वेब सीरीज़ रिव्यू: द रेलवे मेन - द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ भोपाल 1984
The Railway Men एक ऐसी सीरीज़ है, जिसे दुनिया में कोई भी दर्शक उठाकर देखेगा तो उसे बीच में बंद नहीं करेगा. जब उठेगा तो तृप्त, फुलफिल सा महसूस करके उठेगा. बाकी Kay Menon, R Madhavan और Babil ने काम कैसा किया है, इसके लिए थोड़ी ज़हमत उठाइए और विस्तार से पढ़ डालिए.
भोपाल रेलवे स्टेशन के इंचार्ज हैं इफ़्तेकार सिद्दीकी. हर दिन की तरह ड्यूटी पर निकलने को हैं अपने क्वार्टर से. उनका बेरोज़गार बेटा टेलीविज़न के आगे बैठकर राजीव गांधी का भाषण देख रहा है. 1984 का साल है. दंगे हो चुके हैं. नफरत और कत्ल अब भी जारी है. टेलीविज़न पर राजीव गांधी चेहरे पर कोई शिकन लाए बिना कहते हैं – “जब भी कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती थोड़ी हिलती है.” वह कोसते हुए कहता है – “क्या हाल हो गया है सिखों का, और इन्हें देखो!!” नाश्ता लगाती मां कहती है – “उनकी भी तो अम्मी है न बच्चे. ऐसे हादसे के बाद क्या सही क्या गलत, समझ में नहीं आता.” सुनकर वह मां से उलझता है तो इफ़्तेकार साइलेंट सी चिढ़ के साथ पूछते हैं – “नौकरी का क्या हुआ नवाज़? ब्यूरो गए थे? हमने बोला था न, रेलवेज़ में पोस्टिंग है. मौका है, मुनासिब काम है, तनख्वाह भी ठीक ठाक है.” बेटा कहता है – “हजार बार कहा है आपसे. जिंदगी भर काले कपड़े पहनकर सरकार की जी हज़ूरी नहीं करूंगा.” पिता आगे कुछ नहीं कहता. अपने काम पर जाने को होता है कि बेटा पीठ किए उनसे कहता है – “कल इंटरव्यू है हमारा. यूनियन कार्बाइड में.” जैसे ही उसके मुंह से यह नाम निकलता है, इफ़्तेकार तुरंत पलटते हैं. जैसे कोई अनिष्ट, बदनाम नाम सुन लिया हो. पूछते हैं – “यूनियन कार्बाइड!! ऐसी जगह काम करेंगे आप? न कोई उसूल. न काम करने का कोई तौर तरीका. बस पैसे कमाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं. ऐसी जगह पर काम करेंगे आप!! आपको मान सम्मान भी कमाना है, या सिर्फ पैसे?” और इसे सुनकर बेटा पुष्ट तौर पर कुछ कह नहीं पाता. और दर्शक दो बातें जान लेता है – पहली, इफ़्तेकार बहुत भले, मूल्यों को कटिबद्ध व्यक्ति हैं. दूसरी, कार्बाइड सन्निकट हादसे के बाद नहीं, उसके पहले से पूरे भोपाल में बदनाम है.
चार एपिसोड में फैली नेटफ्लिक्स और यशराज एंटरनेटमेंट की यह सीरीज़ 2-3 दिसंबर, 1984 की रात की कहानी है. भोपाल की घनी आबादी के पास बने अमेरिकी पेस्टिसाइड कंपनी यूनियन कार्बाइड के संयंत्र में से विषैली गैस लीक हो जाती है (जिसे सीरीज़ में मुश्ताक ख़ान का पात्र उबली गोभी जैसी बास कहता है), और हज़ारों लोग मारे जाते हैं. अपने भारतीय सिने अनुभव में से खोजूं तो यह 'द बर्निंग ट्रेन' की याद दिलाने वाली मिनी सीरीज़ है. जो मज़ा और भाव 1980 में रवि चोपड़ा की इस एक्शन थ्रिलर को देखते हुए आया, वो 'द रेलवे मेन' देखते हुए आया. इसमें 'चर्नोबिल' जैसी एक इंडस्ट्रियल डिज़ास्टर सीरीज़ का अनुभव भी है, और 'द बर्निंग ट्रेन' या 'अनस्टॉपेबल' जैसी ट्रेन डिज़ास्टर मूवीज़ की फीलिंग भी.
सीरीज़ खुलती है और यूनियन कार्बाइड के दोषी चेयरमैन एंडरसन को भारत से बचकर भागने दिया जाता है. सिनेमा पर बहुत उम्दा लिखने वाले राजकुमार केसवानी ने, भोपाल ट्रेजेडी को करीब के कवर किया था. सीरीज़ में उनका, यानी जर्नलिस्ट जगमोहन कुमावत का किरदार, जिसे सनी हिंदुजा ने निभाया, वह एपिसोड 01 के शुरू में ही कहता है -
"...एक ऐसा देश जो न जान लेने वाले को सज़ा देता है, और न जाने बचाने वाले को शाबाशी".
यहीं पर स्पष्ट होने लगता है कि जहां पहले की फ़िल्में इस बारे में थी कि ट्रैजेडी हुई और दोषियों को सज़ा नहीं मिली. वहीं यह सीरीज़ उन लोगों के बारे में होगी जिन्होंने जानें बचाई. यह उनको हमारी शाबाशी होगी. सीरीज़ में रेलवे स्टेशन और रेलगाड़ियां का पूरा सेट प्रोडक्शन ने बनाया है. देखकर लगता है कि कोई असली स्टेशन है जहां शूटिंग की गई है. द रेलवे मेन का वायुमंडल कन्विंसिंग है. वह ‘चर्नोबिल’ की तरह सर्वोत्कृष्ट नहीं है लेकिन पर्याप्त है. आयुष गुप्ता, शिव रवैल का स्क्रीनप्ले और डायलॉग्स सरलता से बहते हैं. सैम स्लेटर का ओरिजिनल स्कोर उस गैस को सुन पाने में मदद करता है, जिसे देखा या छुआ नहीं जा सकता.
महज़ एक बात जो मुझे खटकती है वह यह कि - इस गैस का कहानी के पात्रों पर कैसे, कितना, किस लॉजिक से असर होता है, यह बता पाने में संवाद स्मार्ट नहीं रहते. दर्शक को स्वयं अपनी बुद्धि से समझना होता है. कहानी में जब गैस हवा में फैल चुकी होती है तो बचने का कोई तरीका नहीं होता. बताया जाता है कि मुंह पर गीला कपड़ा बांध लो या किसी कमरे में बैठो तो शायद बचा जा सकता है. अब यह दर्शक को दी गई सीमित जानकारी के चलते ज़रा अस्पष्ट है. कमरे में भी बैठेंगे तो जहां से ऑक्सीजन आ रही है, वहां से गैस भी तो आएगी. कहानी में कुछ लोग गैस पीकर बच जाते हैं, कुछ मर जाते हैं. इसका भी लॉजिक नहीं मिलता. कुछ कई घंटों के एक्सपोज़र से मरते नहीं, कुछ चंद सेकेंड के एक्सपोजर से मर जाते हैं. एक व्यक्ति स्टेशन के कमरे से बाहर भागता है और चंद कदम के बाद गिरकर मर जाता है. इतनी तेजी से तो न्यूक्लियर रेडिएशन का एक्सपोज़र पाया इंसान भी नहीं मरता. कहने को कहा जा सकता है कि हर व्यक्ति का इम्यून सिस्टम अलग होता है, जैसे कि कोविड के समय हुआ, लेकिन यह दायित्व सीरीज़ की पटकथा का है कि वह उसे स्पष्ट करे.
'द रेलवे मेन' में कई प्रमुख किरदार हैं, जो कहानी के स्तंभ हैं. अपनी जड़ों में भरोसेमंद.
जैसे, आर. माधवन का रति पांडे का पात्र जो जीएम है सेंट्रल रेलवे में. उनकी एंट्री सीरीज़ में काफी लेट होती है, लेकिन वही कुछ हद तक इसकी ताकत भी होती है. कि जब आप सारे किरदारों को देख चुके हो, और कैरेक्टर सरप्राइज़ अब कुछ बचा नहीं है तब माधवन आते हैं. चूंकि यह किरदार स्ट्रगल नहीं कर रहा है, गैस से जूझ नहीं रहा है बल्कि डेंजर एरिया के बाहर मौजूद है और वहां से प्रवेश करने जा रहा है, तो वह आंशिक रूप से 'बॉर्डर' के जैकी श्रॉफ जैसा हो जाता है, जिसका कुछ स्टेक पर नहीं है, और वह रेस्क्यू मिशन पर आ रहा है.
इफ़्तेकार सिद्दीकी के रोल में के. के. मैनन हैं. एक सुशिक्षित इंसान. ड्यूटी ही उनका धर्म है. वह राजनीति से परे रहते हैं. ठीक इसी तरह गोरखपुर एक्सप्रेस के भले, बहादुर गार्ड (रघुबीर यादव) होते हैं, जो सिखों की हत्याओं को सही-गलत ठहराने वाली बहस करते दो यात्रियों से कहते हैं - "आवाज कम और माहौल थोड़ा शांत रखिए, नहीं तो अगले स्टेशन पर उतार दिए जाएंगे. और, मेरी मानें तो राजनीति से बचिए. बीपी बढ़ेगा और कुछ नहीं". इफ़्तेकार और इस गार्ड की तरह जितने भी नायकीय पात्र हैं, वे सब ड्यूटी के प्रधान तत्व से संचालित होते हैं, परायेपन और पूर्वाग्रह से नहीं. अंत में जब इफ़्तेकार के किरदार को लेकर सब खत्म सा हो जाता है, तब भी वह आपको चौंकाता है. और कहानी रियलिज़्म से फैंटेसी में परिवर्तित सी हो जाती है, और यह एक सुख देने वाली चीज़ होती है.
1999 में महेश मथाई की इंट्रेस्टिंग फ़िल्म ‘भोपाल एक्सप्रेस’ आई थी. इसमें एक अनूठा दृश्य होता है. एक बस्ती में खुले में ‘अमर अकबर एंथनी’ दिखाई जा रही है. प्रोजेक्टर की रोशनी परदे की ओर बह रही है. गीत चल रहा - शिरडी वाले साईं बाबा, आया है तेरे दर पे सवाली. साईं की मूर्ति में से नेत्रज्योति निकलती है और नेत्रहीन निरूपा रॉय की आंखों में प्रवेश कर जाती है, उनकी आंखों की रोशनी आ जाती है. तभी इस आस्था भरनेवाले प्रोजेक्टर के प्रकाश कणों के साथ साथ विषैली गैस का धुआं भी बहता है दर्शकों की तरफ. ख़ौफनाक. क्रेग मेज़िन (एचबीओ) की सीरीज़ ‘चर्नोबिल’ में भी एक ऐसा ही ख़ौफनाक दृश्य होता है जहां चर्नोबिल न्यूक्लियर पावर प्लांट में हादसा होता है. उसका कोर रिएक्टर फट जाता है. रेडिएशन फैल जाता है. पास में फ्लैट्स बने होते हैं. रात को लोग, युवा, बच्चे, दंपत्ति खाना खाकर घूमने निकले हैं. वे आसमान छू चुकी इस आग और काले धुंए को मौज मस्ती से पर्यटकों की तरह निहार रहे होते हैं और हंसी मजा़क कर रहे होते हैं, सत्य से बिलकुल अंजान. एक युवती देखते हुए कहती है – “यह कितना सुंदर है न.” और उसी क्षण यूरेनियम रेडिएशन के हत्यारे कण हवा से उड़कर उनके ऊपर गिर रहे होते हैं, उनकी सांसों में अंदर जा रहे होते हैं. ऐसा ही ‘द रेलवे मेन’ में भी होता है. जहां अन्य यात्रियों के साथ वे दो अनाथ बच्चे भी भोपाल स्टेशन पर बैठे हैं जो पूर्व में यश चोपड़ा की फ़िल्मों के गीत गाकर हमारा मनोरंजन कर चुके होते हैं (इक रास्ता है ज़िंदगी, जो थम गए तो कुछ नहीं –- काला पत्थर 1979, कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है – कभी कभी 1976), और ज़हरीली हवा उनकी हत्या करने को बढ़ रही होती है.
(भोपाल एक्सप्रेस के) अंत में नसीर के किरदार बशीर के शव पर क्रोध में भरकर रोने वाला के. के. का विस्फोटक दृश्य है, जिसमें विजयराज भी फटकर रोते हैं. विचित्र संयोग कि के. के. उसी कहानी, उसी रेलवे स्टेशन, उसी कब्रिस्तान में फ़िल्म में होते हैं, और इन्हीं जगहों पर ‘द रेलवे मेन’ में भी वापस पहुंचते हैं. इस फ़िल्म और ‘द रेलवे मेन’ दोनों में एक कॉमन शॉट भी है, जहां एक महिला विषैली गैस से मर चुकी है और उसका जीवित बच्चा स्तन से दूध पी रहा है.
बाबिल के करियर का यह पहला सच्चा काम हैं. ‘क़ला’ उनका क्षीण परफॉर्मेंस थी, जिसे "इरफ़ान बायस" के चलते सराहा गया. ‘द रेलवे मेन’ पहला प्रोजेक्ट है जिसमें बाबिल अपने पिता की वजह से नहीं, अपने फैशन और फोटो-ऑप्स के लिए नहीं, बल्कि यंग लोको पायलट ईमाद रियाज़ के अपने किरदार की निष्ठा की वजह से अलग पहचान बनाते हैं. दिव्येंदु के करियर का यह पहला किरदार है जो अपराधी है लेकिन अंत में सबके दिल जीत जाता है. अपनी गुडविल से.
‘द रेलवे मेन’ के किरदार इस तरह लिखे गए हैं और उन मूल्यों के लिए खड़े होते हैं कि उन्हें निभाने वाले एक्टर्स की एक्टिंग को फीता लेकर मापने आप नहीं बैठ सकते. कहानी अपने ही स्तर पर आपको गिरह में ले लेती है. लेकिन फिर भी इसमें डीसेंट एक्टिंग परफॉर्मेंस जरूरी है, जो मिलता है. मेरे लिए यह कोई जबरदस्त सीरीज़ नहीं है (जो होने की ज़रूरत भी नहीं है) लेकिन यह एक ऑलटाइम एंटरटेनिंग मिनी सीरीज़ अवश्य है. ऐसी सीरीज़ जिसे दुनिया में कोई भी दर्शक उठाकर देखेगा तो उसे बीच में बंद नहीं करेगा. जब उठेगा तो तृप्त, फुलफिल सा महसूस करके उठेगा.
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