डायबिटीज़ से किडनी की बीमारी हो सकती है, पैरों पर क्यों पड़ता है इसका असर? सब जान लीजिए
डायबिटीज़ के शुरुआती लक्षण पकड़ में नहीं आते. ये इतने मामूली हैं कि लोग इन पर ध्यान भी नहीं देते. अब अगर लंबे वक़्त तक डायबिटीज़ का इलाज न हो. उसे कंट्रोल न किया जाए तो शरीर के हर अंग पर असर पड़ता है. क्यों और कैसे, ये डॉक्टर्स से समझेंगे. पता करेंगे कि डायबिटीज़ से होने वाली समस्याओं और बीमारियों से कैसे बच सकते हैं.
पहले एक सवाल. आपने आखिरी बार अपनी शुगर कब टेस्ट की थी? आप में से बहुत लोग ऐसे होंगे जिन्होंने आज तक अपनी शुगर टेस्ट नहीं की होगी. कई लोगों ने सालों पहले की होगी. बहुतों को लगता है कि जब कोई दिक्कत महसूस ही नहीं हो रही तो शुगर टेस्ट क्यों करें. जायज़ सवाल है. लेकिन, ये भी जान लें कि हिंदुस्तान ‘डायबिटीज़ कैपिटल ऑफ़ द वर्ल्ड’ है. यानी हमारे देश में डायबिटीज़ के सबसे ज़्यादा मामले हैं. पिछले साल यानी 2023 तक भारत में 10 करोड़ से ज़्यादा डायबिटीज़ के मामले थे. ये नंबर लगातार बढ़ रहा है.
दिक्कत ये है कि डायबिटीज़ के शुरुआती लक्षण पकड़ में नहीं आते. ये इतने मामूली हैं कि लोग इन पर ध्यान भी नहीं देते. अब अगर लंबे वक़्त तक डायबिटीज़ का इलाज न हो. उसे कंट्रोल न किया जाए तो शरीर के हर अंग पर असर पड़ता है. क्यों और कैसे, ये डॉक्टर्स से समझेंगे. पता करेंगे कि डायबिटीज़ से होने वाली समस्याओं और बीमारियों से कैसे बच सकते हैं.
सवालों के जवाब देंगे, डॉक्टर संजय सरन, असोसिएट प्रोफेसर, डिपार्टमेंट ऑफ एंडोक्राइनोलॉजी, एसएमएस हॉस्पिटल, जयपुर; डॉक्टर प्रसून रस्तोगी, एडल्ट एंड पीडियाट्रिक एंडोक्राइनोलॉजिस्ट, उजाला सिग्नस नोबल हॉस्पिटल, कानपुर और डॉक्टर शालिन शाह, एंडोक्राइनोलॉजिस्ट एंड डायबेटोलॉजिस्ट, गुजरात डायबिटीज़ एंड एंडोक्राइन फाउंडेशन.
डायबिटीज़ से क्या बीमारियां हो सकती हैं?डायबिटीज़ भारत में बहुत आम है. अगर लंबे समय तक ब्लड ग्लूकोज़ लेवल बढ़ा रहे, तो कई कॉम्प्लिकेशंस हो सकते हैं. डायबिटीज़ शरीर के हर अंग को प्रभावित करती है. ये नर्वस सिस्टम, दिल, खून की नलियों, आंतों, लिवर, किडनी, यूरिनरी ब्लैडर, सेक्शुअल ऑर्गन्स, हड्डियों, मांसपेशियों और स्किन सब पर असर डालती है.
सबसे पहले नर्वस सिस्टम से जुड़े लक्षण दिखने शुरू होते हैं. जब डायबिटीज़ नसों को प्रभावित करती है, तो उनमें झनझनाहट, सुन्नपन या जलन हो सकती है. हाथ-पैरों में दर्द हो सकता है. ये कुछ कॉम्प्लिकेशंस हैं, जो शुगर कंट्रोल न होने की वजह से हो सकते हैं.
अनकंट्रोल्ड डायबिटीज़ का क्या कारण है?करीब 70% भारतीय जिन्हें पता है कि उन्हें डायबिटीज़ है, उनका डायबिटीज़ कंट्रोल में नहीं है. उनका HbA1c, जो तीन महीने की औसत शुगर होती है, वो 7 फीसदी से ज़्यादा है. करीब 50 फीसदी लोगों को तो पता ही नहीं कि उन्हें डायबिटीज़ है. इसके कई कारण हैं, लेकिन दो सबसे अहम हैं. एक, सही गाइडेंस की कमी और दूसरा, डॉक्टर से फॉलोअप न लेना. 35 साल की उम्र के बाद, खासकर जब परिवार में डायबिटीज़, मोटापे या अन्य मेटाबॉलिक सिंड्रोम की हिस्ट्री हो, तो रेगुलर शुगर और कोलेस्ट्रॉल की जांच करानी चाहिए. इससे समय पर डायबिटीज़ का पता चल सकता है. कई बार लोग सही डॉक्टर के पास नहीं जाते. उन्हें पता नहीं होता कि डायबिटीज़ के इलाज के लिए किससे मिलना है.
डायबिटीज़ के मरीजों को तीन से चार महीने में एक बार डॉक्टर से फॉलोअप करना चाहिए. डायबिटीज़ लगातार बढ़ने वाली बीमारी है. इसलिए जरूरी नहीं कि जो दवा अभी काम कर रही है, वो हमेशा डायबिटीज़ कंट्रोल में रखेगी. मरीज़ को कोई इंफेक्शन हो सकता है, लाइफस्टाइल में बदलाव हो सकता है. खाना-पीना ऊपर-नीचे हो सकता है, जो शुगर लेवल पर असर डाल सकता है. इसलिए रेगुलर स्क्रीनिंग और डॉक्टर से फॉलोअप करना जरूरी है. जागरूकता न होने से हमारे देश में अनट्रीटेड और अनकंट्रोल्ड डायबिटीज़ की मात्रा काफी ज़्यादा है.
नॉर्मल फास्टिंग ब्लड शुगर, यानी कम से कम 8 घंटे की फास्टिंग के बाद जो शुगर रीडिंग आती है, वो 100 mg/dL से कम होनी चाहिए. खाने के दो घंटे बाद, या पीपीबीएस (75 ग्राम ग्लूकोज़ पिलाकर ली गई रीडिंग) 140 mg/dL से नीचे होनी चाहिए. अगर आपकी रैंडम शुगर 200 mg/dL से ऊपर है. फास्टिंग शुगर 126 mg/dL या उससे ऊपर है. पोस्ट-मील शुगर 200 mg/dL से ऊपर है, तो डायबिटीज़ होने की संभावना होती है.
डायबिटीज़ के लिए HbA1c टेस्ट होता है, जो बीते 3 महीने का औसत शुगर लेवल दिखाता है. इससे पता चल जाता है कि डायबिटीज़ है या नहीं. अगर HbA1c 6.5 परसेंट से अधिक है, तो इसका मतलब है आपको डायबिटीज़ है. ये टेस्ट हर तीन से चार महीने में कराना चाहिए. सेल्फ मॉनिटरिंग भी ज़रूरी है; डायबिटिक मरीजों को टेस्ट हमेशा लैब में कराने की ज़रूरत नहीं है. डॉक्टर की सलाह से मरीज़ घर पर भी ग्लूकोमीटर से शुगर मॉनिटर कर सकते हैं. सलाह ज़रूर लें क्योंकि हर मरीज के लिए डॉक्टर की सलाह अलग होती है. जिन लोगों को डायबिटीज़ का हाई रिस्क है, उन्हें 35 साल की उम्र के बाद हर 2-3 साल में हेल्थ चेकअप के दौरान फास्टिंग और पोस्ट-मील शुगर टेस्ट कराना चाहिए. डायबिटिक मरीजों को ये टेस्ट ज़्यादा कराने पड़ेंगे.
डायबिटीज़ से किडनी की बीमारी हो सकती है?डायबिटीज़ से क्रोनिक कॉम्प्लिकेशंस होते हैं, जिनमें माइक्रोवैस्कुलर कॉम्प्लिकेशंस शामिल हैं. इनमें रेटिनोपैथी होती है, जिससे आंखों का पर्दा खराब होता है. न्यूरोपैथी भी होती है, जिससे पैरों और हाथों की नसें खराब होती हैं. इसी तरह से किडनी भी एक माइक्रोवैस्कुलर कॉम्प्लिकेशन है. इससे मरीज़ को क्रोनिक किडनी डिज़ीज़ होती है यानी किडनी धीरे-धीरे खराब होने लगती है. ये कॉम्प्लिकेशन होने में करीब 15 से 20 साल लग जाते हैं. हर साल मरीजों का माइक्रोएल्ब्यूमिन चेक किया जाता है, खासकर टाइप-2 डायबिटीज़ के मरीजों का. टाइप-1 डायबिटीज़ के मरीजों यानी बच्चों में ये टेस्ट पहले 5 साल नहीं किया जाता, फिर इसे हर साल करते हैं.
किडनी डिज़ीज़ की शुरुआत माइक्रोएल्ब्यूमिन से होती है. इसके बाद GFR (ग्लोमेरुलर फिल्ट्रेशन रेट) घटने लगता है. यानी किडनी के खून छानने की दर धीरे-धीरे कम होने लगती है. किडनी डिज़ीज़ लगातार बढ़ती रहती है. मगर आजकल कई दवाइयां हैं, जो इस स्पीड को धीमा कर सकती हैं. डायबिटीज़ की वजह से किडनी डिज़ीज़ होने पर हार्ट डिज़ीज़ का जोखिम भी बढ़ जाता है. कई और बीमारियां भी बढ़ती हैं.
किडनी डिज़ीज़ होने के पीछे का बहुत बड़ा कारण है डायबिटीज. किडनी डिज़ीज़ के बढ़ने पर डायलिसिस या किडनी ट्रांसप्लांट की ज़रूरत पड़ती है. डायबिटीज़ में किडनी डिज़ीज़ होने के बाद दूसरी बीमारियों के कॉम्प्लिकेशंस बढ़ जाते हैं, खासकर दिल से जुड़ी बीमारियों के. इसलिए डायबिटीज़ में किडनी की बीमारियों और दिल की बीमारियों का रिस्क बराबर माना जाता है. जिस तरह हार्ट अटैक के बाद इलाज होता है, उसी तरह किडनी डिज़ीज़ का भी इलाज किया जाता है. किडनी डिज़ीज़ की वजह से किडनी तो फेल होती ही है, माइक्रोवैस्कुलर कॉम्प्लिकेशंस भी बढ़ जाते हैं.
डायबिटिक फुट इंफेक्शन से कैसे बचें?डायबिटीज़ के मरीज़ों में फुट इंफेक्शन होने के मुख्य तीन कारण हैं. पहला कारण, नसों में कमज़ोरी आ जाना जिसकी वजह से पैरों में सुन्नपन रहता है. यानी जब मरीज़ को कोई ठोकर या चोट लगती है तो उन्हें इसका पता नहीं चलता. फिर घाव धीरे-धीरे नासूर बन जाता है और डायबिटिक फुट इंफेक्शन होने का रिस्क बहुत बढ़ जाता है.
दूसरा कारण, डायबिटीज़ के मरीज़ों को पेरिफेरल वैस्कुलर डिज़ीज़ होना है. इसकी वजह से पैरों में खून पहुंचाने वाली नसों में ब्लॉकेज आ जाता है. जिससे पैरों में सही पोषण नहीं पहुंचता और घाव भरने की क्षमता कम हो जाती है. वहीं अगर यही चोट नॉन-डायबिटिक मरीज़ों को लगे, तो उनमें घाव जल्दी भर जाते हैं. लेकिन, डायबिटीज़ के मरीज़ों में नसों में कमज़ोरी या नसों में खून का बहाव कम होने के कारण घाव ठीक से नहीं भर पाता.
तीसरा कारण, डायबिटीज़ के मरीज़ों में इंफेक्शन से लड़ने की क्षमता कम होना है. यानी घाव होने पर इन मरीज़ों की तुलना में नॉन-डायबिटिक लोगों का घाव जल्दी भर जाता है. दरअसल डायबिटीज़ के मरीज़ों के ब्लड सेल्स में बदलाव आ जाते हैं. जिससे उनके घाव समय से नहीं भरते. फिर वो घाव काफी दिनों तक रहता है और नासूर बन जाता है. इससे डायबिटिक इंफेक्शन होने का चांस बढ़ जाता है.
क्या है डायबिटिक न्यूरोपैथी?न्यूरोपैथी एक कॉम्प्लिकेशन है, जो कई मरीज़ों को डायबिटीज़ की जांच के समय पता चलता है. डायबिटीज़ के करीब 15 से 20 परसेंट मरीज़ों में न्यूरोपैथी के लक्षण पहले से ही होते हैं. न्यूरोपैथी में हमारे पैरों की नसें, जो अलग-अलग सेंसेशन महसूस करती हैं, वो प्रभावित होती हैं. जैसे कोई नस वाइब्रेशन, कोई ठंडा-गर्म तो कोई चोट लगने का एहसास महसूस करवाती है. डायबिटीज़ में सबसे पहले वाइब्रेशन महसूस करने वाली नस प्रभावित होती है. फिर धीरे-धीरे ठंडा-गर्म महसूस करने की क्षमता भी कम हो जाती है. जब चप्पल पहनते हैं तो वो अपने आप पैरों से निकल जाती है. चोट लगने पर मरीज़ को पता नहीं चलता, फिर जब ब्लीडिंग होती है, तब पता चलता है.
जब डायबिटीज़ लंबे समय तक कंट्रोल में नहीं रहती, तो एक-एक करके नसें प्रभावित होती जाती हैं. लगभग 60 से 70% लोगों में न्यूरोपैथी के लक्षण होते हैं. अगर डायबिटीज़ लंबे समय तक कंट्रोल में न रहे तो ये सब कॉम्प्लिकेशंस हो सकते हैं. इसलिए, डायबिटीज़ अच्छे से मैनेज करना ज़रूरी है, HbA1c को 7 परसेंट से नीचे रखना चाहिए. जिन लोगों में न्यूरोपैथी के लक्षण होते हैं, उन्हें पहले से सावधानियां बरतने की सलाह दी जाती है. जैसे पैरों के नाख़ून कैसे काटने हैं, किस तरह का फुटवियर पहनना है और दूसरी सावधानियां कैसे बरतनी हैं.
डायबिटीज़ से आंखों पर क्या असर पड़ता है?डायबिटीज़ की वजह से आंखों पर कई तरह का असर पड़ता है. आंखों में कंजंक्टिवाइटिस हो सकता है, जो कंजंक्टिवा में जलन या सूजन की वजह से होता है. इससे आंखों में लालिमा और दर्द होने लगता है. डायबिटीज़ में न्यूराइटिस होना भी बहुत आम है, जिससे आंखों में बहुत दर्द होता है. आंखों में रेटिनोपैथी भी हो सकती है.
डायबिटीज़ को खासतौर से रेटिनोपैथी के लिए जाना जाता है क्योंकि इसका इलाज नहीं होता है. यानी रेटिनोपैथी को रिवर्स नहीं किया जा सकता. हालांकि ये कोशिश ज़रूर की जा सकती है कि रेटिनोपैथी का बढ़ना धीमा हो जाए. इसके लिए लेज़र थेरेपी का उपयोग किया जा सकता है. मगर इसे पूरी तरह रोकना मुश्किल होता है. रेटिनोपैथी से होने वाले अंधेपन का कोई इलाज नहीं है. इसमें खून की नलियों में छोटे-छोटे थक्के जम जाते हैं. या फिर छोटे-छोटे लूप्स बन जाते हैं, जिन्हें एन्यूरिज़्म या माइक्रोएन्यूरिज़्म कहा जाता है. इनके फटने का चांस बहुत ज़्यादा होता है. माइक्रोएन्यूरिज़्म फटने से आंखों में ब्लीडिंग हो सकती है. जिसकी वजह से दिखाई देना बिल्कुल बंद हो जाता है.
दूसरा, जब आंखों की खून की नलियों में थक्के जम जाते हैं. तब उसकी वजह से खून की दूसरी छोटी-छोटी नलियां बनने लग जाती हैं. इससे हमारे देखने पर असर पड़ता है और ब्लीडिंग का चांस भी ज़्यादा होता है. डायबिटिक रेटिनोपैथी को दो भागों में बांटा जाता है. एक, प्रोलिफ़ेरेटिव डायबिटिक रेटिनोपैथी (PDR) और दूसरा, नॉन-प्रोलिफ़ेरेटिव डायबिटिक रेटिनोपैथी (NPDR). ये दोनों ही खतरनाक होती हैं.
वहीं न्यूराइटिस और आईलिड्स (पलकों) में इंफेक्शन होना आम है क्योंकि डायबिटीज़ में कीटाणुओं से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है. जिसकी वजह से इंफेक्शन बहुत ज़्यादा होते हैं. डायबिटीज़ की वजह से ड्राई आई (आंखों में सूखापन) की दिक्कत भी होती है. मोतियाबिंद भी बहुत जल्दी हो जाता है. टाइप-1 डायबिटीज़ वालों में भी मोतियाबिंद हो जाता है. उनका ऑपरेशन करना पड़ता है. बच्चों को डायबिटीज़ होने के 5-10 साल बाद मोतियाबिंद हो जाता है. यही सारी दिक्कतें डायबिटीज़ की वजह से आंखों में होती हैं.
डायबिटीज़ से होने वाली समस्याएं कैसे रोकें?अपनी शुगर और ब्लड प्रेशर (BP) कंट्रोल में रखें. नियमित रूप से चेकअप कराते हैं. टाइप-2 डायबिटीज़ में नेफ्रोपैथी का चेकअप हर साल कराना चाहिए. टाइप-1 डायबिटीज़ में 5 साल के बाद ये चेकअप हर साल कराना चाहिए. रेटिनोपैथी की गंभीरता के अनुसार, उसका भी हर साल चेकअप कराना चाहिए. न्यूरोपैथी को कंट्रोल किया जा सकता है. इसके लिए शुगर और BP को कंट्रोल में रखना ज़रूरी है.
वहीं माइक्रोवैस्कुलर कॉम्प्लिकेशन से बचने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि BP और शुगर कंट्रोल में रखें. इससे होने वाले लक्षणों के प्रति सतर्क रहें. अगर हार्ट रेट ज़्यादा देर तक बढ़ा रहता है, खड़े होने पर चक्कर आते हैं या दिल की धड़कन कभी-कभी बहुत तेज़ हो जाती है तो ये सारे वॉर्निंग साइन हैं. इन्हें पहचानना ज़रूरी है. जागरूकता ही इसका निदान है. अगर आप जागरूक हैं, डॉक्टर की सलाह मानते हैं तो इन कॉम्प्लिकेशंस से आप बचे रहेंगे.
लाइफस्टाइल में क्या बदलाव हैं ज़रूरी?डाइट, फिज़िकल एक्टिविटी, रेगुलर फॉलोअप और दवाइयां, इन चार चीज़ों का ध्यान रखें. डायबिटीज़ के मरीज़ों को अपनी डाइट में 45 से 60% तक कार्बोहाइड्रेट, 15 से 20 % तक प्रोटीन और 25% फैट लेना चाहिए. डाइट में भरपूर मात्रा में सलाद और फल शामिल करें. आप हर तरह का फल खा सकते हैं. हालांकि जिन फलों में फाइबर कम होता है, उन्हें कम खाना चाहिए. इन्हें आप एक बार में 100 ग्राम तक ले सकते हैं. जैसे केला, आम और चीकू. वहीं जिन फलों में खूब फाइबर है, उन्हें ज़्यादा खाया जा सकता है.
शुगर की बात करें तो डायबिटीज़ से बचने के लिए पुरुषों को हर दिन 36 ग्राम से कम शुगर लेनी चाहिए. वहीं नॉन-डायबिटिक महिलाओं को हर दिन 28 ग्राम तक शुगर लेनी चाहिए. ये उन लोगों के लिए है जिन्हें डायबिटीज़ होने का रिस्क बहुत ज़्यादा है. साथ ही, 35 से 40 मिनट तक तेज़-तेज़ चलना चाहिए या कोई और एक्सरसाइज कर सकते हैं, जिससे आप एक्टिव रहें. इन सबसे डायबिटीज़ को कंट्रोल में रख सकते हैं और उसके कॉम्प्लिकेशंस से भी बच सकते हैं.
(यहां बताई गई बातें, इलाज के तरीके और खुराक की जो सलाह दी जाती है, वो विशेषज्ञों के अनुभव पर आधारित है. किसी भी सलाह को अमल में लाने से पहले अपने डॉक्टर से जरूर पूछें. ‘दी लल्लनटॉप' आपको अपने आप दवाइयां लेने की सलाह नहीं देता.)
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