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लियो - मूवी रिव्यू

'लियो' फिल्म की सारी अच्छी बातें फर्स्ट हाफ के पाले में जाकर गिरती हैं. कमज़ोर क्लाइमैक्स और भुला देने लायक विलन 'लियो' की कोई मदद नहीं करते.

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लोकेश कनगराज और विजय इससे पहले 'मास्टर' भी बना चुके हैं.
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यमन
19 अक्तूबर 2023 (Published: 15:01 IST)
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लोकेश कनगराज की फिल्म ‘लियो’ रिलीज़ हो गई है. कैसी है फिल्म, ये LCU का हिस्सा है या नहीं, इस पर बात करेंगे. अंत तक रिव्यू पढ़ने पर आपको एक सरप्राइज़ कैमियो के बारे में भी बताएंगे. 
कहानी का हीरो है पर्तीवन. एक टिपिकल फैमिली मैन. बीवी और दो बच्चों के साथ हिमाचल प्रदेश में रहता है. वहां खुद का एक कैफे चलाता है. लाइफ सही चल रही होती है कि एक दिन अचानक उसके कैफे में कुछ गुंडे घुस जाते हैं. अपने और अपनी बेटी के बचाव में शांतिप्रिय पर्तीवन, सिगरेट की गंध से दूर भागने वाला पर्तीवन उन गुंडों को बेरहमी से मार डालता है. अदालत से माफी मिल जाती है लेकिन इस घटना के बाद पर्तीवन हीरो बन जाता है. देशभर में उसके कारनामे की खबर फैल जाती है. इसी के बाद शुरू होती हैं मुसीबतें. उसके पीछे कुछ लोग पड़ जाते हैं. उनका कहना है कि वो पर्तीवन नहीं बल्कि लियो है. ऐसे ही लोगों का मुखिया है एंटनी दास, जिसका रोल संजय दत्त ने किया. लियो कौन है, पर्तीवन का उससे क्या कनेक्शन है, यही आगे की कहानी है. 

# मास मोमेंट्स कहां हैं?

लोकेश कनगराज ने इससे पहले ‘कैथी’, ‘मास्टर’ और ‘विक्रम’ जैसी फिल्में बनाई हैं. उन सभी फिल्मों में एक बात कॉमन थी – मास मसाले वाले मोमेंट्स. ऐसे सीन्स जहां लोग चिल्ला-चिल्लाकर बगल वाले के कान के परदे फाड़ डालते हैं. ‘लियो’ के नंबर उस मामले में कम पड़ते हैं. फिल्म में भरपूर मात्रा में खून-खराबा है. जबड़े टूट रहे हैं. हड्डियां चूर हो रही हैं. मेकर्स ने हिंसा दिखाने में पूरी लिबर्टी ली है. उसके बावजूद भी वो ज़्यादा मासी सीन नहीं बना पाए. फिल्म में एक एक्शन सीन है, जो मेरे लिए स्टैंड आउट करता है. कैफे वाला फाइट सीन. 

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लोकेश कनगराज के यूनिवर्स की सबसे कॉमन थीम - पिता और बच्चे की बॉन्डिंग.

पर्तीवन अपनी बेटी के साथ कैफे में है. उसे पुराने गानों पर डांस कर के दिखा रहा है. दुकान बंद हो चुकी है. इतने में एक शख्स ज़बरदस्ती अंदर घुस आता है. उसकी सहकर्मी से बदतमीज़ी करता है. ज़िद कर के एक चॉकलेट कॉफी मांगता है. बात बढ़ती है और पर्तीवन उसकी गैंग को तोड़ना शुरू कर देता है. इस पॉइंट पर बैकग्राउंड में अभी भी पुराने गाने बज ही रहे हैं. कैफे की हवा भले ही बदल गई लेकिन उसका माहौल पहले जैसा ही बना रहा. एक जगह पर लड़ाई के बीच एक गुंडा दूसरे को कॉफी पर ही ताना भी मारता है. इस सीन की खासियत सिर्फ खून गर्म कर देने वाला एक्शन ही नहीं था. बल्कि उस पूरी मारधाड़ के अगल-बगल वाली दुनिया को भी उतना ही जीवंत रखा गया. 

लोकेश कनगराज के यूनिवर्स में एक और बात लगातार दिखती है. पिता और बच्चे का रिश्ता. ‘कैथी’ में दिल्ली अपनी बच्ची से मिलना चाहता था. ‘विक्रम’ में कमल हासन का किरदार अपने बेटे का बदला लेता है. ‘लियो’ में भी विजय के कैरेक्टर का अपनी बेटी से खास लगाव रहा है. मुसीबत की घड़ी में वो सबसे पहले ये सुनिश्चित करना चाहता है कि उसकी बच्ची सुरक्षित है या नहीं. दोनों के बीच एक छोटा सा सीन है, जहां देखकर लगता है कि पर्तीवन यहां बच्चा है और उसकी बेटी उम्र से पहले समझदार हो गई. ये इमोशन रिपीट होने के बाद भी लैंड करते हैं. फिल्म की तमाम अच्छी बातें फर्स्ट हाफ के पाले में पड़ती हैं. 

# कमज़ोर क्लाइमैक्स और फरगेटेबल विलन 

KGF चैप्टर 2 के बाद संजय दत्त यहां भी विलन बने हैं. दुख की बात ये है कि दोनों फिल्मों ने उन्हें कायदे से इस्तेमाल नहीं किया. उनके और विजय के बीच ऐसा एक सीन नहीं है, जिसे यादगार या आइकॉनिक की श्रेणी में रखा जा सके. विजय के पास एंटनी से लड़ने का मोटिव भी है. फिर भी लोकेश दोनों के बीच वो फ्रिक्शन नहीं पैदा कर सके. फिल्म की लंबाई भी कम की जा सकती थी. कुछ ऐसे सीन भी थे, जिन्हें जगह मिलनी चाहिए थी. जैसे एक जगह पर्तीवन का बेटा अपने पिता के साथ मिलकर लड़ता है. अगले सीन में हम उसे अपने पिता से ही नाराज़ देखते हैं. इस बदलती बॉन्डिंग को समय देकर दिखाया जा सकता था. 

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इतना खूब-खराबा दिखाने के बाद भी फिल्म के हिस्से ज़्यादा मज़बूत एक्शन सीन्स नहीं आए. 

हमारे यहां फर्स्ट हाफ और सेकंड हाफ के हिसाब से फिल्में बनती हैं. आप फर्स्ट हाफ में चाहे ऑडियंस को पकड़कर रखें लेकिन सेकंड हाफ में ढील दे दी, तो पतंग के कन्ने कट जाएंगे. ‘लियो’ कुछ ज़्यादा ही ढील दे देती है. फिल्म का प्री-क्लाइमैक्स और क्लाइमैक्स दोनों ही अपना काम नहीं कर पाते. ऐसे सीन बनकर रह जाते हैं, जहां बस आप आंखों के सामने कुछ घटते हुए देख रहे हैं. कोई थ्रिल नहीं पैदा होता. सीट के कोने पर आकर बैठ जाने का जी नहीं करता. दुरुस्त क्लाइमैक्स फिल्म को अलग लेवल पर ले जा सकता था. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. 

अनुराग कश्यप ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि मुझे बस लोकेश कनगराज की फिल्म में मरना है. वो लोगों को बहुत स्टाइलिश तरीके से मारते हैं. अनुराग की इच्छा इस फिल्म में पूरी हुई है. कैसे, वो जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी. 

वीडियो: मूवी रिव्यू : 'जेलर'

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