फिल्म रिव्यू- द बकिंघम मर्डर्स
Kareena Kapoor की नई थ्रिलर फिल्म The Buckingham Murders कैसी है, जानने के लिए पढ़ें ये रिव्यू.
फिल्म- द बकिंघम मर्डर्स
डायरेक्टर- हंसल मेहता
एक्टर्स- करीना कपूर खान, रणवीर बरार, ऐश टंडन, प्रभलीन संधू
रेटिंग- 3.5 स्टार
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करीना कपूर की नई फिल्म आई है 'द बकिंघम मर्डर्स'. फिल्म की कहानी इंग्लैंड के बकिंघमशर में घटती है. जसमीत भामरा नाम की एक पुलिस ऑफिसर है, जो कि एक निजी क्षति से गुज़र रही है. इस दुख से पार पाने के लिए वो अपना तबादला करवा लेती है. इसकी वजह से उसका डिमोशन होता है. जब वो नई जगह पहुंचती है, तो वहां एक मर्डर हो जाता है. एक ब्रिटिश-इंडियन ईशप्रीत नाम के 10-11 साल के लड़के का. ये केस जसमीत को दिया जाता है. मगर वो उस केस पर काम करने से इन्कार कर देती है. क्योंकि ये इस बच्चे की हत्या उसे बार-बार अपने पर्सनल लॉस की याद दिलाता है. कुछ समय के बाद जसमीत रियलाइज़ करती है कि उसे पर्सनल और प्रोफेशनल मसलों को आपस में नहीं मिलाना चाहिए. इसलिए वो उस केस पर काम करने को तैयार हो जाती है. इस मामले की तफ्तीश के दौरान उसे कई ऐसी चीज़ें पता चलती हैं, जो उसे हैरान-परेशान कर देती हैं. खूनी तक पहुंचने के लिए वो अपना हर दांव-पेंच लड़ा देती है. आखिर में उसके सामने जो खुलासा होता है, इसे वो पर्सनल क्लोजर मानकर जीवन में आगे बढ़ने की शुरुआत करती है.
'द बकिंघम मर्डर्स' रियलिस्टिक तरीके से बनी इन्वेस्टिगेटिव थ्रिलर फिल्म है. क्योंकि इसे 'अलीगढ़', 'शाहिद' और 'ओमेर्टा' जैसी फिल्में बनाने वाले हंसल मेहता ने डायरेक्ट किया है. 23 साल तक हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में काम करने के बाद करीना ने पहली बार कोई फिल्म प्रोड्यूस की है. वो भी एकता कपूर के साथ मिलकर. इस फिल्म को बनाने के लिए तीन ऐसी शक्तियां साथ आई हैं, जिनका आपस में कोई मेल नहीं है. क्योंकि तीनों लोगों के ही काम करने का तरीका बेहद अलहदा है. करीना कॉमर्शियल फिल्मों के लिए जानी जाती हैं. हंसल यथार्थवादी सिनेमा के पैरोकार और झंडाबरदार हैं. वहीं एकता कपूर की पहचान ड्रामा जॉनर से है. इतनी अलग विचारधारा के लोगों का साथ आना कहीं भी इस फिल्म के खिलाफ नहीं जाता. क्योंकि इस फिल्म पर आपको तीनों में से किसी की भी छाप नज़र नहीं आती.
'द बकिंघम मर्डर्स' सिंपल फिल्म है, जिसमें एक्स्ट्रा ड्रामा या रोमांच डालने की कोशिश नहीं की गई है. फिल्म के साथ सिनेमैटिक रियायत नहीं ली गई. एक साधारण कहानी है, जिसे उतने ही साधारण तरीके से कहने की कोशिश की गई है. यही चीज़ इसे एक असाधारण फिल्म बनाती है. आमतौर पर यूं होता है कि जब कोई एक्टर अपनी फिल्म खुद प्रोड्यूस करता/करती है, तो उसकी वैनिटी के एवज में फिल्म की बलि चढ़ा दी जाती है. मगर 'द बकिंघम मर्डर्स' ये गलती नहीं दोहराती. वो कभी एक्टर्स को उनके किरदारों पर हावी नहीं होने देती. इसका क्रेडिट करीना को भी जाना चाहिए. कि उन्होंने अपना स्टारडम साइड पर रखकर एक कायदे की कॉन्टेंट ड्रिवन फिल्म में काम करना चुना.
अगर आप करीना का करियर ट्रैजेक्ट्री फॉलो करें, तो वो मेनस्ट्रीम कॉमर्शियल सिनेमा और महिला प्रधान सिनेमा के बीच एक बैलेंस बनाकर चलती रही हैं. भले उसका रेशियो 10-02 का रहा हो. हालांकि उनकी पिछली तीन फिल्मों के नाम हैं- 'जाने जान', 'क्रू' और 'द बकिंघम मर्डर्स'. इन तीनों ही फिल्मों में करीना के अपोज़िट रोमैंटिक रोल में कोई एक्टर नहीं था. वो खुद फिल्म की हीरो थीं. मगर उनकी अगली फिल्म है 'सिंघम अगेन'. तो कहने का मतलब ये कि अब उस रेशियो में फर्क आ रहा है. क्योंकि करीना एक इन्सान और कलाकार दोनों ही तौर पर इवॉल्व हुई हैं. जिसका प्रभाव उनके काम में दिख रहा है.
'द बकिंघम मर्डर्स' में उन्होंने एक मां की भूमिका निभाई है. ज़ाहिर तौर पर जीवन के इस पड़वा पर वो इसे रोल से ज़्यादा रिलेट कर पाएंगी. पूरी फिल्म में उनका काम आला है. सिर्फ एक सीन को छोड़कर. उस सीन में वो अपनी फ्रस्ट्रेशन ज़ाहिर करने के लिए चिल्लाती हैं, जो कि बहुत कन्विंसिंग नहीं लगता. सिर्फ परफॉरमेंस नहीं, बतौर सीन भी. अगर उस एक सीन को फिल्म से निकाल दिया जाए, तो उससे न तो फिल्म पर कोई असर पड़ेगा, न करीना के किरदार पर.
हालांकि हंसल मेहता के लिहाज से ये रूटीन फिल्म लगती है. क्योंकि इसमें वो कई सारी चीज़ें करने की कोशिश करते हैं. यहां जेंडर सेंसिटिविटी से लेकर इंसानी साइकोलॉजी, ड्रग्स कल्चर, धार्मिक कट्टरता जैसे तमाम मसलों को छूने की कोशिश होती है. ऐसा लगता है कि उन्हें कोई लिस्ट दी गई, जिसमें लिखी हर चीज़ उन्हें अपनी फिल्म में शामिल करनी है. ताकि फिल्म को ज़्यादा से ज़्यादा प्रासंगिक बनाया जा सके. जो कि कई मौकों पर खलती है. ऐसा भी नहीं है कि ये फिल्म कोई मैसेज देने की कोशिश कर रही है. अगर आप बिल्कुल ही अड़ जाएं कि 'आया हूं कुछ तो लेकर जाऊंगा', ऐसे में आपको एक चीज़ मिलती है. वो ये कि ये फिल्म धर्म को न्याय के आड़े नहीं आने देती.
मुझे पर्सनली जो बात इंट्रेस्टिंग लगी, वो ये कि जब देशभर की इंडस्ट्रीज़ पैन-इंडिया और मासी फिल्में बनाने में लगी हुई हैं, उस दौर में 'द बकिंघम मर्डर्स' जैसी छोटी सी फिल्म आती है. जो शायद क्राफ्ट और कॉन्टेंट की क्वॉलिटी के मामले में उन सब पर भारी पड़ती है. मगर वो फिल्म दर्शकों की मोहताज है. आए दिन सोशल मीडिया पर बहस चलती रहती है कि भारत में खासकर हिंदी पट्टी में अच्छा सिनेमा नहीं बन रहा है. मगर बहुत सिंपल सी बात है, जब आप अच्छा सिनेमा देखने के लिए सिनेमाघरों में जाना शुरू करेंगे, तभी आपको और वैसी फिल्में देखने को मिलेंगी. अगर अच्छी फिल्म बनाकर भी प्रोड्यूसर को अपने पैसे डुबोने हैं, तो बुरी फिल्म बनाकर 500 करोड़ कमाने में कैसी शर्म!
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