जहां तक नज़र जाए, वहां तक रेगिस्तान पसरा है. धूल का गुबार उड़ रहा है. सूखी हवासांय-सांय कर गुज़र रही है. इन सब के बीच दिखाई देता है एक आदमी. सफेद धोती पहने, सरके चारों ओर कपड़ा ढके. अपने कंधों पर खुद जितना बूढ़ा हल उठाए आगे बढ़ा जा रहा है.दिनेश यादव की फिल्म ‘टर्टल’ इस सीन से शुरू होती है. कहानी राजस्थान के एकसूखाग्रस्त गांव में सेट है. हल उठाकर लाने वाले शख्स का नाम है रामकरण चौधरी,जिसका रोल निभाया है संजय मिश्रा ने. ‘टर्टल’ ज़ी5 पर रिलीज़ हुई है. फिल्म किस बारेमें है, अब उस पर बात करेंगे.फिल्म एक गांव की कहानी है. जहां सिर्फ गांव और वहां के वासी ही नहीं, बल्कि दंतकथाऔर अंधविश्वास भी किरदारों की तरह मौजूद होते हैं. कैसे? बताते हैं. गांव में सालोंसे बारिश की बूंद नहीं बरसी. रामकरण चौधरी का किसी ज़माने में गांव में रसूख था.उनकी बावड़ी से लोग पानी लेकर जाते थे. लेकिन अब उनकी बावड़ी सूख चुकी है, औरगांववालें पानी के लिए शंभू पर निर्भर हैं. शंभू घमंडी किस्म का आदमी है, जोगांववालों को महंगे दाम पर पानी बेचता है. शंभू रामकरण से इस कदर चिढ़ता है कि उसकेपोते अशोक को अकाली ठहरा देता है. अकाली यानी जिसके पैदा होने के बाद गांव में अकालपड़ गया हो.रामकरण शंभू को चैलेंज दे देता है.इसी बात के चलते रामकरण और शंभू में कहा-सुनी हो जाती है. जिसके बाद रामकरण कसमखाता है कि चाहे कुछ भी करना पड़े, वो फिर से पहले की तरह पानी लाएगा. अपनी ज़िद कोपूरा करने के लिए क्या-कुछ प्रयास करता है, यही आगे की कहानी है. ‘टर्टल’ काशुरुआती हिस्सा देखकर मुझे एक गुजराती फिल्म याद आई, ‘हेल्लारो’. हालांकि, वहांपितृसत्तात्मकता के चश्मे से हमने एक सूखाग्रस्त गांव की कहानी देखी थी. जैसे‘हेल्लारो’ खत्म होती है, मुझे लगा कि रामकरण चौधरी के गांव की कहानी भी कुछ-कुछवैसा ही मोड़ लेगी. यहीं मैं गलत था. ये फिल्म आसमान में देखकर पानी की गुहार लगाने,और फिर गांव में पानी लाने की कहानी नहीं.कहानी है बड़ों के अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने की, अपने अहम को शांत करने की.जिसके चक्कर में जो तांत्रिक ने बोला, मान लिया. बड़े-बूढ़ों ने भूले बिसरे कुछ कहा,तो उस पर अमल कर के 11 हाथ धरती खोद डाली. इस बीच भूल गए कि इनके बच्चों पर क्याअसर पड़ रहा होगा. वो बच्चा जिसे अकाली कहकर चिढ़ाया जा रहा है. अपनी कोई गलती न होनेपर भी लोग उसे उपहास से देखते हैं. नाम के आगे से अकाली हटाने के लिए और अपने दादाका सिर गर्व से ऊंचा करने के लिए वो क्या करता है, ये सोच पाना मुश्किल था. जो भीबिना पानी के रहेगा, वो खून के आंसू रोएगा. फिल्म मेंशन करती है कि ये पर्यावरणबचाने की कहानी नहीं. ये चाहती है कि आप पानी बचाकर कम-से-कम खुद को बचा लीजिए. इसीपॉइंट पर आकर मामला थोड़ा गड़बड़ा जाता है. फिल्म एक तरफ सोशल ड्रामा नहीं बनना चाहती.लेकिन खत्म होने पर लगातार स्क्रीन पर फोटोज़ और टेक्स्ट आपकी ओर भेजे जाते हैं, जोबताते हैं कि दुनिया के इस-इस देश में पानी को लेकर ऐसी दुर्दशा है. कहानी जहांखत्म होती है, अगर वहीं हो जाती तो ठीक था.बड़ों की उम्मीदों का बोझ बच्चे कैसे उठा पाएंगे.फिल्म ने अपने एक्टर्स को भी एक्टिंग हेवी पार्ट नहीं दिया. ऐसा कोई सीन नहीं हैजहां कुछ एक्स्ट्राऑर्डनेरी उभर कर आया हो. फिर चाहे वो रामकरण बने संजय मिश्राहों, या बाल काटने वाला ननकू, जिसका रोल निभाया टीटू वर्मा ने. ननकू को कॉमिक रिलीफके लिए रखा गया. ऐसा बाल काटने वाला जो जावेद हबीब से पहले थूक के साथएक्सपेरिमेंट्स करता आ रहा था. एक घंटे 10 मिनट की फिल्म ‘टर्टल’ की लेंथ बढ़ाई जासकती थी, ताकि और भी संभावनाएं एक्सप्लोर करने का ऑप्शन होता.‘टर्टल’ सिरे से नकार देने वाली फिल्म नहीं. बस ऐसी फिल्म है, जो एंड तक आते-आतेअपनी मैसेजिंग में उलझ जाती है. फिर बता दें कि ‘टर्टल’ को आप ज़ी5 पर देख सकते हैं.