अक्षय कुमार 'मिशन रानीगंज' में जिस शख्स का रोल किया, उनकी असली कहानी रोमांच से भर देगी
पढ़िए 'मिशन रानीगंज' वाली घटना असल में कैसे घटी थी. जसवंत सिंह कोल इंडिया में इंजीनियर थे और 1989 के दौरान पश्चिम बंगाल के रानीगंज में महाबीर खदान में पोस्टेड थे. वहां कुछ ऐसा हुआ कि जसवंत सिंह गिल हीरो बन गए.
अक्षय कुमार की फिल्म ‘मिशन रानीगंज’ रिलीज़ हो गई है. ये एक एक रेस्क्यू ड्रामा फिल्म है. अक्षय कुमार ने जसवंत सिंह नाम के एक इंजीनियर का रोल किया है, जो अपनी जान पर खेलकर लोगों की जानें बचाता है. फ़िल्म माइनिंग इंजीनियर की सच्ची कहानी पर आधारित है., जिन्होंने कोलमाइन की बाढ़ में फंसे 65 लोगों की जान बचाई थी. इस आर्टिकल में हम इन्हीं जसवंत सिंह की लाइफ स्टोरी जानेंगे.
# कौन थे जसवंत गिल?22 नवंबर, 1937, पंजाब के सठियाला (अमृतसर) में जसवंत सिंह गिल का जन्म हुआ. अमृतसर के खालसा कॉलेज से 1959 में ग्रैजुएट हुए. फिर कोल इंडिया लिमिटेड में नौकरी शुरू कर दी. यहां काम करने के दौरान उन्होंने कुछ ऐसा कारनामा किया कि 1991 में ‘सर्वोत्तम जीवन रक्षा पदक’ से राष्ट्रपति ने सम्मानित किया. अमृतसर की मजीठा रोड पर एक चौक का नाम भी उनके नाम पर रखा गया है. 26 नवंबर, 2019 को उनका निधन हो गया. अब उन्होंने जो काम किया, उस पर फ़िल्म बन रही है. जसवंत सिंह गिल के बेटे डॉक्टर सर्वप्रीत सिंह बताते हैं:
# क्या कहानी है जसवंत गिल की, जिस पर फ़िल्म बन रही है‘पिताजी के जीवनकाल में ही फिल्म की तैयारी शुरू हो चुकी थी. फिल्म के निर्देशक इस सिलसिले में हमारे घर भी आए थे. उनकी पिताजी से लंबी बातचीत हुई थी. फिल्म निर्माताओं से समझौता तभी हो गया था. फिल्म की शूटिंग कई असल जगहों पर की गई. इसलिए कोल इंडिया लिमिटेड से भी संपर्क किया गया. इस फिल्म का कुछ हिस्सा झारखंड स्थित इंडियन स्कूल ऑफ माइन्स में भी फिल्माया गया, जहां पिताजी ने कुछ वक्त गुजारा था. अमृतसर का सठियाला गांव, जहां वे पैदा हुए और खालसा कॉलेज, जहां उन्होंने पढ़ाई की. ऐसी तमाम जगहों पर फिल्म की शूटिंग हुई.’
अमिताभ बच्चन की एक फ़िल्म है 'काला पत्थर'. उस फ़िल्म में उनके साथ शशि कपूर और शत्रुघ्न सिन्हा भी हैं. कोलमाइन में काम करते समय वहां पानी रिसने लगता है. धीरे-धीरे रिस रहा पानी तेज होता जाता है और अचानक बाढ़ आ जाती है. अमिताभ बच्चन वहां फंसे मजदूरों को बचाते हैं. ऐसा ही कुछ जसवंत गिल ने किया था. दरअसल, जसवंत सिंह कोल इंडिया में इंजीनियर थे और 1989 के दौरान पश्चिम बंगाल के रानीगंज में महाबीर खदान के चीफ माइनिंग इंजीनियर थे.
13 नवंबर, 1989 की तारीख. 220 मजदूर रोज़ की तरह अपना काम कर रहे थे. ब्लास्ट के जरिए कोयले की दीवारें तोड़ी जा रही थीं. खदान से कोयला निकाला जा रहा था. सब खुद के काम में व्यस्त थे. उन्हें ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि अगले ही क्षण उनके साथ कुछ भयानक होने वाला था. काम के दौरान खदान में बाढ़ आ गई. ऐसा माना जाता है कि किसी ने खदान की सबसे आखिरी सतह से छेड़छाड़ कर दी, जिसके कारण पानी रिसने लगा और फिर खदान में बाढ़ आ गई. 220 में से कई मजदूरों को दो लिफ्टों से बाहर निकाला गया. फिर शाफ़्ट में पानी भर गया और 71 मजदूर वहीं फंस गए. जिसमें से 6 डूब गए और 65 को बचाने की जुगत होने लगी. उन्हें रेस्क्यू करने के लिए 3 से 4 टीमें बनाई गईं. एक टीम ने खदान के बराबर सुरंग खोदनी शुरू की. दूसरी टीम उस जगह से माइन के अंदर जाने की कोशिश करने लगी, जहां से पानी जा रहा था. पर सारे हथकंडे असफल हो चुके थे. कोई जुगाड़ काम नहीं कर रहा था.
# मिशन रानीगंज में ‘कैप्सूल’ के क्या मायने हैं?ऐसे समय में जब सब निराश हो चुके थे, जसवंत गिल को एक आइडिया आया. वो आइडिया था कैप्सूल का. उन्होंने जो कैप्सूल तैयार किया था, वो दुनिया में पहली बार बना. उनकी विधि से बने इस कैप्सूल को दुनियाभर में इस्तेमाल किया जाता है. 2010 में चिली में एक ऑपरेशन में इस कैप्सूल का इस्तेमाल हुआ था. खैर, ये आइडिया उन्हें आया था बोरवेल से. दरअसल गिल की टीम ने मिलकर कई बोरवेल खोदे थे, जिनके ज़रिए उन 65 खदान मजदूरों को खाना और पानी पहुंचाया जा रहा था. गिल के आइडिया के तहत एक स्टील के कैप्सूल का रेप्लिका बनाया जाना था. उसे बोरवेल से माइन के अंदर डाला जाता और एक-एक करके 65 लोगों को बाहर निकाला जाता. उनके बेटे एक इंटरव्यू में कहते हैं:
‘’उन्होंने कैप्सूल अंदर भेजने के लिए एक कुआं खोदा. वहीं पर ढाई मीटर का कैप्सूल बनाया. उसे एक आयरन रोप से अटैच किया और क्रेन से उसे नीचे उतार दिया.''
गिल का अनुमान एकदम परफेक्ट था. बोरहोल एकदम उसी जगह से जुड़ा हुआ था, जहां पर फंसे हुए मजदूर इकट्ठे हुए थे. ऑक्सीजन की मात्रा घट रही थी. खदान की छत गिरने वाली थी. ऐसे में मजदूरों को ज़िंदा निकलने की उम्मीद जाग गई थी. जल्दी ही नया बोरवेल खोदा जाने लगा. सबसे बड़ा चैलेंज था, जिस मशीन से गड्ढा खोदा जा रहा था, उसके कांटे की चौड़ाई सिर्फ 8 इंच थी. वेल्डिंग करके उसे 22 इंच का बनाया गया. खुदाई चालू हुई. एक तरफ़ गड्ढा खुद रहा था, दूसरी तरफ़ गिल ने कैप्सूल बनने के लिए पास की फैक्ट्री में भेज दिया. 2.5 मीटर लंबा कैप्सूल बनकर आया और 15 नवंबर की रात आयरन रोप के ज़रिए उसे नीचे भेजा गया. जिन दो लोगों को रेस्क्यू की लिए नीचे जाना था, वो मिल नहीं रहे थे. ऐसे में सीनियर ऑफिशियल्स के विरोध के बावजूद गिल खुद कैप्सूल के सहारे नीचे उतर गए. वो जब नीचे उतरे तो दूसरा दिन शुरू हो चुका था. तारीख लग चुकी थी 16 नवंबर और रात के बज रहे थे 2:30.
उन्होंने जैसे ही कैप्सूल का दरवाज़ानुमा हिस्सा खोला, 65 डरे हुए लोग उनके सामने थे. उनके चेहरे पर मौत का खौफ़ साफ देखा जा सकता था. उन्होंने सबसे क़रीब मौजूद पहले वर्कर को बाहर निकाला. कैप्सूल में लिया. स्टील पर हथौड़ा मारकर इशारा किया. उन्हें ऊपर खींचा गया. इस सफल निकासी के बाद गिल साहब ने उन मजदूरों को निकालना शुरू किया, जो घायल थे या जिन्हें बुखार था. 7-8 राउन्ड के बाद जब ये पक्का हो गया कि कैप्सूल ढंग से काम कर रहा है, तो कैप्सूल में लगी मैनुअल घिरनी को मकैनिकल घिरनी से बदल दिया गया. इससे मजदूरों को निकालने की प्रक्रिया में तेजी आ गई. सुबह 8:30 बजे तक गिल साहब सभी मजदूरों को बाहर लाने में सफल रहे. यानी 6 घंटे में गिल साहब ने 65 लोगों के जान बचा ली.
उनकी इस बहादुरी के लिए रेस्क्यू मिशन के दो साल बाद गिल साहब को ‘सर्वोत्तम जीवन रक्षा पदक’ से नवाज़ा गया. कोल इंडिया ने उन्हें ‘लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड’ दिया. साथ ही कोल इंडिया ने उनके सम्मान में 16 नवंबर को 'रेस्क्यू डे' डिक्लेयर कर दिया.
अब जसवंत सिंह गिल की इस कहानी पर अक्षय कुमार फ़िल्म लेकर आए हैं.
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