जब अपना स्कूल बचाने के लिए बच्चों को पूरे गांव से लड़ना पड़ा
क्या उनका स्कूल बच सका?
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हमारी मराठी सिनेमा की सीरीज 'चला चित्रपट बघूया' में आज की फिल्म है 'उबुन्टु'. उबुन्टु जिसे हिंदी वाले उबंतू भी प्रोनाउंस करते हैं. उबुन्टु. क्या मतलब हुआ इस शब्द का? ये एक अफ्रीकन शब्द है और कहते हैं कि ये नेल्सन मंडेला का दुनिया को दिया हुआ गिफ्ट है. ये महज़ एक शब्द नहीं, फलसफा है. इसका अर्थ है, 'मैं हूं, क्योंकि हम हैं'. कितनी सुंदर बात! सहजीवन की, सहअस्तित्व की पूरी परिकल्पना ही एक शब्द में समा गई. इसी भावना को कुछ बच्चों और उनके डेडिकेटेड टीचर के माध्यम से परदे पर उतारती है ये प्यारी सी फिल्म, 'उबुन्टु'.
स्कूल चलें हम
नाइंटीज़ में दूरदर्शन पर आने वाला गाना 'स्कूल चलें हम' तो याद ही होगा आपको! जो स्कूल की ज़रूरत को, जीवन में पढ़ाई के रोल को रेखांकित करता था. पढ़ने-लिखने की इसी महिमा को थोड़ा और डिटेल में जाकर समझाती है ये फिल्म. ढोबळेवाडी नाम का एक गांव है. जहां के एक प्राइमरी स्कूल पर आफत आई हुई है. आफत ये कि स्कूल बंद हो सकता है. क्यों? दो वजहें हैं.एक तो स्कूल में आने वाले बच्चों की संख्या बहुत कम है. दूसरी और सबसे बड़ी वजह ये कि गांव का सरपंच खफा है. उसे लगता है कि स्कूल के एकमात्र टीचर बच्चों को जिस प्रायोगिक मेथड से पढ़ाते हैं, वो उन्हें उद्दंड बना रही है. क्या है टीचर का तरीका? मास्टर जी किताबों से चीज़ें रटाने की जगह, प्रयोग करके समझाने में यकीन रखते हैं. इसी का नतीजा है कि क्यूरियस, उत्सुक बच्चे नित-नए प्रयोग करते रहते हैं, जिनसे कई बार गांववाले परेशान हो जाते हैं.
सारंग साठ्ये एक मंझे हुए स्टैंडअप कॉमेडियन भी हैं.
बहरहाल, सरपंच ने अल्टीमेटम दे दिया है कि अगर स्कूल में कम से कम 35 बच्चे नहीं आएंगे, तो स्कूल बंद कर दिया जाएगा. यहीं से शुरू होती है मास्टर और विद्यार्थियों की स्कूल को बचाने की जद्दोजहद. जो रोचक भी है और इमोशनल भी.
बच्चों वाली बड़ी फिल्म
बच्चों को लेकर फिल्म बनाना बड़ा ट्रिकी काम है. मराठी सिनेमा इस ट्रिक को समझने में काफी हद तक कामयाब रहा है. 'बालक-पालक', 'शाळा', 'हाफ तिकिट', 'एलिज़ाबेथ एकादशी' जैसी फ़िल्में इस बात का मज़बूत सर्टिफिकेट हैं. 'उबुन्टु' इसी ज़ंजीर की एक सशक्त कड़ी है. फिल्म के कई सीन बेहद उम्दा बन पड़े हैं. जैसे क्लास में असली फलों के साथ मैथ्स पढ़ाते मास्टर जी. या फिर कम उम्र में शादी तय हुई मुस्लिम लड़की की छटपटाहट. आकाशवाणी तक बच्चों की पहुंच बनने का सीक्वेंस भी उम्दा है. आकाशवाणी का इससे उम्दा इस्तेमाल इससे पहले सिर्फ 'रंग दे बसंती' में ही देखने को मिला है.देखिए फिल्म का ट्रेलर:
एक्टिंग, डायरेक्शन, म्युज़िक
यूं तो फिल्म में बहुत से बाल कलाकार हैं लेकिन तीन कलाकार अलग से चमकते हैं. भाग्यश्री संकपाळ, कान्हा भावे और अथर्व पाध्ये. भाग्यश्री तो ख़ास तौर से शाइन करती हैं. 'बालक-पालक' की चिऊ के बाद ये उनका दूसरा ऐसा रोल है, जिसे भरपूर पसंद किया जा सकता है. कान्हा और अथर्व ने भी उनका खूब साथ दिया है. मास्टर जी के रोल में सारंग साठ्ये ऐसे लगते हैं जैसे जीवन भर किसी स्कूल में पढ़ाते ही आए हो. सौम्य, सज्जन लेकिन प्रतिबद्ध मास्टर. जिसे अपने बच्चों का भविष्य बनाने के अलावा और किसी चीज़ से मतलब नहीं. कमीने सरपंच की भूमिका में शशांक शेंडे रंग भर देते हैं. वो तो खैर हैं भी इस कैलिबर के एक्टर कि जो काम दे दो उसे पूरी निष्ठा से निभाते हैं. यहां भी वो यही करते हैं.सरपंच के रोल में शशांक शेंडे पर्याप्त कमीने लगे हैं.
पुष्कर श्रोत्री का डायरेक्शन सहज है इसीलिए अपील करता है. वो चीज़ों को ओवर ड्रैमेटिक नहीं करते और फिल्म आप तक आसानी से पहुंचती है. फिल्म का एक और उम्दा पहलू इसका संगीत भी है. ख़ास तौर से शुरुआत में आने वाला गीत. जो कि स्कूल की मॉर्निंग प्रेयर है. बहुत सुंदर बोल हैं इसके और बेहद प्यारा संगीत.
'हीच अमुची प्रार्थना अन हेच अमुचे मागणेमाणसाने माणसाशी माणसासम वागणे'जिसका मतलब हुआ कि 'इंसान, इंसान के साथ, इंसान की तरह पेश आए, बस यही हमारी प्रार्थना है'. बेहद सुंदर गीत.
भाग्यश्री इस फिल्म की रीढ़ की हड्डी हैं.
किसी भी इमारत की मज़बूती उसकी नींव पर डिपेंड करती है. बचपन में हासिल हुआ एक उम्दा शिक्षक ऐसी ही नींव है, जिसकी दी हुई मज़बूती ही इंसान को सिर ऊंचा करके खड़े रहने की, बने रहने की ताकत प्रदान करती है. इस बात को फिल्म के ही एक संवाद से भी समझा जा सकता है. क्लाइमैक्स में सरपंच कहता है,
"मास्टर जी, तुमने हमारे बच्चों के पंखों में ताकत भरी है. अब इन्हें कोई कहीं से भी फेंक देगा, तो भी बिल्ली के बच्चे की तरह चार पैरों पर खड़े मिलेंगे".तो बच्चों के पंखों में ऊर्जा भरने वाले शिक्षक और उनके क्यूरियस विद्यार्थियों की ये जुगलबंदी ज़रूर-ज़रूर देखी जानी चाहिए.
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