कबीर सिंह: मूवी रिव्यू
It's not the goodbye that hurts, but the flashbacks that follows.
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प्रोलॉग
खुसरो दरिया प्रेम का उलटी वाकी धार, जो उबरा सो डूब गया, जो डूबा वो पार.'कबीर सिंह' फिल्म की शुरुआत बैकग्राउंड (नेपथ्य) में चल रहे खुसरो के इस दोहे से होती है. नेपथ्य में अगर ये दोहा है तो स्क्रीन में आपको कबीर सिंह (शाहिद कपूर) और प्रीति सिक्का (कियारा आडवाणी) दिखाई देते हैं. एक दूसरे में पूरी तरह खोए हुए, डूबे हुए...
जो उबरा सो डूब गया, जो डूबा वो पार.यही सीन फिल्म का लास्ट सीन भी है. लेकिन अबकी नेपथ्य में खुसरो नहीं है.
कहानी
मैं जा रही हूं – उसने कहा जाओ – मैंने उत्तर दिया यह जानते हुए कि जाना हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है.केदारनाथ की ये कविता ‘कबीर सिंह’ का आधे से ज़्यादा सार है.
कबीर सिंह को गुस्सा क्यूं आता है?
कबीर (शाहिद कपूर) दिल्ली के एक मेडिकल स्कूल में फाइनल इयर का स्टूडेंट है. बहुत ज़्यादा इंटेलिजेंट है, लेकिन थोड़ा गुस्सैल है. आई मीन बहुत गुस्सैल है. और उसका ये अग्रेशन मूवी के पहले कुछ सीन्स में ही अच्छे से समझ आ जाता है. कॉलेज का डीन (आदिल हुसैन) भी कबीर को चेताते हुए कहता है-
एक गुस्से वाला सर्जन अपने सर्जिकल ब्लेड के साथ क़ातिल सरीखा है.इस गुस्सैल कबीर को फर्स्ट इयर की स्टूडेंट प्रीति सिक्का (कियारा आडवाणी, लस्ट स्टोरीज़) से पागलपन की हद तक प्रेम हो जाता है. इसके बाद जो होता है वो केदारनाथ की कविता नहीं, फिल्म में कबीर के पिता का डायलॉग ज़्यादा जस्टिफाई करता है-
It's not the goodbye that hurts, but the flashbacks that follows. (विदा उतनी कष्टकारी नहीं होती, जितनी उसके बाद आने वाली यादें.)संदीप वांगा, किअरा आडवाणी, शाहिद कपूर, भूषण कुमार.
बाई दी वे सुरेश ओबेरॉय वही हैं, जिन्हें मिर्च मसाला के लिए बेस्ट सपोर्टिंग ऐक्टर का नेशनल अवॉर्ड मिला था. विवेक ओबेरॉय के पिताजी.
हां तो, जैसा कबीर की दादी (कामिनी कौशल) कहती हैं-
हर किसी को अपने कष्ट खुद ही सहने पड़ते हैं.कबीर भी 75% मूवी में यही करता पाया जाता है. इसीलिए वो उन सब चीज़ों का सहारा लेता है, जो हमारे समाज में ‘बुरी’ या ‘वर्जित’ से लेकर ‘पाप’ तक की कैटगरी में आती हैं. सिगरेट, शराब, सेक्स, ड्रग्स, लड़ाई-झगड़ा, प्रफेशनल गलतियां. लेकिन इन सबके बावज़ूद शुरुआत और आखिर के सीन में जो समानता है वो क्यूं है, ये जानने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी.
दी गुड
नॉन लीनियर फॉर्मेट की ये स्क्रिप्ट 2017 में आई अर्जुन रेड्डी की ऑफिशल रीमेक है. नॉन लीनियर बोले तो, कभी मूवी फ़्लैशबैक में जाती है तो कभी आज के दौर में. लेकिन ये एडिटिंग की सफलता ही कही जाएगी कि फिल्म में ये बैक-एंड-फोर्थ बड़े स्मूथली होते हैं.कई कैमरा ऐंगल और ओवर-ऑल सिनेमेटॉग्रफी बिलकुल यूनिक न होते हुए भी काफी हद तक क्रिएटिव है.
कैमरा ऐंगल्स, कलर, टेक्स्टचर रामगोपाल वर्मा से इंस्पायर्ड हैं क्या?
फिल्म में एक और पॉज़टिव बात ये है कि इसमें ह्यूमर ठीक वहां पर है, जहां पर मूवी अन्यथा बोरिंग या डार्क हो सकती थी. फिर चाहे वो सीन हो जहां पर कबीर, प्रीति की बेइज्ज़ती कर रहा है, या फिर हर वो सीन जहां कबीर बुरे फेज़ से गुज़र रहा है.
जिन्होंने डूब के प्रेम किया है, उन्हें शाहिद-कियारा के बीच के कई सीन, कई डायलॉग बहुत करीब लगेंगे, रियल लगेंगे. मैं विशेष तौर पर उस सीन के बारे में बात करना चाहूंगा जिसमें कियारा, शाहिद के घर पहुंच जाती है और फिर उसके बेडरूम. यहां पर दोनों के बीच की केमिस्ट्री देखते ही बनती है.
अगर किसी ऐक्टर को जज करना हो, तो किसी शोर-शराबे वाले उत्तेजक सीन की बजाय नॉर्मल सीन में उसके एक्सप्रेशन, उसकी ऐक्टिंग देखनी चाहिए. मूवी के क्लाइमेक्स में कियारा यही करती हैं और बखूबी करती हैं.
मसूरी की बर्फ और बैकग्राउंड म्यूज़िक के रूप में एक रोमांटिक 'दो गाना'.
शाहिद तो खैर इसमें ‘इन ऐंड एज़’ हैं तो उनकी ऐक्टिंग तो अच्छी होनी ही थी. है भी. उनकी ऐनर्जी, उनका गुस्सा और वो सारी चीज़ें जो इस किरदार के लिए ज़रूरी थीं, उन सब चीज़ों पर शाहिद ने निश्चित तौर पर मेहनत की और वो स्क्रीन पर दिखती है. गुस्से में अगर गर्दन की नसें फूल जाएं, तो मान के चलिए कि मेहनत की गई है.
दी नॉट सो गुड
अगर आपने अर्जुन रेड्डी देखी है, तो ये हिंदी रीमेक आपको थोड़ी माइल्ड लगेगी. कारण कि अबकी टारगेट ऑडियंस दूसरी है और ज़्यादा है.मूवी के अपने मोमेंट्स हैं, लेकिन इस दौरान फिल्म स्ट्रेच होती लगती है. ऑरिजनल मूवी (अर्जुन रेड्डी) की सफलता से प्रेरित होकर कबीर सिंह के डायरेक्टर संदीप वांगा (जो अर्जुन रेड्डी के भी डायरेक्टर हैं) ने भी सीन-दर-सीन उसे दुहराना ही एक कैलकुलेटेड रिस्क जाना. कबीर के पेट डॉग की ब्रीड हो, कॉलेज में नई आई लड़कियों का एक लाइन में चलना हो या फुटबॉल ग्राउंड के बगल से ट्रेन का गुज़रना, सब कुछ सेम टू सेम है...
जहां फिल्म ‘तेरे नाम’ का हैपी एंडिंग वर्ज़न कही जा सकती है, वहीं कियारा का किरदार 'तेरे नाम' की निर्जरा की लगभग कॉपी लगता है. रैगिंग वाले दौर में तो ख़ास तौर पर.
फिल्म में हीरो का दोस्त बॉलिवुड के हिसाब से बहुत क्लिशे है, ऐसा ही तो 'तेरे नाम' सरीखी कई फिल्मों में होता है. हां मगर सोहम मजूमदार ने इस रोल को निभाया बड़ी ख़ूबसूरती से है. हमेशा तो नहीं, लेकिन कई बार कॉमिक रिलीफ भी लेकर आए हैं.
दस अंतर ढूंढो?
फिल्म में म्यूज़िक और बैकग्राउंड म्यूज़िक कई बार एक दूसरे की जगह लेते हैं. दोनों ही ग्राउंड-ब्रेकिंग तो बेशक नहीं हैं, लेकिन सुनने में बुरे भी नहीं. ज़्यादातर गीतों को बैकग्राउंड म्यूज़िक के रूप में उपयोग में लाया गया है, जैसा हॉलीवुड फिल्मों में देखने को मिलता है. मने लिप सिंक वाला हिसाब-किताब नहीं है. बेख्याली में भी तेरा ही खयाल आए, 'क्यूं बिछड़ना है ज़रूरी?' ये सवाल आए - गीत के लिरिक्स अच्छे हैं.
दी बैड
लस्ट स्टोरी में बड़ा ही बोल्ड किरदार कर चुकी कियारा का बहुत छोटा रोल है. लेकिन ये नेगेटिव बात नहीं है. रोल महत्वपूर्ण होना चाहिए. नेगेटिव बात तो दरअसल ये है कि उसे अपने प्रेमी द्वारा ऑप्रेस्ड दिखाया गया है. और दुखद रूप से ये कन्विंसिंग भी लगता है. ये किरदार इतना कमज़ोर है कि आपको इरिटेशन की हद तक चुभता है.2004 में जब ‘धूम’ आई थी, तो इंडिया में बाइक कुछ ज़्यादा ही तेज़ दौड़ने लगी थीं. ‘मैंने प्यार किया’ के बाद फ्रेंड्स वाली कैप की बिक्री में अचानक उछाल आ गया था. 'शक्तिमान' के चलते बच्चों का छतों से कूदने का सिलसिला चल पड़ा था. कहना गलत है कि क्वेंटिन टेरेंटिनो की मूवीज़ से अपराध को बढ़ावा नहीं मिलता. लोग कहते हैं कि स्क्रिप्ट की मांग है...
हर कोई जॉन अब्राहम हो गया था.
लेकिन फिर भी इतना ज़्यादा? इस हद तक? ड्रग्स, सिगरेट, शराब, सेक्स? वो भी एक डॉक्टर के द्वारा? जहां एक फिल्म में ये सब इतना कन्विंसिंग होना क्राफ्ट के लिहाज़ से पूरे अंक बटोरता है, वहीं दूसरी तरफ सोशल रिस्पांसिबिलिटी के नाम पर ठीक उतने ही अंक पाता है जितना कबीर ‘एंगर मैनेजमेंट’ में.
एपीलॉग
फिल्म देखने जाइए. क्यूंकि बेशक इसमें आर्ट तो नहीं है, लेकिन इसके बेहतरीन क्राफ्ट का लुत्फ़ उठाइए. फिल्म देखने जाइए, लेकिन तभी जब आप कन्विंस है कि फिल्म से कन्विंस नहीं होंगे.वीडियो देखें:
दिया मिर्ज़ा ने 'रहना है तेरे दिल में' के बारे में बताया एक दिलचस्प किस्सा-