ने उन्हें माफ नहीं किया.अजित बनाम मुलायम 1989 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव. 425 सदस्यों की विधानसभा में जनता दल को208 सीटें मिली थीं. यानी बहुमत के आंकड़े से केवल 5 कम. इतने का जुगाड़ तोनिर्दलीयों से भी हो जा रहा था. चुनाव के बाद जनता दल अध्यक्ष वीपी सिंह ने एकफ़ार्मूला सुझाया. इस फार्मूले के तहत उत्तर प्रदेश में अजित सिंह को मुख्यमंत्रीऔर मुलायम सिंह को उप-मुख्यमंत्री बनाने की बात कही गई. लेकिन मुलायम सिंह कहांमानने वाले थे. उन्हें तो ढ़ाई साल पहले वाला अपना अपमान अब भी याद था, जब अजितसिंह ने बड़े बे-आबरू कर उन्हें विपक्ष के नेता पद से हटाया था.मुलायम सिंह ने विधायक दल के नेता पद के लिए चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया. नतीजतनवीपी सिंह ने मामला मैनेज करने के लिए दिल्ली से 3 ऑब्जर्वर भेजे. प्रोफेसर मधुदंडवते, मुफ्ती मोहम्मद सईद और चिमनभाई पटेल. तीनों ने मुलायम को मनाने की बहुतकोशिशें की. लेकिन मुलायम नहीं माने. अंततः 3 दिसंबर की दोपहर लखनऊ के तिलक हाॅलमें तीनों ऑब्जर्वर्स की उपस्थिति में जनता दल विधायक दल की बैठक शुरू हुई. दोपहर 2बजे से विधायकों का तिलक हॉल पहुंचना शुरू हुआ. जनता दल के सभी 208 विधायक और 7विधान पार्षद बैठक में पहुंचे. सीक्रेट बैलेट से वोटिंग कराई गई. मुलायम को 115 औरअजित सिंह को 110 वोट मिले. मुलायम सिंह विधायक दल के नेता के चुनाव में अजित सिंहको पटखनी दे चुके थे. और ढ़ाई साल पहले के अपमान का बदला भी ले चुके थे.5 दिसंबर 1989 को वे यूपी के मुख्यमंत्री बन गए. लेकिन प्रधानमंत्री और जनता दलअध्यक्ष वीपी सिंह ने अजित सिंह को निराश नहीं किया. उन्हें भी 5 दिसंबर को हीकेन्द्र में कैबिनेट मंत्री बना दिया. वे उद्योग मंत्री बनाए गए.अजित सिंह और मुलायम सिंह यादव के बीच की सियासी खींचतान UP के सियासी गलियारों मेंख़ासी चर्चित रहती है. (फाइल फोटो- India Today)अजित के एफर्ट का क्रेडिट नरसिंह राव ले गएवीपी सिंह सरकार में उद्योग मंत्री अजित सिंह नई इंडस्ट्रियल पाॅलिसी लेकर आए. इसइंडस्ट्रियल पॉलिसी में लाइसेंस-परमिट राज की समाप्ति का पूरा खाका खींचा गया था.इस इंडस्ट्रियल पॉलिसी में खतरनाक केमिकल और विस्फोटकों से जुड़े 8 उद्योगों कोछोड़कर सभी तरह की इंडस्ट्रीज खोलने के लिए लंबी-चौड़ी कानूनी और विधायी अड़चन कोएक झटके खत्म कर देने का प्रस्ताव किया गया था. अजित सिंह के निर्देश पर इस पाॅलिसीको तैयार करने में उस वक्त के इंडस्ट्री सेक्रेटरी अमरनाथ वर्मा और अन्य एक्सपर्ट्सने पूरी मेहनत की थी. लेकिन जनता दल पूरी तरह से समाजवादियों का जमावड़ा था. इसमेंवीपी सिंह और अरूण नेहरू जैसे कांग्रेसी और अमेरिका में बतौर कंप्यूटर इंजीनियरलंबा वक्त बिता चुके अजित सिंह जैसे चंद लोग ही नॉन सोशलिस्ट बैकग्राउंड के थे.लिहाजा उनकी इंडस्ट्रियल पाॅलिसी का क्या हश्र होना था, यह कहने की जरूरत नहीं है.अप्रैल 1990 में लोकसभा के पटल पर जैसे ही अजित सिंह ने नई इंडस्ट्रियल पॉलिसी रखी,हंगामा शुरू हो गया. हंगामा करने वाले लोग विपक्ष के नहीं, बल्कि उनकी अपनी हीपार्टी जनता दल और सहयोगी लेफ्ट फ्रंट के थे. नतीजतन अजित सिंह की इंडस्ट्रियलपॉलिसी ठंडे बस्ते में चली गई.कुछ महीने बाद वीपी सिंह की सरकार मंडल और कमंडल के चक्कर में क़ुर्बान हो गई औरउनकी जगह चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बन गए. लेकिन 8 महीने बीतते-बीतते वह भी भूतपूर्वहो गए. इसके बाद पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी. नरसिंह रावने इंडस्ट्री सेक्रेटरी रहे अमरनाथ वर्मा को अपना प्रिंसीपल सेक्रेटरी बनाया. तबअमरनाथ वर्मा ने नरसिंह राव को समझाया, "सर, अब और देर मत करिए. पूरा ड्राफ्ट तैयारपड़ा है. अर्थव्यवस्था को भी ऑक्सीजन देने की जरूरत है, इसलिए तत्काल इंडस्ट्रियलपॉलिसी को संसद की मंजूरी दिलाइए." इस पर राव के वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने भीअपनी सहमति दे दी. और तब जाकर जुलाई 1991 में (ऐतिहासिक बजट के चंद रोज पहले)नरसिंह राव सरकार ने बिल्कुल यही इंडस्ट्रियल पाॅलिसी लोकसभा के पटल पर रखी. इस बारभी हंगामा हुआ. कांग्रेस के अंदर और विपक्ष, दोनों जगह से. लेकिन राव डटे रहे औरइंडस्ट्रियल पॉलिसी को मंजूरी दिलाई. इसके बाद देश उदारीकरण और भूमंडलीकरण के दौरमें प्रवेश कर गया. लेकिन अजित सिंह की मेहनत का क्रेडिट उन्हें किसी ने नहीं दियाऔर सारा क्रेडिट नरसिंह राव ले उड़े.जब कांग्रेस में आए अजित सिंह1991 के लोकसभा चुनाव में जनता दल महज 59 सीटों पर सिमट गई. वीपी सिंह राजनीति सेदूर हटने लगे और जनता दल में एक नया पावर सेंटर डिवेलप हो गया. इस पावर सेंटर मेंशरद यादव, रामविलास पासवान और लालू यादव सबसे ताकतवर हो गए. लिहाजा कई नेता जनता दलछोड़कर अलग हो गए. 20 सांसदों के साथ अजित सिंह ने भी पार्टी छोड़ दी और पार्टी केसिंबल पर दावा ठोक दिया. नतीजतन मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषन ने जनता दल का चुनावचिन्ह 'चक्कर' को फ्रीज कर दिया. जनता दल (अ) यानी अजित गुट को कलम-दवात जबकि जनतादल (ब) यानी बोम्मई गुट को कप-प्लेट छाप चुनाव चिन्ह अलाॅट किया गया.लेकिन अजित सिंह अपने गुट को एकजुट नहीं रख सके और नरसिंह राव ने उनके गुट में सेंधलगा दी. इसी बीच जुलाई 1993 में नरसिंह राव सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेशकिया गया. इस अविश्वास प्रस्ताव पर सरकार बचाने के लिए नरसिंह राव ने अजित सिंह कोअपने पाले में लाने की कोशिश की. लेकिन अजित सिंह इस मामले पर विपक्ष के साथ चलेगए. उनके इस रुख़ पर अजित सिंह के गुट के सांसद रामलखन सिंह यादव नाराज हो गए.रामलखन सिंह यादव पुराने कांग्रेसी थे और नरसिंह राव से उनकी गहरी छनती थी. अंततःरामलखन सिंह यादव जनता दल (अ) के 7 सांसदों के साथ कांग्रेस में शामिल हो गए औरसरकार बच गई. इसके कुछ महीनों के बाद अजित सिंह भी अपनी बची-खुची पार्टी समेतकांग्रेस में चले गए और नरसिंह राव ने उन्हें खाद्य मंत्री बना दिया.मौसम वैज्ञानिक बनने का दौरयूं तो भारतीय राजनीति में रामविलास पासवान को सबसे बड़ा 'मौसम वैज्ञानिक' कहा जाताहै. लेकिन अजित सिंह भी इस मामले में पासवान से कम नहीं हैं. और इसका सबूत उन्होंने1996 में ही दे दिया था. जब नरसिंह राव के हाथ से सत्ता फिसलते ही उन्होंनेकांग्रेस पार्टी से हाथ जोड़ लिए. मतलब यहां से भी राम-राम हो गई. इसके बाद भारतीयकिसान कामगार पार्टी के नाम से नई पार्टी बनाई और कुछ महीनों बाद अपनी ही छोड़ीबागपत सीट से उपचुनाव जीतकर फिर लोकसभा पहुंचे. इस नई पार्टी को भारतीय किसानयूनियन के नेता महेन्द्र सिंह टिकैत का भी समर्थन मिला था. टिकैत ने अजित सिंह केसाथ मिलकर कई किसान रैलियां भी की थी. उनकी नई पार्टी संयुक्त मोर्चे का हिस्सा बनगई. लेकिन अफसोस, अजित सिंह को मंत्री नहीं बनाया गया.आगे चलकर उनकी पार्टी का नाम राष्ट्रीय लोकदल हो गया और इसी पार्टी के टिकट पर 1998का चुनाव वे भाजपा के सोमपाल शास्त्री से हार बैठे. यह उनकी पहली चुनावी हार थी.लेकिन 13 महीने बाद ही मध्यावधि चुनाव की नौबत आ गई और उन्हें फिर लोकसभा जाने कामौका मिल गया. लोकसभा पहुंचने के बाद एक-डेढ़ साल तो वे ऐसे ही रहे. लेकिन 2001 मेंNDA संयोजक जार्ज फर्नांडीस उन्हें एनडीए में लेकर आ गए. वाजपेयी सरकार में उन्हेंकृषि मंत्री बना दिया गया.अजित सिंह की एक वक्त आडवाणी से भी नज़दीकियां रहीं. वे NDA सरकार में मंत्री भीबने. (फाइल फोटो- PTI)मुलायम से दोस्ती2003 आते-आते अजित सिंह और मुलायम सिंह दोस्त बन गए. दोनों के बीच दोस्ती कराने मेंअहम रोल अदा किया चंद्रशेखर ने. इसके बाद अगस्त 2003 में 'दोस्त' मुलायम कोमुख्यमंत्री बनाने के लिए अजित सिंह ने एनडीए और सरकार - दोनों छोड़ दी. उस दौर मेंउनकी पार्टी राष्ट्रीय लोकदल के 14 विधायक थे. अजित सिंह ने इन विधायकों की तरफ सेमुलायम सिंह को समर्थन देने की चिट्ठी राजभवन पहुंचा दी. मुलायम तीसरी बारमुख्यमंत्री बन गए. इसके बाद अजित सिंह और मुलायम सिंह की दोस्ती 2004 के लोकसभाचुनाव तक कायम रही. अजित सिंह एक बार फिर बागपत से लोकसभा पहुंचे. लेकिन धीरे-धीरेअमर सिंह से उनकी दूरी बढ़ने लगी.एनडीए और यूपीए में दौड़ा-दौड़ीयह 2008 का साल और जुलाई का महीना था. लेफ्ट फ्रंट न्यूक्लियर डील के मुद्दे परयूपीए सरकार से समर्थन वापस ले चुका था. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सदन मेंविश्वास मत हासिल करना था. यूपीए के मैनेजर्स बहुमत के जुगाड़ में लग गए. 39सांसदों वाली सपा का समर्थन उन्हें मिल भी गया. लेकिन अभी कुछ और सांसदों का जुगाड़करना था. ऐसे में अजित सिंह से संपर्क किया गया. उनकी पार्टी के 3 सांसद थे. इसीबीच आनन-फानन में लखनऊ के अमौसी एयरपोर्ट का नाम बदलकर चौधरी चरण सिंह एयरपोर्टकिया गया. लेकिन अजित सिंह तब भी नहीं मानें. उन्होंने साफ-साफ कहा, "कांग्रेस कोअमर सिंह चला रहे हैं. इसलिए ऐसी सरकार जिसे अमर सिंह चलाएं, उसे मैं सपोर्ट नहींकर सकता." फिर भी यूपीए सरकार ने विश्वास मत हासिल कर लिया. इसके बाद 2009 केचुनावों में RLD ने भाजपा के साथ गठबंधन कर 7 सीटों पर चुनाव लड़ा और 5 सीटें हासिलकी. इसी चुनाव में बेटे जयंत चौधरी को भी लॉन्च किया. जयंत ने भी मथुरा सीटजीती. लेकिन फिर 2011 आते-आते अजित सिंह यूपीए के साथ थे. दिसंबर 2011 में मनमोहनसिंह सरकार में उन्हें नागरिक उड्डयन का महकमा भी मिला.तमाम बार की ना-नुकुर के बाद आख़िरकार 2011 में अजित सिंह UPA का भी हिस्सा बने.मंत्री पद भी मिला. (फाइल फोटो- PTI)मुजफ्फरनगर दंगों ने सियासत चौपट कीचौधरी चरण सिंह की सियासी चौधराहट का सबसे बड़ा आधार था जाट-मुस्लिम समीकरण. अजितसिंह ने भी इस समीकरण को टूटने नहीं दिया था. लेकिन 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों नेपूरा खेल पलट दिया. जाट-मुस्लिम एकता पूरी तरह दरक गई. और साथ ही दरक गई अजित सिंहकी सियासी जमीन. 2014 में बाप-बेटे को हराने के लिए अमित शाह ने दांव चला. बागपतमें अजित सिंह के खिलाफ लड़ाया मुंबई के पुलिस कमिश्नर रहे सत्यपाल सिंह को जबकिबेटे जयंत के खिलाफ मथुरा में हेमा मालिनी को उतार दिया. नतीजा यह हुआ कि दोनोंबाप-बेटे अपनी अपनी सीट हार गए. यहां तक कि 2019 में भी संभल नहीं पाए.अजित सिंह का 6 मई 2021 को कोविड-19 के चलते निधन हो गया.