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जाति व्यवस्था पर बात करने वाली वो 5 हिंदी फिल्में, जिन्हें देखकर दिमाग की नसें खुल जाएंगी

इन फिल्मों को देखकर आपको गुस्सा भी आएगा और शर्म भी.

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फिल्म 'आक्रोश', 'पार' और 'ग़ुलामी' के सीन्स में ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह-शबाना आज़मी और धर्मेंद्र.
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श्वेतांक
9 नवंबर 2021 (Updated: 10 नवंबर 2021, 13:30 IST)
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पिछले दिनों एमेज़ॉन प्राइम वीडियो पर 'जय भीम' नाम की फिल्म रिलीज़ हुई. इस फिल्म में तमिल सुपरस्टार सूर्या ने काम किया. जब से ये फिल्म आई है, इसे लेकर खूब चर्चा हो रही है. जाति व्यवस्था से लेकर पुलिस ब्रुटैलिटी तक पर ये फिल्म बात करती है. उन्हें गंभीरता से जनता के सामने रखती है. मगर इस अच्छी चीज़ में भी एक कॉम्पटीशन शुरू हो गया. पब्लिक का मानना है रीजनल सिनेमा तो बढ़िया और मीनिंगफुल कॉन्टेंट क्रिएट कर रहा है, मगर हिंदी में वही ढर्रे वाली ढीली-ढाली फिल्में बन रही हैं. हिंदी में सोशली रेलेवेंट और थॉट प्रोवोकिंग सिनेमा नहीं बनता. जो लोग ये बात कह रहे हैं, ये खबर उन्हीं के लिए है. हम उन्हें जवाब नहीं, बस सुझाव दे रहे हैं. ऐसा नहीं है कि सोशियो-पॉलिटिकल बैकड्रॉप में फिल्में नहीं बनी हैं. बस देखी नहीं गईं. आज हम आपको उन पांच हिंदी फिल्मों के बारे में बता रहे हैं, जिन्होंने जाति व्यवस्था पर तब बात करनी शुरू कर दी थी, जब इस पर बात करने को भी गलत माना जाता था.
# आक्रोश
डायरेक्टर- गोविंद निहलानी स्टारकास्ट- नसीरुद्दीन शाह, अमरिश पुरी, स्मिता पाटिल, ओम पुरी
बेसिक प्लॉट- 'आक्रोश' की कहानी अखबार के सातवें पन्ने पर छपी एक खबर से प्रेरित थी. इसी घटना के इर्द-गिर्द जाने-माने प्लेराइट विजय तेंडुलकर ने स्क्रिप्ट लिखी. फिल्म की कहानी लहानिया भीखू नाम के एक दलित किसान की है. लहानिया की पत्नी की लाश एक कुएं में मिलती है. उसकी हत्या का आरोप लहानिया पर लग जाता है. वो जेल जाता है. उसका केस लड़ने के लिए सरकार एक वकील नियुक्त करती है. वो वकील लहानिया से बात कर उसका पक्ष जानने की कोशिश करता है. जवाब में उसे खामोशी मिलती है. लहानिया, जमींदार और उसके लोगों के हाथों इतना ऑप्रेस्ड है कि उसे समझ नहीं आता कि वो किस पर यकीन करे और किस पर नहीं. उसके साथ इतनी बड़ी ट्रैजेडी हुई है कि वो अपने आसपास नॉर्मल चल रही दुनिया को हैरान आंखों से एकटक ताकता रहता है. फिल्म के लीड कैरेक्टर के मुंह से पहला शब्द आपको आधी फिल्म बीत जाने के बाद सुनने को मिलता है. वो भी फ्लैशबैक की मदद से.
लहानिया के साथ जो कुछ भी हो रहा है, उसमें उसकी गलती सिर्फ इतनी है- कि वो दलित है. ये फिल्म देश में दलितों की स्थिति और समाज में उनको मिल रहे ट्रीटमेंट के बारे में बात करते हुए इंडिया के जूडिशियल सिस्टम पर कटाक्ष करती है. फिल्म के आखिर में एक सीन है, जहां अपने पिता के दाह संस्कार के दौरान लहानिया कुल्हाड़ी से अपनी बहन की हत्या कर देता है. फिर चिल्लाता है. इतनी जोर से चिल्लाता है कि उसकी आवाज सिर्फ आपके कान नहीं, बल्कि दिलों-दिमाग को भी सुन्न कर देती है. क्योंकि आपको लहानिया के उस कृत्य के पीछे की वजह पता होती है.
'आक्रोश' को आप यूट्यूब पर देख सकते हैं.

# सद्गति
डायरेक्टर- सत्यजीत रे स्टारकास्ट- ओम पुरी, स्मिता पाटिल, मोहन आगाशे
बेसिक प्लॉट- सत्यजीत रे ने अपने करियर में सिर्फ दो हिंदी फिल्में बनाईं. पहली थी 1977 में आई 'शतरंज के खिलाड़ी' और दूसरी वो फिल्म जिस पर हम अभी बात कर रहे हैं- 'सद्गति'. मुंशी प्रेमचंद की लघुकथा पर सत्यजीत रे ने फिल्म बनाई. मगर ये फीचर लेंथ नहीं, 45 मिनट की टेलीफिल्म थी. ये कहानी है दुखिया नाम के व्यक्ति की. वो अपनी बिटिया की सगाई की तारीख निकालने के लिए गांव के ब्राह्मण को अपने घर लाना चाहता है. मगर उसे पंडित जी के घर में घुसने की इजाज़त नहीं है. क्योंकि वो कथित तौर पर नीची जाति का है. जब वो पंडित जी के घर पहुंचता है, तो उससे अपने घर के छोटे-बड़े काम करवाते हैं. तय ये होता है कि जब दुखिया बाहर पड़ी एक बड़ी लकड़ी का टुकड़ा काट देगा, तब पंडित जी उसके घर जाएंगे. मगर सुबह से खाली पेट काम में लगा दुखिया, उस लकड़ी को काटते हुए दम तोड़ देता है. जब आप ये फिल्म देख रहे होते हैं, तो आपको अपनी नज़रों के सामने ये सबकुछ होता देख बड़ी खीझ होती है. मगर हैरानी की बात ये कि असली खेल इस सीन के बाद शुरू होता है.
पंडित जी बीइंग पंडित जी, वो उसकी बॉडी को हाथ नहीं लगा सकते. छुआछूत और तमाम तरह के पाखंड. गांव के दूसरे लोग उनसे आकर ये शिकायत करते हैं कि बॉडी को जल्दी रास्ते से हटवाइए. क्योंकि जब तक वो निचली जाति के उस शख्स की बॉडी नहीं हटेगी, तब तक वो वहां से पानी भरने नहीं जा सकते. 'अक्टूबर' फिल्म में एक डायलॉग है, जब डैन शिउली के लिए अस्पताल के चक्कर लगा रहा होता है. उसके दोस्त उससे कहते हैं कि वो कुछ ज़्यादा ही अफेक्टेड हो रहा है. इसके जवाब में डैन कहता है- 'तुम लोग इतने अन-अफेक्टेड कैसे हो?'
'सद्गति' के इस सीन को देखकर आपके जहन में सिर्फ एक बात आती है कि ये लोग इतने अन-अफेक्टेड कैसे हैं. इन्हें फर्क क्यों नहीं पड़ रहा कि सामने एक आदमी की लाश पड़ी है. वो आदमी इनकी गलती से मरा है. मगर ये अब भी उस जान की कीमत समझने की बजाय, उसे रास्ते से हटाकर अपनी दिनचर्या पूरी करना चाहते हैं. ये कौन सी व्यवस्था है, जिसकी कीमत किसी इंसान की जान से ज़्यादा है. ये तमाम तरह के सवाल आपके दिमाग में अचानक से आने लगते हैं. फिर आपको रियलाइज़ होता है कि ये 40 साल पुरानी फिल्म है. फिर आपका दिमाग ये सोचकर भन्ना जाता है कि हमारे देश के कुछ हिस्सों में अब भी इस तरह की चीज़ें आम बात हैं.
'सद्गति' को आप यूट्यूब पर देख सकते हैं.

# पार
डायरेक्टर- गौतम घोष स्टारकास्ट- नसीरुद्दीन शाह, शबाना आज़मी, उत्पल दत्त
बेसिक प्लॉट- 'पार' समरेश बासु की कहानी 'पारी' पर बेस्ड है. ये कहानी है बिहार में रहने वाले एक कथित निचली जाति के लेबर नौरंगिया और उसकी पत्नी रमा की. जमींदार और उसके परिवार के लोग गांव के लोगों को सताते रहते हैं. जो भी उनके खिलाफ आवाज़ उठाने की कोशिश करता है, आवाज़ के साथ-साथ उसे उठाने वाले को भी कुचल दिया जाता है. एक ऐसी ही घटना के बाद नौरंगिया अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर जमींदार के छोटे भाई की हत्या कर देता है. अगर जमींदार ने नौरंगिया को छोड़ दिया, तो कल को दूसरे कथित निचली जाति के लोग भी उसके खिलाफ आवाज़ उठाना शुरू कर देंगे. वो नौरंगिया और उसकी पत्नी को खोजने के लिए जमीन-आसमान एक कर देता है. नौरंगिया के पास फरार होने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता. वो अपनी प्रेग्नेंट पत्नी को साथ लेकर कलकत्ता पहुंचता है.
यहां उसका सामना बड़े शहर की असलियत से होता है. फुटपाथ की ज़िंदगी और भूख से लंबी लड़ाई के बाद ये जोड़ा वापस अपने गांव जाने का फैसला करता है. मगर उनके पास इतने पैसे नहीं हैं कि वो वापस जा पाएं. बड़े जतन के बाद एक काम मिलता है. उन्हें सुअरों के एक झुंड को नदी पार करवानी है. ये सीन अपने आप में इतना ह्रदय विदारक है कि आप भीतर तक ठंडे पड़ जाते हैं. किसी भी तरह उस जोड़े को सुअरों के साथ सही-सलामत नदी पार करते देखना चाहते हैं. तब आपको सिनेमा नाम के माध्यम की गंभीरता महसूस होती है. फिल्म के आखिर में एक सीन है, जहां नदी पार करने के बाद नौरंगिया अपनी पत्नी के पेट पर कान रखकर अपने बच्चे की धड़कन सुनता है. और तब जाकर उसके साथ-साथ आप भी राहत की सांस लेते हो. यहां बात उस घिनौने कास्ट सिस्टम की है, जो लोगों को इस हद तक मजबूर और परेशान कर देता है. कास्ट एक ऐसी चीज़ है, जो आपके कंट्रोल में नहीं है. आप उसके बेसिस पर सुपीरियर और कमतर कैसे हो सकते हैं? कोई आपको उसके आधार पर मिसट्रीट कैसे कर सकता है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब भारत का एक बड़ा तबका आज भी ढूंढ़ रहा है.
'पार' को आप यूट्यूब पर देख सकते हैं.

# ग़ुलामी
डायरेक्टर- जे.पी. दत्ता स्टारकास्ट- धर्मेंद्र, मिथुन नसीरुद्दीन शाह, स्मिता पाटिल, रीना रॉय, कुलभूषण खरबंदा
बेसिक प्लॉट- 'बॉर्डर' फेम जे.पी. दत्ता ने अपने करियर की शुरुआत 'ग़ुलामी' जैसी मीनिंगफुल फिल्म से की थी. ये फिल्म एक तरह से मेनस्ट्रीम और ज़मीनी मसलों का संगम थी, जिसे दर्शकों तक पहुंचाने का जिम्मा धर्मेंद्र जैसे पॉपुलर स्टार को दिया था. फिल्म की कहानी रंजीत नाम के एक बच्चे की है, जो किसानों के परिवार से आता है. लोकल ज़मींदार ठाकुर के लड़के उसे स्कूल में बुली करते हैं. इन चीज़ों से परेशान होकर रंजीत गांव छोड़कर शहर चला जाता है. अपने पिता की मौत की खबर सुनकर रंजीत गांव वापस लौटता है. यहां उसे पता चलता है कि ठाकुर ने उसके पिता के इलाज के लिए कुछ पैसे उधार दिए थे. अब रंजीत को वो पैसे ठाकुर को वापस करने होंगे, नहीं तो वो उसका घर ले लेंगे. रंजीत को लगता है कि ये तो बड़ी नाइंसाफी है. कई पीढ़ियों से उसके घरवाले ठाकुर के खेत में अन्न उगा रहे हैं. ज़मीन भले ठाकुर की है, मेहनत तो उसके पिता करते थे. ऐसे में ठाकुर उसका घर कैसे ले सकता है. क्रांति शुरू हो जाती है. मगर ये फिल्म बड़े निराशाजनक तरीके से खत्म होती है. या यूं कहें कि रियलिटी के करीब रहती है. आखिर में हमें ये बताया जाता है कि सिस्टम और उसके तरीके जैसे थे, वो यूं ही बने रहते हैं. मगर उनसे लड़ने वाला हमेशा खेत हो जाता है.
'ग़ुलामी' को आप यूट्यूब पर देख सकते हैं.
फिल्म 'ग़ुलामी' के पोस्टर पर धर्मेंद्र, नसीरुद्दीन शाह, मिथुन और कुलभूषण खरबंदा.
फिल्म 'ग़ुलामी' के पोस्टर पर धर्मेंद्र, नसीरुद्दीन शाह, मिथुन और कुलभूषण खरबंदा.


# सुजाता
डायरेक्टर- बिमल रॉय स्टारकास्ट- नूतन, सुनील दत्त, ललिता पवार, सुलोचना लाटकर
बेसिक प्लॉट- 1959 में आई 'सुजाता' को आज भी हिंदी सिनेमा के क्लासिक्स में गिना जाता है. ये बेसिकली एक लव स्टोरी है. मगर इसका सोशल एंगल इस फिल्म को खास बनाता है. ब्राह्मण जोड़ा उपेन और चारू कथित निचली जाति की लड़की सुजाता को गोद लेते हैं. दोनों उसे अपनी बेटी की तरह पालते हैं. मगर चारू के लिए सुजाता हमेशा 'बेटी जैसी' ही रहती है. बेटी नहीं बन पाती. सुजाता को एक कथित ऊंची जाति के लड़के अधीर से प्रेम हो जाता है. एक बार चारू सीढ़ियों से गिर जाती है. आनन-फानन में उसे अस्पताल ले जाया जाता है. चारू की जान बचाने के लिए रेयर ब्लड ग्रुप के खून की ज़रूरत पड़ती है. बहुत ढूंढने के बाद पता चलता है कि चारू और सुजाता का ब्लड ग्रुप सेम है. ठीक होने के बाद चारू को पता चलता है कि सुजाता के खून की वजह से उसकी जान बची, तो उसे अपनी बेटी के रूप में स्वीकार कर लेती है. फिल्म के आखिर में अधीर और सुजाता की शादी हो जाती है.
आज के समय में बड़ा घिसा-पिटा कॉन्सेप्ट लग सकता है. मगर जब ये फिल्म आई थी, तब इसे दुनियाभर के क्रिटिक्स ने सराहा. इसे प्रतिष्ठित कान फिल्म फेस्टिवल में भेजा गया. क्योंकि ये उस कास्ट सिस्टम को रियलिस्टिक तरीके से सामने लाकर रखती है, जिससे इंडियन सोसाइटी जूझ रही थी.
'सुजाता' को आप यूट्यूब पर देख सकते हैं.

ये तो वो हिंदी फिल्में हो गईं, जिसके बारे में हम बात कर पाए. जिनके विमर्श को हम आपके सामने रख पाए. 'समर', 'मृगया', 'अंकुर', और पिछले दिनों आई आयुष्मान खुराना की 'आर्टिकल 15' कुछ ऐसी फिल्में हैं, जो जाति व्यवस्था पर बात करती हैं. अगर हिंदी भाषा से इतर बात करें, तो तमिल फिल्म 'सारपट्टा परंबरै', 'परियेरम पेरुमल', 'असुरन', मराठी भाषा की 'फैंड्री' और 'सैराट'; मलयाली भाषा की 'पेरारियातवर' कुछ ऐसी फिल्में हैं, जो कथित निचली जाति और उसके लोगों को संघर्ष को बड़े सहज तरीके से हमारे सामने रखती हैं. उन फिल्मों के बारे में आप यहां क्लिक करके
पढ़ सकते हैं.

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