फिल्म रिव्यू- द ग्रेट इंडियन फैमिली
'द ग्रेट इंडियन फैमिली' सिंपल फिल्म है. जो थोड़ा सा एंटरटेन और एड्यूकेट दोनों करने की कोशिश करती है.
The Great Indian Family नाम की एक पिक्चर आई है. ये फिल्म काफी समय से बनकर तैयारी थी. इसे अब रिलीज़ किया गया है. इसका प्रमोशन भी बड़ा हल्ला-फुल्का रखा गया. ऐसा फिल्म के सब्जेक्ट को देखते हुए किया गया है. ये फिल्म सामाजिक सौहार्द के बारे में है. 'द ग्रेट इंडियन फैमिली' ठीक फिल्म है. ये वही टेंप्लेट सिनेमा है, जो हम पिछले कुछ समय से देखते आ रहे हैं. जो आयुष्मान खुराना और राजकुमार राव कर रहे हैं. एक छोटा शहर, जहां एक टैबू है. जिसके बारे में खुले में कोई बात नहीं करता. हालांकि 'द ग्रेट इंडियन फैमिली' ने जो विषय चुना है, वो थोड़ा सा अलग है. ये फिल्म देश में चल रहे हिंदू-मुसलमान वाले मसले को पकड़ती है. मगर ज़्यादा खींचती नहीं है.
'द ग्रेट इंडियन फैमिली' की कहानी घटती है यूपी के छोटे से शहर बलरामपुर में. यहां त्रिपाठी परिवार रहता है. ये इलाके के प्रतिष्ठित लोग हैं. पूजा-पाठ, शादी-ब्याह करवाते हैं. अतरंगी फैमिली है. यहां सारे फैसले डेमोक्रेटिक तरीके से लिए जाते हैं. त्रिपाठी परिवार के मुखिया का बेटा है वेद व्यास त्रिपाठी उर्फ बिल्लू. वो अपने शहर के तमाम बड़े इवेंट्स में भजन गाता है. इससे उसका नाम ही भजन कुमार पड़ गया है. सबकुछ सही चल रहा था. फिर एक दिन पता चलता है कि त्रिपाठी परिवार का एक सदस्य मुस्लिम है. यहां से उस किरदार का संघर्ष शुरू होता है. इस आइडेंटिटी क्राइसिस से निजात पाने के लिए उसे परिवार और समाज दोनों के खिलाफ फाइट मारनी पड़ती है. वो ये जंग जीत पाता है कि नहीं? और अगर जीतता है, तो कैसे? ये दो सवाल बचते हैं, जिनका जवाब फिल्म देने की कोशिश करती है. इन दोनों ही सवालों का कोई डेफिनिट जवाब नहीं है. प्रोसेस ही जवाब है.
'द ग्रेट इंडियन फैमिली' सिंपल फिल्म है. जो थोड़ा सा एंटरटेन और एज्युकेट दोनों करने की कोशिश करती है. उस लेवल पर आप फिल्म की नीयत पर शक नहीं कर सकते. मगर ये सब वो बड़े रूटीन तरीके से करती है. एक गंभीर मसला, जिसके बारे में बात करने के लिए कॉमेडी की बैसाखी के सहारे चलना पड़ता है. इस फिल्म का नायक अपने आसपास होने वाली चीज़ों से इतना अनभिज्ञ है कि उसे ये भी नहीं पता 'अल्लाह हू अकबर' ग्रीटिंग नहीं है. उसे लगता है कि मुसलमान बात करते वक्त हर शब्द में नुक्ता लगाते हैं. च़ाहे ज़रूरत ह़ो य़ा ऩहीं. इस पर उसका मुसलमान दोस्त उसे तुरंत टोक देता है. पिक्चर को पता है कि वो क्या कर रही है.
'द ग्रेट इंडियन फैमिली' अपनी कहानी को बेवजह उलझाती नहीं है. ये चीज़ दो तरीके से फिल्म के पक्ष में काम करती है. एक तो कहानी क्लीयर कट समझ में आती है. दूसरी फिल्म लंबी होने से बच जाती है. अगर इस फिल्म की लंबाई थोड़ी ज़्यादा होती, तो अझेल होने का खतरा बढ़ जाता. फिल्म सही समय पर एक अच्छी और ज़रूरी बात कहना चाहती है. इसके लिए 'द ग्रेट इंडियन फैमिली' को क्रेडिट दिया जाना चाहिए. मगर इस तरह की फिल्मों को देखकर लगता है कि अब भी हम बिल्कुल बेसिक लेवल पर ऑपरेट कर रहे हैं. हमें लगता है कि इस मसले पर बात होनी चाहिए. मगर जब बात करने की बारी आती है, तो हम ऊपर-ऊपर से सरफेस स्क्रैच करके रह जाते हैं. इसकी भरपाई हम ओवर द टॉप मेलोड्रामा से करना चाहते हैं. जो कि काम नहीं कर पाता.
'द ग्रेट इंडियन फैमिली' के पास थोड़ा सा हटके सब्जेक्ट था. उसे बरतने की ईमानदार कोशिश की गई है. फिल्म में एक सीक्वेंस में भजन कुमार कहते हैं-
"अरे यार ये सब क्या बकवास है! मुसलमान मीट रोज़ खाते हैं. ब्राह्मण और सरदार की शादी नहीं हो सकती. ये सब कहां से सीखा तुमने? हम लोग नये भारत की कैसी नई जनरेशन हैं?"
ये बात भी भजन कुमार के लर्निंग कर्व का हिस्सा है. ये सारी चीज़ें उसने खुद अपनी आंखों से देखी हैं. उन्हें समझा और उनसे सीखा है. ये डायलॉग विकी कौशल के करियर ट्रैजेक्ट्री को भी दिखाता है. उनकी ही फिल्म 'उड़ी- द सर्जिकल स्ट्राइक' में एक डायलॉग था कि 'ये नया इंडिया है, जो घर में घुसकर मारता है.' वहीं से ये 'नया इंडिया' वाला टर्म पॉप-कल्चर का हिस्सा बना था. अब अपनी नई फिल्म में वो इसी 'नए भारत' के कॉन्सेप्ट और उसके विचारों पर सवाल खड़े कर रहे हैं.
फिल्म में भजन कुमार का रोल विकी कौशल ने किया है. विकी कौशल उस तरह के एक्टर हैं, जो हर रोल पर मेहनत करते हैं. यहां भी उनका काम मज़बूत है. मगर कई मौकों पर ऐसा लगता है कि फिल्म उनकी परफॉर्मेंस के काबिल नहीं है. उनके पिता के रोल में हैं कुमुद मिश्रा. वो फर्स्ट हाफ में चार धाम यात्रा पर चले जाते हैं. सीधे क्लाइमैक्स में लौटते हैं. मनोज पाहवा ने भजन कुमार के चाचा बालकराम का किरदार निभाया है. मनोज के काम को लेकर मेरा एक ओपिनियन है, जिसे अन-पॉपुलर की श्रेणी में डाला जा सकता है. कि वो कॉमिक से ज़्यादा प्रभावशाली गंभीर रोल्स में लगते हैं. मसलन, 'मुल्क' में उनकी परफॉरमेंस देखिए. यहां भी उनका कैरेक्टर ग्रे शेड को छूकर टक से वापस आ जाता है. मानुषी छिल्लर की ये दूसरी फिल्म है. उन्होंने जसमीत नाम की लोकल सिंगर का रोल किया है. वो भी फिल्म के फर्स्ट हाफ में पांच मिनट के लिए दिखती हैं. फिर उनकी भी वापसी क्लाइमैक्स से ठीक पहले होती है. अगर वो फिल्म में नहीं भी होतीं, तो कहानी पर कुछ खास फर्क नहीं पड़ता.
भजन कुमार के दो दोस्त बने हैं 'फर्ज़ी' फेम भुवन अरोड़ा और डेब्यूटांट आशुतोष उज्जवल. भुवन का कैरेक्टर रेगुलर बेस्ट फ्रेंड बनकर रह जाता है. मगर आशुतोष के कैरेक्टर का एक आर्क है. उनका भी स्क्रीनटाइम ज़्यादा नहीं है, मगर कथानक के लिहाज से वो ज़रूरी किरदार है. कहानी के सबसे बड़े बवाल की शुरुआत ही आशुतोष के निभाए सर्वेश्वर के किरदार की वजह से होती है. सर्वेश्वर जिस तरीके से बात करता है, वो टोन फनी लगता है. पहली फिल्म के हिसाब से वो ठीक काम है. उन्हें आगे और देखना चाहेंगे. इन लोगों के अलावा में फिल्म सादिया सिद्दीकी, अल्का अमीन जैसे एक्टर्स भी नज़र आते हैं. मगर वो सिर्फ नज़र ही आते हैं. बमुश्किल ही उनके मुंह से आपको कोई शब्द या संवाद सुनने को मिलता है.
कुल जमा बात ये है कि 'द ग्रेट इंडियन फैमिली' ऐसी फिल्म है, जिसे परिवार के साथ बैठकर देखा जा सकता है. पिक्चर के पास जनता तक पहुंचाने के लिए एक मैसेज है. वो ये फिल्म डिलीवर कर देती है. न ये बहुत कमाल का सिनेमा है, न ही ऐसा सिनेमा जिसे खारिज किया जाना चाहिए. इस फिल्म की सबसे पॉज़िटिव बात ये है कि एक सही बात कहने के चक्कर में चार गलत बात सिखाकर नहीं जाती.
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