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पेले डॉक्यूमेंट्री रिव्यू: फुटबॉल का महानतम खिलाड़ी कभी ज़िम्मेदार नागरिक क्यों नहीं बन पाया?

ब्राज़ील में तानाशाही के दौर में भी पेले का स्टारडम बरकरार रहा. पेले ने इसकी भारी कीमत चुकाई थी. उन्हें अपनी चेतना गिरवी रखनी पड़ी थी.

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पेले पर बनी इस डॉक्यूमेंट्री को खुले मन से देखा जाना चाहिए. ये फ़ुटबॉल की दीवानगी और फ़ैन होने के कई मिथकों को बनाती-बिगाड़ती है.
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अभिषेक
27 नवंबर 2022 (Updated: 27 नवंबर 2022, 15:02 IST)
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मेरा बचपन जिस इलाके में बीता, वहां फ़ुटबॉल या किसी दूसरे खेल को कभी जुनून की तरह नहीं खेला गया. स्पोर्ट्स, दिन में आधे घंटे आने वाली बिजली के जैसा था. जिसके होने या ना होने से जीवन पर बहुत अंतर नहीं पड़ता था. उसमें भी क्रिकेट, कबड्डी, खो-खो जैसे खेल टॉप पर रहे. फ़ुटबॉल का नंबर लिस्ट में सबसे नीचे होता था. अगर कभी फ़ुटबॉल का नंबर आता भी तो हम बड़े अनमने ढंग से खेलते. उसमें क्रिकेट वाली बारीकी नहीं ढूंढते. और, ना ही बरतने की कोशिश करते. एक गेंद रहती, जिसपर हम अपनी खुन्नस निकाल लिया करते थे. हमारे लिए गोल से ज़्यादा गेंद को अधिक ऊंचाई तक या अधिक दूर तक मारना ज़रूरी होता था. इसलिए, निजी तौर पर मुझे कभी इस खेल को लेकर दीवानगी का मतलब समझ में नहीं आया. फिर एक दिन मैंने ‘पेले: द बर्थ ऑफ़ अ लेजेंड’ देखी. उस फ़िल्म ने ये अहसास दिलाया कि ये गेम मेरी दुनिया से कहीं ऊपर की चीज़ है. वो दुनिया अलौकिक है. और, पेले उसका देवता है. वो फ़िल्म देखने के बाद पेले को लेकर शुद्धता वाली भावना बैठ गई थी. ये लगने लगा था कि वो सवालों से परे है. वो धारणा लेकर मैं अपने खोल में सिमट गया था. फ़ुटबॉल से ज़्यादा मेरी रुचि पेले में थी. उस फ़िल्म के बाद लंबे समय तक मैंने फ़ुटबॉल से जुड़ा कुछ भी नहीं देखा.

ये अंतराल कई महीनों तक जारी रहा. अभी 20 नवंबर को क़तर की राजधानी दोहा में फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप की शुरुआत हुई. वर्ल्ड कप की तैयारी के दौरान मज़दूरों की मौत और मानवाधिकार उल्लंघन को क़तर की आलोचना हो रही है. ‘दुनियादारी’ के सिलसिले में मेरी दिलचस्पी वर्ल्ड कप के आयोजन में थी. मैं देखने-पढ़ने के लिए नई चीज़ें तलाश रहा था. इसी दौरान नेटफ़्लिक्स पर मेरी टक्कर एक और पेले से हुई. पहली नज़र में मुझे ये लगा कि शायद पुरानी वाली फ़िल्म वापस रेकमेंड हो रही है. लेकिन ये एक डॉक्यूमेंट्री थी. रियल लाइफ़ फुटेज, इंटरव्यूज़ और ऐतिहासिक घटनाओं का साफ-सुथरा कोलाज. पोर्तुगीज़ में बनी इस डॉक्यूमेंट्री में कोई सूत्रधार नहीं है. कोई कहानी सुनाने वाला या वाली नहीं है. इसमें उस दौर की घटनाओं को क्रम से सज़ाकर मंच पर छोड़ दिया गया है. कहानी अपने आप बुनती चली जाती है. दिलचस्प ये कि कहीं पर एक सेकेंड के लिए भी नज़र हटाने का मन नहीं करता. फिर जो तस्वीर बनकर तैयार होती है, वो मन में बहुत सारे सवाल छोड़कर जाती है. मसलन, 

क्या पेले सबसे महान खिलाड़ी के साथ-साथ सबसे महान इंसान भी थे? किसी को देवता मान लेना किस हद तक सही है? क्या हम ही स्वार्थी हैं? क्या हम किसी चीज़ को उसी रूप में देखने के आदी हो चुके हैं, जिसमें हमारी कल्पनाओं को ठेस नहीं पहुंचता? 

108 मिनट की इस डॉक्यूमेंट्री को पूरा करने के बाद बहुत सारे पूर्वाग्रह ध्वस्त होते हैं. ज्ञानेंद्रियां खुलतीं है. नज़रिया साफ होता है. इसको डायरेक्ट किया है, बेन निकोलस और डेविड ट्रायहॉर्न ने. दोनों साथ में फ़ुटबॉल से जुड़ी और भी डॉक्यूमेंट्रीज़ बना चुके हैं. पेले देखने के बाद मैं उन्हें भी देखने की कोशिश करूंगा और हो सका तो उस पर भी बात करूंगा.

फिलहाल, आपको पेले की कहानी बता देता हूं.

 

अंक एक. 

द जर्नी लेस टॉक्ड अबाउट

डॉक्यूमेंट्री की शुरुआत एक खाली और अंधेरे कमरे से होती है. कमरे के बीचोंबीच एक कुर्सी रखी है. पेले अपनी बैसाखी के सहारे कुर्सी तक आते हैं. और, वो अपने बचपन की कहानी बांचना शुरू करते हैं. उनकी गोद में एक जूते पॉलिश करने वाला स्टैंड रखा है. पेले की ऊंगलियां उसपर थिरकती हैं. जब उस थिरकन की गूंज शब्दों से मिलती है, तब एक सिहरन पैदा होती है.

पेले के पिता छोटे-मोटे क्लब्स के लिए फ़ुटबॉल खेला करते थे. उन्हें डोन्डिन्हो का निकनेम मिला हुआ था. क्लब में खेलकर थोड़ी बहुत आमदनी हो जाती थी. उसी से घर चल रहा था. अक्टूबर 1940 में पेले का जन्म हुआ. उनका नाम अमेरिकी वैज्ञानिक थॉमस एडिसन के नाम पर रखा गया था. एडसन अरांतेस डो नासिमेंतो. ये नाम इसलिए रखा गया था कि क्योंकि उसी साल उनके गांव में बिजली आई थी.

जब पेले के खेलने-कूदने के दिन चल रहे थे, उसी समय एक त्रासदी हो गई. डोन्डिन्हो बुरी तरह चोटिल हो गए. क्लब ने उन्हें निकाल दिया. आमदनी का ज़रिया बंद हो चुका था. तब पेले ने सड़कों पर जूते पॉलिश किए, लोगों के कपड़े साफ़ किए. मज़दूरी की.और भी छोटे-मोटे काम किए.

इसी समय पिता उनको फ़ुटबॉल की ट्रेनिंग भी दे रहे थे. पेले का हुनर निखरकर सामने आ रहा था. घरवालों को लगा कि बच्चे को मौका देना चाहिए. वे उसे लेकर सेंटोस आ गए. सेंटोस उस समय ब्राज़ील के सबसे मशहूर फ़ुटबॉल क्लब्स में से था. पेले ने ट्रायल दिया. उन्हें तुरंत सेलेक्ट कर लिया गया. 16 साल की उम्र में उन्हें पहला कॉन्ट्रैक्ट मिल चुका था. क्लब में पेले को एक्सपोज़र मिला. इसी की बदौलत दो साल बाद वो ब्राज़ील की वर्ल्ड कप टीम में पहुंच चुके थे. डॉक्यूमेंट्री शुरुआती पलों में ही पेले को सफ़लता के ऊपरी पायदान तक पहुंचा देती है. उनके शुरुआती संघर्ष को दरकिनार कर दिया गया है. हालांकि, ये लगता है कि मेकर्स का फ़ोकस बाद के दिनों पर था. वे अपना फ़ोकस बनाए रखने में कामयाब रहे हैं.

 

अंक दो. 

विजेता होने की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या है?

पेले को वर्ल्ड कप में पहला मौका 1958 में मिला. फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप की शुरुआत 1930 में हुई थी. 1950 में ब्राज़ील को पहली बार टूर्नामेंट की मेज़बानी मिली. आर्थिक रूप से बहुत समृद्ध ना होने के बावजूद सरकार ने ज़बरदस्त तैयारी की. रियो डि जनेरो में ऐतिहासिक मरकाना स्टेडियम बनवाया गया. ब्राज़ील की टीम ने इसका मान रखा. टीम फ़ाइनल में पहुंची. वहां उनका मुक़ाबला उरुग्वे से होना था. मैच शुरू होने से ठीक पहले रियो डि जनेरो के मेयर ने स्टेडियम में एक भाषण दिया. बोले, ‘मेरे प्यारे ब्राज़ील के लोगों, कुछ मिनटों के अंतराल के बाद आप विश्व-विजेता बनने जा रहे हैं. हमने अपना वादा पूरा किया और ये स्टेडियम बनवाया. अब आप अपना कर्तव्य पूरा करिए और हमें वर्ल्ड कप जीत कर दिखाइए.’

टीम भरोसे पर खरी नहीं उतर पाई. उरुग्वे ने ब्राज़ील को 2-1 से हरा दिया. पौने दो लाख दर्शकों से खचाखच भरे मरकाना में मातम पसर गया. ऐसा लग रहा था, पूरा ब्राज़ील सदमे में चला गया है. लाखों लोगों ने उस रोज़ खाना नहीं खाया होगा. एक रौशनी उन तक आते-आते अचानक गुम हो गई थी. उस मैच को रेडियो पर दस साल का बालक भी सुन रहा था. उसने अपने पिता से कहा, ‘मैं ब्राज़ील को वर्ल्ड कप दिलाऊंगा.’

वो बच्चा पेले था. 1958 में ब्राज़ील ने वर्ल्ड कप अपने नाम किया. पेले ने सेमीफ़ाइनल में तीन और फ़ाइनल में दो गोल किए थे. उसकी चपलता का कोई जवाब नहीं था. कमेंटेटर्स ने कहना शुरू कर दिया था, ये लड़का फ़ुटबॉल के इतिहास का सबसे महान खिलाड़ी बन सकता है.

ब्राज़ील ने 1962 में लगातार दूसरा वर्ल्ड कप अपने नाम किया. एक बार फिर से पेले सबसे आगे थे. उन्होंने फ़ाइनल में गोल भी किया था. हर तरफ़ पेले का नाम चमक रहा था. क्लब से लेकर इंटरनैशनल टीम तक, उन्हें चुनौती देने वाला कोई नहीं था. ये बादशाहत मैदान के बाहर भी कायम हो रही थी. उनके नाम से हर तरह के प्रोडक्ट्स बिकने लगे थे. पेले को ब्राज़ील का राष्ट्रीय खज़ाना बताया जाने लगा था. कहा गया कि पेले ने मुल्क़ को ‘मॉन्ग्रेल कॉम्प्लेक्स’ से निकाला है. ये टर्म 1950 के फ़ाइनल में मिली हार के बाद ईजाद हुआ था. मॉन्ग्रेल कुत्ते की एक प्रजाति है. उसको हमेशा ये लगता है कि बाकी की दुनिया उससे बहुत बेहतर है. 

फिर 1966 का वर्ल्ड कप आया. इसमें विपक्षी टीमों ने ब्राज़ील के प्लेयर्स के शरीर को निशाना बनाया. पेले समेत कई बड़े खिलाड़ी मैच के बीच में चोटिल हुए. ब्राज़ील ग्रुप स्टेज में ही टूर्नामेंट से बाहर हो गया. गत-विजेता की ये गत देखकर पेले ने कहा, अब मैं कभी वर्ल्ड कप नहीं खेलूंगा. मैं अपनी टीम को इस हालत में नहीं देख सकता.

इस दावे के बावजूद पेले लौटे. 1970 के वर्ल्ड कप में उन्होंने हिस्सा भी लिया. इस बार ब्राज़ील विजेता बना. उस जीत को याद करते हुए पेले ने कहा था,

मैं मानता हूं कि जीत का सबसे बड़ा इनाम ट्रॉफ़ी नहीं, बल्कि राहत का अहसास है.

पेले ने ऐसा क्यों कहा? और वो वर्ल्ड कप में नहीं खेलने के दावे के बावजूद टीम में वापस क्यों आए? इसके पीछे बहुत दिलचस्प कहानी है. उसके बारे में जानने के लिए आपको डॉक्यूमेंट्री देखनी पड़ेगी.

 

अंक तीन. 

जब पेले ने अपनी चेतना गिरवी रख दी.

किसी भी महान व्यक्तित्व की कहानी सुनाते समय अक्सर उसकी कमज़ोरियां छिपा ली जाती हैं. पेले निस्संदेह तौर पर फ़ुटबॉल के सबसे महान खिलाड़ी हैं. लेकिन क्या वो एक ज़िम्मेदार नागरिक भी थे? ये सवाल उस समय मौज़ू हो जाता है, जब आप मैदान से इतर के पेले को देखते हैं.

जिस समय पेले का करियर अपने चरम पर था, उसी दौर में ब्राज़ील में लोकतंत्र की हत्या की जा रही थी. अप्रैल 1964 में सेना ने चुनी हुई सरकार का तख़्तापलट कर दिया. इस तख़्तापलट के पीछे अमेरिका था. अमेरिका पूरी दुनिया में कम्युनिज़्म के विस्तार को रोकने के लिए हरसंभव साज़िश रच रहा था. इसी क्रम में उसने ब्राज़ील में भी सेना को सपोर्ट देकर लोकतांत्रिक सरकार का दम घोंट दिया था. तानाशाही आ चुकी थी.

सैन्य सरकार हंटर लेकर लोगों को हांक रही थी. जिन्होंने विरोध जताया, उन्हें फौरन किनारे लगा दिया गया. 1968 में सरकार इंस्टिट्यूशंस ऐक्ट नंबर फ़ाइव (AI-5) लेकर आई. इसके तहत बिना कारण बताए किसी को भी गिरफ़्तार किया जा सकता था. हज़ारों लोगों को उनके घरों से उठाया गया. उनमें से अधिकांश कभी वापस नहीं लौटे.

इस ऐक्ट पर साइन करने वाले कैबिनेट मंत्री ने बाद में अफसोस जताया. डॉक्यूमेंट्री में उनका भी इंटरव्यू है. एक जगह पर वो कहते हैं, 

मनुष्य इकलौता ऐसा प्राणी है, जो शक्तिशाली होने पर अपनी ही प्रजाति की हत्या कर सकता है.

मिलिटरी सरकार के हर कुकृत्य के बारे में पेले को पता था. लेकिन उन्होंने कभी विरोध में एक शब्द नहीं बोला. पेले मानते हैं कि उनके बोलने से कुछ भी नहीं बदलता. लेकिन आलोचकों का कहना है कि पेले डर गए थे. वो किसी के लिए बुरा नहीं बनना चाहते थे. जिस तरह की उनकी लोकप्रियता थी, उनके एक बयान से बहुत फ़र्क़ पड़ सकता था. अफ़सोस, पेले ने खामोशी का रास्ता अख्तियार किया.

इसकी बजाय वो दमनकारी तानाशाहों से लगातार मिलते रहे. उनके साथ डिनर करते रहे, फ़ोटो खिंचवाते रहे, गले मिलते रहे. इसने मिलिटरी गवर्नमेंट को बहुत हद तक वैधता प्रदान की. ब्राज़ील के तानाशाहों ने फ़ुटबॉल का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए बखूबी किया. और, सब जानते हुए भी पेले उनके लिए मोहरा बनते रहे. ब्राज़ील में तानाशाही 1985 तक चली. इन 21 सालों में हज़ारों लोगों की हत्या हुई. मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ. बुनियादी अधिकार कुचले गए.

हालांकि, पेले का वजूद बरकरार रहा. उनका स्टारडम बना रहा. पेले ने इसकी भारी कीमत चुकाई थी. उन्हें अपनी चेतना गिरवी रखनी पड़ी थी.

 

अंक चार. 

उपसंहार - नए सवालों की ओर.

कोई भी डॉक्यूमेंट्री अपने आप में मुकम्मल नहीं होती. वो अपने पीछे बहुत सारे सवाल छोड़ जाती है. दर्शकों को कुछ सिरे थमाती है, जिसके सहारे वे अपने हिस्से का तथ्य तलाश सकें. उनके अंदर उत्सुकता का संचार करती है. पेले भी ये काम बखूबी करती है. इसे डॉक्यूमेंट्री की सफ़लता के तौर पर पेश किया जा सकता है. इसमें किसी भी तथ्य को थोपने की कोशिश नहीं की गई है. जिस भी घटना को दिखाया गया है, उसकी पुष्टि भी की गई है. इसमें पेले के अलावा उनके दोस्तों, उनके आलोचकों और इतिहासकारों का पक्ष भी दिखाया गया है. पेले का 360 डिग्री आंकलन किया गया है. उनसे कुछ मुश्किल सवाल पूछे गए हैं. भले ही पेले उनका जवाब देने में सावधानी बरतते हैं, फिर भी कुछ हद तक वो अपने हिस्से की बेबसी को बयां कर ही देते हैं. संभवत: वो अपने मन पर लदा बोझ कम करना चाह रहे हों. 

कई जगहों पर डॉक्यूमेंट्री अधूरी भी लगती है. जैसे, पेले से काउंटर-क़्वेश्चन से बचा गया है. जहां कहीं भी उनके खेल से जुड़ी बात होती है, वहां उनका गुणगान होता रहता है. किसी भी खिलाड़ी के करियर में सिर्फ चढ़ाव या सिर्फ उतार नहीं होता. पेले के खेल के दूसरे पहलू पर भी बराबर का ज़ोर रहता तो खिलाड़ी के तौर पर उनका बेहतर आकलन संभव होता.

इसके अलावा, डॉक्यूमेंट्री को पेले के रिटायरमेंट पर खत्म कर दिया गया है. जबकि वो उसके बाद भी काफ़ी एक्टिव रहे. वो ब्राज़ील के खेलमंत्री बने. उस चैप्टर को डॉक्यूमेंट्री में जगह नहीं दी गई है. एक वजह समय की कमी से जुड़ी हो सकती है.

खैर, गिनती की खामियों से इतर पेले डॉक्यूमेंट्री के तौर पर भरी-पूरी लगती है. इसको देखने के लिए फ़ुटबॉल में रुचि होना ज़रूरी नहीं है. हालांकि, आपको अपना मन-मस्तिष्क खोलकर ज़रूर आना पड़ेगा. मकसद इतना है कि संभावनाएं कायम रहनी चाहिए. ताकि हम द्वंद की भुलभुलैया में खोकर ना रह जाएं. ताकि हम रास्ता चुन सकें. और, संभव हो तो नया रास्ता तैयार भी कर सकें.

वीडियो देखें: मिर्ज़ापुर से प्रेरित वाइस इंडिया की ये क्राइम डॉक्यूमेंट्री आपको हिलाकर रख देगी!

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